Thursday 4 February 2016

राम पर नही पाखंडियों पर मुकदमा हो!!

बिहार के सीतामढ़ी जिले के एक वकील ने भगवान राम के खिलाफ केस दर्ज कराया है। वकील का कहना है कि माता सीता का कोई कसूर नहीं था। इसके बाद भी भगवान राम ने उन्हें जंगल में क्यों भेजा? कोई पुरुष अपनी पत्नी को कैसे इतनी बड़ी सजा दे सकता है? माता सीता ने पति के सुख-दुख में पूरी निष्ठा के साथ पत्नी होने का कर्तव्य निभाया, फिर भी उन्हें घर से निकाल दिया गया। भगवान राम ने यह सोचा भी नहीं कि घनघोर जंगल में अकेली महिला कैसे रहेगी? केस दर्ज करवाने वाले की मानसिक स्थिति क्या है? यह तो कहा नहीं जा सकता, किन्तु भगवान राम और लक्ष्मण के खिलाफ मुकदमा दर्ज यह मुकदमा तो केवल समाज में लोक प्रसिद्धि पाने का तरीका मात्र है। कल कोई दलित समाज से सम्बंधित व्यक्ति शम्बूक वध को लेकर आपत्ति करेगा। तो कोई केवट से चरण पादुका उठवाने को लेकर कूद पड़ेगा इसके शंका के मूल कारण की जड़ में जाना आवश्यक है।
सीता कि अग्निपरीक्षा एवं वन निर्वासन कि घटना का वर्णन रामायण के सातवें उत्तर कांड में मिलता हैं। अगर समग्र रूप से सम्पूर्ण रामायण को देखे तो हमें यही सन्देश मिलता हैं कि श्री रामचंद्र जी ने अपनी पत्नी सीता का अपहरण करने वाले दुष्ट रावण को खोजकर उसे यथोचित दंड दिया। उस काल कि सामाजिक मर्यादा भी देखिये कि सीता का अपहरण करने के बाद भी रावण में इतना शिष्टाचार था कि बिना सीता कि अनुमति के रावण कि सीता को स्पर्श करने का साहस न हुआ। फिर यह कैसे सम्भव हैं कि मर्यादापुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी महाराज जो उस काल में आर्य शिरोमणि कहे जाते थे, सीता पर एक अज्ञानी के समान शक करते, अग्निपरीक्षा करवाते, प्रतिज्ञा करवाते, धोबी के कहने पर वन में जाने का आदेश देते हैं। रामायण में पहले से लेकर छठे कांड तक नारी जाति के सामाजिक अधिकारों का वर्णन प्रभावशाली रूप में मिलता हैं जैसे कौशलया का महलों में रहकर वेद पढ़ना एवं अग्निहोत्र करना, कैकई का दशरथ के साथ सारथि बनकर युद्ध में भाग लेना, सीता द्वारा शिक्षा ग्रहण कर स्वयंवर द्वारा अपने वर को चुनना आदि।
नारी के इस सम्मानजनक स्थान के ठीक विपरीत सातवें कांड में पुरुष द्वारा नारी जाति पर संदेह करना, उसकी परीक्षा करना, उसे घर से निष्काशित करना यही दर्शाता हैं कि मध्य काल में जब नारी को हेय कि वस्तु समझा जाता था| यह उसी काल का प्रक्षेप किया गया हैं। इससे भी यही सिद्ध होता हैं कि रामायण का उत्तर कांड प्रक्षिप्त हैं। छठे कांड को समाप्त करते समय कवि वाल्मीकि ने फलश्रुति रावणवध के साथ रामायण का अंत कर दिया हैं फिर सातवें कांड के अंत में दोबारा से फलश्रुति का होने संदेहजनक हैं क्यूंकि एक ही ग्रन्थ में दो फलश्रुति नहीं होती। ( श्री रामचंद्र जी को आरंम्भ के ६ कांडों में (कुछ एक प्रक्षिप्त श्लोकों को छोड़कर) वीर महापुरुष दर्शित किया गया हैं, केवल सातवें में उन्हें विष्णु का अवतार दर्शाया गया हैं जोकि विषयांतर होने के कारण प्रक्षिप्त सिद्ध होता हैं।
सातवें कांड में ऐसे अनेक उपाख्यान हैं जिनका रामायण कि मूल कथा से किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं हैं जैसे ययाति नहुष कि कथा, वृत्र वध, उर्वशी-पुरुरवा कि कथा आदि। रावण और अन्य राक्षसों का वध पहले ही हो चूका था फिर सातवें कांड में रावण का इंद्र से युद्ध, राक्षसों कि उत्पत्ति का वर्णन हैं। हनुमान राम मिलन पहले ही हो चूका था फिर सातवें कांड में हनुमान के यौवन काल का उल्लेख अप्रासंगिक प्रतीत होता हैं। . विदेशी विद्वान हरमन जैकोबी अपनी पुस्तक दास रामायण (Das Ramayan) में लिखते हैं कि "जैसे हमारे अनेक पूजनीय पुराने गिरिजाघरों में एक नई पीढ़ी ने कुछ न कुछ नया भाग बढ़ा दिया हैं और कुछ पुराने भाग कि मरम्मत करवा दी हैं और फिर भी असली गिरिजाघर कि रचना को नष्ट नहीं होने दिया हैं इसी प्रकार भाटों के अनेक पीढ़ियों ने असली रामायण में बहुत कुछ बढ़ा दिया हैं, जिसका एक एक अवयव अन्वेषण के आँख से छुपा हुआ नहीं हैं। " जैकोबी साहिब भी स्पष्ट रूप से रामायण में प्रक्षिप्त भाग को मान रहे हैं। एक और रामायण में श्री राम का केवट, निषाद राज, भीलनी शबरी के साथ बिना किसी भेद भाव के साथ सद व्यवहार हैं वही दूसरी और सातवें कांड में शम्बूक पर शुद्र होने के कारण अत्याचार का वर्णन हैं। दोनों बातें आपस में मेल नहीं खाती इसलिए इससे यही सिद्ध होता हैं कि शम्बूक वध वाली उत्तर कांड कि कथा प्रक्षिप्त हैं| अत: इस प्रकार के मुकदमो की बजाय वकील चंदन कुमार सिंह को आज उन गरीब महिलाओं की आवाज़ बनना चाहिए जो गरीबी के कारण अपने शोषण की आवाज़ नहीं उठा पा रही है|




No comments:

Post a Comment