Saturday 12 March 2016

राजनैतिक जातिवाद के बीज ...

सत्ता के लिए भारत में जिस प्रकार से जातिवाद का बीज बोकर समाज में बिखराव का जो खेल खेला, जा रहा है निसंदेह वह पूरी तरह से देश को बर्बाद करने की नीति का हिस्सा ही कहा जाएगा। जिस भारत की एकता की पूरे विश्व में प्रशंसा की जाती है, वर्तमान में वही भारत देश आज संकीर्णता के दायरे में दिखाई दे रहा है। हमारे देश में विविधताओं के होने के बाद भी सांस्कृतिक और सामाजिक एकता का जो ताना बाना है, उसे विश्व के कई देश अजूबा ही मानते हैं। इस कारण विश्व के कई देश हमारे देश की संस्कृति को अपनाने की ओर आकर्षित हो रहे हैं। देश के सांस्कृतिक दर्शन की अवधारणा हमारे मूल वैदिक धर्म, हमारी विविधता में एकता की संस्कृति पर टिकी हुई है। किन्तु तेजी से प्रग्रतिशील समाज को आज जातियों में बांट देने का काम हमारी सरकारों द्वारा बखूबी किया जा रहा है वास्तव में भारत में जितने भी धर्म या संप्रदाय हैं, उनमें से आज जितना हमारे मूल धर्म में बिखराव दिखाई देता है, उतना संभवत: किसी और संप्रदाय में दिखाई नहीं देता। नेताओं ने कभी भी मुसलमान और ईसाई संप्रदाय को जातियों में विभाजित करने का कुचक्र नहीं रचा। ऐसा करने की हिम्मत ये नेता लोग कर भी नहीं सकते। क्योंकि इन संप्रदाओं के लोग अपने संप्रदाय की रक्षा करना जानते हैं।
हैदराबाद में एक छात्र की आत्महत्या के बाद राजनेताओं ने जिस तरह पुरे देश के सामाजिक ताने बाने को बिखेर कर खड़ा कर दिया क्या यह लोग इसे वापिस समेट पाएंगे? अब सवाल यह आता है कि जातिवाद का जहर घोलने का काम करने के लिए उन्हें कौन प्रेरित कर रहा है। इसमें अगर राष्ट्रीय दृष्टिकोण से सोचा जाए तो यह कहना तर्कसंगत होगा कि ऐसे मामलों पर राजनीति कभी नहीं की जानी चाहिए, बल्कि ऐसे प्रकरण घटित न हों इसके लिए देश में राजनीति करने वाले सभी दलों को व्यापकता के साथ विचार विमर्श करना चाहिए। हमारे देश में सर्व धर्म समभाव की बात की जाती रही है, लेकिन क्या ऐसे विरोध प्रदर्शन के चलते इस समभाव की कल्पना की जा सकती है। कदापि नहीं। जो लोग इस आत्महत्या पर विरोध करते रहे हैं, वह किसी न किसी प्रकार से भारत की सांस्कृतिक अवधारणा को मिटाने का ही कुचक्र कर रहे हैं। जातिवाद के आधार पर देश में जो विद्वेष बढ़ रहा है, ऐसे मामले आग में घी डालने के समान है। ऐसे मामलों पर देशवासियों को अत्यंत सावधानी बरतना चाहिए।

आज हमारे राजनेताओं को अपनी दृष्टि व्यापक करनी होगी और यह समझना होगा कि राजनीति राष्ट्रनिर्माण का काम है। आज हरेक राजनीतिक दल को वोट चाहिए और उसके लिए सही तरीका यह है कि  वे अपने दल के लिए वोट जुटाने में विचारधारा और राष्ट्रीय पुनर्निर्माण यानि विकास की योजना का प्रचार-प्रसार करें। जनमत बनाना प्रत्येक राजनीतिक दल का कर्तव्य है लेकिन जाति आधारित राजनीति समाज गठन में बाधक है। यह बात सभी राजनीतिक दलों को समझना होगा। आखिर ऐसे में सवाल उठता है कि आधुनिक लोकतंत्र में जाति व्यवस्था को मजबूत करने का अपकर्म किसके द्वारा किया जा रहा है? क्या जातिवादी दल या नेता ही मरणासन्न जाति व्यवस्था को बार-बार पुनर्जीवित नहीं कर रहे हैं ? चिंता इस बात की है कि ये जातीय आंकड़े जातिवादी जहर को भारत की नस-नस में फैला देंगे। व्यक्ति की अपनी पहचान नष्ट हो जाएगी। वह मवेशियों की तरह अपने जातीय झुंड के नाम से पहचाना जाएगा। यदि भारत को महान और शक्तिशाली राष्ट्र बनाना है तो इसका आधार जातिवाद कभी नहीं हो सकता। ? इस पर जनता और तंत्र में बैठे सभी को गहन विचार करने की जरूरत है। अन्यथा जनतंत्र खतरे में पड़ जायेगा।  

महंगाई, बेरोजगारी,  देश का अन्नदाता और राष्ट्रविरोधी तत्वों व् आम लोगों से जुड़े सवालों के जगह अगर नेताओं को जातीयता की दुकान अधिक भा रही है तो इसे जनता को ही समझना होगा कि वह इनके स्वार्थरुपी चंगूल से कैसे मुक्ति पाएं। यह तभी संभव है जब जनता इनके कारगुजारियों को समझे और इनके मंसूबों को त्याग कर देशहित में सोचे कि कैसे गरीबी व महंगाई दूर होगी| और यह सोचना आप सभी को है कि क्या चाहिए समर्द्ध देश या जातिवाद ? राजीव चौधरी 

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