Wednesday 16 December 2015

आखिर कश्मीर खाली क्यों हुआ ? भाग 2

पिछले भाग में हमने बताया था का किस तरह शेख अब्दुल्ला की मजहबी नीति और तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरु की गलती का खमियाजा लाखों लोगो को भुगतना पड़ा लेकिन आगे बढ़ने से पहले एक बार एक ऐतिहासिक पत्र का वर्णन जरूर किया जाना चाहिए जो इतिहास की पुस्तकों से गायब है| जम्मू कश्मीर राज्य के भारत में विलय और भारतीय सेना द्वारा रियासत की जिम्मेदारी सँभालने के बाद गिलगित पर पाकिस्तान का अधिकार हो जाने पर महाराजा हरिसिंह ने उस समय रियासत की राजनैतिक और सुरक्षा का विस्तृत देने के बाद पटेल को पत्र लिखा जो इस प्रकार था- “ऊपर वर्णन की गयी स्थिति से मेरे मन में विचार उठता है कि इस स्थिति को सँभालने के लिए में क्या कर सकता हूँ इसी भाव से में आपको अपने दिल की बात साफ-साफ लिख रहा हूँ| मेरे मन में एक विचार यह उठ रहा है कि में अपनी रियासत के भारत के साथ विलय को रद्द कर दूँ |

 यदि भारत सरकार ने विलय को अस्थाई रूप में ही स्वीकार किया है और यदि यह मेरी रियासत के पाक –अधिकृत क्षेत्र को वापिस नहीं ले सकती और यदि यह संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा समिति के उस प्रस्ताव को मानने जा रही है जिसके परिणामस्वरूप वह मेरी रियासत को पाकिस्तान को सोप देगी तो भारत के साथ विलय का मतलब नहीं रहता इस समय मेरी पाकिस्तान के साथ बेहतर शर्तो पर बातचीत हो सकती है परन्तु वह अर्थहीन होगी क्योंकि उस सूरत में मेरे राजवंश और मेरी हिन्दू सिख प्रजा का अंत भी हो जाएगा| मेरे पास दूसरा विकल्प यह कि में इस विलय पत्र को वापिस ले लूँ उससे सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव अपने आप खत्म हो जाएगा इसके परिणाम स्वरूप मेरी रियासत उसी स्थिति में जायेगी जैसे पहले थी में अपनी सेना भारतीय सेना के उन सैनिको का नेत्त्रत्व स्वंय सँभालने को तैयार हूँ वह स्थिति आज की स्थिति से बेहतर होगी| मैं अपने वर्तमान असहाय जीवन से  तंग आ चूका हूँ युद्ध में लड़ते हुए वीरगति प्राप्त करना अपनी प्रजा की दुर्दशा देखने से बेहतर होगा|
 इस पत्र से सरदार पटेल को जम्मू-कश्मीर की वास्तविक स्थिति और महाराजा हरिसिंह की वेदना आभास उस पत्र के माध्यम से नेहरु को कराया जिसकी जानकारी शेख अब्दुल्ला को हो गयी थी जिस कारण अब्दुल्ला का रुख महाराजा और जम्मू की प्रजा के प्रति और कड़ा हो गया गया था| सुरक्षा परिषद ने अपना एक कमीशन कश्मीर भेजा जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि पाकिस्तान केवल कबीलाई घुसपेठियो की सहायता ही नहीं अपितु अपनी नियमित सेना के साथ युद्ध कर रहा है और सुरक्षा परिषद ने 25 नवम्बर को एक प्रस्ताव पारित कर भारत और पाकिस्तान से युद्ध बंद करने की अपील की| उस समय तक सैनिक द्रष्टि से भारत का पलड़ा सारी रियासत में भारी हो चूका था| जनरल थिमैया के नेत्त्र्तव भारत की सेना ने योजिला दर्रा के उस पार हलके टेंको से हमला करके पाकिस्तान को लद्दाख और कारगिल से पीछे हटने पर मजबूर करके योजिला दर्रा और उसमें से होकर लेह जाने वाली सड़क को अपने अधिकार में ले लिया था कुपवाड़ा सेक्टर में हिमालय की श्रंखला पार करके कृष्णागंगा नदी की घाटी में बढ़ना शुरू किया सैनिक टुकडियां सुरक्षात्मक मोर्चे छोड़ मुजफ्फराबाद की और बढ़ने लगी यदि यह अभियान चलता रहता तो शीतकाल खत्म होने तक कश्मीर मुक्त करा लिया जाता परन्तु यह नेहरु और अब्दुल्ला को मंजूर नही था 1 जनवरी १९४९ को अचानक नेहरु ने युद्ध बंदी की घोषणा कर दी इस अकस्मात युद्ध बन्दी की घोषणा के निश्चित कारण कोई नहीं जानता और  जानकारी के अभाव में कुछ भी कहना बोद्धिक अपराध होगा लेकिन इस प्रकार पाकिस्तान द्वारा भारत पर थोपे गये पहले युद्ध में अपनी कम शक्ति के कारण भी सफलता मिल गयी थी इससे पाकिस्तान के शाशकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि भारत के विरुद्ध आक्रामक रुख अपनाना लाभ का सौदा है इससे पाकिस्तान के मुहं पर लहूँ लग गया और उसने भारत के प्रति आक्रामक रुख आपनाने की नीति तय कर ली |
प्रस्तुत पत्र बलराज मधोक की पुस्तक कश्मीर हार में जीत

लेखक  राजीव चौधरी 

No comments:

Post a Comment