Wednesday 14 October 2015

विस्थापितो का दर्द

अजीब विडम्बना कहो या मूक संवेदनाओ की गठरी में लिपटा मौन दर्द। यदि भारत माता के तन पर घावो की गणना की जाए तो शायद आजादी के बाद सबसे बडा घाव कश्मीरी शरणार्थियो के रूप में देखा सकता है। आज जम्मू कश्मीर का जम्मू एशिया  में विस्थापितो की कहे या शरणार्थियो का सबसे ज्यादा आबादी वाला इलाका है, या धार्मिक द्रष्टि से देखा जाये तो शरणार्थियो की राजधानी भी कह सकते है। जगह-जगह से करीब 18  लाख लोग यहा  बेहद कठिन हालातो में रहते है। पिछले दो दशको की यदि मानव त्रासदी का जिकर हो तो में सबसे बडी त्रासदी कश्मीरी पंडितो के साथ हुई मानता हूँ  क्योकि जब भी भारत में शरणार्थियो का मामला उठाया जाता है तो कश्मीरी पंडितो का नाम उभर कर सामने आता है।
आखिर क्यों कौन है ये लोग जो अपने ही देश में अपने वतन में अपनी मिटटी में विस्थापित जिन्दगी जी रहे है अगर गहराई में उतरकर देखे तो कश्मीर घाटी की तकरीबन तीन लाख लोगो की ये आबादी १९८९-९० के दौरान धार्मिक राजनीती कहो या इस्लामिक आतंकवाद के निशाने पर आ गयी थी। जब चरमपंथी गतिविधियो के तहत राज्य में पहली गोली चैदह सितंम्बर १९८९  को चली जिसने भारतीय जनता पार्टी के राज्य सचिव टिक्का लाल टपलू को निशाना बनाया फिर इसके डेढ महिने बाद सेवानिवृत सत्र न्यायाधीष नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी गयी और कश्मीरी पंडितो में दहशत का माहौल पैदा हो गया। फिर इसके बाद जब तेरह फरवरी 1990 को श्रीनगर के टेलीविजन केन्द्र के निदेशक लासा कौल की हत्या के साथ कश्मीरी पंडितो का धैर्य टूटने लगा बडे पैमाने पर लोगो ने घाटी से पलायन किया। इसके बाद जब कश्मीरी पंडितो ने डर और दहशत  हमारी जिन्दगी है। ये कहकर अपनी व्यथा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सामने रखी तो आयोग ने इस बात को तो माना कि राज्य में मानवाधिकारो का हनन हुआ है लेकिन उनकी इस मांग को खारिज कर दिया की उन्हें हिंसा का शिकार और आतंरिक रूप से विस्थापित माना जाये। जबकि इसका दूसरा पहलू ये था कि उनकी बहु, बेटियो की अस्मत लूटी गयी, उनकी धन सम्पति उनका कश्मीरी गौरव सब कुछ लूटा गया। राज्य पुलिस ने इस गंदे कृत्य को धार्मिक चादर से ढककर ये कहा, कि कौई हिंसा नहीं हुई बस लोगो में मनमुटाव था जिसके कारण पंडित लोग घाटी से बाहर से जा रहे है। इसी का कारण है आज सरकार के लाख आश्वासन के बावजूद भी ये लोग वापिस अपने घर लौटने को तैयार नहीं है। सबसे बडी बात ये है कि जहां भारत के हर एक छोटे-बडे राज्यो में अल्पसंख्यक आयोग बैठा है वही जम्मू-कश्मीर  में कोई अल्पसंख्यक आयोग नहीं है। जिस राज्य में 18 लाख लोग शरणार्थियो का जीवन जी रहे हो, उस राज्य की सरकार उनका दुःख दर्द सुनने को तैयार नहीं है।

कभी बटवारे के समय पाकिस्तान से आये हिन्दू जिन्हें भौगोलिक दूरी के साथ सांस्कृतिक रूप से जम्मू अपने ज्यादा नजदीक लगा, और वो यहीं आकर अस्थाई तौर पर बस गये इन्हें उम्मीद थी, कि भारत के दूसरे हिस्सो में पहुंचे  लोगो की तरह वो भी धीरे-धीरे जम्मू-कश्मीर  की मुख्य धारा में शामिल हो जायेंगे लेकिन आज 67 वर्ष गये समाज की मुख्यधारा तो दूर की बात वो यहां के निवासी तक नहीं बन पाये,  आज भी इन लोगो की तीसरी पीढी मतदान से लेकर शिक्षा तक के बुनयादी अधिकारो से वंचित है। जहां एक और मेज के आमने सामने बैठकर भी कश्मीर समस्या का हल आज तक नहीं निकल पाया वहां इन कश्मीरी विस्थापितो को कब न्याय मिलेगा ये कह पाना अभी असंम्भव है।   राजीव चौधरी 

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