Saturday 28 November 2015

गुरु नानक एवं उनका प्रकाश उत्सव

हम हर साल की भांति सिख समाज गुरु नानक के प्रकाश उत्सव पर गुरुद्वारा जाते हैं, शब्द कीर्तन करते हैं, लंगर छकते हैं, नगर कीर्तन निकालते हैं। चारों तरफ हर्ष और उल्लास का माहौल होता हैं। 

एक जिज्ञासु के मन में प्रश्न आया की हम सिख गुरु नानक जी का प्रकाश उत्सव क्यूँ बनाते हैं?

एक विद्वान ने उत्तर दिया की गुरु नानक और अन्य गुरु साहिबान ने अपने उपदेशों के द्वारा हमारा जो उपकार किया हैं, हम उनके सम्मान के प्रतीक रूप में उन्हें स्मरण करने के लिए उनका प्रकाश उत्सव बनाते हैं। 

जिज्ञासु ने पुछा इसका अर्थ यह हुआ की क्या हम गुरु नानक के प्रकाश उत्सव पर उनके उपदेशों को स्मरण कर उन्हें अपने जीवन में उतारे तभी उनका प्रकाश उत्सव बनाना हमारे लिए यथार्थ होगा। 

विद्वान ने उत्तर दिया आपका आशय बिलकुल सही हैं , किसी भी महापुरुष के जीवन से, उनके उपदेशों से प्रेरणा लेना ही उसके प्रति सही सम्मान दिखाना हैं। 

जिज्ञासु ने कहा गुरु नानक जी महाराज के उपदेशों से हमें क्या शिक्षा मिलती हैं। 

विद्वान ने कुछ गंभीर होते हुए कहाँ की मुख्य रूप से तो गुरु नानक जी महाराज एवं अन्य सिख गुरुओं का उद्दश्य हिन्दू समाज में समय के साथ जो बुराइयाँ आ गई थी, उनको दूर करना था, उसे मतान्ध इस्लामिक आक्रमण का सामना करने के लिए संगठित करना था। जहाँ एक ओर गुरु नानक ने अपने उपदेशों से सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध जन चेतना का प्रचार किया वही दूसरी ओर गुरु गोविन्द सिंह ने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए हिन्दू जाति में शक्ति का प्रचार किया।

गुरु साहिबान के मुख्य उपदेश इस प्रकार हैं:-



१. हिन्दू समाज से छुआछुत अर्थात जातिवाद का नाश होना चाहिए। 

२. मूर्ति पूजा आदि अन्धविश्वास एवं धर्म के नाम पर पाखंड का नाश होना चाहिए। 

३. धुम्रपान, मासांहार आदि नशों से सभी को दूर रहना चाहिए। 

४. देश, जाति और धर्म पर आने वाले संकटों का सभी संगठित होकर मुकाबला करे। 



गुरु नानक के काल में हिन्दू समाज की शक्ति छुआछुत की वीभत्स प्रथा से टुकड़े टुकड़े होकर अत्यंत क्षीण हो गयी थी जिसके कारण कोई भी विदेशी आक्रमंता हम पर आसानी से आक्रमण कर विजय प्राप्त कर लेता था। सिख गुरुओं ने इस बीमारी को मिटाने के लिए प्रचण्ड प्रयास आरम्भ किया। ध्यान दीजिये गुरु गोविन्द सिंह के पञ्च प्यारों में तो सवर्णों के साथ साथ शुद्र वर्ण के भी लोग शामिल थे। हिन्दू समाज की इस बुराई पर विजय पाने से ही वह संगठित हो सकता था। गुरु कि खालसा फौज में सभी वर्णों के लोग एक साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर शत्रु से संघर्ष करते थे, एक साथ बैठकर भोजन करते थे, खालसा कि यही एकता उनकी अपने से कही ज्यादा ताकतवर शत्रु पर विजय का कारण थी। विडंबना यह हैं कि आज का सिख समाज फिर से उसी बुराई से लिप्त हो गया हैं। हिन्दू समाज के समान सिख समाज में भी स्वर्ण और मजहबी अर्थात दलित सिख , रविदासिया सिख आदि जैसे अनेक मत उत्पन्न हो गए जिनके गुरुद्वारा, जिनके ग्रंथी, जिनके शमशान घाट सब अलग अलग हैं। कहने को वे सभी सिख हैं अर्थात गुरुओं के शिष्य हैं मगर उनमें रोटी बेटी का किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं हैं। जब सभी सिख एक ओमकार ईश्वर को मानते हैं, दस गुरु साहिबान के उपदेश और एक ही गुरु ग्रन्थ साहिब को मानते हैं तो फिर जातिवाद के लिए उनमें भेदभाव होना अत्यंत शर्मनाक बात हैं। इसी जातिवाद के चलते पंजाब में अनेक स्थानों पर मजहबी सिख ईसाई बनकर चर्च की शोभा बड़ा रहे हैं। वे हमारे ही भाई थे जोकि हमसे बिछुड़ कर हमसे दूर चले गए। आज उन्हें वापस अपने साथ मिलाने की आवश्यकता हैं और यह तभी हो सकता हैं,जब हम गुरु साहिबान का उपदेश मानेगे अर्थात छुआछुत नाम की इस बीमारी को जड़ से मिटा देगे। 

अन्धविश्वास, धर्म के नाम पर ढोंग और आडम्बर ,व्यर्थ के प्रलापों आदि में पड़कर हिन्दू समाज न केवल अपनी अध्यात्मिक उन्नति को खो चूका था अपितु इन कार्यों को करने में उसका सारा सामर्थ्य, उसके सारे संसाधन व्यय हो जाते थे। अगर सोमनाथ के मंदिर में टनों सोने को एकत्र करने के स्थान पर, उस धन को क्षात्र शक्ति को बढ़ाने में व्यय करते तो न केवल उससे आक्रमणकारियों का विनाश कर देते बल्कि हिन्दू जाति का इतिहास भी कलंकित होने से बच जाता। अगर वीर शिवाजी को अपने आपको क्षत्रिय घोषित करने में उस समय के लगभग पञ्च करोड़ को खर्च न पड़ता तो उस धन से मुगलों से संघर्ष करने में लगता। 

सिख गुरु साहिबान ने हिंदुयों की इस कमजोरी को पहचान लिया था इसलिए उन्होंने व्यर्थ के अंधविश्वास पाखंड से मुक्ति दिलाकर देश जाति और धर्म कि रक्षा के लिए तप करने का उपदेश दिया था। परन्तु आज सिख संगत फिर से उसी राह पर चल पड़ी हैं। 

सिख लेखक डॉ महीप सिंह के अनुसार गुरुद्वारा में जाकर केवल गुरु ग्रन्थ साहिब के आगे शीश नवाने से कुछ भी नहीं होगा। जब तक गुरु साहिबान की शिक्षा को जीवन में नहीं उतारा जायेगा तब तक शीश नवाना केवल मूर्ति पूजा के सामान अन्धविश्वास हैं। आज सिख समाज हिंदुयों की भांति गुरुद्वारों पर सोने की परत चढाने , हर वर्ष मार्बल लगाने रुपी अंधविश्वास में ही सबसे ज्यादा धन का व्यय कर रहा हैं। देश के लिए सिख नौजवानों को सिख गुरुओं की भांति तैयार करना उसका मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। 

गुरु साहिबान ने स्पष्ट रूप से धुम्रपान, मांसाहार आदि के लिए मना किया हैं ,जिसका अर्थ हैं की शराब, अफीम, चरस, सुल्फा, बुखी आदि तमाम नशे का निषेध हैं क्यूंकि नशे से न केवल शरीर खोखला हो जाता हैं बल्कि उसके साथ साथ मनुष्य की बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती हैं और ऐसा व्यक्ति समाज के लिए कल्याणकारी नहीं अपितु विनाशकारी बन जाता हैं। उस काल में कहीं गयी यह बात आज भी कितनी सार्थक और प्रभावशाली हैं। आज सिख समाज के लिए यह सबसे बड़े चिंता का विषय भी बन चूका हैं की उसके नौजवान पतन के मार्ग पर जा रहे हैं। ऐसी शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार कौम धर्म, देश और जाति का क्या ही भला कर सकती हैं?

जब एक विचार, एक आचार , एक व्यवहार नहीं होगा तब तक एकता नहीं होगी, संगठन नहीं होगा। जब तक संगठित नहीं होगे तब देश के समक्ष आने वाली विपत्तियों का सामना कैसे होगा? खेद हैं कि सिख गुरुओं द्वारा जो धार्मिक और सामाजिक क्रांति का सन्देश दिया गया था उसे सिख समाज व्यवहार में नहीं ला रहा हैं। जब तक गुरुओं कि बात को जीवन का अंग नहीं बनाया जायेगा तब तक किसी का भी उद्धार नहीं हो सकता। 

जिज्ञासु - आज गुरु नानक देव के प्रकाश उत्सव पर आपने गुरु साहिबान के उपदेशों को अत्यंत सरल रूप प्रस्तुत किया जिनकी आज के दूषित वातावरण में कितनी आवश्यकता हैं यह बताकर आपने सबका भला किया हैं, आपका अत्यंत धन्यवाद। 
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा


डॉ विवेक आर्य

Wednesday 25 November 2015

आखिर क्यों खाली हुआ कश्मीर!!

अभी कुछ दिन पहले एक महोदय ने पूछा आप लोग कश्मीर पर इतना क्यों लिखते हो, तब हमने कहा था जो घाव ज्यादा गहरा हो वो ही सबसे ज्यादा दर्द करता हैं, कारण सैनिक द्रष्टि से प्रत्येक बार कश्मीर पर सफलता पाने के बावजूद भी हम राजनैतिक द्रष्टि से हर बार हारते रहे और खारे खून के आंसू आँखों से रिसते रहे| लेकिन जब हम सच के गहरे तल में जाकर देखते है कि 1947 में जिस राज्य का राजा हिन्दू हुआ करता था आज वहां हिन्दू प्रजा भी नजर नहीं आती क्योंकि शेष भारत की तरह इस क्षेत्र में भी हिन्दू समाज विभिन्न जातियों और उपजातियों में बंटा हुआ था | जनसँख्या की द्रष्टि से उसमें ब्राह्मण, राजपूत और हरिजन प्रमुख थे  वैश्य तथा अन्य जातियां भी थोड़ी-बहुत संख्या में थी |
ब्राह्मणों और राजपूतों में एक प्रकार की वैमनस्य की भावना भी थी| इसी का फायदा उठाते हुए शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर के उन हिस्सों में जो हिन्दू जनसँख्या बाहुल था उसमें मुस्लिमों को बसने का आदेश दिया नतीजा बहु-प्रथा के कारण उनकी आबादी बढती चली गयी दूसरी और किश्तवाड़ और भद्रवाह की स्थानीय हिन्दू जनसँख्या उंच-नीच की जातिगत कारणों से धर्मपरिवर्तन कर कम होती चली गई| फलस्वरूप उधमपुर जिला समग्र रूप से हिन्दू-बाहुल था इसका पीरपंचाल के साथ लगने वाला यह उत्तरी भाग मुस्लिम बाहुल हो गया था शेख अब्दुल्ला की नीति कामयाब हो गयी थी सबसे पहले उसने इन मुस्लिम-बाहुल क्षेत्रों को जम्मू से काटने की योजना बनाते हुए जिलों के पुनर्गठन के नाम पर मुस्लिम जिले बना दिए जिनका प्रशासनिक केंद्र मुस्लिम इलाको में बना दिया था|
मुस्लिम समुदाय की हमेशा से एक नीति रही हैं कि वो पहले दुसरे समुदायों में जो उपेक्षित हैं, प्रताड़ित हैं, जिस पर जातिगत रूप से टिप्पणी या धार्मिक स्थलों से जिसका तिरस्कार किया जाता है उसे उसकी उपेक्षा का आभास करा अपने साथ करता है, और फिर धार्मिक रूप सामाजिक रूप से संपन्न समुदाय पर हथियारों के बल पर हमला करता हैं तब उसे अहसास होता है कि वो उपेक्षित लोग छोटी जाति के नही बल्कि हमारी धर्म संस्कृति की नीव थी| ठीक यही हाल कश्मीर में हुआ पहले उपेक्षित समुदाय खुद में मिलाया फिर कश्मीरी पंडितो पर हमला किया पंडित नेहरु खुद को कश्मीर का ठेकेदार समझते रहे  जिस कारण वे कश्मीर के मसले पर शेख अब्दुल्ला के अतिरिक्त किसी की बात सुनने को तैयार नहीं थे और शेख अब्दुल्ला की द्रष्टि मुस्लिमों के हित और चिंतन तक सिमित थी| वरना उस समय भारत की सैनिक शक्ति पाकिस्तान से तीन गुना ज्यादा थी और पाकिस्तान की आंतरिक और आर्थिक स्थति भी भारत की अपेक्षा अधिक अस्त-व्यस्त थी| इसलिए यदि उस समय भारत ने लाहौर पर हमला किया होता तो पाकिस्तान को गिलगित समेत जम्मू-कश्मीर के पश्चिमी और उत्तरी क्षेत्रों से पीछे हटने को विवश किया जा सकता था इस प्रकार कश्मीर की पूरी रियासत हिंदुस्तान के कब्जे में होती|
उस समय भारतीय शासकों को दो बाते ध्यान रखनी योग्य थी एक तो भारत-पाकिस्तान का बंटवारा जनसँख्या के आधार पर नहीं बल्कि धर्म के आधार पर हुआ था और धर्म किसी राजपरिवार की बपोती नहीं थी और फैसले धर्म को आधार रखकर लेने थे वो जनमानस के अंतर्मन की पुकार होती हैं अत: भारत सरकार को कश्मीर के हिन्दुओं के हित के कदम उठाने थे जबकि ऐसा नहीं हुआ और पाकिस्तान की और से आये कबीलाई लुटेरों ने राजनेताओं की अयोग्यता के कारण कश्मीर की संस्कृति और धर्म का मर्दन करते चले गये जो आजतक नहीं रुका| दूसरा संयुक्त राष्ट्रसंघ में भारत का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए गोपालस्वामी आयंगर और शेख अब्दुल्ला को भेजा गया| आयंगर इस कार्य के लिए अयोग्य सिद्ध हुए | उन्हें अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति और कश्मीर समस्या का कोई ज्ञान नहीं था, और शेख अब्दुल्ला के लिए कश्मीर से पहले उसका मजहब था जबकि इस काम के लिए न्यायमूर्ति मेहरचंद महाजन सबसे उपयुक्त व्यक्ति थे लेकिन पटेल का करीबी होने के कारण इस प्रखर राष्ट्रवादी का टिकट काट दिया गया| और कश्मीर समस्या के साथ-साथ लाखों हिन्दुओं का भविष्य भी संयुक्तराष्ट्रसंघ के साथ पाकिस्तानी मुस्लिमों की तलवार की धार में अटक गया ....प्रस्तुत आंकड़े बलराज मधोक की पुस्तक “कश्मीर जीत में हार” के आधार पर
राजीव चौधरी


Saturday 21 November 2015

बिना कलम के राष्ट्रवाद की बहस

अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था- कि किसी समस्या को सोच के उसी स्तर पर सुलझाना चाहिए जिस स्तर पर हमने उसे खड़ा किया हैं वरना समस्या बहस बन जाती है और बहस का अंत कई बार झगडे का नहीं तो आरोप-प्रत्यारोप का रूप धारण कर लेता हैं| मैं समझता हूँ पिछले तीस वर्षो में हमारा देश अच्छी कविताओं और कहानियों से अछूता रहा, नवीन नामचीन लेखकों ने जो लिखा उसे लोगों ने सराहा नहीं सराहा! पर जो सरहानीय रचना और कलमकार थे उनका नाम निकलकर सामने नहीं आया| जिस कारण आज केन्द्रीय सत्ता धारी  दलों के प्रवक्ताओं को मौखिक रूप से साहित्यिक भाषा में साहित्यकारों को जबाब देते देखा जा सकता हैं प्रवक्ता जहाँ गुस्से और अवसाद में अपने जोड़-तोड़ के तर्क रखते दिखाई दिए वहीं साहित्यकार मंद मुस्कान के साथ हमलावर होते दिखाई दिए, वो तो भला हो गोपाल दास नीरज, कृष्णा सोबती जैसी  नामचीन लेखकों का जो बीच-बीच में सरकार का बचाव करते नजर आयें|
हिंदुस्तान में हमेशा से कई विचारधारा के लोग रहते आयें है और आज भी एक तरफ वामपंथ की विचार धारा है तो दूसरी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का राग अलापने वाली दक्षिणपंथी विचारधारा आरएसएस जो इस साहित्यिक मोर्चे पर सबसे कमजोर नजर आई इसकी सबसे बड़ी वजह यह रही कि सत्ता से दूर रहने के कारण इन हिंदूवादी संस्थाओं से जुड़े लोग कभी पनप ही नहीं पाए और सत्ता का रस चूसते हुए साहित्यकार आगे बढ़ते गये! कहने को इन संस्थाओं से जुड़े लोग राष्ट्रवाद के गीत और गरीब जातिवाद पर लिखते रहे जिसे कभी इनकी  संस्थाओं के महंतों ने स्वीकार नहीं किया| यह लोग धार्मिक लेखक तो बन गये पर इनसे साहित्य अछूता रह गया| दूसरी और प्रकृति और धर्म को आपस में लपेट नदी,पहाड़, झरनों पर अपना साहित्यिक वर्णन कर वामपंथ की विचारधारा के लेखक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हाथ पुरस्कार सोपते चले गये और जब आज पुरस्कार लौटाने की योजना चली तो राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक लेखक दूरदर्शन की तरह हाशिये पर खड़े नजर आयें और दुसरे लेखक मनोरंजन के बड़े चैनलों की तरह हर ओर धूम मचाते नजर आये! यह तो अभी मोदी जी के प्रति देश का युवा अभी थोडा कहो या ज्यादा आशावान हैं वरना विदेशो में जिस तरह देश की किरकिरी हुई भारत में यह बच गयी कारण सोशल मीडिया पर अपने अल्प ज्ञान के बावजूद भी लोग इन कलाकारों और साहित्यकारों को टक्कर देते रहे इतिहास के पन्ने फाड़ कर इनके आगे रखते रहे  
अब कोई कुछ भी कहे बात सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों की हार जीत का नहीं वो सिर्फ शोर था जो अब कोई दूसरा रूप धारण कर लेगा लेकिन इस सन्दर्भ में जहाँ तक मेरा मानना है आज जितने भी धार्मिक संगठन हैं वो सिर्फ धर्म बचाने की दुहाई देते दिखते हैं जबकि धर्म के साथ कला, खेल साहित्य और संस्कृति का नवीन सर्जन भी होता हैं पर इन लोगों ने धर्म बचाने की पुरजोर किलकारी में इन सब चीजों का विसर्जन सा कर दिया जिसका नतीजा सही और मौलिक बात कहने वाले संस्कृति समाज और धर्म को साथ लेकर चलने वाले लोगों को पीछे किया गया  और जो भड़काऊ शैली में किसी धर्म विशेष पर मौखिक रूप से हमला करते थे उन्हें आगे करते गये जिस कारण समाज के हितों के चिन्तक चुप बैठ गये क्योंकि जरूरी नहीं सभी विचारक अच्छे वक्ता हो पर यह भी सत्य है इन प्रतिभाओं की उपेक्षा के कारण आज ये राष्ट्रवादी संगठन दरिद्र खड़े नजर आयें कोई भी सरकार कहो या राजा तलवार वाले सिपाही के मुकाबले कलम के सिपाहियों से ज्यादा भय खाता है क्योंकि तलवार का हमला शरीर को घाव दे सकता है किन्तु कलम सभ्यता, संस्कृति, इतिहास को रक्तरंजित कर सकती है देश आजाद होने से अब तक कांग्रेश ज्यादा समय सत्ता में रही और उसने इनकी रचनाओं को बिना परखे ही इन्हें पुरस्कार आदि दे कर खामोश किया जिस कारण आज हजारों साल पुरानी सभ्यता मात्र 1400 साल पुराने मानवीय कानूनों की रक्षा करती दिखाई दी कारण तर्कशास्त्री खुद को निरपेक्ष कहकर दुसरे को साम्प्रदायिक बताकर अपनी अवधारणा को वजन देकर सिद्ध करते चले गये

राजीव चौधरी 

Wednesday 18 November 2015

यदि हिन्दू तालिबान होता तो!!

पेरिस में हमला हो गया! करीब 150 के लगभग निर्दोष लोगों को मार दिए गया, हमले की जिम्मेदारी आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट इन सीरिया ने ली है, अनीष कपूर जी आप इसे कौन सा तालिबान कहेंगे या फिर भारत विरोध ही आपके लेखन का हिस्सा है ? आपने 'द गार्डियन' अखबार में जिस तरीके से दादरी की घटना का उल्लेख कर भारत में धार्मिक सहिष्णुता को  ख़तरे में बताया है उसी तरह पाकिस्तान या अन्य इस्लामिक राष्ट्रों में धार्मिक सहिष्णुता मापने का आपका पैमाना कौनसा है ? हम अभी तक नहीं समझ पाए कि आपने हिन्दू तालिबान किस आधार पर बताया है ? इस आधार पर कि बस भारत में एक मुस्लिम की हत्या हो गयी! यदि आपका मापदंड यही है तो मै आपको बता दूँ , आस्ट्रेलिया, अमेरिका व् अन्य देशों में कट्टर ईसाईयों के द्वारा सिखों व् हिन्दुओं पर अनेक हमले हो चुके क्या आप उन्हें  इसाई तालिबान कह सकते हो, या फिर इस  इस आधार पर कि यहाँ  भारत में हज सब्सिडी दी जाती है ? जो विश्व के किसी भी मुस्लिम राष्ट्र में नहीं मिलती | या फिर इस आधार पर कि भारत में मंदिरों पर टेक्स है और मस्जिदों पर नहीं? या फिर आपका आधार यह रहा हो कि भारत में उपराष्ट्रपति मुस्लिम समुदाय में है? लेकिन भारतीयों से ज्यादा सहिष्णु आपको कहाँ मिलेंगे जिनके मंदिर टूटे, जिनकी संस्कृति लुटी जिनके देवी देवता को जब कोई गाली देता है तो वो फिर भी उग्र होने के बजाय भारतीय सविंधान में आस्था रखते हुए न्याय की आस करता है  जबकि मुस्लिमों को उनके धर्मानुसार विवाह,  विरासत, और वक्फ संम्पत्ति से जूडे अधिकांश  मामले मुस्लिम कानून शरियत के द्वारा नियंत्रित करने की छुट भारत सरकार ने दे रखी है । फिर भी आपने भारत की सहनशीलता और धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्न चिन्ह लगाया यदि हिन्दू तालिबान होता तो क्या ओवेसी इस तरह बयान देने की हिम्मत करता कि राम की माता कौशल्या पता नहीं कहाँ-कहाँ मुहं मारती फिरी होगी !!!!
आप सब लोग भारत को खुले मंच से बदनाम कर रहे है, क्या आप लोग इतनी  हिम्मत की पत्रकारिकता कर सकते हैं, जो खुले-आम “आई. एस. आई. एस” तालिबान  जैसे जेहादी संगठन या मुस्लिम तालिबान को या इस्लामिक बुद्धिजीवी वर्ग को कटघरे में खड़ा कर सके? पश्चिमी मीडिया पहले भारत को संपेरों का देश कहता था और जब भारत आर्थिक तरक्की करने लगा तो पश्चिमी मीडिया ने भारत को दंगों और नफरत का देश कहना शुरू कर दिया। आज उन्हें भारत के अन्दर मुस्लिमों के हितों की परवाह हो गयी लेकिन जब पाकिस्तान में 1947 से अब तक 30% हिन्दू आबादी से 2% तक आ गयी इन्हें कभी वहां मुस्लिम तालिबान नजर नहीं आया, बंगलादेश से जान बचाकर भागते हिन्दू नजर नहीं आते, 1990 में कश्मीर के अन्दर मुस्लिम तालिबान नजर नहीं आया, कुछ मुर्ख और बदजुबान नेताओं के बयान के बाद  नजर आया तो हिन्दू तालिबान! अनीष कपूर जी यदि भारत में हिन्दू तालिबान होता! तो मस्जिदों के लिए भारत में जगह न होती, पांच वक्त की नमाज भारत में न गूंजती, भारत में एक  मुस्लिम राजधानी दिल्ली का उपराज्यपाल न होता, हज के लिए सब्सिडी न होती, मक्का में भारतीय हज यात्रियों के लिए भारत सरकार के द्वारा उनके विश्राम के लिए भवन निर्माण का पैकेज न होता| आज पश्चिमी मीडिया को भारत के अन्दर दंगा, नफरत दिखाई देने लगी असहिष्णुता, असहनशीलता पर बहस मंथन होने लगे यदि हिन्दू तालिबान होता तो मुस्लिम पनाह पाने को पाकिस्तान, बांग्लादेश व् अन्य देशों की चोखट पर खड़े होते| अत: अनीष कपूर जी आप इस दोहरी विकृत मानसिकता से बाहर आकर भारत का सर्वधर्म प्रेम और भाईचारा देखना और फिर  “आई एस आई एस” पर लेख लिखकर इस्लाम पर टिप्पणी करना शायद फिर आपको धार्मिक आतंकियों का पता चल जाये !

राजीव चौधरी


Friday 13 November 2015

जाति नही, देश बचाओं

पाकिस्तान के समाचार पत्रों में जिस तरीके से बिहार चुनाव के नतीजे प्रथम पृष्ट पर  छपे भारत के एक राजनैतिक दल बीजेपी की हार को प्रमुखता से छापा और बाद में वहां के आर्मी चीफ व् अन्य राजनेतिक दलों ने ट्वीट किये ये विदेशी शुभकामनायें भले ही चुनाव जीतने वाले दल के लिए के लिए ख़ुशी का विषय रहा पर देश के लोगों के लिए जरूर आत्म मंथन का विषय है!! क्योंकि जब-जब भारत जातिवाद में बटता है भारत कमजोर होता है और उसकी कमजोरी ही दुश्मनों की मजबूती है और उसका जीता जागता उदहारण है ये विदेशी शुभकामनायें! हमें  यह कहना तो नहीं चाहिए था|  क्योंकि हम किसी राजनैतिक पार्टी या दल के ध्वज के मुकाबले भारतीय तिरंगे का सम्मान करना पसंद करते  हैं, और चाहते है समस्त भारत जातिवाद और क्षेत्रवाद के दलदल से बाहर आकर एक सूत्र में पिरोई हुई भारत माता के कंठ की माला बने| लेकिन दुर्भाग्य से देश फिर जातिवाद और भाषावाद और क्षेत्रवाद की तरफ जा रहा है!
कहते है, हमेशा किसी  देश का बुद्धिजीवी वर्ग , विद्वान वर्ग, समाचार पत्र और मीडिया कलम के बल पर देश को एकता अखंडता में बांधते है किन्तु जब यह बात भारत पर लागू  करके देखते हैं तो नतीजा बड़ा भयानक दिखाई देता हैं| और स्वार्थ की अग्नि में जले लोग भारत की एकता को जलाते दिख जायेंगे| मुझे ये सब कहना और लिखना तो नहीं चाहिए पर सच के सूरज को झूट की चादर से नहीं छिपाया जा सकता बिहार चुनाव में बाहरी और बिहारी का मुद्दा बड़ा उछला मीडिया ने इसे बड़ा रंग दिया क्या बिहार देश का हिस्सा नहीं है जो उसे बाहरी और बिहारी में बाँट दिया गया ? कैसे एक मीडिया कर्मी बिहार की गलियों में लोगों से पूछता है आप किस जाति के हो और आप किस पार्टी को वोट करेंगे! क्या यह पत्रकारिता का ओछा उदहारण नहीं है? पत्रकारों का काम होता हैं लोगों से उनकी समस्याएं, उनके मौलिक अधिकार, उनकी मौलिक जरूरते, शिक्षा, रोजगार आदि समस्याओं को सार्वजनिक मंचो पर उठाये, न की उन्हें जातिवाद, भेदभाव, छुआछूत आदि में डुबाये|
सब का मानना है इस समय इस देश को औधोगिक विकास की आवश्यकता है लेकिन उससे  पहले मेरा मानना है इस देश को सामाजिक विकास की जरूरत है, इसके बाद ही यहाँ आर्थिक और औधोगिक विकास हो सकता है क्योंकि अभी तो यह देश सामाजिक विकास में ही दिन पर दिन पिछड़ता दिखाई दे रहा है, भारत में चुनाव में जातिवाद के बेहद गाढ़े रंग की बड़ी लंबी दास्तान है। यह प्रकट तौर पर जीत का सबसे बड़ा उपाय है। बात कभी वोट हमारा, राज तुम्हारा नहीं चलेगा, नहीं चलेगा, से शुरू हुई थी और अब जाति से जाति को काटने की नौबत आ गई है। हर एक प्रान्त में चुनाव जाति के आधार पर ही हो रहा है और खुलेआम हो रहा है। मीडिया इस खेल में खुद शामिल होकर जातिगत वोटों की बन्दर बाँट करता दिख जायेगा, सबका एक ही फॉर्मूला है, उसी जाति के उम्मीदवार को टिकट, जिसके वोट की गारंटी हो। जाति की काट में जाति। ऐसा हाल तब है,  जब देश को विकास की खास दरकार है। मगर यह सब भूल कर देश के लोग अपनी-अपनी जाति को देख रहे है, चुनाव से पहले लोगों के पास मुद्दे होते है, शिक्षा, स्वास्थ , रोजगार, सड़क, लेकिन जब वो वोट डालने जाता हैं तो उसके दिमाग में सिर्फ एक चीज रहती है जाति,जाति,अपनी जाति
अब देश के लोग यह सोच रहे हो कि उन्हें जातिवाद के कुचक्रों से निकलने कोई अवतार या राजनैतिक दल आएगा तो भूल जाओ! निकलना खुद ही पड़ेगा, अब निकल जाओंगे तो संभल जाओंगे  नहीं तो न जाति बचेगी न देश बचेगा
दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा

राजीव चौधरी 

Monday 9 November 2015

..दया के धनी देव दयानन्द

महर्षि दयानंद सरस्वती जी के निर्वाण पर्व पर विशेष 


जब जगन्नाथ ने अंग्रेजो के बहकावे में आकर ऋषि दयानन्द जी को दूध में जहर मिलाकर दे दिया, स्वामी जी की  हालत बिगड़ने लगी, डॉ अलीमरदान ने दवा के बहाने स्वामी जी के शरीर में जहर से भरा इंजेक्शन लगा दिया और स्वामी जी के शरीर से जहर फूटने लगा अतः रसोईये को अपनी गलती महसूस हुई, तो उसने स्वामी जी के पास जाकर माफी मांगी। मुझे क्षमा कर दिजिए, स्वामी जी। मैने भयानक पाप किया हैं, आप के दूध में शीशायुक्त जहर मिला दिया था।
ये तुने क्या किया? समाज का कार्य अधुरा ही रह गया। अभी लोगों की आत्मा को और जगाना था, स्वराज की क्रांति लानी थी|  पर जो होना था हो गया तु अब ये पैसा ले और यहां से चला जा नहीं तो राजा तुझे मृत्यु दंड दे देगें। ऐसे थे हमारे देव दयानन्द जी, दया का भंडार,करुणा के सागर आकाश के समान विशाल ह्रदय जो अपने हत्यारे को भी क्षमा कर गये थे। जिसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा और दीपावली की रात लाखो दिए जलाकर वो ज्ञान और दया का दीप खुद बुझ गया जिसका दुनिया में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलेगा
यू तो स्वतन्त्र भारत में ऋषि निर्वाणोत्सव पहली बार सन 1949  में मनाया गया और इस अवसर पर मुख्य वक्ता स्वतन्त्र भारत के राष्ट्रध्यक्ष चक्रवर्ती राजगोपालचारी थे इस अवसर पर समारोह की अध्यक्षता कर रहे  केन्द्रीय मंत्री श्री नरहरि विष्णु गाडगिल जी ने बोलते हुए कहा कि यदि यह देश स्वामी दयानन्द के मार्ग पर चला होता तो कश्मीर पाकिस्तान में न जाता।,,  इस बात को अल जमीयत अखबार ने मोटे अक्षरो में मुख्य पेज पर दिया। इसकी एक प्रति लेकर मौलाना अबुल कलाम आजाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के पास लेकर पहुंचे और शिकायत की कि आपका मन्त्री शुद्धी का प्रचार कर रहा है।   अगले साल (1950) मुख्यवक्ता के रुप में सरदार बल्लभभाई पटेल पधारे और उन्हौनें अपने भाषण में कहा कि यदि हमनें स्वामी दयानन्द की बात मानी होती तो आज कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में लटका न होता। इसके कुछ दिन बाद ही बम्बई में सरदार पटेल जी का निधन हो गया और उनके इस कथन के अभिप्राय को पूरी तरह  न जाना जा सका। लेकिन इंडियन एक्सप्रैस नई दिल्ली के 7  जून 1990 के अंक में प्रकाशित एक व्क्तव्य से पूरी तरह स्पस्ट हो गया उसमें लिखा था। देश के स्वतंत्र हो जाने पर यहां रहे ब्रिटिष सैनिकों अधिकारियों ने भारत सरकार को कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ को सौंपने की सलाह दी थी। इससे पाकिस्तान को कश्मीर के मामले को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर उठाने का अवसर मिला। इसी के परिणाम स्वरूप भारत को पाकिस्तान के तीन चार आक्रमणों का सामना करना पड़ा। इसी संदर्भ में सरदार पटेल के अनुसार यह सब ऋषि दयानन्द की बात न मानने के कारण हुआ। सत्यार्थ प्रकाश के छटे सम्मुलास में उन्होंने लिखा है कि मंत्री स्वराज स्वदेश में उत्पन्न होने चाहिए। वे जिनकी जड़े अपने देश की मिट्टी में हो, जो विदेश से आयातीत न हो और जिनकी आस्था अपने धर्म संस्कृति , सभ्यता, परम्पराओं में हो। दयानन्द के उक्त लेख की अवेहलना के कारण ही हमने इतनी हानि उठाई है। विदेशी प्रशासक कुशल तो हो सकता है, पर हितेषी नहीं।
स्वामी दयानन्द जी का मत था भिन्न-भिन्न भाषा प्रथक-प्रथक शिक्षा और अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। दयानन्द के शब्दों में जब तक एक मत एक हानि-लाभ, एक सुख-दुःख न मानें तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है। जब भूगोल में एक मत था उसी में सबकी निष्ठा थी और एक दूसरे का सुख-दुःख, हानि-लाभ आपस में सब समान समझते थे तभी तक सुख था। स्वामी जी हमेशा कहते थे एक धर्म, एक भाषा और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण हित होना कठिन है। सब उन्नतियों का केन्द्र स्थान एक है। जहां भाषा व भावना में एकता आ जाए वहां सागर की भांति सारे सुःख एक-एक करके प्रवेश करने लगते हैं। मैं चाहता हूं कि देश के राजा महाराजा अपने शासन में सुधान व संशोधन करें। अपने-अपने राज्य में धर्म भाषा और भाव में एकता करें। फिर भारत में आप ही आप सुधार हो जाएगा।राजीव चौधरी 


आओ कश्मीर को सहिष्णु बनाये

सितम्बर, 1920 में असहयोग आन्दोलन छिड़ा था आज 95 साल बाद देश के अन्दर सहिष्णुता का आन्दोलन छिड़ा है| अब हम चाहते है जब देश को सहिष्णु बना ही रहे है तो क्यों न पुरे देश को ही सहिष्णु बनाया जाये क्योंकि ये क्षेत्रवाद देश के लिए घातक है सबसे पहले सहिष्णु टीम को मेरा आमन्त्रण कश्मीर घाटी के अन्दर है, जहाँ रोजाना कश्मीर बनेगा पाकिस्तान। के नारों के साथ सेना के जवानों और हिन्दुओं पर हमले होते हैं| दादरी में इखलाक की हत्या के बाद से देश को सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने निकले इन सेकुलर जमात के ठेकेदारों से मेरा पहला प्रश्न यह  है कि क्या ये लोग इस भारतीय क्षमा सहिंता का यह पाठ कश्मीर को भी पढ़ा सकते है? जहाँ के अखबार भी मजहबी मानसिकता का शिकार होकर लिखते है कि कश्मीर घाटी में हिंदुओं को बसाकर, लाखों सैनिकों को तैनात कर और तथाकथित चुनावों के जरिए कठपुतली सरकार बनवाने से कश्मीर भारत का अटूट अंग नहीं बन जाता है।
दूसरा प्रश्न क्या यह लोग वहां के उन मजहबी ठेकेदारों जो मस्जिद की मीनार से कहते है कि कश्मीरियों ने अपनी तीन पीढियां स्वतंत्रता के लिए बलिदान की हैं, वो भला कैसे भारत के गुलाम रह सकते हैं, इसलिए दुनिया जल्द वो दिन देखेगी जब कश्मीर में स्वतंत्रता का सूरज निकलेगा। उन्हें भी सहिष्णुता का पाठ पढ़ा सकते है? या फिर कश्मीरी पंडितो को वापिस कश्मीर में बसाने की बात करना ही इन लोगों को असहिष्णुता नजर आती है आज देश में इन लोगों ने एक नई विडम्बना पैदा कर दी हैं गौहत्या के खिलाफ बोलना, कश्मीर, बंगाल के हिन्दुओं की बात करने को यह लोग साम्प्रदायिकता कहते है जो  गाय को इनका निवाला बना दे तो वो इन्हें सहिष्णु और धर्मनिरपेक्ष नजर आते हैं| आखिर कौन है ये लोग कहीं ये वो ही तो नहीं जो याकूब की फांसी के खिलाफ पूरी रात सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर खड़े रहे थे? या वो जो आतंकी अफजल गुरु की फांसी पर रोये थे? पर यह लोग जब कहाँ थे जब चट्टीसिंहपूरा में मजहबी पागलों के झुण्ड ने निर्दोष हिन्दुओं  को सामूहिक रूप से कत्ल किया था चलो ये घाव पुराना है शायद इन्हें अपने सेकुलर चश्मे से दिखाई न दे पर अभी हाल ही में जम्मू कश्मीर में बुरहान वानी की मौत के बाद  नकाबपोश प्रदर्शनकारियों ने तिरंगा जलाया. उनके और सुरक्षाबलों के बीच झड़प में 14 सेना के जवानों समेत करीब हजारों लोग घायल हो गए है अब इनका यह सहिष्णुता का झुनझुना कहाँ है ? अभी कुछ दिन पहले पीडीपी विधायक पीर मंसूर जी ने आम जनता को संबोधित करते हुये कहा था कि कश्मीर मे मुसलमान बहू संख्यक है, इसलिये कोई गैर मुस्लिम मुख्य मंत्री नही बन सकता है क्यों नही बन सकता जबकि इस देश मे महबूबा जी के पिता जी ग्रह मंत्री भी रह चुके है और देश मे तीन राष्ट्रपति भी हो चुके है [जाकिर हुसैन जी ,फ़ख़रुद्दीन जी , कलाम जी] और आज भी उप राष्ट्र पति जी एक मुस्लिम है क्या यह सहिष्णुता सिर्फ हिन्दुओं के लिए हैं ? क्योंकि भारत के अन्य राज्यो मे भी मुस्लिम मुख्य मंत्री रह चुके है राजस्थान महाराष्ट्र असम और बिहार आदि शामिल रहे है| लेकिन इस बात को कहते वक्त ये तथाकथित बुद्दिजीवी धर्मनिरपेक्षता की जुगाली कर जाते है आज कसूरी की किताब के विमोचन पर यह लोग सहिष्णुता का पाठ पढ़ा रहे है लेकिन जब सलमान रुश्दी की किताब शैतानी आयते (सेटेनिक वर्सेस ) पर प्रतिबंद लगाया जब ओवैसी बंधू 15 मिनट पुलिस हटाकर हिन्दुओं को देख लेने की बात कहता है तब इनके असहिष्णुता के मापदंड क्या थे ? शायद वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती सही कहती है कि ये लोग लेखक और इतिहासकार नहीं सत्ता के माफिया हैं जो इखलाक पर रोते है पर कश्मीर पर इनके हलक सूख जाते हैं इखलाक की मौत पर अपने पैने पंजे ज़माने वाले राजनेता और कलाकार एक बार जनेऊ धारण कर सर पर शिखा रख श्रीनगर लाल चौक पर घूम आये शायद सहिष्णुता की सही परिभाषा का पता लग जाये !

दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा ....
राजीव चौधरी 

Thursday 5 November 2015

अभी बहुत गीताएँ बाकी है।

पाकिस्तान ने भारत की गीता सकुशल लौटा दी जिसकी चहुँ ओर प्रशंसा हो रही है। 23 साल की हो चुकी गीता उस समय महज सात या आठ साल की थी, जब वह आज से 15 साल पहले पाकिस्तानी रेंजर्स को लाहौर रेलवे स्टेशन पर समझौता एक्सप्रेस में अकेली बैठी मिली थी. पाकिस्तान में मानव अधिकार संगठन और सामाजिक क्षेत्रों में काम करने वाली संस्था बिलकीस एदी ने मूकबधिर गीता को गोद ले लिया था और तब से वह उनके साथ कराँची में ही रहती थी। गीता की कहानी फिल्मी कहानी की तरह है। गीता ने अपने परिवार को एक तस्वीर के जरिए पहचाना था। यह तस्वीर उसे इस्लामाबाद स्थित भारतीय उच्चायोग ने भेजी थी। गीता का परिवार कथित तौर पर बिहार से है फैजल एदी के अनुसार, गीता ने उन्हें साकेंतिक  भाषा में बताया था कि उसके पिता एक बूढे व्यक्ति थे और उसकी एक सौतेली मां और सौतेले भाई-बहन   थे। बहरहाल गीता वापिस आ गयी अब उसके असली माता-पिता खोजे जाने बाकी है। भारत सरकार की ओर से गीता की वापिसी पर एदी फाउन्डेशन को 1 करोड रुपये इनाम सहायता राशि देने की जो पेशकश की थी उसे भी बिलकीस बानो ने यह कहकर लेने से मना कर दी कि उनका संस्थान सरकारी धन इस्तेमाल नहीं करता।
पर फिर भी हमे शुक्रिया अदा करना चाहिए एदी फाडन्डेशन का जिसने आज के वेह्शी समाज और पाकिस्तान जैसे इस्लामिक मुल्क में जहां नारी को पैर की जूती समझा जाता है वहां इस मासूस को छत और मां-बाप की तरह प्यार दिया। उसकी वतन वापिसी के भावुक क्षण पर एदी फाउन्डेशन की अध्यक्ष बिलकीस बानो ने भावुक होते हुए कहा हम पाकिस्तान चले जायेगे, पर दिल में इसकी यादें रह जायेगी। लेकिन जिस तरह पूरा देश इसे हाथों-हाथ ले रहा है, वह एक समाज के तौर पर हमारे संवेदनशील होने का सूचक है। यह  बताता है कि हमें दूसरे के दुख-दर्द में खुद को शामिल करना आता है। भारत नाम के इस देश का अस्तित्व कागज पर खिंची कुछ लकीरो में नहीं है यह एक दूसरे के दिल में भी बसता है।
अब यदि हम एक गीता की वापिसी का जश्न हर रोज मनायें तो हमको यह शोभा नहीं देगा क्यूकि यहां तो हर रोज सैंकडो गीता गायब होती है जिनका कोई अता-पता नहीं चलता। एक गैर सरकारी स्वयं सेवी संस्था का मानना है कि दिल्ली व अन्य मेट्रो शहरों से बच्चों को उठाकर भीख मांगने, बालमजदूरी, वेश्यावृत्ति व अन्य गैरकानूनी कामों में लगा दिया जाता है। लापता होनें वाले इन बच्चों की पारिवारिक पृष्टभूमि पर नजर डाले तो पाएंगे कि गायब होने वाले अधिकांश बच्चे गरीब परिवार के होते है। देखा जाए तो इनके मां-बाप के बीच मारपीट,लडाई झगड़ा आदि बेहद आम घटना है इससे निजात पाने के लिए  भी कई बार बच्चे शुरू में घर से भाग जाते है। लेकिन उनमें से कुछ तो महीनों बाद लौट भी आते है और कुछ हमेशा के लिए गायब हो जाते है। दूसरा हमारे देश  में बेहद बडे स्तर पर बच्चों की चोरी हो रही है  लेकिन प्रशासन की ओर से कोई सार्थक कदम नहीं उठाया जा सका। जिसका परिणाम यह है कि हर साल   गुम होते बच्चों की संख्या में इजाफा ही हो रहा है। समाचार पत्रों के अनुसार इस साल देश में अप्रैल 2015 तक 130 बच्चे प्रतिदिन गायब हुए। कुल मिलाकर 15,988 बच्चे गायब हुए। इनमें 6,981  खोजे नहीं जा सके। देश में हर आठ मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है। सबसे चिंताजनक स्थिति यह है कि इन गुम होने वाले बच्चों में लड़कियां 55 फीसदी से ज्यादा है। और 45 फीसदी बच्चें अब तक नहीं मिल पाए है। ये या तो मार दिये गये या भिक्षावृति या वेश्यावृति के रैकेट में धकेल दिए गये है। कुल गुम हुए बच्चों 3,27,658  है जिनमें 1,81, 011 (गीता) यानि के लड़कियां है। अगर देखा जाये तो भारत में बच्चों की तस्करी के व्यापार में सामाजिक, आर्थिक कारण ही मुख्य भूमिका निभा रहा है। अशिक्षा, गरीबी, रोजगार  का अभाव आदि भी कई बार बच्चों को बाहर निकलने को मजबूर का देता है या फिर अभिावक उन्हें बाहर भेजते है। लेकिन उनमें से अधिकतर तस्करों के जाल में फंस जाते है। इस अवैध कारोबार को कडे कानून के द्वारा रोकने की बात की जाती है पर नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा।
लापता बच्चों का ना मिलना उन माता-पिता की अंतहीन पीड़ा है उन्हें जीवनपर्यंत अपने बच्चे से अलग हो जाना पडता है। इसलिए गीता की वापिसी पर सरकार द्वारा कुछ नयें आयामों पर नजर डाली जाये जो गुमशुदा बच्चों को तलाशने में मददगार हो और इनकी तस्करी पर पैनी नजर रखी जाए। केन्द्रीय स्तर पर कोई मंत्रालय कोई टास्क फोर्स का गठन किया जाना चाहिए जाहिर सी बात है कि उन बच्चों को किसने उठाया? वो कौन लोग है? क्या ममता के टुकडें इसी तरह लापता होते  रहेंगे?  आदि सवाल खड़े होते है । लेकिन इन सवालों का जबाब मिलना बाकी है!  क्योंकि अभी डेढ़ करोड़ से ज्यादा गुमशुदा गीता बाकी है।

राजीव चौधरी