Tuesday 29 March 2016

आतंक में भी नस्ल भेद है!

सीरिया के विस्थापितों के लिए दया सवेंदना दिखाना यूरोपीय समुदाय को कहीं महंगा तो नहीं पड़ रहा है? इतना महंगा की जिसकी कीमत मासूम नागरिकों की जान से चुकानी पड़ रही हो! फ्रांस के बाद अब यूरोप देश बेल्जियम की राजधानी ब्रसेल्स में हुए धमाके की गूंज में एक बार फिर मजहबी आतंक के नाम पर हुए खुनी खेल पर प्रश्नचिन्ह खड़े होना लाजिमी बात है| बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्स के एयरपोर्ट पर को दो जबर्दस्त धमाके हुए थे। जानकारी के मुताबिक धमाकों में 35  लोगों की मौत हो गई, जबकि अन्य 55 घायल हुए हैं।  बेलगा एजेंसी अनुसार  वहां हुई गोलीबारी में एक व्यक्ति की मौत और धमाके से पहले एक व्यक्ति अरबी भाषा में चिल्लाया था। लोग इसे भले ही यूरोप पर आतंकी हमला कह रहे हो किन्तु हम इसे उस दया सवेदना पर हमला कह सकतें है जो यूरोपीय समुदाय ने एक नन्हे बच्चे ऐलन कुर्दी की लाश समुंद्र तट देखने के बाद सीरियाई शरणार्थीयों पर दिखाई थी|
जब तक विश्व समुदाय यह सोचता है कि आतंकवाद से कैसे निपटा जाये आतंकवादी नये ठिकानों पर हमला कर अपनी मजहबी मंशा जगजाहिर कर देते है| मतलब यदि आतंक की लड़ाई डाल-डाल है तो आतंकियों के होसले व् मजहबी जूनून पात-पात  हर एक आतंकी घटना के बाद अमेरिका की अगुवाई में आतंक से निपटने के संकल्प लिए जाते है| विश्व समुदाय के बड़े नेता आतंकी हमलों की निंदा कर देते है| बेल्जियम छोटा देश है घाव खाकर घरेलू मोर्चे पर धरपकड कर सकता है बस बात खत्म|  दो साल से अधिक समय बीत चूका है बेगुनाह निर्दोष लोग मारे जा रहे है, सिगरेट के पेकिटों के बदले योन शोषण के लिए यजीदी समुदाय की बच्चियां बेचीं जा रही है| करोड़ों लोग बेघर होकर ठोकर खा रहे है| किन्तु समूचे विश्व के शीर्ष नेता यह तय नहीं कर पाए है कि मानवता को निगलने वाले काले सांप इस्लामिक स्टेट का फन कुचलना ज्यादा जरूरी है, या सीरिया के राष्ट्रपति को अपदस्थ करना? पेरिस में हुए हमले जिसमें सेकड़ो लोग मारे गये थे हमले के मास्टरमाइंड माने जा रहे फ्रांसीसी मूल के बेल्जियम नागरिक सलाह अब्देसलाम की गिरफ्तारी के चार दिन बाद जिस तरह बेल्जियम की राजधानी बम धमाकों से दहल उठा उसे देखकर लगता है| यूरोप अभी आतंक से लड़ने को पूर्णरूप से तैयार नहीं है|
भारत के मेघालय राज्य से कुछ ही बड़े बेलेजियम में लगभग 350 मस्जिदें हैं, जिनमें से 80 अकेले ब्रसेल्स में हैं। उनके इमाम अधिकतर तुर्की या अरब देशों की सरकारों द्वारा प्रायोजित होते हैं। वे अपने प्रवचनों में क्या उपदेश देते हैं, कुरान की आयतों की क्या व्याख्या करते हैं, इसे देश का अधिकारी वर्ग नहीं जानता। संदेह यही है कि मुस्लिम युवा घर के बाहर धार्मिक कट्टरता का पहला पाठ मस्जिदों में ही पढ़ते हैं। दूसरा यदि आज आतंक के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले देशो को देखे तो एक मजाक सा लगता है| पाकिस्तान और सउदीअरब आतंक से लड़ने के लिए अमेरिकी मदद लेते है जबकि सब जानते है कि आतंक का असली पोषण इन्ही देशो के द्वारा होता है|

तीसरा एक कड़वे सच को लोग खुलकर स्वीकार करने से हिचकते हैं कि आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी अभियान में भी गोरे-काले का फ़र्क है। पश्चिम अफ्रीका में बोको हराम ने 17 हज़ार लोगों की हत्या की, यह अमेरिका और उसके मित्रों के लिए आतंक का विषय नहीं बना। ऐसा क्यों है कि न्यूयार्क में 9/11 से लेकर से पेरिस के 13/11 तक आतंकी कार्रवाई के विरुद्ध दुनिया एकजुट होकर निंदा करती है, और यदि ऐसा ही नृशंस हमला 2008 ताज होटल मुंबई लोकल ट्रेन में या 2016 में पठानकोट में होता  तो उसे भारत-पाकिस्तान के बीच आपसी तनातनी की नजऱ से देखा जाता है। अमेरिका को आतंकवाद के सफाये की इतनी ही फिक्र है, तो वह साझा ऑपरेशन करके लादेन की तरह दाऊद इब्राहिम को मार गिराने में भारत की मदद क्यों नहीं करता? इस समय पूरी दुनिया आतंक को लेकर सकते में है, अफसोस कि रूस के इस्लामिक स्टेट के खात्मे के अभियान को बशर अल असद को बचाने की कार्रवाई घोषित कर दिया जाता है। सिर्फ इसलिए कि आतंक के सफाये का श्रेय पुतिन न ले लें। आज अमेरिकी जि़द के कारण लाखों लोग उजड़ रहे है हज़ारों की सामूहिक कब्र बन रही है| मानवता रो रही है किन्तु अमेरिकी लोग यूरोप में भी खून से सनी जमीन को सवेदना की आड़ में लीपापोती कर रहे है| अब यूरोपीय समुदाय को खुद समझना होगा हम यह नहीं कहते कि धर्म विशेष के लोगों को नफरत की नजर से देखे किन्तु भेडियों पर यदि भेड़े दया दिखाएँ तो क्या हासिल होगा सब जानते है? लेखक राजीव चौधरी 

Monday 21 March 2016

भारत माता की जय” और जय रहेगी..


भारत देश में इन दिनों विवादों की एक लू सी चल रही है जिसकी चपेट में देश की राजनीति मीडिया, नेता और अभिनेता आ गये और देष की रक्षा करने वाले जवान, अन्न पैदा करता किसान, देश का गरीब, मजदूर, व्यापारी मूक होकर देख रहा है| अभी पिछले दिनों ओवेसी ने अपने बयान में कहा कि यदि कोई मेरी गर्दन कर चाकू भी रख दे तब भी में भारत माता की जय नहीं कहूँगा| हालाँकि उनके इस बयान की उदार और बुद्धिजीवी मुस्लिम जगत ने काफी आलोचना की जावेद अख्तर ने तो उन्हें गली मोह्हले का नेता तक बता डाला और तीन बार ऊँचे स्वर में भारत माता की जय का संसद के सदन के उद्घोष भी किया किन्तु इसके बाद भी विवाद थमता दिखाई नहीं दे रहा है|
हैदराबाद के एक इस्लामिक ऑर्गनाइजेशन जामिया-निजामिया ने भारत माता की जय बोलने के खिलाफ फतवा जारी किया है। ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक, इस्लाम मुस्लिमों को इस नारे की इजाजत नहीं देता। इंसान ही इंसान को जन्म देता है, धरती नहीं! दारुल उलूम इफ्ता और इस्लामिक फतवा सेंटर के मुफ्ती अजीमुद्दीन ने कहा, कुदरत के कानून के मुताबिक एक इंसान ही इंसान को जन्म दे सकता है। उन्होंने आगे कहा, (लैंड ऑफ इंडिया) को भारत को मां कहना ठीक नही है। एक इंसान की मां एक इंसान ही हो सकती है, किसी धरती का कोई टुकड़ा नहीं।
- फतवे का जिक्र करते हुए मुफ्ती ने कहा, इस्लामिक रूल्स के मुताबिक हम भारत की धरती को भारत माता नहीं कह सकते। मौलवी जी के अनुसार इन्सान का जन्म बायोलोजी पर आधरित है| सही बात है कि आप लोगों ने विज्ञानं को स्वीकार तो किया जब यह स्वीकार किया तो क्या यह स्वीकार कर सकते है कि किताबें आसमानों से नहीं उतरती?  और धरती चपटी के बजाय गोल है, आसमान सात नही होते??यदि इन्सान को इन्सान जन्म देता है तो खुदा ने मिट्टी से आदम को कैसे बनाया?  यदि इस मुद्दे पर विज्ञानं की सहायता ले तो धर्मग्रन्थ संदेह के कटघरे में खड़े हो जायेंगे बहरहाल बहुत सारे विवादित प्रश्न निकलकर आयेंगे
हम सबके लिए यह देश हमारी मातृभूमि है, हम सब देशवासी इस मिट्टी की संतान जैसे है, इसलिए हम भारत माता की जय बोलते हैं। यदि अब कोई इस भावनात्मक रिश्ते के बीच विज्ञानं को खड़ा कर दिया जाये तो तो शायद विज्ञानं सामाजिक रिश्तों पर ऊँगली खड़ी कर सकता है| हमें साहित्यकार राम तिवारी का एक ब्लॉग अच्छा लगा जिसमें उन्होंने बहुत स्पष्ट रूप से कहा कि जब तक हम ओवेसी जैसों की अनदेखी करते रहेंगे या उसका समर्थन करते रहेंगे तो इससे नेताओं का ही फायदा होगा। क्योंकि वर्ग चेतना विहीन अधिकांश सीधी सरल हिन्दू जनता और किसान मजदूर संघषों में तो एक दूजे के साथ होंगे, किन्तु संसदीय लोकतंत्र में वोट की राजनीति के अवसर पर वह ओवैसी के बोल बचन जरूर याद रखेगी। और ध्रुवीकृत होकर मुस्लिम मत यदि ओबैसी की जेब में होंगे इससे सिद्ध होता है कि ओवैसी जैंसे लोगों की हरकतें धर्मनिरपेक्षता और जनवाद के पक्ष में कदापि नहीं हैं। देश के हित में भी बिलकुल नहीं हैं| सिर्फ एक ओवेसी के या कुछ मजहबी अड़ियल लोगों के भारत माता की जयनहीं बोलने पर इतना तनाव क्यों ? यह उनका राष्ट्रद्रोह नहीं है, मूर्खता अवश्य हो सकती है। सामाजिक- मजहबी रूढ़िवादिता का नकारात्मक प्रभाव भी हो सकता है। इस्लाम में पुरुषसत्तात्मक सोच का बड़ा प्रभाव है। इसीलिये ओवैसी को भारत माताके स्त्रीसूचक शब्द को सलाम करने में परेशानी हो सकती है। भारत के पुरुष त्वरूप को जय हिन्दसे नवाजने में ओवैसी को कोई गुरेज नहीं है। चूँकि हिन्दुओं को यह देश उनकी मातृभूमि है, माँ है, इसलिए वे भारत माता की जय बोलते हैं। लेखक राजीव चौधरी 


Friday 18 March 2016

फांसी चढ़े जवान, लुटेरे बने महान

जिन लोगों ने मुगलों का शासन नहीं देखा वो एक बार यजीदियों पर हो रहे आइ.एस.आइ.एस के आतंकियों  के द्वारा जुल्म देख लें, शायद फिर से इतिहास की समीक्षा करने का मन कर आये और पता चले इस देश के जवान महान थे या बाहरी लुटेरे! बाबर भी एक ऐसा ही लुटेरा था जो 1400 लुटेरों का  झुण्ड लेकर भारत की सीमा में घुसा था, जिसका नतीजा एक हजार साल की धर्मिक और सामाजिक दासता की जकडन यहाँ के निवासियों को भुगतनी पड़ी थी| वो तो भला हो महान माताओं का जिन्होंने अपनी कोख से इस देश की मिट्टी को वो लाल दिए जो उन देश धर्म के दुश्मनों से लड़ते,लड़ते अपने प्राण भारत माता के लिए न्योछावर कर गये|

हमारे हिन्दुस्तान के कुछ चाटुकार वामपंथी इतिहासकारों ने मुगल शासनकाल में भारतीय राष्ट्रीयता की के स्वरूप को मनमाने ढंग से प्रस्तुत किया है। इन्होंने मुगल शासनकाल को भारत का 'शानदार युग' तथा मुगल शासकों को 'महान' बताया है।  इन्होंने मुगल शासक अकबर, औरंगजेब आदि खलनायकों को पहली श्रेणी में तथा महाराणा प्रताप, शिवाजी जैसे नायकों को दूसरी श्रेणी में रखा। यह लोग इतिहास कुछ इस तरह लिखते है जैसे अंग्रेजो ने भारत को मुगलों से छिना हो जबकि ब्रिटिश इतिहासकारों तथा प्रशासकों ने माना है कि अंग्रेजों ने भारतीय सत्ता मुगलों से नहीं बल्कि मराठों तथा सिखों से छीनी थी। अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर तो नाममात्र का शासक था, जो दिल्ली के लाल किले तक सीमित था। किन्तु फिर भी यदि हम मुग़ल और अंग्रेज शासन की तुलना करे कोई भी कह सकता है कि ब्रिटिश शासन मुगलों से बेहतर था। हो सकता है अकबर ने अपने शासनकाल में कुछ सुधार किए हो । परन्तु केवल इस कारण ही उसके राज्य को 'राष्ट्रीय राज्य' या उसे 'राष्ट्रीय शासक' नहीं कहा जा सकता। कुछ आधुनिक मुस्लिम इतिहासकारों के एक वर्ग ने सत्य को छिपाते हुए मुगल साम्राज्य की सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया, परन्तु साथ ही उन्होंने मुगल शासकों की असफलताओं तथा कमियों को बिल्कुल भुला दिया या छिपाया। खेर
विचारणीय गंभीर प्रश्न यह है कि भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतीक साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षी अकबर है या देशाभिमान पर शहीद होने वाली रानी दुर्गावती, भारतीय स्वतंत्रता के लिए मर मिटने वाले सुभाष चन्द्र बोस, करतार सिंह सराभा, भगत सिंह, राजगुरु,सुखदेव महान थे या वो मुस्लिम शासक जो नंग्न ओरतों के स्तन पकड़कर सीढियाँ चढ़ते थे? मुगलों से आजादी के लिए जंगलों में भटकने वाले महाराणा प्रताप महान थे या  वो अकबर है जो छल-कपट तथा दूसरों पर आक्रमण कर उसे जीत लेने के पागलपन से युक्त था| मीना बाजार से अय्याशी के लिए महिलाओं को उठवाने वाला अकबर महान था या शत्रु द्वारा पकड़े जाने अपमानित होने की आशंका के स्वयं छुरा घोंप कर बलिदान देने वाली रानी? क्या राष्ट्र का प्रेरक चित्तौड़ में 30,000 हिन्दुओं का नरसंहार करने वाला अकबर है या महाराणा प्रताप का संघर्षमय जीवन, जिन्होंने मुगलों की अजेय सेनाओं को नष्ट कर दिया था।

आज फिर विद्वानों द्वारा किसी भी शासक का मूल्यांकन राष्ट्र के जीवन मूल्यों के लिए किए गए उसके प्रयत्नों के रूप में आंका जाना चाहिए| जहांगीर तथा शाहजहां-दोनों ही अत्यधिक मतान्ध तथा विलासी थे। दोनों सुरा के साथ सुन्दरी के भी भूखे थे। अकबर के बिगड़ैल पुत्र जहांगीर ने स्वयं लिखा कि वह प्रतिदिन बीस प्याले शराब पीता था। दोनों ने हिन्दू, जैन तथा सिख गुरुओं को बहुत कष्ट दिए थे। शाहजहां की ही मजहबी कट्टरता तथा असहिष्णुता ने औरंगजेब की प्रतिक्रियावादी शासन पद्धति को जन्म दिया था। उसने भारत को दारुल हरब से दरुल इस्लाम बनाने के सभी घिनौने प्रयत्न किए। उसके ही शासन काल में गुरु तेग बहादुर का बलिदान हुआ, गुरु गोविन्द के चारों पुत्रों का बलिदान हुआ था। इसके बावजूद कुछ चाटुकार तथा वामपंथी इतिहासकारों ने उसे 'जिंदा पीर' का भी खिताब दिया है।
आज इतिहास फिर वहीं प्रश्न हाथ में लिए खड़ा है कि औरंगजेब भारत का राष्ट्रीय शासक था अथवा शिवाजी तथा गुरु गोविन्द सिंह राष्ट्रीय महापुरुष थे? वामपंथी इतिहासकार औरंगजेब की तुलना में शिवाजी को राष्ट्रीय मानने को तैयार नहीं हैं। गुरु गोविन्द सिंह जी का व्यक्तित्व भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ है। किन्तु इन इतिहासकारों को उनके संघर्ष को देश के साथ जोड़ने में लज्जा आती है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि मुगल शासक विदेशी, साम्राज्यवादी, क्रूर, लुटेरे तथा मतान्ध थे। उन्हें न भारत भूमि से कोई लगाव था और न ही भारतीयों से। अभारतीयों को राष्ट्रीय शासक कहना सर्वथा अनुचित है तथा देशघातक है। इसके विपरीत राणा प्रताप, शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, राणा सांगा, हेमचन्द्र विक्रमादित्य, रानी दुर्गवती विदेशी  शासकों को खदेड़ने वाले भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अमर सेनानी थे, जिन्होंने भारत में सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की पुन:स्थापना के लिए अपने जीवन का सर्वस्व बलिदान दिया।...लेखक राजीव चौधरी