Friday 18 March 2016

क्या ठाकुर का कुआँ अभी भी है ?

एक बार फिर यह घटना शिक्षित समाज के मुंह पर कालिख जैसी ही है कि एक तरफ तो हम लोग विश्व गुरु बनने का सपना देखते है और दूसरी तरफ अभी भी सेंकडो साल पुरानी अवधारणाओं को लिए बैठे है| मंगलवार को फिर मध्य प्रदेश के दमोह जिले में जात-पात के भेद ने एक मासूम की बलि ले ली। घटना जिले के तेंदूखेड़ा के खमरिया कलां गांव की है। यहां गांव के प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाले कक्षा तीसरी के छात्र को स्कूल के हैंडपंप पर पानी पीने से रोका गया तो वह अन्य छात्रों की तरह मंगलवार दोपहर माध्यान्ह भोजन के बाद पानी पीने स्कूल के हैंडपंप पर गया। लेकिन उसे हमेशा की तरह दुत्कार मिली। इस पर मासूम अपनी बोटल लेकर कुएं से पानी निकालने पहुंचा। बॉटल से रस्सी बांधकर पानी निकाल ही रहा था कि उसका संतुलन बिगड़ गया और नीचे जा गिरा। परिजनों के मुताबिक स्कूल में दलित बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। इसकी शिकायत बच्चों ने उनसे कई बार की। भेदभाव के कारण बच्चे भी स्कूल आने से मना करते हैं। इसी स्कूल में 5वीं में पढ़ने वाले वीरन के भाई सेवक ने बताया कि उन्हें हर दिन इसी तरह कुएं से पानी लाकर पीना पड़ता है, क्योंकि स्कूल के हैंडपंप से शिक्षक पानी नहीं भरने देते।
बहुत पहले मुंशी प्रेमचंद की कहानी ठाकुर का कुआँ पढ़ी थी जो कल फिर जेहन में जिन्दा हो गयी जिसमें कहानी की नायिका गंगी गांव के ठाकुरों के डर से अपने बीमार पति को स्वच्छ पानी तक नहीं पिला पाती है। इसी विवशता को आज भी हम अपने अंतस में महसूस करते है, कितना दुर्भाग्य की बात है कि अभी भी यह कुप्रथा स्वतंत्रा भारत के हजारों गांवों में बदस्तूर जारी है। हमारे देश में वंचित और दलित लोगों का वर्ग है जिसको लोकतंत्र में पूरा अधिकार है कि वो इस देश के संसाधनों का इतना ही इस्तेमाल कर सकता है जितना कि इस देश का राष्ट्रपति किन्तु दुखद यह है कि उसको यह अधिकार देश का सविंधान तो देता है किन्तु सामाजिक जातिगत सविंधान के सामने वो आज भी लाचार खड़ा दिखाई देता है|
कुछ भी हो इन सब में दोष केवल जातिवादी लोगों का भी नहीं है दोष आज के उन दलितवादी चिंतको का भी है जो जातिप्रथा पर हमला तो करते है किन्तु कहीं ना कहीं जातिप्रथा का संरक्षण करने में भी लगे है कुछ समय पहले तक ब्राह्मणवादियों को लगता था कि जातिप्रथा उनके लिए लाभकारी व्यवस्था है ठीक वैसे ही अब दलित चिंतको, विचारको और राजनेताओं को को लग रहा है कि यह जातिप्रथा इनके लिए अति लाभकारी व्यवस्था बनती जा रही है इसके कारण ही इनकी राजनैतिक दुकान चल रही है अब यह खुद नहीं चाहते की उनका यह कारोबार बंद हो
किन्तु फिर भी जब से इस देश में जातिवाद का जन्म हुआ तबसे हमारा देश दुनिया को राह दिखाने वाले दर्जे से निकलकर सिर्फ दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार और भिखारी देश बनकर रह गया है| जबकि इन अवधारणाओं से निकलकर पश्चिमी दुनिया के देश तरक्की कर गये| इसी जात-पात की प्रथा के चलते न सिर्फ हमने सदियों तक गुलामी को सहा है बल्कि मातृभूमि  के खूनी और दर्दनाक बंटवारे को भी सहा है| लेकिन शायद सिर्फ कुछ ही लोगों को मालूम हो कि मोहम्मद अली जिन्ना के परदादा, पुरखे हिन्दू ही थे जो किन्ही बेवकूफाना कारणों की वज़ह से ही मुसलमान बनने के लिए मजबूर हुए थे. हमारे जातिवाद के हिसाब से तो हिन्दू धर्मी किसी म्लेछ: के साथ सिर्फ खाना खाने से ही  म्लेछ हो जाता था और उसके पास अपने सत्य सनातन हिन्दू धर्म में वापस लौटने का कोई भी रास्ता  इन नीच, पापी पंडों ने नहीं छोड़ा था.

बाद के समय में जब स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी श्रद्धानंद ने शुद्धि आन्दोलन शुरू किया और स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने शुद्धि आन्दोलन को खुले तौर पर समर्थन दिया तब इन मौकापरस्त धर्म के ठेकेदारों को दुःख तो बहुत हुआ लेकिन इन्हें वैदिक धर्म के दरवाजे अपने भाइयों के लिए खोलने पड़े| लेकिन फिर भी ये मौकापरस्त धर्म को बेचने वाले अपनी नापाक हरकतों से बाज़ नहीं आये और अपने बिछुड़े भाइयों को तथाकथित छोटी जाति में जगह दी|  अब समय आ गया है बुद्धिमान लोगो को तो इन जातिवादियों से ये सवाल करना चाहिए की ये सब बताएं की बड़ी जाति में पैदा होकर इन्हें कौनसा महान और दैवीय ज्ञान भगवान से तोहफे में मिला था यहीं कि गरीब का सामाजिक शोषण करो? इन्होने कौन सी महत्वपूर्ण खोज भारत देश और समाज की दी है| इन जात-पात के लम्पट ठेकेदारों ने देश की सब विश्वप्रसिद्द संस्थानों की महान वैदिक वैज्ञानिक परंपरा का स्तर मिटटी में मिलाकर अपने घटिया किस्म की हथकंडे, तिकड़मबाज़ी और चालबाजी से इन्हें अपनी दक्षिणा का अड्डा बनाकर छोड़ दिया है कोई महान योगदान देने के बजाय उल्टा इस देश को जीरो बनाकर रख दिया..लेखक राजीव चौधरी  

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