Friday 26 February 2016

आरक्षण, व्यवस्था है,या अधिकार?

हमारे देश में प्रतिवर्ष लाखो करोड़ों की सम्पत्ति तो मात्र इस वजह आग के हवाले कर दी जाती है कि सरकार द्वारा हमारी मांगे मान ली जाये| पिछले वर्ष गुजरात के पाटीदार आन्दोलन में लगभग दो सौ करोड़ की संपत्ति जलने की राख अभी ठंडी ही हुई थी कि अब हरियाणा सुलग उठा| जिस तरह देश में आरक्षण का अधिकार पाने को हर रोज राजनीति का बिगुल बजता है उसे देखकर लगता आने वाले दिनों में आरक्षण बजाय एक व्यवस्था के एक अधिकार बन जायेगा| क्या वर्तमान आरक्षण की मांग को देखते हुए मूलरूप में सविंधान के निर्माताओ के द्वारा आरक्षण की आवश्यकता और प्रासंगिकता पर विचार किया जाए,
भारतीय समाज में प्राचीन काल से ही असमानता रही है और इस असमानता के कारण कुछ वर्गों को नुकसान उठाना पड़ा है. लंबे समय तक असमानता का दंश झेलते और समाज में हासिए पर धकेल दिए गए वर्गों के बीच उम्मीद की किरण उस समय जगी, जब अंग्रेजी शासन का खात्मा हुआ और लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ. राष्ट्र को चलाने के लिए संविधान का निर्माण किया गया और संविधान निर्माताओं को यह महसूस हुआ कि भारत में असमानता का स्तर इतना अधिक है| कि इसे दूर करने के लिए कुछ वर्गों को विशेष सुविधाएं दी जानी चाहिए, जिसके कारण भारतीय संविधान में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष उपबंध करने की बात कही गई| चूंकि भारत में असमानता का आधार जाति थी, इसके कारण सबसे पहले अनुसूचित जातियों(दलितों) तथा अनुसूचित जनजातियों(आदिवासियों) को आरक्षण दिया गया और बाद में पिछड़े वर्ग का निर्धारण कर उन्हें भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया सीधे शब्दों में कहें तो यह व्यवस्था उन लोगों के लिए की गयी थी| जिन्हें समाज में निर्बल, अछूत, और सामाजिक द्रष्टि से हेय समझा जाता था| 
आरक्षण के संदर्भ में यह बात शुरू से ही उठती रही है कि आखिर आरक्षण की आवश्यकता क्या है| क्या पिछड़े लोगों को सुविधाएं देकर उन्हें मुख्य धारा में नहीं लाया जा सकता है| यह सवाल जायज हो सकता है, लेकिन ऐसे सवाल करने वालों को पहले यह जानना होगा कि आरक्षण दिया क्यों गया है! दरअसल आरक्षण दिए जाने के पीछे न्याय का सिद्धांत काम करता है, यानी राजा का कर्तव्य है कि वह सभी लोगों के साथ न्याय करे, न्याय को दो अर्थों में देखा जा सकता है| पहला कानून के स्तर पर और दूसरा समाज के स्तर पर, कानून के स्तर पर न्याय दिलाने के लिए न्यायपालिका का गठन किया गया, जिसमें खामियां हो सकती है, लेकिन उन खामियों को सुधारा जा सकता है, जिससे सभी को मौका न्याय मिल सके| दूसरा समाज के स्तर पर भारत में सदियों से सामाजिक अन्याय होता रहा है और कुछ जगह तो अभी भी जारी है. भारत में सामाजिक अन्याय का सबसे बड़ा कारण जातिय व्यवस्था रही और इसके कारण सामाजिक प्रतिष्ठा कर्म के आधार पर नहीं, बल्कि जाति के आधार पर मिली. जाति के आधार पर कुछ वर्गों ने आर्थिक संसाधनों पर कब्जा किया और कुछ को आर्थिक संसाधनो से वंचित रखा गया| आर्थिक संसाधनों की कमी के कारण योग्यता प्रभावित हुई और योग्यता के अभाव में पिछड़ापन आया और असमानता कम होने के बजाय बढ़ता ही गया| इसी असमानता को कम करने के लिए विकल्प की तलाश की गई, इस असानता को कम करने के लिए तीन विकल्प मौजूद थे, पहला विकल्प सुविधाओं का था यानी शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण आदि की सुविधाएं उन वर्गों को  दी जाएं जिसे अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है

जो लोग आज आरक्षण को ख़ारिज करते हैं, वो तो हमेशा से सामाजिक न्याय के सवाल को भी ख़ारिज करते रहे हैं, ध्यान रहे कि किसी भी समाज में भिन्नताओं को स्वीकार करना उस समाज की एकता को बढ़ावा देता है न कि विघटन करता है|  उदहारण के तौर पर अमरीकी समाज ने जबतक अश्वेत और श्वेत के सवाल को स्वीकार नहीं किया, तब तक वहाँ विद्रोह की स्थिति थी और जब इसे सरकारी तौर पर स्वीकार कर लिया गया, तब से स्थितियाँ बहुत सुधर गई हैं| अगर पिछले 50 साल के सामाजिक भेदभाव को देखे तो एक बात ज़रूर देखे कि आरक्षण की व्यवस्था एक बहुत ही सफल प्रयोग रहा है, जिसमे समाज के हाशियाग्रस्त लोगों को एक सामाजिक आधार मिला किन्तु इसके बाद राजनैतिक स्वार्थ वश इस व्यवस्था का जिस तरीके से दुरपयोग हुआ वह इसका दुखद पहलू रहा| यदि अब सामाजिक आर्थिक रूप से संपन्न तबके भी इस व्यवस्था का उपयोग चाहेंगे तो सोचो भारत का भविष्य क्या होगा? राजीव चौधरी 

कहीं ये हाफिज का अड्डा तो नहीं?

हमारी कलम लिखे भी तो क्या लिखे? आखिर इस से पहले भी बहुत से लोगों ने बहुत कुछ इस सन्दर्भ में लिखा होगा। और अगर लिखने से ही कुछ होता तो पिछले कुछ दिनों से भारत की राजनीति कब्रों, लाशों में लिपट कर न रह जाती| जिन्दा लोग, उनकी मूलभूत सुविधाओं, उनकी जरूरतों को नजरअंदाज कर मुर्दों को मुद्दा बनाया जा रहा है| दादरी, हैदराबाद के बाद अब 10 फरवरी को जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में मंगलवार को उस वक्त भारी हंगामा हो गया जब वामपंथी छात्रों के समूह ने संसद हमले के दोषी अफजल गुरू और जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के को-फाउंडर मकबूल भट की याद में एक कार्यक्रम का आयोजन किया। इस आयोजन के बाद यहां हालात इतने बिगड़ गए कि प्रशासन को पुलिस बुलाने की नौबत आ गई। विवाद की वजह यह रही कि इस कार्यक्रम को अफजल गुरु को शहीद का दर्जा दिया गया नारे लगाये जा रहे थे लड़कर लेंगे आजादी, कश्मीर में लेगे आजादी, तुम कितने अफजल मारोंगे हर घर से अफजल निकलेगा और खुले आम पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाये जा रहे थे| जैसे पाकिस्तान में हाफिज के अड्डों पर लगते है| जिसका एबीवीपी के छात्रों ने भारी विरोध किया।
  गौर हो कि अफजल गुरू को 9 फरवरी 2013 को फांसी दी गई थी। वहीं मकबूल भट को 11 फरवरी 1984 को फांसी दी गई थी। आखिर कौन है यह लोग? जो आतंक को सर्वोपरी बताकर राजनीति कर रहे है| कभी मस्जिद को शहीद कहते है, तो कभी आतंकियों को शहीद बताते है | जब इनकी नजर में मानवता के हत्यारे शहीद होते है तो फिर इनकी नजर में वो कौन होते है जो देश की सीमा रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर देते है? मुस्लिम देशों में रोजाना मस्जिदों में धमाके होते है उन मस्जिदों के लिए शाहदत के क्या मापदंड है? या शाहदत की यह अजान सिर्फ भारत में ही गुंजायमान रहती है?
आखिर राजनीति ऐसी कौनसी मज़बूरी है जो इन देश द्रोहियों को पकड़ नहीं सकती इन राष्ट्र के विभाजन करने वालो पर कानून को अपना काम क्यों नहीं करने दिया जाता? क्या भारत में आतंक को मान्यता मिल गयी जो इस तरह के आतंक के अड्डे खुले आम चल रहे है| हाफिज सईद के जेहादी ठिकानों और इन कॉलिजो के केम्पस में अंतर क्या रह गया? आखिर ऐसा क्या लिख दू की ये सब ख़त्म हो जाये? कुछ लोग इतनी छोटी सी बात भी क्यों नहीं समझ पाते की आज आस्तीन में पल रहे सांप कल के सुनहरे भविष्य की मासूम किलकारियों को जरुर ड्सेंगे
आज वोट बेंक की राजनीति को देखकर लगता है देश के अन्दर आतंकवाद लाइलाज समस्या के रूप में नजर आ रहा है। हर बार आतंकवादी आते हैं और अपने नापाक इरादों को बेहद सफाई और चालाकी से अंजाम देकर भाग खड़े होते हैं। या मारे जाते है, जो मारे जाते है नेता लोग उनकी लाश लेकर उन्हें शहीद बता मजहब के नाम वोट बटोरते है| क्या हमारी खुफिया एजेंसियां और सुरक्षातंत्र का बार-बार माखौल सिर्फ इसलिए उड़ता हैं, की आतंक को मदद देश के अन्दर  से ही मिल रही है? हर बार आतंकी हमले  देश की आम जनता के मन मस्तिष्क को वे झिंझोड़ कर रख देते हैं। मासूमों को अपनी जान गवानी पड़ती है|
पठानकोट हमले को लेकर एनआईए की जांच-पड़ताल जारी है। एनआईए को छानबीन में कई ऐसी चीज़ें मिली हैं जिनके हमले से संबंध की जांच की जा रही है। कठुआ और सांबा में हुए आतंकी हमलों में भी अफजल गुरु शहीद लिखे ऐसे परचे मिले थे। मजारे शरीफ़ की जांच में भी आतंकियों के पास ऐसी चिट मिली थीं। बताया जा रहा है कि अफजल की मौत के बाद जैश ने 'अफजल गुरु स्क्वाड' बनाया है। अफजल के नाम पर नौजवानों को बहकाया जा रहा है। कम से कम 60 लड़कों को फिदाईन ट्रेनिंग दी गई है। संकट यह है कि आतंक का यह खेल सीमा पार से जारी है, और विडम्बना यह है कि इसको मदद अन्दर से मिल रही है अभी पिछले दिनों राष्ट्रपति जी ने अपने एक भाषण में राष्ट्र को संबोधित करते हुए कहा था हमें हिंसा, असहिष्णुता और अविवेकपूर्ण ताकतों से स्वयं की रक्षा करनी होगी। आतंकवाद उन्मादी उद्देश्यों से प्रेरित है, नफरत की अथाह गहराइयों से संचालित है, यह उन कठपुतलीबाजों द्वारा भड़काया जाता है जो निर्दोष लोगों के सामूहिक संहार के जरिए विध्वंस में लगे हुए हैं। यह बिना किसी सिद्धांत की लड़ाई है, यह एक कैंसर है जिसका इलाज तीखी छुरी से करना होगा। आखिर वो तीखी छुरी कब चलेगी जब तक तो यह लोग इस देश में हजारो अजमल कसाब, अफजल गुरु तैयार कर देंगे? राजीव चौधरी 




क्या जेएनयू में भी हो सेना की कारवाही ?


अलग खालिस्तान के लिए हुए विद्रोह से पवित्र स्वर्ण मंदिर पर हमला हुआ था, कारण भारतीय संविधान के अनुच्छेद (1) को चुनौती दी गई थी क्योंकि अनुच्छेद (1) कहता है कि भारत राज्यों का एक संघ होगा. किसी भी राज्य को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है. जिस तरह की व्यवस्था अमेरिका में है, वैसी ही भारत ने अपनाई है. मतलब साफ है कि खालिस्तान रुपी स्वतंत्र राज्य की मांग नाजायज थी, जैसे आज कश्मीर के अलगाववादी नेताओं की है| किन्तु खालिस्तान की मांग करने वाले चरमपंथी किसी भी सूरत में देश के सविंधान को मानने से इंकार कर रहे थे देश में पहली बार किसी मंदिर को आतंकियों के चंगुल से छुड़ाने के लिए सेना हथियारबंद होकर पहुंची और इतिहास ने हमेशा- हमेशा  के लिए करवट बदल ली। मंदिर तो आजाद हो गया, लेकिन साथ ही गहरे जख्म देकर आज एक प्रश्न खड़ा कर गया कि जब देश  के सविंधान की रक्षा के लिए आस्था पर हमला हो सकता है! क्या जेएनयू में लकर आजादी, भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने वालों की गिरफ्तारी भी नहीं हो सकती? खालिस्तानी तो सिर्फ अलग देश मांग रहे थे,यह लोग तो भारत की बर्बादी तक जंग जारी रखने की बात कर रहे है|

स्वर्ण मंदिर में भीषण खून-खराबा हुआ था। अकाल तख्त पूरी तरह तबाह हो गया। स्वर्ण मंदिर पर भी गोलियाँ चलीं। कई सदियों में पहली बार वहाँ से पाठ छह, सात और आठ जून को नहीं हो पाया। ऐतिहासिक द्रष्टि से महत्वपूर्ण सिख पुस्तकालय जल गया| भारत सरकार के श्वेतपत्र के अनुसार 83 सैनिक मारे गए और 249 घायल हुए। 493 चरमपंथी या आम नागरिक मारे गए, 86 घायल हुए और 1592  को गिरफ्तार किया गया। लेकिन ये आंकड़े विवादित माने जाते हैं। मगर सवाल यह है कि क्या धार्मिक और शिक्षण संस्थान, स्थलों की आड़ में उग्रवाद जैसी गतिविथियों को सहन किया जा सकता है? निश्चित रुप से नहीं? क्योंकि अगर ऐसा किया गया तो धार्मिक और शैक्षिक स्थल उग्रवादियों के गढ़ बन जाएंगे और देश  भर में अराजकता व अशांति का माहौल पैदा हो जाएगा| आज पाकिस्तान में उग्रवाद चरम स्थिति पर है| कारण मदरसों में उग्रवाद का प्रवेश शिक्षण संस्थान राजनीति उग्रवाद के अड्डे बन गये| क्या भारत के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल भारत में अराजक तत्वों को स्वीकार करेंगे? यदि नहीं तो कांगेस व् विपक्षी दलों को सरकार की कारवाही का विरोध नहीं करना चाहिए| सब जानते है आज वहां परहे सभी छात्र आतंकी नहीं है किन्तु उस सोर्स का तो पता चलना चाहिए जहाँ से उन्हें यह देश विरोधी नारे और मानसिकता मिल रही है| राहुल गाँधी का मोदी विरोध राजनैतिक द्रष्टिकोण से जायज माना जा सकता है किन्तु विरोधी तत्वों का खुलेआम समर्थन करना हर किस्म से नाजायज है| कांगेस और राहुल गाँधी को समझना होगा जब राहुल की दादी देश विरोधी तत्वों पर टेंक लेकर आतंकवाद के साथ किसी की आस्था पर भी हमला कर सकती है तो क्या आज भारत सरकार देश विरोधी तत्वों को गिरफ्तार भी नहीं कर सकती? कहीं आप राजनैतिक लालसा में आतंक और राष्ट्र विरोधी मानसिकता का पक्ष तो नहीं ले रहे है? जरूरत उन लोगों की गिरफ्तारी के विरोध की नहीं थी जरुरत इस बात की है कि धार्मिक स्थलों, शिक्षण संस्थानों, और राजनीति की कड़ी से कड़ी सुरक्षा की जाए ताकि कोई उग्रवादी उनमें प्रवेश  कर इनकी पवित्रता का हनन न कर पाए, सकारात्मक द्रष्टिकोण, अच्छी शिक्षा और अनुभव के फलस्वरूप तैयार किए जाने वाले शिक्षण संस्थानों की बेहतर सुविधाएं मिलने से विद्यार्थियों के भविष्य की नींव मजबूत होती है जिससे कि वे अपने जीवन में सफलता की बुलन्दियों को छूने में कामयाब तो होते ही हैं, साथ में देश और समाज को भी उन्नत बनाने में सहयोग करते है| यदि सत्ता की लालसा में आज इन लोगों को बचाया गया तो कल देश  के हालात मीडिल ईस्ट जैसे होने में देर नहीं लगेगी| जिस तरह कल गृहमंत्री जी ने आतंकी हाफिज सईद का नाम लिया इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिए की खालिस्तान की तरह जेएनयू में हुआ बवाल पाक प्रायोजित ना हो! क्योंकि इनकी गिरफ्तारी का विरोध पाकिस्तान, हाफिज समेत अलगाववादी नेता भी कर रहे है, साथ में राहुल गाँधी भी कर रहा है| तो इसमें राहुल को अपनी भूमिका स्पष्ट करनी चाहिए कि वे कांग्रेस के नेता है या अलगाववादी विचार धारा के समर्थक है? आज सरकार को जेएनयू में कड़े कदम उठाने चाहिए और विपक्ष को इन छात्रों द्वारा किये गये कृत्य की कडी आलोचना करनी चाहिए| आज हमे ध्यान इस बात का भी रखना होगा कहीं केंद्र सरकार को कमजोर करने के चक्कर में हम देश की एकता अखंडता को कमजोर तो नहीं कर रहे है?

Friday 12 February 2016

धर्म से चलता कारोबार

डेरा सच्चा सौदा कॉम्प्लेक्स के पास बाजेकन रोड पर स्थित MSG बिल्डिंग में आयोजित एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान बाबा गुरमीत ने 151 प्रोडक्ट्स को लॉन्च किया. ये प्रोडक्ट घरेलू तथा इंटरनेशनल मार्केट में एक साथ लॉन्च किए गए हैं. इनमें 14  प्रकार की दालें, 41 प्रकार के ग्रॉसरी आइटम, सात तरह के चावल और खिचड़ी, तीन तरह की चाय, पांच प्रकार की चीनी, तीन तरह का नमक, आटा, देशी घी, मसाले, अचार, जैम, शहद, मिनरल वॉटर और नूडल्स शामिल हैं, इससे पहले योग गुरु बाबा रामदेव भी अपने प्रोडक्ट लेकर बाजार में एक छत्र राज कर रहे है योगगुरु के रूप में बाबा रामदेव की पहचान पूरी दुनिया में है। करीब 15 पहले साल पहले तक हरिद्वार की सड़कों पर संघर्ष करने वाले बाबा रामदेव ने करीब 2,000... करोड़ का बिजनेस एम्पायर खड़ा कर लिया है। आज धर्म के साथ बाबा की व्यापारिक प्रतिष्ठा भी किसी से छिपी नहीं है| यदि धर्म की दुनिया और बड़े धार्मिक चेहरों की और रुख करे तो  सुधामणि इदमन्नेल, जिन्हें आज दुनिया माता अमृतानंदमयी देवी और अम्मा के नाम से जानती है। माता को पूरी दुनिया दूसरे के दुख दूर करने वाली और प्रेम से गले लगाने वाली अपनी मानवीय गतिविधियों के लिए जानी जाने वाली माता अमृतानंदमयी देवी के ट्रस्ट के पास करीब 1,500 करोड़ रुपए की संपत्ति का स्वामित्वहै।
इनके बाद इस बड़े चेहरे को भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता श्री श्री रविशंकर को पूरी दुनिया में आध्यात्मिक गुरू के रूप में जाना जाता है। तमिलनाडु में पैदा हुए एक रिपोर्ट के मुताबिक करीब 1,000 करोड़ की संपत्ति वाले श्री श्री रविशंकर की आय मुख्य जरिया ऑर्ट ऑफ लिविंग फाउंडेशन है। इसके अलावा श्री श्री शंकर विद्या मंदिर ट्रस्ट,... के अलावा श्री श्री शंकर विद्या मंदिर ट्रस्ट, पी यू कॉलेज बेंगलुरु, श्री श्री मीडिया सेंटर बेंगलुरु, श्री श्री यूनिवर्सिटी भी है, जहां से इनका कारोबार चलता है। ... अमीर धार्मिक गुरुओं की लिस्ट में अगले पायदान पर हैं बापू के नाम से मशहूर आसाराम बापू है। बीते एक अरसे से जेल में बंद आसाराम बापू पर गुजरात में जबरन जमीन हड़पने समेत कई तरह के आरोप हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक आसाराम बापू करीब 10,000 करोड़ रुपए की... संपत्ति के मालिक हैं। बापू के भी तमाम प्रोडक्ट उनके भक्त इस्तेमाल करते रहे हैं।
भारत देश को देवभूमि कहा जाता रहा, पुरे विश्व में यदि किसी ने धर्म को जानना चाहा तो बिना भारत का रुख किये उससे धर्म का ज्ञान अछूता रहा किन्तु आज की बदलती सदी ने आत्मिक चेतना के इस विषय को बाजार की एक दुकान बना दिया आध्यात्मिक विषय को व्यावयासिक रूप दिया और अध्यात्म को बाजारों के उत्पाद में पैक कर दिया| आखिर इन सब के क्या निहितार्थ हैं। क्या इससे हमारा देश पूरी तरह से धार्मिक देश बन गया है? और यहां के लोग अत्यंत धार्मिक जीवन जीने लगे हैं| क्या मात्र एक प्रोडक्ट खरीदने से लोग धार्मिक हो जाते है? आत्मिक चिंतन मनन मनुष्य के लिए कोई मायने नहीं रखता?

आप कहीं भी-कभी भी नजर उठाकर देख लें कोई न कोई धार्मिक आयोजन-अनुष्ठान होते अवश्य मिल जायेंगे। साईं अगरबत्ती बिक रही कहीं भगवती जागरण तो कहीं सत्संग हो रहे हैं। कभी नये धार्मिक टेलीविजन चैनल खुल रहे हैं। खबरिया चैनलों पर धन लक्ष्मी यन्त्र, हनुमान यन्त्र टी आर पी बढ़ाने के नाम पर अंधविवास को बढ़ावा देने की साजिश चल रही है। इस साजिश में कई धुरंधर पत्रकार बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रहे हैं। आज देश भर में जो पूरा तामझाम चल रहा है वह दरअसल धर्म को राजनीति का हिस्सा बनाने का नहीं, बल्कि धर्म को व्यवसाय बनाने के दीघZकालिक अभियान का हिस्सा है। जिस तरह से सौंदर्य प्रसाधन बनाने और बेचने वाली कंपनियां अपने उत्पादों के बाजार के विस्तार के लिये सौंदर्य प्रतियोगिता और फैशन परेड जैसे आयोजनों तथा प्रचार एवं विज्ञापन के तरह-तरह के हथकंडों के जरिये गरीब से गरीब देशों की अभाव में जीने वाली भोली-भाली लड़कियों के मन में भी सौंदर्य कामना एवं सौंदर्य प्रसाधनों के प्रति ललक पैदा करती है उसी तरह से विभिन्न धार्मिक उत्पादों के व्यवसाय को बढ़ाने के लिये धार्मिक आयोजन अंधविश्वास, अफवाह और चमत्कार जैसे तरह-तरह के उपायों के जरिये लोगों के मन में धार्मिक आस्था कायम किया जा रहा है ताकि धर्म के नाम पर व्यवसाय और भांति-भांति के धंधे किये जा सकें। वैसे देखे तो हमारी इन बाबाओं से कोई व्यक्तिगत ईर्ष्या नहीं है बस प्रसंग धर्म का है, तो आत्मा प्रश्न करती है क्या धर्म विभिन्न धार्मिक संस्थाओं की दुकानदारी बेरोकटोक चलती रहेगी? कहीं धार्मिकता के इस अभूतपूर्व विस्फोट के पीछे धर्म को बाजार और व्यवसाय में तब्दील करने की साजिश तो नहीं है? राजीव चौधरी