Saturday 21 November 2015

बिना कलम के राष्ट्रवाद की बहस

अल्बर्ट आइन्स्टीन ने कहा था- कि किसी समस्या को सोच के उसी स्तर पर सुलझाना चाहिए जिस स्तर पर हमने उसे खड़ा किया हैं वरना समस्या बहस बन जाती है और बहस का अंत कई बार झगडे का नहीं तो आरोप-प्रत्यारोप का रूप धारण कर लेता हैं| मैं समझता हूँ पिछले तीस वर्षो में हमारा देश अच्छी कविताओं और कहानियों से अछूता रहा, नवीन नामचीन लेखकों ने जो लिखा उसे लोगों ने सराहा नहीं सराहा! पर जो सरहानीय रचना और कलमकार थे उनका नाम निकलकर सामने नहीं आया| जिस कारण आज केन्द्रीय सत्ता धारी  दलों के प्रवक्ताओं को मौखिक रूप से साहित्यिक भाषा में साहित्यकारों को जबाब देते देखा जा सकता हैं प्रवक्ता जहाँ गुस्से और अवसाद में अपने जोड़-तोड़ के तर्क रखते दिखाई दिए वहीं साहित्यकार मंद मुस्कान के साथ हमलावर होते दिखाई दिए, वो तो भला हो गोपाल दास नीरज, कृष्णा सोबती जैसी  नामचीन लेखकों का जो बीच-बीच में सरकार का बचाव करते नजर आयें|
हिंदुस्तान में हमेशा से कई विचारधारा के लोग रहते आयें है और आज भी एक तरफ वामपंथ की विचार धारा है तो दूसरी और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का राग अलापने वाली दक्षिणपंथी विचारधारा आरएसएस जो इस साहित्यिक मोर्चे पर सबसे कमजोर नजर आई इसकी सबसे बड़ी वजह यह रही कि सत्ता से दूर रहने के कारण इन हिंदूवादी संस्थाओं से जुड़े लोग कभी पनप ही नहीं पाए और सत्ता का रस चूसते हुए साहित्यकार आगे बढ़ते गये! कहने को इन संस्थाओं से जुड़े लोग राष्ट्रवाद के गीत और गरीब जातिवाद पर लिखते रहे जिसे कभी इनकी  संस्थाओं के महंतों ने स्वीकार नहीं किया| यह लोग धार्मिक लेखक तो बन गये पर इनसे साहित्य अछूता रह गया| दूसरी और प्रकृति और धर्म को आपस में लपेट नदी,पहाड़, झरनों पर अपना साहित्यिक वर्णन कर वामपंथ की विचारधारा के लेखक एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हाथ पुरस्कार सोपते चले गये और जब आज पुरस्कार लौटाने की योजना चली तो राष्ट्रवाद के सांस्कृतिक लेखक दूरदर्शन की तरह हाशिये पर खड़े नजर आयें और दुसरे लेखक मनोरंजन के बड़े चैनलों की तरह हर ओर धूम मचाते नजर आये! यह तो अभी मोदी जी के प्रति देश का युवा अभी थोडा कहो या ज्यादा आशावान हैं वरना विदेशो में जिस तरह देश की किरकिरी हुई भारत में यह बच गयी कारण सोशल मीडिया पर अपने अल्प ज्ञान के बावजूद भी लोग इन कलाकारों और साहित्यकारों को टक्कर देते रहे इतिहास के पन्ने फाड़ कर इनके आगे रखते रहे  
अब कोई कुछ भी कहे बात सत्ता पक्ष और विपक्षी दलों की हार जीत का नहीं वो सिर्फ शोर था जो अब कोई दूसरा रूप धारण कर लेगा लेकिन इस सन्दर्भ में जहाँ तक मेरा मानना है आज जितने भी धार्मिक संगठन हैं वो सिर्फ धर्म बचाने की दुहाई देते दिखते हैं जबकि धर्म के साथ कला, खेल साहित्य और संस्कृति का नवीन सर्जन भी होता हैं पर इन लोगों ने धर्म बचाने की पुरजोर किलकारी में इन सब चीजों का विसर्जन सा कर दिया जिसका नतीजा सही और मौलिक बात कहने वाले संस्कृति समाज और धर्म को साथ लेकर चलने वाले लोगों को पीछे किया गया  और जो भड़काऊ शैली में किसी धर्म विशेष पर मौखिक रूप से हमला करते थे उन्हें आगे करते गये जिस कारण समाज के हितों के चिन्तक चुप बैठ गये क्योंकि जरूरी नहीं सभी विचारक अच्छे वक्ता हो पर यह भी सत्य है इन प्रतिभाओं की उपेक्षा के कारण आज ये राष्ट्रवादी संगठन दरिद्र खड़े नजर आयें कोई भी सरकार कहो या राजा तलवार वाले सिपाही के मुकाबले कलम के सिपाहियों से ज्यादा भय खाता है क्योंकि तलवार का हमला शरीर को घाव दे सकता है किन्तु कलम सभ्यता, संस्कृति, इतिहास को रक्तरंजित कर सकती है देश आजाद होने से अब तक कांग्रेश ज्यादा समय सत्ता में रही और उसने इनकी रचनाओं को बिना परखे ही इन्हें पुरस्कार आदि दे कर खामोश किया जिस कारण आज हजारों साल पुरानी सभ्यता मात्र 1400 साल पुराने मानवीय कानूनों की रक्षा करती दिखाई दी कारण तर्कशास्त्री खुद को निरपेक्ष कहकर दुसरे को साम्प्रदायिक बताकर अपनी अवधारणा को वजन देकर सिद्ध करते चले गये

राजीव चौधरी 

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