Wednesday 14 October 2015

क्या संवेदना मर गयी ?

प्राणी जगत की श्रंखला में मानव को संवेदना के मामले में सबसे आगे रखा जाता है। लेकिन पिछले कुछ सालो में मनुष्य जाति की संवेदना निरंतर मरती जा रही है। संवेदना के नाम पर कुछ कानून बना दिये जाते है, कुछ को सहानुभूति जताकर कुछ पैसे या सम्मान पुरुस्कार थमा दिया जाता है। चाहें वो 1979 का गीता व संजय चोपडा सम्मान पत्र हो या 16 दिसम्बर 2012 का दामिनी का केस । हर एक जगह संवेदना कागजो के टुकड़ो से कागजो के टूकडो में दबती नजर आई। संवेदनशील होने का अर्थ ये नहीं है कि यह कहकर चल दिये गलत हुआ बल्कि संवेदनशीलता का अर्थ है। हम अब ये गलत कृत्य –कुकृत्य  नहीं होने देगें | अब यदि संवेदना के मामले में आगे बढ़े तो संवेदना या तो अपनो के लिये रह गयी या स्वार्थ के सहारे खडी रह गयी। देखा जाये तो जब इराक में हजारो यजिदी समुदाय की लड़कियों, औरतो को आइ. एस. आइ. एस. के आतंकी सिगरेट के दामों में बेचते है तब दुनिया की मानवता का ठेकेदार अमेरिका मूक पाया जाता है किन्तु जब हिसार के चर्च की नींव हिलती है तो वो भारत से दो टूक जबाब मांगता है क्यों ? क्या उन यजिदी समुदाय की  मात के चीरहरण की चीखों के मुकाबले चर्च के पत्थर ज्यादा जोर से रोये की अमेरिकी राष्ट्रपति तक की संवेदना जाग गयी। वर्ल्ड ट्रेड सेन्टर पर हमला हुआ तो अमेरिका समेत सब यूरोपीय समुदाय एक होकर ओसामा बिन लादेन को मार देता है किन्तु जब बोको हरम नाईजिरिया में इस्लाम स्वीकार न करने पर गांव के गांव को आग लगा देता है तो तब मानवीय मुल्यो पर संवेदना दिखाने वाला ठेकेदार चुप बैठ जाता है। में सिर्फ अमेरिका को दोष नहीं देता जब भारत में ही एक इसाई नन के साथकुछ लोग छेड़छाड करते है तो भारतीय मिडिया नन के प्रति इतनी संवेदना प्रकट करती जैसे द्रोपदी चीरहरण के बाद भारत में कोई दूसरा अन्याय हुआ हो। किन्तु जब सिरिया में 150 मासूम लडकियों का अपहरण होता है तब भारत के न्यूज चैनल इस मामले की निन्दा, भर्तसना करने के बजाय निर्मल दरबार दिखा रही होती है। में राजनेताओ को तो संवेदना के मामले में शुन्य समझता हूँ पिछले वर्ष जब कुछ सीमा पर तैनात जवान हमले में शहीद होते है तो तब बिहार के एक मंत्री ने कहा था  इस पर हम क्या संवेदना प्रकट करे जवान तो मरने के लिये ही होते है। जब ऐसे संवेदनशील और दुःखद अवसर पर देश के मंत्री और नेता ऐसे बयान देंगे तो आम नागरिको से क्या उम्मीद की जा सकती है और इन बयानो का नतीजा होता है कि नक्सली दिन दहाड़े हमारे जवानो की हत्या कर सड़को पर फैक देते है। कहना इतना है कि आज भागती  दौड़ती जिन्दगी में किसी भी मुददे पर आमजन की संवेदना इस कदर बिखर गयी है कि आमजन के सामने हत्या लूट-पाट हो जाती है और वो सिर्फ तमाशबीन बन देखता रह जाता है लेकिन कब तक, महाभारत में एक प्रसंग आता है जब पांड़व पुत्र सरोवर के किनारे अचेत होते है तब उन्हें जीवित करने के लिये यक्ष, युधिष्ठिर से एक प्रश्न ये भी पूछता कि दुनिया में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है, तब धर्मराज युधिष्ठिर जबाब देते हुऐ कहते है - इस दुनिया में रोजाना हजारो लोग मरते है और फिर भी हम यह सोचकर जीते है कि हमारी मौत कभी नही होगी न हमारे साथ कुछ गलत होगा। अक्सर आमजन के सामने कुछ गलत हो रहा होता है उस समय लोग संवेदनशील होने के बजाय ये सोचकर चल देते है कि हमारे साथ थोड़ा ही कुछ हो रहा है। या मेरा इस से क्या मतलब और जब घटना बड़ी बन जाती है तो वो लोग सड़को मोमबत्ती लेकर पैदल मार्च कर अव्यवस्था फैलाने निकल लेते किन्तु सामने हो रहे दुराचार का विरोध नही करते । अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक और लेखक शिव खेड़ा कहते है जब आपका पडोसी किसी के द्वारा हिंसा का शिकार हो रहा है और आप चुप है तो अगला नम्बर आपका होगा अपनी संवेदना जिन्दा रखे मरी संवेदना के साथ जीवन पशुता के समान है।


राजीव चौधरी 

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