Tuesday 29 December 2015

संत की उपाधि के मायने क्या है?

मदर टेरेसा को अगले साल रोमन केथोलिक चर्च की संत की उपाधि से नवाज़ा जायेगा वेटिकन और मिशनरीज़ आफ चेरिटी ने पॉप फ्रांसिस द्वारा मदर टेरेसा के दुसरे चमत्कार को मान्यता देने के लिए शुकवार को इसका घोषणा की| 21 सदी में भी अंधविश्वास में डूबे इसाई समुदाय के अनुसार पहला चमत्कार कई साल पहले कोलकाता में और दूसरा चमत्कार ब्राजील में एक रोगी के ठीक होने से जुड़ा है| पिछले कुछ वर्षो में अंधविश्वास पर बारीकी से अध्यन करने के बाद एक बात सामने आई है कि कोई भी मजहब या समप्रदाय हो इस प्रकार की हरकते होती रही है और आगे भी होती रहेगी जब तक कि आम जनता अपने कर्मो पर विस्वास करने की बजाय बाबाओ, संतो माताओं, देवियों आदि के चक्कर में पड़ी रहेगी|
“हो सकता है मदर टेरेसा की सेवा अच्छी रही होगी परन्तु इसमें एक उद्देश्य हुआ करता था कि जिसकी सेवा की जा रही है उसका इसाई धर्म में धर्मांतरण किया जाये|” सवाल सिर्फ धर्मांतरण का नहीं है लेकिन अगर यह (धर्मांतरण) सेवा के नाम पर किया जाता है तो सेवा का मूल्य खत्म हो जाता है| जहाँ सेवा का मूल्य चुकाना पड़ता हो वहां धर्म नहीं व्यापार होता है और ऐसा करने वाले को संत नहीं व्यापारी कहा जा सकता है? जिसका जिन्दा उदहारण सुसान शील्ड्स के अनुसार जो मदर टेरेसा के साथ नौ साल तक काम किया सुसान टेरेसा की चेरिटी में आये दान का हिसाब-किताब रखती थी| जो लाखो रुपया दीन-हीनों की सेवा में लगाया जाना था वह न्यूयार्क के बेंक खातों में पड़ा था| यदि कोई गरीब दर्द से कराहता तो मदर टेरेसा उसे दवाई देने की बजाय अंधविश्वास के घुट पिलाती थी वह रोगी को कहती जीसस को याद करो वो तुम्हारे चुम्बन ले रहा है आदि आदि
मदर टेरेसा ऐसा क्यों चाहती थी इसका जबाब 1989 में मदर टेरेसा ने खुद टाइम मैगज़ीन को दिए एक इंटरव्यू में दिया था|
प्रश्न- भगवान् ने आपको सबसे बड़ा तोहफा क्या दिया है?
मदर टेरेसा- गरीब लोग
प्रश्न –भारत में आपकी सबसे बड़ी उम्मीद क्या है ?
मदर टेरेसा – सब तक जीसस को पहुंचाना
क्या यही वजह है कि गरीब लोग जल्दी भय, चमत्कार और धन की लालसा में अपनी मूल परम्पराओं अपने धर्म से विमुख हो जाते है उनकी जीवनी लिखने वाले नवीन चावला खुद स्वीकार करते है कि मदर टेरेसा ने खुद कहा था कि मै कोई समाज सेविका नहीं हूँ मेरा काम जीसस की बातों को लोगों तक पहुँचाना हैं|
मदर टेरेसा की इसाई धर्म में आस्था बेहद गहरी थी जीसस के प्रति उनका समर्पण उन्हें कोलकाता खींच लाया था कालीघाट इलाके से शुरू हुआ धर्मपरिवर्तन ये खेल मदर टेरेसा के लिए बेशुमार शोहरत और धन लेकर आया गरीब लोगों से उनका यह झूठा प्रेम अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रकार क्रिस्टोफर हिचेन्स ने मदर टेरेसा के सभी क्रियाकलापों पर विस्तार से रोशनी डालते हुए एक किताब हेल्स एंजेल्स (नर्क की परी) इसमें उन्होंने कहा है कि कैथोलिक समुदाय विश्व का सबसे ताकतवर समुदाय है, जिन्हें पॉप नियंत्रित करते है| चैरिटी चलाना,धर्म परिवर्तन आदि इनका मुख्य काम है टेरेसा की मौत के बाद पॉप जॉन पॉल को उन्हें संत घोषित करने की बेहद जल्दबाजी हो गयी थी हो सकता है इसका मुख्य कारण भारत में बड़े पैमाने पर धर्मांतरण किया जाना रहा हो?
बहरहाल इस मामले पर प्रश्न इतना है कि यह इसाई समुदाय का अपना व्यक्तिगत मामला ना होकर धार्मिक व्यस्था पर प्रश्न चिन्ह बन जाता कि क्या दो संयोग हो जाने पर किसी को संत घोषित किया जा सकता है? मनुष्य ईश्वर की बनाई व्यस्था को संचालित कर उसके वजूद को टक्कर दे सकता है? यदि मदर टेरेसा को याद करने से दो रोगी ठीक हो सकते है तो समूचे विश्व में अस्पतालों की जरूरत क्या है? हर जगह टेरेसा का फोटो टांग दो मरीज ठीक हो जाया करेंगे| या फिर भारत में और अंधविश्वास को बढ़ावा देने की योजना है?  वैसे देखा जाये तो पिछले कुछ सालों में भारत के अन्दर भी कोई दो ढाई करोड़ लोग संत शब्द का इस्तेमाल करने लगे है पर सही मायने में यह संत शब्द का अपमान है| क्योंकि आजीवका या शोषण चाहें धार्मिक हो, आर्थिक हो, या मानसिक हो करने वाला संत नहीं हो सकता! हमारी वेटिकन सिटी से अपील है अब धर्म और अपनी मान्यताओं के नाम पर और अधिक अन्धविश्वास को ना बढ़ाये


rajeev choudhary 

Thursday 24 December 2015

क्या लेकर आये थे क्या लेकर जाओंगे?

हम सब लम्बे समय से सुनते आये है कि क्या लेकर आये थे क्या लेकर जाओंगे किन्तु बहुत कम लोग देखे सुने जिन्होंने इस वाक्य को जीवन में उतारा और जिन लोगों ने इस वाक्य को जीवन का आधार वाक्य बना लिया वो ही इस दुनिया में अमर हो गये क्योंकि अंततः यह सिद्ध है कि क्या लेकर आये थे क्या लेकर जाओंगे?
23 दिसम्बर को 89 वां स्वामी श्रद्धानन्द जी का बलिदान दिवस हमे बार-बार यहीं प्रेरणा दे रहा है कि दानी तो ना जाने कितने हुए किन्तु जमाना उनके सामने झुका जो यहाँ अपना सब कुछ अर्पण कर गये| एक ऐसी ही हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी थे सन 1856 को पंजाब के जालंधर जिले के तलवन गाँव में जन्मे मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) के निराशापूर्ण जीवन में आशा की क्षीण प्रकार रेखा उस समय उदय हुई, जब बरेली में उन्हें स्वामी दयानन्द का सत्संग मिला| स्वामी जी के गरिमामय चरित्र ने उन्हें प्रभावित किया| उस समय जहाँ भारतवर्ष के अधिकतर नवयुवक सिवाय खाने-पीने, भोगने और उसके लिए धनसंचय करने के अलावा अपना कुछ और कर्तव्य ना समझते थे गुलामी में जन्म लेते थे और उस दासता की अवस्था को अपना भाग्य समझकर गंदगी के कीड़ों की तरह उसी में मस्त रहते थे उस समय आर्यावर्त की प्राचीन संस्कृति का सजीव चित्र खींचकर न केवल आर्यसंतान के अन्दर ही आत्मसम्मान का भाव उत्पन्न किया अपितु यूरोपियन विद्वानों को भी उनकी कल्पनाओं की असारता दिखाकर चक्कर में डाल दिया| जिस समय लोग राजनैतिक और धार्मिक दासता का शिकार थे| जिस समय लोग दुर्व्यसनो में लीन थे उस समय स्वामी श्रद्धानन्द जी ने लोगों को आत्मचिंतन, राष्ट्रचिन्तन करना सिखाया| ऋषि देव दयानन्द के अनुगामी जिन्होंने स्वयं का अध्यन कर अपने अन्त:करण के परिवर्तनों को खोलकर जनता के सामने रख दिया| सेवा कार्य चाहें व्यक्तिगत हो अथवा सामाजिक हो, बहुत ही कठिन होता है उसको पार पाना योगियों के लिए भी संभव नहीं| फिर भी जो लोग समाज सेवा में संलग्न रहते है, सचमुच वे फौलाद का दिल रखते है समाज के कल्याण के लिए मन समर्पित करने वालों की संख्या सर्वाधिक होती है उसके बाद वो लोग होते है जो धन समर्पित करते है बहुत विरले लोग होते होते है जो अपना तन,मन,धन, और तो और अपना परिवार तक समर्पित करते है अपनी पुत्री वेदकुमारी और अमृत कला को उस समय गुरुकुल में पढने के लिए भेजा जब अधिकांश लोग स्त्री शिक्षा के खिलाफ थे| अपने पुत्रो को गुरुकुल में पढ़ाने भेजा अपनी संपत्ति अपना परिवार, अपना जीवन और अपना सर्वस समाज के लिए दान करने वाले अमर बलिदानी स्वामी श्रद्धानन्द जी को शत-शत नमन


|rajeev choudhary 

घ्रणित अपराध को कैसा सम्मान ?

एक प्रसिद्ध विद्वान का कथन है कि- कोई भी राष्ट्र सुव्यवस्था के साथ जन्म लेता है, स्वतंत्रता के साथ पलता बढ़ता है और अव्यवस्था के साथ उसका पतन हो जाता है| ठीक यही हाल आज हमारे देश का होता दिख रहा है! 16 दिसम्बर 2012 को देश की राजधानी दिल्ली में एक पैरामेडिकल छात्रा को छह दोषियों की हवस और दरिंदगी का शिकार होना पड़ा था| इन दोषियों ने छात्रा के साथ इंसानियत को तार-तार करते हुए दरिंदगी की सारी हदें पार कर दी थी| उन्होंने इस घटना को एक चलती बस अंजाम दिया था| मेडिकल जाँच में पता चला था कि इन वहशी दरिंदों ने छात्रा को ऐसी-ऐसी यातनाएं पहुंचाई थी कि जिसे सुनकर किसी की भी रूह कांप उठेगी| युवती की दर्दनाक आवाज़ सड़के तक चीर दे रही थी लेकिन इन दोषियों की रूह तक नहीं हिली| और ये दरिंदें घायल अवस्था में छात्रा को सड़क पर फेंककर फरार हो गये थे|
इस घटना के बाद देश ही नहीं विदेशो तक दोषियों को कठोरतम सजा दिलाने की मांग ने जोर पकड़ा देश के कई हिस्सों के साथ राजधानी में भी जनसमुदाय न्याय और कानून के लिए सडको पर उतर गया| पुलिस ने त्वरित कारवाही करते हुए कुछ ही दिनों इन दरिंदो को गिरफ्तार कर लिया किन्तु इनमे एक दोषी 17 साल 6 महीने का निकला| इस मामले में एक आरोपी ने आत्महत्या और चार को कोर्ट ने फांसी की सजा और इस नाबालिग को 3 साल की सजा सुनाई किन्तु जहाँ अब वो दोषी आने वाली मौत का इंतजार कर रहे है वहीं यह दोषी रिहा होने की तैयारी कर रहा है| किन्तु इस दरिन्दे की रिहाई पूरी न्यायिक व्यवस्था पर प्रश्न उठा रही है? क्या इतने क्रूर और निर्मम अपराधी को सिर्फ नाबालिग होने का हवाला देकर छोड़ना सही है? इस बात की कौन गारंटी लेगा कि 3 साल बाल सुधार गृह में रहने के बाद वह सुधर गया और आगे समाज के लिए खतरा नहीं बनेगा? क्या सरकार नारी मन और तन के इस खूंखार हत्यारे को जिसने उस छात्रा के साथ लोहे की रौड लेकर यातना का सबसे घिनोना कृत्य किया था को किस आधार पर रिहा कर रही है ? इस मामले जहाँ न्यायिक व्यवस्था समाज के घेरे में है वहीं दिल्ली सरकार इस मामले में भी धार्मिक राजनीति करने से बाज नहीं आई चुकीं नाबालिग आरोपी मुस्लिम समुदाय से है तो दिल्ली सरकार ने आनन-फानन में आरोपी को रिहा होते ही इस दरिंदें के लिए 10 हजार रूपये और एक सिलाई मशीन की घोषणा तक कर दी क्या सिर्फ इसलिए की वो समुदाय विशेष से है? राजनीति के अपने कारण होते है और न्यायालय के अपने| पर समाज का प्रश्न यह है कि क्या अब यह दरिंदें सरकारी संरक्षण में पलेंगे? आखिर उसे किस काम के लिए मान सम्मान दिया जा रहा है? नारी शक्ति मात्रशक्ति को रोद्नें के लिए उसके अपमान के लिए? यदि ऐसा है तो फिर दिल्ली सरकार महिला सम्मान के नाम पर बड़े-बड़े स्लोगन और विज्ञापन लगा सड़कों मेट्रों आदि पर क्यों पैसा खर्च कर रही है| बदल डालिए इतिहास और रख डालो रावण और दुशासन, मोहमंद बिन काशिम जैसे नीच पापियों को देवताओं की श्रेणी में?” जिस दरिन्दे को अपनी गिरफ्तारी से आजतक अपने किये का कोई पछतावा न हो जिसकी पैशाचिक सोच को 3 वर्षो के दौरान सुधारगृह बदलाव लाने में नाकाम रहा हो जो इस न्यायिक सिस्टम का फायदा उठाना जान गया हो उसे किस आधार पर आप लोग सम्मानित कर रहे हों?
इस मामले में ब्रिटेन और अमेरिका जैसे देशों में भले ही 18 साल से कम उम्र के अपराधी को नाबालिग माना जाता हो लेकिन रेप और हत्या जैसे गंभीर अपराधो में उन्हें उम्रकैद तक की सजा का प्रावधान है भारत में नाबालिगों के प्रति कानून काफी नरम है और यहाँ बलात्कार और हत्या जैसे गंभीर मामलों में भी ज्यादा से ज्यादा 3 साल की सजा हो सकती है| अब यदि कानून में बदलाव ना किया गया और कल 17 साल 11 महीने का कोई आतंकवादी देश की अस्मिता पर हमला कर जाये तो क्या उसे भी इसी कानून के तहत माफ़ कर सम्मानित कर दिया जायेगा??

राजीव चौधरी 

Wednesday 16 December 2015

आखिर कश्मीर खाली क्यों हुआ ? भाग 2

पिछले भाग में हमने बताया था का किस तरह शेख अब्दुल्ला की मजहबी नीति और तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु की गलती का खमियाजा लाखों लोगो को भुगतना पड़ा लेकिन आगे बढ़ने से पहले एक बार एक ऐतिहासिक पत्र का वर्णन जरूर किया जाना चाहिए जो इतिहास की पुस्तकों से गायब है| जम्मू कश्मीर राज्य के भारत में विलय और भारतीय सेना द्वारा रियासत की जिम्मेदारी सँभालने के बाद गिलगित पर पाकिस्तान का अधिकार हो जाने पर महाराजा हरिसिंह ने उस समय रियासत की राजनैतिक और सुरक्षा का विस्तृत देने के बाद पटेल को पत्र लिखा जो इस प्रकार था- “ऊपर वर्णन की गयी स्थिति से मेरे मन में विचार उठता है कि इस स्थिति को सँभालने के लिए में क्या कर सकता हूँ इसी भाव से में आपको अपने दिल की बात साफ-साफ लिख रहा हूँ| मेरे मन में एक विचार यह उठ रहा है कि में अपनी रियासत के भारत के साथ विलय को रद्द कर दूँ |

 यदि भारत सरकार ने विलय को अस्थाई रूप में ही स्वीकार किया है और यदि यह मेरी रियासत के पाक –अधिकृत क्षेत्र को वापिस नहीं ले सकती और यदि यह संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा समिति के उस प्रस्ताव को मानने जा रही है जिसके परिणामस्वरूप वह मेरी रियासत को पाकिस्तान को सोप देगी तो भारत के साथ विलय का मतलब नहीं रहता इस समय मेरी पाकिस्तान के साथ बेहतर शर्तो पर बातचीत हो सकती है परन्तु वह अर्थहीन होगी क्योंकि उस सूरत में मेरे राजवंश और मेरी हिन्दू सिख प्रजा का अंत भी हो जाएगा| मेरे पास दूसरा विकल्प यह कि में इस विलय पत्र को वापिस ले लूँ उससे सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव अपने आप खत्म हो जाएगा इसके परिणाम स्वरूप मेरी रियासत उसी स्थिति में जायेगी जैसे पहले थी में अपनी सेना भारतीय सेना के उन सैनिको का नेत्त्रत्व स्वंय सँभालने को तैयार हूँ वह स्थिति आज की स्थिति से बेहतर होगी| मैं अपने वर्तमान असहाय जीवन से  तंग आ चूका हूँ युद्ध में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त करना अपनी प्रजा की दुर्दशा देखने से बेहतर होगा|
 इस पत्र से सरदार पटेल को जम्मू-कश्मीर की वास्तविक स्थिति और महाराजा हरिसिंह की वेदना आभास उस पत्र के माध्यम से नेहरु को कराया जिसकी जानकारी शेख अब्दुल्ला को हो गयी थी जिस कारण अब्दुल्ला का रुख महाराजा और जम्मू की प्रजा के प्रति और कड़ा हो गया गया था| सुरक्षा परिषद ने अपना एक कमीशन कश्मीर भेजा जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि पाकिस्तान केवल कबीलाई घुसपेठियो की सहायता ही नहीं अपितु अपनी नियमित सेना के साथ युद्ध कर रहा है और सुरक्षा परिषद ने 25 नवम्बर को एक प्रस्ताव पारित कर भारत और पाकिस्तान से युद्ध बंद करने की अपील की| उस समय तक सैनिक द्रष्टि से भारत का पलड़ा सारी रियासत में भारी हो चूका था| जनरल थिमैया के नेत्त्र्तव भारत की सेना ने योजिला दर्रा के उस पार हलके टेंको से हमला करके पाकिस्तान को लद्दाख और कारगिल से पीछे हटने पर मजबूर करके योजिला दर्रा और उसमें से होकर लेह जाने वाली सड़क को अपने अधिकार में ले लिया था कुपवाड़ा सेक्टर में हिमालय की श्रंखला पार करके कृष्णागंगा नदी की घाटी में बढ़ना शुरू किया सैनिक टुकडियां सुरक्षात्मक मोर्चे छोड़ मुजफ्फराबाद की और बढ़ने लगी यदि यह अभियान चलता रहता तो शीतकाल खत्म होने तक कश्मीर मुक्त करा लिया जाता परन्तु यह नेहरु और अब्दुल्ला को मंजूर नही था 1 जनवरी १९४९ को अचानक नेहरु ने युद्ध बंदी की घोषणा कर दी इस अकस्मात युद्ध बन्दी की घोषणा के निश्चित कारण कोई नहीं जानता और  जानकारी के अभाव में कुछ भी कहना बोद्धिक अपराध होगा लेकिन इस प्रकार पाकिस्तान द्वारा भारत पर थोपे गये पहले युद्ध में अपनी कम शक्ति के कारण भी सफलता मिल गयी थी इससे पाकिस्तान के शाशकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारत के विरुद्ध आक्रामक रुख अपनाना लाभ का सौदा है इससे पाकिस्तान के मुहं पर लहूँ लग गया और उसने भारत के प्रति आक्रामक रुख आपनाने की नीति तय कर ली |
प्रस्तुत पत्र बलराज मधोक की पुस्तक कश्मीर हार में जीत

लेखक  राजीव चौधरी 

कहीं अगला शिकार आप तो नहीं ??

9 दिसम्बर कर्नाटक में टीवी के माध्यम से एस्ट्रोलॉजी (ज्योतिश शास्त्र) की जानकारी करने वाले जल्द ही इससे महरूम हो सकते हैं। राज्य की कांग्रेस सरकार एस्ट्रोलोजी पर आधारित टीवी षो पर जल्द ही रोक लगाने का विचार बना रही है। सूत्रों के अनुसार सरकार का मानना है कि इन टीवी शो को देखकर लोगों में अन्धविश्वास की भावना बढ़ती जा रही है। बेंगलुरू में एक कार्यक्रम के दौरान मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने कहा कि हर टीवी चैनल एस्ट्रोलोजी आधारित षो प्रसारित कर रहा है। हर कोई एस्ट्रोलोजी शो देखकर अपनी दिनचर्या को आगे बढ़ाने में लग गया है, इससे मेरा घर भी अछूता नहीं रह गया है। अब समय आ गया है कि इस पर रोक लगायी जाए। हालाँकि जानकारों का मानना है ऐसा करना सरकार के लिए कठिन होगा
अब हम इस मामले को यदि गंभीरतापूर्वक लेकर देखे तो आज  लोकतंत्र के चैथे स्तम्भ मीडिया को समाज में जागरूकता फैलाने, अन्धविश्वास और कुरीतियों का खात्मा करने और साक्षरता का प्रचार प्रसार करने की भूमिका के रूप में देखा जाता है लेकिन वर्तमान समय में मीडिया अपनी इस भूमिका का कितना निर्वहन कर रहा है ये हम सब जानते हैं।
कोई भी टीवी चैनल चला लें डरावना सा रूप धारण किये हुए बाबा दर्षकों को शनि , राहु, केतु, गृह दोष,  मंगल दोष  और ना जाने कैसे –कैसे दोषों से डराते हुए और लाकेट, धन लक्ष्मी वर्षा यन्त्र, लक्ष्मी कुबेर यन्त्र, इच्छापूर्ति कछुआ, लाल किताब. गणपति पेंडेंट, नजर रक्षा कवच आदि की दूकान लगाकर बैठे मिल जायेंगे जो कोडियों  के दाम की चीजों को महंगे दामों पर बेच कर अपनी जेबें भर रहें हैं। इसके अलावा फोन और एस एम एस के जरिये समस्याओं का समाधान बताने के बहाने मोटी-मोटी कॉल दरें चार्ज की जा रही है।
आज हर आम आदमी किसी ना किसी समस्या से जूझ रहा है। बस इसी बात का फायदा उठाकर अन्धविश्वास की अपनी दूकान चलाने के लिए मीडिया का सहारा लिया जा रहा है क्योंकि मीडिया ही एक ऐसा माध्यम है जिसके जरिये कोई भी बात सीधे-सीधे लाखों करोड़ों  लोगों तक पहुंचाई जा सकती है और मीडिया के जरिये किसी भी बात को दिमाग में अच्छे से बैठाया भी जा सकता है।
पत्र-पत्रिकाएं भी ऐसे विज्ञापनों को धड़ल्ले से छाप रही है। मुझे समझ नहीं आता कि प्यार में असफल व्यक्ति को कोई ज्योतिष या तांत्रिक उसका प्यार कैसे दिला सकता है निसंतान दंपत्ति को अगर ऐसे बाबा या तांत्रिक के उपाय अपनाने पर ही संतान मिल जाती है तो फिर मेडिकल की पढ़ाई की क्या जरुरत है|” अगर कोई यन्त्र खरीदकर कोई रातों रात अमीर बन सकता है तो फिर सुबह से रात तक आफिस में सर खपाने की क्या जरुरत है ?
कुल मिलाकर दुखी, हारे हुए और परेशान लोगों को ठगने का एक बड़ा जाल फैलाया जा चुका है जिसकी चपैट में फँस कर कई लोग अपनी जेबे खाली करवा रहें हैं। जिसका एक बड़ा हिस्सा मीडिया की जेब में भी जाता है अन्धविश्वास के अधिकांश मामलों में हमने देखा है कि साक्षर और निरक्षर दोनों तबके के लोग आसानी से शिकार हो जाते है व्यापार जहाँ तनिक धीमा हुआ एकदम से लोग किसी बाबा की सलाह के लिए उकसाते है | 21 सदी में भी भारतीय लोग चमत्कार की आस में जीकर प्रत्यन न कर यन्त्र आदि के जाल में उलझे होते है जबकि सब जानते है और इन सब का मोखिक रूप से विरोध भी करते है किन्तु अंतर्मन में कहीं न कहीं किसी चमत्कार की आस में जीते है और इसी का फायदा उठाते हुए आज इन यंत्र कारोबारियों ने कई करोड़ व्यापार कर लिया है अब फैसला आप लोगों को करना है कि आज यूरोपीय देश हमसे इतना आगे क्यों है ?
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा

राजीव चौधरी 

Friday 4 December 2015

शोक को वोट की तराजू में तोलने वाले नेता

सेना के एक और कर्नल घाटी में शहीद हो गय अपने पीछे छोड़ गया अपने परिवार की नम आँखे पर पर के नेताओं की छाती पर खोद गया एक प्रश्न कि क्या इनके लिए तो पहले वोट बाद में देश है!
किसी गजरे की खुषबु को महकता छोड़ के आया हूँ,
मेरी नन्ही सी चिडि़यां को चहकता छोड़ के आया हूँ!
मुझे छाती से अपनी तू लगा लेना ऐ मेरी भारत माँ,
 मै अपनी माँ की बाहों को तरसता छोड़ के आया हूँक,,!!
यह पंक्ति तब से गूंज रही थी. जो एक बार कर्नल महादिक ने ही बोली थी, इन पंक्तियों की वह (नन्ही सी चहकती चिडि़या) कर्नल सन्तोश यशवंत महादिक की बेटी, जब अपने पिता की शाहदत पर रोते हुए लेकिन एक गर्व के साथ उन्हें आखि़री सलामी दे रही थी,  इस सलामी के आगे कई तोपों की सलामी बेकार थी . इस बच्ची की सलामी देखकर तो छाती फटने को हो रही थी. बस कुछ कहा नहीं जा रहा था, शब्द धुआं से उठ रहे थे  लेकिन किसी लौ से भी चमक नहीं पा रहे थे, क्योंकि इस बच्ची की जलती लौ के आगे सब बेकार थे , जो अपने देशभक्त - बहादुर - बलिदानी पिता को इस तरह से विदा कर रही थी पर हमारे मन में प्रश्न  फूट रहे थे कि क्या भारत के सभी जीते -हारे सांसद इस प्रश्न का उत्तर दे सकते है जो जलती कर्नल महादिक की चिता की अग्नि भी पूछ रही होगी कि मुझमे और इखलाक में  अंतर क्या है?  इखलाक पर तुम इतना रोए की पूरा विश्व तुम्हारे आंसू पोछने चल दिया! में ये नहीं पूछता क्यूँ रोए बस ये बता दो अब मेरी चिता पर तुम्हारे आंसू क्यों नहीं आये? क्या देश के लिए प्राण देना गुनाह है? पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकार अब कहा गये, क्या उन्होंने मुझे कलम से श्रदांजली देना भी उचित नहीं समझा? दादरी तो राहुल जी भी गये, ओवेशी भी गये, संगीत सोम, केजरीवाल, व्रंदा करात जी सब चले गये  थे संतोश के घर क्या हुआ उसका परिवार तो चेक भी नहीं मांग रहा था! न फ्लैट मांग रहा था क्या श्रद्धा के दो सुमन भी अर्पित नही कर सकते थे? आज वो कलाकार कहाँ गये, जो इखलाक की मृत्यू पर ट्वीट पर ट्वीट कर रहे थे ना वो मीडिया दिखाई दी जो गौ के मांस पर एक महीना बहस कराती है. शायद आज किसी एंकर की पलकों के कोरे नहीं भीगे होंगे, आज कहाँ गये वो लोग जो राष्ट्रपति जी को ज्ञापन सोपने कतार लगा कर गये थे? खैर रक्षा मंत्री जी का आभार की कम से कम उन्हें तो इस देशभक्त की याद रह गयी
सब जानते इन नेताओं के अंदर आत्मा नहीं होती, ना सवेंदना होती, ना इन्हें किसी के मरने का दुःख  का  अहसास|  इन्हें चिंता है बस अपने वोट बैंक की|  इन्हें चिंता हैं जातिगत आंकड़ो की| ना इन्हें मुस्लिमों से कुछ वास्ता|  ना इनका हिन्दुओं से मतलब|  इन्हें तो सत्ता की कुर्सी चाहिए चाहें वो जैसे मिले|  बिहार में नितीश  सरकार में मंत्री रहे भीम सिंह जो अब भाजपा में है, उन्होंने २०१४  में कहा था सेना के जवान तो मरने के लिए होते हैं। इतना शर्मनाक बयान देने के बाद ऐसे लोग आज भी मंचो पर जाते हैं और देश हित की बात करते दिखाई दे जाते है, लेकिन विडंबना यह है कि चलो इन लोगों की बातो में गरीब अनपढ़ लोगों का जाना कोई बड़ी बात नहीं लेकिन दुःख तब होता है जब देश का पढ़ा लिखा वर्ग भी इनके सुर में सुर मिलाकर बोलता हैं बहरहाल इन लोगों क्या कहे जिनकी आत्मा ही मर चुकी हो पर हमारा शत – शत नमन है ऐसी महान आत्मा को जिसने कश्मीर  की वादीयों में तीन दिन से चल रही मुठभेड़ के दौरान आतंकियों से वीरतापूर्ण संघर्ष के समय अपनी बटालियन (41 राष्ट्रीय राइफल्स) के दो और जवानों के साथ अपने प्राणों की आहुति दी है . ऐसे सपूत कहाँ और कितने पैदा होते है या आज के माहोल में कब पैदा हो रहे है|  इसलिए इनके जाने का अत्यंत दुःख है . वयं तुभ्यं बलिहृतः स्याम । - अथर्व० १२.१.६२ हम सब मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले हों|”

राजीव चौधरी 

तब सहिष्णु कौन होगा ?

पिछले दो तीन महीने से चली आ रही असहिष्णुता की आंधी ने संसद के शीतकालीन सत्र को भी अपनी चपेट में ले लिया जिस संसद सत्र के हर मिनट पर करीब 29,000  रुपये का खर्च आता है। राज्यसभा में आमतौर पर दिन में करीब पांच घंटे और लोकसभा करीब छह घंटे यानी कुल 11  घंटे कामकाज होता है। उस संसद में  देश के आर्थिक, सामाजिक विकास और गरीब को रोटी कैसे मिले बजाय इसके एक बिना हुई बात असहिष्णुता पर बहस कर 29 हजार रूपये प्रति मिनट फूंके जा रहे है| देश का विपक्षी दल सत्ता पक्ष पर आरोप लगा रहा है कि देश के अन्दर मुस्लिम सुरक्षित नहीं है हम आपको भारत के इतिहास में न ले जाकर विश्व के इतिहास भूगोल में लेकर जाना चाहते थे शायद कुछ आंकड़े के साथ स्तिथि स्पष्ट हो जाये और ये भी पता चले की कौन सुरक्षित है कौन नहीं| लेकिन आज से 20  साल बाद यानी 2035  में मुसलमान भारत में बहुसंख्यक हो जाएंगे और आबादी में हिंदुओं को पीछे छोड़ देंगे!  इस तरह के सवालों पर गूगल सर्च इंजन पर बड़े ही विस्फोटक जवाब मिलते हैं. आज इराक, ईरान, सीरिया, तुर्की, अफगानिस्तान, नाइजीरिया आदि मुल्कों में जाकर देखे तो एक ही मजहब, एक ही रसूल, और एक ही विचारधारा के लोग किस तरह अपने मजहब के नाम पर मार-काट मचाये हुए है| अभी हाल ही में केंद्र की सत्तारूढ़ दल बीजेपी के एक मंत्री नितिन गडकरी ने एक न्यूज़ चैनल को दिए अपने इंटरव्यू में कहा था कि जब तक भारतीय संस्कृति, इतिहास विरासत, विचारवान लोग बहुसंख्यका में है तभी तक सभी मजहब,पंथ को मानने वाले लोग इस देश में सुरक्षित है दुर्भाग्य वश जिस देश में 51% आबादी मुस्लिम हो जाती है विश्व के एक भी देश में समाजवाद नहीं है धर्मनिरपेक्षता नहीं है लोकतंत्र नहीं हैं| आज जितनी चर्चा न्यूज़ चैनल हिन्दू धर्म पर जातियों पर पूजा पद्धति पर कर लेते है क्या वो भारत में 14% मुस्लिम आबादी के जिन्हें अल्पसंख्यक भी कहा जाता है उन पर कर सकते है? अभी तो मात्र चर्चा से डर लगता है यदि यह आबादी बढ़कर 40% हो जाती है तो तब सहिष्णुता का ठेका कौन लेगा? भारतीय जीवन मूल्यों परम्पराओं में आदिकाल से एक रीति रही है कि यदि अपना बच्चा बाहर झगड़ा कर रहा है और हमे पता है गलती दुसरे की है तब भी अपने को ही डांटते फटकारते है लेकिन इस्लाम के धार्मिक कानूनों में भी  इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है जिसका मतलब साफ है कि भारतीयता की रग-रग में सहिष्णुता का अमृत भरा है जिसे सारी दुनिया जानती है यदि हम   असहिष्णु होते तो क्या मुग़ल 800 साल भारतीय जीवन मूल्यों परम्पराओं से खिलवाड़ करते? यदि हम असहिष्णु होते तो क्या अंग्रेज 250 साल हमें लुटते? हम बड़ी आसानी से दूसरों की परम्परा को स्वीकार कर लेते है इस देश में आज तक बोद्ध, जैन, पारसी, इसाई और यदि 84 का अपवाद छोड़ दे तो सिखों को कोई परेशानी नहीं जबकि बहुसंख्यक होते हुए भी इन सब से ज्यादा यदि त्रासदी किसी ने झेली तो स्वम हिन्दूओ ने झेली| कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक हुआ तो सबसे पहले उसका शिकार हिन्दू हुआ, केरल मालाबार में कौन असहिष्णु हुआ? यदि ये पुराना इतिहास है तो आज बंगाल का चौबीस परगना, बिहार का सीमांचल, पच्छिम उत्तरप्रदेश के कई जिले मजहबी मानसिकता के कारण असहिष्णु है!
हमारा कहने का आशय सिर्फ इतना हैं शांति, सहिष्णुता का पाठ दोनों और पढाया जाना चाहिए नही तो निर्बोध मासूम मारा जायेगा क्योंकि एक को अपनी मिटटी अपनी परम्परा से प्रेम है और दुसरे को हिंसा करने पर शबाब मिलने का पाठ पढाया जा रहा है| देश में लोगों को नारा लगाते देखते है कि हिन्दू, मुस्लिम, सिख, इसाई अच्छी बात है पर इन सब भाइयों के कानून अलग-अलग क्यों? मुस्लिम के उसकी शरियत हिन्दू के लिए भारतीय सविधान फिर भाई-भाई  कैसे हुए? हिन्दू एक शादी कर सकता है मुस्लिम के लिए कोई बंधन नहीं इसके लिए सरकार को एक देश एक कानून करना होगा ताकि यह भाई चारा बना रह सके क्योंकि इतिहास कम से कम इतिहास इस बात का साक्ष्य उपलब्ध नहीं कराता और जो पहले भुगत लिया दुबारा न भुगतना पड़े

राजीव चौधरी 

Saturday 28 November 2015

गुरु नानक एवं उनका प्रकाश उत्सव

हम हर साल की भांति सिख समाज गुरु नानक के प्रकाश उत्सव पर गुरुद्वारा जाते हैं, शब्द कीर्तन करते हैं, लंगर छकते हैं, नगर कीर्तन निकालते हैं। चारों तरफ हर्ष और उल्लास का माहौल होता हैं। 

एक जिज्ञासु के मन में प्रश्न आया की हम सिख गुरु नानक जी का प्रकाश उत्सव क्यूँ बनाते हैं?

एक विद्वान ने उत्तर दिया की गुरु नानक और अन्य गुरु साहिबान ने अपने उपदेशों के द्वारा हमारा जो उपकार किया हैं, हम उनके सम्मान के प्रतीक रूप में उन्हें स्मरण करने के लिए उनका प्रकाश उत्सव बनाते हैं। 

जिज्ञासु ने पुछा इसका अर्थ यह हुआ की क्या हम गुरु नानक के प्रकाश उत्सव पर उनके उपदेशों को स्मरण कर उन्हें अपने जीवन में उतारे तभी उनका प्रकाश उत्सव बनाना हमारे लिए यथार्थ होगा। 

विद्वान ने उत्तर दिया आपका आशय बिलकुल सही हैं , किसी भी महापुरुष के जीवन से, उनके उपदेशों से प्रेरणा लेना ही उसके प्रति सही सम्मान दिखाना हैं। 

जिज्ञासु ने कहा गुरु नानक जी महाराज के उपदेशों से हमें क्या शिक्षा मिलती हैं। 

विद्वान ने कुछ गंभीर होते हुए कहाँ की मुख्य रूप से तो गुरु नानक जी महाराज एवं अन्य सिख गुरुओं का उद्दश्य हिन्दू समाज में समय के साथ जो बुराइयाँ आ गई थी, उनको दूर करना था, उसे मतान्ध इस्लामिक आक्रमण का सामना करने के लिए संगठित करना था। जहाँ एक ओर गुरु नानक ने अपने उपदेशों से सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध जन चेतना का प्रचार किया वही दूसरी ओर गुरु गोविन्द सिंह ने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए हिन्दू जाति में शक्ति का प्रचार किया।

गुरु साहिबान के मुख्य उपदेश इस प्रकार हैं:-



१. हिन्दू समाज से छुआछुत अर्थात जातिवाद का नाश होना चाहिए। 

२. मूर्ति पूजा आदि अन्धविश्वास एवं धर्म के नाम पर पाखंड का नाश होना चाहिए। 

३. धुम्रपान, मासांहार आदि नशों से सभी को दूर रहना चाहिए। 

४. देश, जाति और धर्म पर आने वाले संकटों का सभी संगठित होकर मुकाबला करे। 



गुरु नानक के काल में हिन्दू समाज की शक्ति छुआछुत की वीभत्स प्रथा से टुकड़े टुकड़े होकर अत्यंत क्षीण हो गयी थी जिसके कारण कोई भी विदेशी आक्रमंता हम पर आसानी से आक्रमण कर विजय प्राप्त कर लेता था। सिख गुरुओं ने इस बीमारी को मिटाने के लिए प्रचण्ड प्रयास आरम्भ किया। ध्यान दीजिये गुरु गोविन्द सिंह के पञ्च प्यारों में तो सवर्णों के साथ साथ शुद्र वर्ण के भी लोग शामिल थे। हिन्दू समाज की इस बुराई पर विजय पाने से ही वह संगठित हो सकता था। गुरु कि खालसा फौज में सभी वर्णों के लोग एक साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर शत्रु से संघर्ष करते थे, एक साथ बैठकर भोजन करते थे, खालसा कि यही एकता उनकी अपने से कही ज्यादा ताकतवर शत्रु पर विजय का कारण थी। विडंबना यह हैं कि आज का सिख समाज फिर से उसी बुराई से लिप्त हो गया हैं। हिन्दू समाज के समान सिख समाज में भी स्वर्ण और मजहबी अर्थात दलित सिख , रविदासिया सिख आदि जैसे अनेक मत उत्पन्न हो गए जिनके गुरुद्वारा, जिनके ग्रंथी, जिनके शमशान घाट सब अलग अलग हैं। कहने को वे सभी सिख हैं अर्थात गुरुओं के शिष्य हैं मगर उनमें रोटी बेटी का किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। जब सभी सिख एक ओमकार ईश्वर को मानते हैं, दस गुरु साहिबान के उपदेश और एक ही गुरु ग्रन्थ साहिब को मानते हैं तो फिर जातिवाद के लिए उनमें भेदभाव होना अत्यंत शर्मनाक बात हैं। इसी जातिवाद के चलते पंजाब में अनेक स्थानों पर मजहबी सिख ईसाई बनकर चर्च की शोभा बड़ा रहे हैं। वे हमारे ही भाई थे जोकि हमसे बिछुड़ कर हमसे दूर चले गए। आज उन्हें वापस अपने साथ मिलाने की आवश्यकता हैं और यह तभी हो सकता हैं,जब हम गुरु साहिबान का उपदेश मानेगे अर्थात छुआछुत नाम की इस बीमारी को जड़ से मिटा देगे। 

अन्धविश्वास, धर्म के नाम पर ढोंग और आडम्बर ,व्यर्थ के प्रलापों आदि में पड़कर हिन्दू समाज न केवल अपनी अध्यात्मिक उन्नति को खो चूका था अपितु इन कार्यों को करने में उसका सारा सामर्थ्य, उसके सारे संसाधन व्यय हो जाते थे। अगर सोमनाथ के मंदिर में टनों सोने को एकत्र करने के स्थान पर, उस धन को क्षात्र शक्ति को बढ़ाने में व्यय करते तो न केवल उससे आक्रमणकारियों का विनाश कर देते बल्कि हिन्दू जाति का इतिहास भी कलंकित होने से बच जाता। अगर वीर शिवाजी को अपने आपको क्षत्रिय घोषित करने में उस समय के लगभग पञ्च करोड़ को खर्च न पड़ता तो उस धन से मुगलों से संघर्ष करने में लगता। 

सिख गुरु साहिबान ने हिंदुयों की इस कमजोरी को पहचान लिया था इसलिए उन्होंने व्यर्थ के अंधविश्वास पाखंड से मुक्ति दिलाकर देश जाति और धर्म कि रक्षा के लिए तप करने का उपदेश दिया था। परन्तु आज सिख संगत फिर से उसी राह पर चल पड़ी हैं। 

सिख लेखक डॉ महीप सिंह के अनुसार गुरुद्वारा में जाकर केवल गुरु ग्रन्थ साहिब के आगे शीश नवाने से कुछ भी नहीं होगा। जब तक गुरु साहिबान की शिक्षा को जीवन में नहीं उतारा जायेगा तब तक शीश नवाना केवल मूर्ति पूजा के सामान अन्धविश्वास हैं। आज सिख समाज हिंदुयों की भांति गुरुद्वारों पर सोने की परत चढाने , हर वर्ष मार्बल लगाने रुपी अंधविश्वास में ही सबसे ज्यादा धन का व्यय कर रहा हैं। देश के लिए सिख नौजवानों को सिख गुरुओं की भांति तैयार करना उसका मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। 

गुरु साहिबान ने स्पष्ट रूप से धुम्रपान, मांसाहार आदि के लिए मना किया हैं ,जिसका अर्थ हैं की शराब, अफीम, चरस, सुल्फा, बुखी आदि तमाम नशे का निषेध हैं क्यूंकि नशे से न केवल शरीर खोखला हो जाता हैं बल्कि उसके साथ साथ मनुष्य की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती हैं और ऐसा व्यक्ति समाज के लिए कल्याणकारी नहीं अपितु विनाशकारी बन जाता हैं। उस काल में कहीं गयी यह बात आज भी कितनी सार्थक और प्रभावशाली हैं। आज सिख समाज के लिए यह सबसे बड़े चिंता का विषय भी बन चूका हैं की उसके नौजवान पतन के मार्ग पर जा रहे हैं। ऐसी शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कौम धर्म, देश और जाति का क्या ही भला कर सकती हैं?

जब एक विचार, एक आचार , एक व्यवहार नहीं होगा तब तक एकता नहीं होगी, संगठन नहीं होगा। जब तक संगठित नहीं होगे तब देश के समक्ष आने वाली विपत्तियों का सामना कैसे होगा? खेद हैं कि सिख गुरुओं द्वारा जो धार्मिक और सामाजिक क्रांति का सन्देश दिया गया था उसे सिख समाज व्यवहार में नहीं ला रहा हैं। जब तक गुरुओं कि बात को जीवन का अंग नहीं बनाया जायेगा तब तक किसी का भी उद्धार नहीं हो सकता। 

जिज्ञासु - आज गुरु नानक देव के प्रकाश उत्सव पर आपने गुरु साहिबान के उपदेशों को अत्यंत सरल रूप प्रस्तुत किया जिनकी आज के दूषित वातावरण में कितनी आवश्यकता हैं यह बताकर आपने सबका भला किया हैं, आपका अत्यंत धन्यवाद। 
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा


डॉ विवेक आर्य

Wednesday 25 November 2015

आखिर क्यों खाली हुआ कश्मीर!!

अभी कुछ दिन पहले एक महोदय ने पूछा आप लोग कश्मीर पर इतना क्यों लिखते हो, तब हमने कहा था जो घाव ज्यादा गहरा हो वो ही सबसे ज्यादा दर्द करता हैं, कारण सैनिक द्रष्टि से प्रत्येक बार कश्मीर पर सफलता पाने के बावजूद भी हम राजनैतिक द्रष्टि से हर बार हारते रहे और खारे खून के आंसू आँखों से रिसते रहे| लेकिन जब हम सच के गहरे तल में जाकर देखते है कि 1947 में जिस राज्य का राजा हिन्दू हुआ करता था आज वहां हिन्दू प्रजा भी नजर नहीं आती क्योंकि शेष भारत की तरह इस क्षेत्र में भी हिन्दू समाज विभिन्न जातियों और उपजातियों में बंटा हुआ था | जनसँख्या की द्रष्टि से उसमें ब्राह्मण, राजपूत और हरिजन प्रमुख थे  वैश्य तथा अन्य जातियां भी थोड़ी-बहुत संख्या में थी |
ब्राह्मणों और राजपूतों में एक प्रकार की वैमनस्य की भावना भी थी| इसी का फायदा उठाते हुए शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के उन हिस्सों में जो हिन्दू जनसँख्या बाहुल था उसमें मुस्लिमों को बसने का आदेश दिया नतीजा बहु-प्रथा के कारण उनकी आबादी बढती चली गयी दूसरी और किश्तवाड़ और भद्रवाह की स्थानीय हिन्दू जनसँख्या उंच-नीच की जातिगत कारणों से धर्मपरिवर्तन कर कम होती चली गई| फलस्वरूप उधमपुर जिला समग्र रूप से हिन्दू-बाहुल था इसका पीरपंचाल के साथ लगने वाला यह उत्तरी भाग मुस्लिम बाहुल हो गया था शेख अब्दुल्ला की नीति कामयाब हो गयी थी सबसे पहले उसने इन मुस्लिम-बाहुल क्षेत्रों को जम्मू से काटने की योजना बनाते हुए जिलों के पुनर्गठन के नाम पर मुस्लिम जिले बना दिए जिनका प्रशासनिक केंद्र मुस्लिम इलाको में बना दिया था|
मुस्लिम समुदाय की हमेशा से एक नीति रही हैं कि वो पहले दुसरे समुदायों में जो उपेक्षित हैं, प्रताड़ित हैं, जिस पर जातिगत रूप से टिप्पणी या धार्मिक स्थलों से जिसका तिरस्कार किया जाता है उसे उसकी उपेक्षा का आभास करा अपने साथ करता है, और फिर धार्मिक रूप सामाजिक रूप से संपन्न समुदाय पर हथियारों के बल पर हमला करता हैं तब उसे अहसास होता है कि वो उपेक्षित लोग छोटी जाति के नही बल्कि हमारी धर्म संस्कृति की नीव थी| ठीक यही हाल कश्मीर में हुआ पहले उपेक्षित समुदाय खुद में मिलाया फिर कश्मीरी पंडितो पर हमला किया पंडित नेहरु खुद को कश्मीर का ठेकेदार समझते रहे  जिस कारण वे कश्मीर के मसले पर शेख अब्दुल्ला के अतिरिक्त किसी की बात सुनने को तैयार नहीं थे और शेख अब्दुल्ला की द्रष्टि मुस्लिमों के हित और चिंतन तक सिमित थी| वरना उस समय भारत की सैनिक शक्ति पाकिस्तान से तीन गुना ज्यादा थी और पाकिस्तान की आंतरिक और आर्थिक स्थति भी भारत की अपेक्षा अधिक अस्त-व्यस्त थी| इसलिए यदि उस समय भारत ने लाहौर पर हमला किया होता तो पाकिस्तान को गिलगित समेत जम्मू-कश्मीर के पश्चिमी और उत्तरी क्षेत्रों से पीछे हटने को विवश किया जा सकता था इस प्रकार कश्मीर की पूरी रियासत हिंदुस्तान के कब्जे में होती|
उस समय भारतीय शासकों को दो बाते ध्यान रखनी योग्य थी एक तो भारत-पाकिस्तान का बंटवारा जनसँख्या के आधार पर नहीं बल्कि धर्म के आधार पर हुआ था और धर्म किसी राजपरिवार की बपोती नहीं थी और फैसले धर्म को आधार रखकर लेने थे वो जनमानस के अंतर्मन की पुकार होती हैं अत: भारत सरकार को कश्मीर के हिन्दुओं के हित के कदम उठाने थे जबकि ऐसा नहीं हुआ और पाकिस्तान की और से आये कबीलाई लुटेरों ने राजनेताओं की अयोग्यता के कारण कश्मीर की संस्कृति और धर्म का मर्दन करते चले गये जो आजतक नहीं रुका| दूसरा संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए गोपालस्वामी आयंगर और शेख अब्दुल्ला को भेजा गया| आयंगर इस कार्य के लिए अयोग्य सिद्ध हुए | उन्हें अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और कश्मीर समस्या का कोई ज्ञान नहीं था, और शेख अब्दुल्ला के लिए कश्मीर से पहले उसका मजहब था जबकि इस काम के लिए न्यायमूर्ति मेहरचंद महाजन सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे लेकिन पटेल का करीबी होने के कारण इस प्रखर राष्ट्रवादी का टिकट काट दिया गया| और कश्मीर समस्या के साथ-साथ लाखों हिन्दुओं का भविष्य भी संयुक्तराष्ट्रसंघ के साथ पाकिस्तानी मुस्लिमों की तलवार की धार में अटक गया ....प्रस्तुत आंकड़े बलराज मधोक की पुस्तक “कश्मीर जीत में हार” के आधार पर
राजीव चौधरी


Saturday 21 November 2015

बिना कलम के राष्ट्रवाद की बहस

अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था- कि किसी समस्या को सोच के उसी स्तर पर सुलझाना चाहिए जिस स्तर पर हमने उसे खड़ा किया हैं वरना समस्या बहस बन जाती है और बहस का अंत कई बार झगडे का नहीं तो आरोप-प्रत्यारोप का रूप धारण कर लेता हैं| मैं समझता हूँ पिछले तीस वर्षो में हमारा देश अच्छी कविताओं और कहानियों से अछूता रहा, नवीन नामचीन लेखकों ने जो लिखा उसे लोगों ने सराहा नहीं सराहा! पर जो सरहानीय रचना और कलमकार थे उनका नाम निकलकर सामने नहीं आया| जिस कारण आज केन्द्रीय सत्ता धारी  दलों के प्रवक्ताओं को मौखिक रूप से साहित्यिक भाषा में साहित्यकारों को जबाब देते देखा जा सकता हैं प्रवक्ता जहाँ गुस्से और अवसाद में अपने जोड़-तोड़ के तर्क रखते दिखाई दिए वहीं साहित्यकार मंद मुस्कान के साथ हमलावर होते दिखाई दिए, वो तो भला हो गोपाल दास नीरज, कृष्णा सोबती जैसी  नामचीन लेखकों का जो बीच-बीच में सरकार का बचाव करते नजर आयें|
हिंदुस्तान में हमेशा से कई विचारधारा के लोग रहते आयें है और आज भी एक तरफ वामपंथ की विचार धारा है तो दूसरी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का राग अलापने वाली दक्षिणपंथी विचारधारा आरएसएस जो इस साहित्यिक मोर्चे पर सबसे कमजोर नजर आई इसकी सबसे बड़ी वजह यह रही कि सत्ता से दूर रहने के कारण इन हिंदूवादी संस्थाओं से जुड़े लोग कभी पनप ही नहीं पाए और सत्ता का रस चूसते हुए साहित्यकार आगे बढ़ते गये! कहने को इन संस्थाओं से जुड़े लोग राष्ट्रवाद के गीत और गरीब जातिवाद पर लिखते रहे जिसे कभी इनकी  संस्थाओं के महंतों ने स्वीकार नहीं किया| यह लोग धार्मिक लेखक तो बन गये पर इनसे साहित्य अछूता रह गया| दूसरी और प्रकृति और धर्म को आपस में लपेट नदी,पहाड़, झरनों पर अपना साहित्यिक वर्णन कर वामपंथ की विचारधारा के लेखक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हाथ पुरस्कार सोपते चले गये और जब आज पुरस्कार लौटाने की योजना चली तो राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक लेखक दूरदर्शन की तरह हाशिये पर खड़े नजर आयें और दुसरे लेखक मनोरंजन के बड़े चैनलों की तरह हर ओर धूम मचाते नजर आये! यह तो अभी मोदी जी के प्रति देश का युवा अभी थोडा कहो या ज्यादा आशावान हैं वरना विदेशो में जिस तरह देश की किरकिरी हुई भारत में यह बच गयी कारण सोशल मीडिया पर अपने अल्प ज्ञान के बावजूद भी लोग इन कलाकारों और साहित्यकारों को टक्कर देते रहे इतिहास के पन्ने फाड़ कर इनके आगे रखते रहे  
अब कोई कुछ भी कहे बात सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों की हार जीत का नहीं वो सिर्फ शोर था जो अब कोई दूसरा रूप धारण कर लेगा लेकिन इस सन्दर्भ में जहाँ तक मेरा मानना है आज जितने भी धार्मिक संगठन हैं वो सिर्फ धर्म बचाने की दुहाई देते दिखते हैं जबकि धर्म के साथ कला, खेल साहित्य और संस्कृति का नवीन सर्जन भी होता हैं पर इन लोगों ने धर्म बचाने की पुरजोर किलकारी में इन सब चीजों का विसर्जन सा कर दिया जिसका नतीजा सही और मौलिक बात कहने वाले संस्कृति समाज और धर्म को साथ लेकर चलने वाले लोगों को पीछे किया गया  और जो भड़काऊ शैली में किसी धर्म विशेष पर मौखिक रूप से हमला करते थे उन्हें आगे करते गये जिस कारण समाज के हितों के चिन्तक चुप बैठ गये क्योंकि जरूरी नहीं सभी विचारक अच्छे वक्ता हो पर यह भी सत्य है इन प्रतिभाओं की उपेक्षा के कारण आज ये राष्ट्रवादी संगठन दरिद्र खड़े नजर आयें कोई भी सरकार कहो या राजा तलवार वाले सिपाही के मुकाबले कलम के सिपाहियों से ज्यादा भय खाता है क्योंकि तलवार का हमला शरीर को घाव दे सकता है किन्तु कलम सभ्यता, संस्कृति, इतिहास को रक्तरंजित कर सकती है देश आजाद होने से अब तक कांग्रेश ज्यादा समय सत्ता में रही और उसने इनकी रचनाओं को बिना परखे ही इन्हें पुरस्कार आदि दे कर खामोश किया जिस कारण आज हजारों साल पुरानी सभ्यता मात्र 1400 साल पुराने मानवीय कानूनों की रक्षा करती दिखाई दी कारण तर्कशास्त्री खुद को निरपेक्ष कहकर दुसरे को साम्प्रदायिक बताकर अपनी अवधारणा को वजन देकर सिद्ध करते चले गये

राजीव चौधरी 

Wednesday 18 November 2015

यदि हिन्दू तालिबान होता तो!!

पेरिस में हमला हो गया! करीब 150 के लगभग निर्दोष लोगों को मार दिए गया, हमले की जिम्मेदारी आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट इन सीरिया ने ली है, अनीष कपूर जी आप इसे कौन सा तालिबान कहेंगे या फिर भारत विरोध ही आपके लेखन का हिस्सा है ? आपने 'द गार्डियन' अखबार में जिस तरीके से दादरी की घटना का उल्लेख कर भारत में धार्मिक सहिष्णुता को  ख़तरे में बताया है उसी तरह पाकिस्तान या अन्य इस्लामिक राष्ट्रों में धार्मिक सहिष्णुता मापने का आपका पैमाना कौनसा है ? हम अभी तक नहीं समझ पाए कि आपने हिन्दू तालिबान किस आधार पर बताया है ? इस आधार पर कि बस भारत में एक मुस्लिम की हत्या हो गयी! यदि आपका मापदंड यही है तो मै आपको बता दूँ , आस्ट्रेलिया, अमेरिका व् अन्य देशों में कट्टर ईसाईयों के द्वारा सिखों व् हिन्दुओं पर अनेक हमले हो चुके क्या आप उन्हें  इसाई तालिबान कह सकते हो, या फिर इस  इस आधार पर कि यहाँ  भारत में हज सब्सिडी दी जाती है ? जो विश्व के किसी भी मुस्लिम राष्ट्र में नहीं मिलती | या फिर इस आधार पर कि भारत में मंदिरों पर टेक्स है और मस्जिदों पर नहीं? या फिर आपका आधार यह रहा हो कि भारत में उपराष्ट्रपति मुस्लिम समुदाय में है? लेकिन भारतीयों से ज्यादा सहिष्णु आपको कहाँ मिलेंगे जिनके मंदिर टूटे, जिनकी संस्कृति लुटी जिनके देवी देवता को जब कोई गाली देता है तो वो फिर भी उग्र होने के बजाय भारतीय सविंधान में आस्था रखते हुए न्याय की आस करता है  जबकि मुस्लिमों को उनके धर्मानुसार विवाह,  विरासत, और वक्फ संम्पत्ति से जूडे अधिकांश  मामले मुस्लिम कानून शरियत के द्वारा नियंत्रित करने की छुट भारत सरकार ने दे रखी है । फिर भी आपने भारत की सहनशीलता और धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न चिन्ह लगाया यदि हिन्दू तालिबान होता तो क्या ओवेसी इस तरह बयान देने की हिम्मत करता कि राम की माता कौशल्या पता नहीं कहाँ-कहाँ मुहं मारती फिरी होगी !!!!
आप सब लोग भारत को खुले मंच से बदनाम कर रहे है, क्या आप लोग इतनी  हिम्मत की पत्रकारिकता कर सकते हैं, जो खुले-आम “आई. एस. आई. एस” तालिबान  जैसे जेहादी संगठन या मुस्लिम तालिबान को या इस्लामिक बुद्धिजीवी वर्ग को कटघरे में खड़ा कर सके? पश्चिमी मीडिया पहले भारत को संपेरों का देश कहता था और जब भारत आर्थिक तरक्की करने लगा तो पश्चिमी मीडिया ने भारत को दंगों और नफरत का देश कहना शुरू कर दिया। आज उन्हें भारत के अन्दर मुस्लिमों के हितों की परवाह हो गयी लेकिन जब पाकिस्तान में 1947 से अब तक 30% हिन्दू आबादी से 2% तक आ गयी इन्हें कभी वहां मुस्लिम तालिबान नजर नहीं आया, बंगलादेश से जान बचाकर भागते हिन्दू नजर नहीं आते, 1990 में कश्मीर के अन्दर मुस्लिम तालिबान नजर नहीं आया, कुछ मुर्ख और बदजुबान नेताओं के बयान के बाद  नजर आया तो हिन्दू तालिबान! अनीष कपूर जी यदि भारत में हिन्दू तालिबान होता! तो मस्जिदों के लिए भारत में जगह न होती, पांच वक्त की नमाज भारत में न गूंजती, भारत में एक  मुस्लिम राजधानी दिल्ली का उपराज्यपाल न होता, हज के लिए सब्सिडी न होती, मक्का में भारतीय हज यात्रियों के लिए भारत सरकार के द्वारा उनके विश्राम के लिए भवन निर्माण का पैकेज न होता| आज पश्चिमी मीडिया को भारत के अन्दर दंगा, नफरत दिखाई देने लगी असहिष्णुता, असहनशीलता पर बहस मंथन होने लगे यदि हिन्दू तालिबान होता तो मुस्लिम पनाह पाने को पाकिस्तान, बांग्लादेश व् अन्य देशों की चोखट पर खड़े होते| अत: अनीष कपूर जी आप इस दोहरी विकृत मानसिकता से बाहर आकर भारत का सर्वधर्म प्रेम और भाईचारा देखना और फिर  “आई एस आई एस” पर लेख लिखकर इस्लाम पर टिप्पणी करना शायद फिर आपको धार्मिक आतंकियों का पता चल जाये !

राजीव चौधरी