Thursday 28 April 2016

जानो, वेद की बात पर कैसे आ गया मुस्लिम समुदाय?

ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समाज के देशों से हमेशा  आतंक, हिंसा या गैरजरूरी फतवों की ही  खबर आती है| कभी- कभी कुछ खबर ऐसी होती है जो समाज को प्रेरणा देने के लायक भी होती है| एक बार फिर चीन, अफगानिस्तान, किर्गिस्तान और उज्बेकिस्तान के बीचों-बीच बसा मध्य एशियाई देश ताजिकिस्तान से एक ऐसी ही खबर आई है जो मानवीय समाज में रिश्तों नातों को मजबूत और पवित्र बनाने में सहयोग करती दिखाई दे रही है| जनवरी माह में ताजिकिस्तान सरकार ने अपने देश में इस्लामिक आतंक की आहट को रोकने के लिए करीब 13 हजार पुरुषों  की दाढ़ी कटवा दी थी| हजारों लडकियों को बुर्के से आजाद किया था और इस्लामिक परिधान बेचने वाली की दुकानों को प्रतिबंधित किया था| यहाँ की सरकार का मानना है कि इसके  अलावा इस्लामिक अतिवाद को रोकने का और कोई चारा नहीं है  लेकिन अबकी वहां की सरकार ने जो कदम उठाया वो वाकई इस्लामिक राष्ट्रों के अलावा भारत जैसे देशों को भी सोचने पर मजबूर कर देगा| बीते महीने को यहां की संसद का एक फैसला अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में शामिल हुआ| यह फैसला था देश में कॉन्सेंग्युनियस विवाह यानि की रक्त सम्बन्धियों पर प्रतिबंध लगाना सही हैद्य दुनिया के कई देशों, विषेशकर मुस्लिम बहुल देशों में कॉन्सेंग्युनियस विवाह बहुत ही आम प्रथा है| इसीलिए जब मुस्लिम बहुल ताजिकिस्तान ने इस प्रथा पर रोक लगाने का प्रग्रतिशील फैसला लिया तो इसने दुनिया भर के कई लोगों को हैरत में डाल दिया|

ताजिकिस्तान ने यह फैसला लेते हुए माना है कि कॉन्सेंग्युनियस विवाह से पैदा होने वाले बच्चों में आनुवांशिक रोग होने की संभावनाएं ज्यादा होती हैं| यहां के स्वास्थ्य विभाग ने 25 हजार से ज्यादा विकलांग बच्चों का पंजीकरण और उनका अध्ययन करने के बाद बताया है कि इनमें से लगभग 35 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं जो कॉन्सेंग्युनियस विवाह से पैदा हुए हैं| कॉन्सेंग्युनियस विवाह से पैदा होने वाले बच्चों में आनुवांशिक रोग होने की संभावनाओं पर लंबे समय से चर्चा होती रही है| लेकिन यह चर्चा कभी भी इतने व्यापक स्तर पर नहीं हुई कि इस तरह के विवाहों पर प्रतिबंध लग सके| अभी हाल ही 11 अप्रैल को अपने ही पडोसी मुल्क पाकिस्तान से खबर आई थी कि 75% पाकिस्तानी अपने घर परिवार में ही शादी करते है यानि के भाई ही अपनी बहनों के पति है| सुनने में थोडा अटपटा सा लग सकता है किन्तु पाकिस्तान में इस तरह भाई बहनों के बीच शादियाँ कोई बडी बात नहीं है| ये बहने चाचा, मामा आदि की बेटियां होती है लेकिन भाई बहनों से शादी के कारण पाकिस्तान में जो नये बच्चे पैदा हो रहे है वो अजीब बिमारियों का शिकार है| जबकि इन बिमारियों से चिकित्सकीय जाँच से रूबरू होने के बाद कई यूरोपीय देशों ने इस तरह की शादियों पर प्रतिबंध लगा दिए है|

हमें इस खबर में इस वजह से दिलचस्पी जागी कि यूरोप का विज्ञानं आज दावे को साबित कर अपनी पीठ थपथपा रहा है| जबकि यह सब वेदों में हमारे ऋषि मुनि स्रष्टि के आदि में ही लिख गये थे ऋग्वेद में कहा है संलक्षमा यदा विषु रूपा भवाती” अर्थात सहोदर बहिन से पीड़ाप्रदय संतान उत्पन्न होने को सम्भावना होती है। एक ही परिवार, गोत्र में विवाह भारतीय हिन्दू संस्कृति में हमेशा  एक विवाद एक विवाद का विषय रहा है| मीडिया इसे प्रेम पर पहरा व् खाप के तालिबानी फरमान के तौर पर पेश करता है| जिस कारण आज नयी और पुरानी पीड़ी के बीच टकराव का कारण बना है| सामाजिक और वैदिक द्रष्टि से सगोत्र व् कॉन्सेंग्युनियस विवाह अनुचित है क्योकि एक ही गोत्र में जन्मे स्त्री व पुरुष को बहिन व भाई का दर्जा दिया जाता है| वैज्ञानिक द्रष्टिकोण तो इसके भी पक्ष में है कि एक बहिन व भाई के रिश्ते में विवाह सम्बन्ध करना अनुचित है| विज्ञान का मत है आनुवंशिकी दोषों एवं बीमारियों का एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी में जाना यदि स्त्री व पुरुष का खून का सम्बन्ध बहुत नजदीकी है|  स्त्री व पुरुष में खून का सम्बन्ध जितना दूर का होगा उतना ही कम सम्भावना होगी आनुवंशिकी दोषों एवं बीमारियों का एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी में जाने से बचने की यह वैदिक और वैज्ञानिक विधि है| शायद भारत के ऋषि मुनि वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने बिना यंत्रो के ही यह सब जान लिया था तथा यह नियम बना दिया था|


कॉन्सेंग्युनियस विवाह मतलब खून का सम्बन्ध जितना दूर का होगा संतान उतनी ही वीर, पराक्रमी और निरोगी होगी दूसरे शब्दों में कहें तो पैदा होने वाले बच्चे उतने ही स्वस्थ व बुद्धिमान होंगे| कॉन्सेंग्युनियस विवाह अनुचित ही नहीं परिवार का अंत करने वाला कदम होता है नयी पीड़ी को इसे समझना चाहिए| जिस तरह आज ताजिकिस्तान ने कॉन्सेंग्युनियस विवाह पर रोक लगाई उससे पुरे विश्व को सबक लेना चाहिए खासकर भारतीय मुस्लिम समाज को तो इससे प्रेरणा लेनी चाहिए| अन्य समाज को भी सोचना चाहिए आज का विज्ञानं हमारे कल के वेदों से ऊपर नहीं है|..दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा..लेखक राजीव चौधरी 

यदि भगतसिंह आतंकवादी है तो गाँधी बापू कैसे?

शहीद भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद तथा रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों ने राष्ट्र की आजादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए और पुस्तक में उन्हें आतंकवादी के रूप में पढ़ाया जा रहा है। इस तरह का शर्मनाक उदाहरण पूरे विश्व के इतिहास में मिलना कठिन है। आजाद भारत के 68 साल बाद भी sशहीद भगत सिंह को आतंकवादी कहा जा रहा है| विश्वास तो  नहीं होता है, लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय की ओर से प्रकाशित “भारत का स्वतंत्रता संघर्ष” पुस्तक में एक पुरे अध्याय में भगतसिंह राजगुरु और सुखदेव को क्रांतिकारी शहीद का दर्जा नहीं दिया गया है बल्कि साफ शब्दों में आतंकवादी कहकर संबोधित किया गया है। इस पुस्तक में संसोधन की लम्बे समय से मांग कर भगतसिंह के छोटे भाई सरदार कुलवीर सिंह के पोते यादवेन्द्र सिंह ने केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी को पत्र लिखा है| कि हम सब आहत है उस शब्द को हटाया जाये| सब लोगों को जानकर हैरानी होगी कि इस पुस्तक के लेखक प्रसिद्ध इतिहासकार विपिन चंद्र, मृदुला मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी व् सुचेता महाजन ने मिलकर लिखा है|

अजीब विडम्बना है 1990 में पुस्तक का पहला संस्करण छपा था लेकिन तमाम विरोध के बावजूद भी आज तक कोई सरकार संसोधन नहीं करा पाई| यह एक अकेली पुस्तक नहीं है|  कुछ साल पहले आगरा से प्रकाशित माडर्न इंडिया नाम की पुस्तक जिसके लेखक कोई केएल खुराना थे। उन्होंने भी पुस्तक में लिखा है कि... उनमें से बहुतों ने हिंसा का मार्ग अपना लिया और वे आतंकवाद के जरिये भारत को स्वतंत्रता दिलाना चाहते थे| महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पुस्तक का बड़ी संख्या में उपयोग बीए,एमए के विद्यार्थियों के अलावा प्रशासनिक सेवा परीक्षा में बैठने वाले करते हैं।
शहीद ए आज़म भगत सिंह सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान के लोगों और बुद्धिजीवियों के बीच भी काफी लोकप्रिय हैं। भारत की तरह ही पाकिस्तान में भी भगत सिंह की लोकप्रियता में कोई कमी नहीं है| लाहौर में भगत सिंह के गांव के लिए जहां से सड़क मुड़ती है वहां भगत सिंह की एक विशाल तस्वीर लगी है। कराची की जानी मानी लेखिका ज़ाहिदा हिना ने अपने एक लेख में उन्हें पाकिस्तान का सबसे महान शहीद करार दिया है। 1947 में देश का बंटवारा हुआ और अलग पाकिस्तान बन गया लेकिन वहां के लोगों के दिलों में भगत सिंह जैसी हस्तियों के लिए सम्मान में जऱा भी कमी देखने को नहीं मिलती। आखिर भारत सरकार की ऐसी कौनसी मज़बूरी है| जो आतंकियों का सम्मान और शहीदों का अपमान होता है| यह दंश केवल भगतसिंह ही नही पश्चिम बंगाल के स्कूली पाठ्यक्रम में स्वतंत्रता आंदोलन के शहीदों खुदीराम बोस, जतीन्द्रनाथ मुखर्जी प्रफुल्ल चंद्र चाकी को आतंकवादी बताया जाता है। क्या सरकारे जान बूझकर देश के लिए मर मिटने वालों को अपमानित करना चाहती है? जिस तरह पार्टियाँ आज देश के दुश्मनों को शहीद बता रही है उसे सुनकर देश पर मरने मिटने वालों की आत्मा क्या कहती होगी केरल चुनाव में कांग्रेस नीत यू.डी.एफ सद्दाम हुसैन और अफजल के नाम पर उनकी फांसी के पोस्टर दिखाकर वोट मांग रही थी| क्या यह पार्टियाँ की सोच बन गयी है कि देश के अन्दर भगतसिंह, राजगुरु, अशफाक उल्लाखां की फांसी और युद्ध में शहीद वीर अब्दुल हमीद के नाम पर वोट नहीं मिलेंगे ?


असल सवाल यह है कि क्या आजादी के इतने वर्षो बाद भी हम एक ऐसे भारत का निर्माण नहीं कर पाए जिसमे कम से कम देशभक्तों और देश की खातिर बेमिसाल बलिदान देने वाले दीवानों के देश को लेकर देखे स्वपन तो दूर बात राष्ट्रीय स्तर पर उनका उनका सम्मान कर पाए? जहां तक महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी का सवाल है तो आजादी के पूर्व इन्होंने क्रांतिकारियों से सौतेला व्यवहार किया था। यह किसी से छिपा नहीं है कि जब सरदार भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी की सजा सुनाई गई तो उसी दौरान लाहौर में इरविन (गवर्नर जनरल) से महात्मा गांधी की संधि होने जा रही थी। उस दौरान क्रांतिकारी महिला साथी सुशीला दीदी और दुर्गा भाभी ने महात्मा गांधी से निवेदन किया था कि इन क्रांतिकारियों को फांसी की सजा को आप आजीवन कारावास की सजा में बदलवाने के लिये इरविन से कहें। तब महात्मा गांधी ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “”उनका दूसरा रास्ता है। मैं कुछ भी नहीं कहूंगा। क्या अब क्या कोई सरकार देश पर न्योछावर होने वाले वीरों को सम्मान दिला पायेगी? जब देश के लिए जान देने वाले क्रन्तिकारी आंतकी है तो नेहरु व् गाँधी को चाचा व् बापू किसने बनाया? आतंकी ओसामा बिन लादेन का उल्लेख ओसामा जी के नाम से करनेवाले दल  अपने सत्ताकाल में हुतात्मा भगतसिंह एवं राजगुरु के आतंकी होने की बात इतिहास के पुस्तकों में घुसेड कर बच्चों को सिखा रहे थे, उनको हमेशा अपमानित करते थे। आज वे फिर, कन्हैया को भगतसिंह कहकर पुनः सारे देशभक्तों का अपमान कर रहे थे ! अगर शहीदों के साथ इस देश में ऐसे ही सलूक होते रहे तो कौन माँ अपने बच्चों को भगतसिंह, आजाद, करतार सिंह सराभा,सावरकर इत्यादि बनने की प्रेरणा देगी?? दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा लेखक राजीव चौधरी 

Wednesday 27 April 2016

उज्जैन कुम्भ 2016,नारी को जाने वेदों में

बहुत अच्छा अवसर है  मुझे उज्जैन  कुम्भ में आने के बाद जब पता चला कि आर्य समाज का  शिविर भी लगा है तो मेरा हर्ष दुगना हो गया| बचपन से मेरी प्राथमिकता ज्ञान को अर्जित करने की रही| ईश्वर के बारे में जानना, सनातन धर्म को जानना, मेने हमेशा अपने चित्त पर जमी अन्धविश्वास की धुल को हटाने का प्रयत्न किया| हरिद्वार गया, काशी गया नागा बाबाओं के अखाड़े देखे, महंत, महामंडलेश्वर देखे उनके अन्दर अपने पद को लेकर जन्मा अहंकार देखा तो हमेशा मेरे मन में यही आता था कि खुद को ईश्वर के निकट कहने वाले बाबा  लोग अभी अपने अहंकार को दूर नहीं कर सके तो इनके ज्ञान का लाभ! किन्तु जब में पहली बार आर्य समाज के वैदिक विद्वानों से मिला अपने मन में जन्मी शंकाओ का निवारण पूछा और उन्होंने अपने मधुर सोम्य व्यवहार से मुझे समझाया तो लगा कि ज्ञान सिर्फ वेदों में है जिन्हें पढ़कर हम अपना जीवन सार्थक कर सकते है| यह सब कहते कहते कुम्भ स्नान के लिए आये  इंदौर के सेवाराम के चेहरे पर एक अलग अनुभूति नजर आई |                                                                                                                                                                           
वाराणसी से इस बार कुम्भ स्नान को आई पेशे से अध्यापक अनुपमा शुक्ला के लिए सब कुछ कल्पना से परे था शिप्रा के तट का मनमोहक नजारा,  नदी के किनारों पर पानी के साथ खेलते बच्चे, साधुओं के झुण्ड के झुण्ड कोई बाबा शरीर पर राख लपेटे था तो कोई भांग के नशे में टहल रहा था| कोई हट योग के नाम पर अपने शरीर को कष्ट दिए जा रहा था| उसके अनुसार मेरे मन में शंका के हजारों प्रश्न उठ खड़े हुए क्या ईश्वर को ऐसे जाना जाता है? क्या धर्म बस पुरषों की बपोती है, इसमें नारी का स्थान कहाँ है? कहाँ लिखा है वो पूजनीय है?  तभी टहलते -टहलते शरीर में थकान हुई और आर्य समाज के शिविर में एक कुर्सी पर बैठ गयी वहां प्रवचन चल रहा था| जो पहले तो मेरे लिए एक शोर था किन्तु बाद में जब वहां सुना कि वेदों में स्त्रियों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है – उसे सदा विजयिनी कहा गया है और उन के हर काम में सहयोग और प्रोत्साहन की बात कही गई है| वैदिक काल में नारी अध्यन- अध्यापन से लेकर रणक्षेत्र में भी जाती थी| जैसे कैकयी महाराज दशरथ के साथ युद्ध में गई थी| कन्या को अपना पति स्वयं चुनने का अधिकार देकर वेद पुरुष से एक कदम आगे ही रखते हैं|


अनेक ऋषिकाएं वेद मंत्रों की द्रष्टा हैं – अपाला, घोषा, सरस्वती, सर्पराज्ञी, सूर्या, सावित्री, अदिति- दाक्षायनी, लोपामुद्रा, विश्ववारा, आत्रेयी आदि | तथापि, जिन्होनें वेदों के दर्शन भी नहीं किए, ऐसे कुछ रीढ़ की हड्डी विहीन बुद्धिवादियों ने इस देश की सभ्यता, संस्कृति को नष्ट – भ्रष्ट करने का जो अभियान चला रखा है – उसके तहत वेदों में नारी की अवमानना का ढ़ोल पीटते रहते हैं | यह सुनकर मन आनंद से भर आया जहाँ पहले खुद के नारी होने पर कुढती थी आर्य समाज में शिविर में आकर खुद के नारी होने पर गर्व हुआ आज पता चला नारी को सिर्फ वेदों द्वारा ही जाना जा सकता हमारा सारा सम्मान तो वेदों में है जो हमे बराबरी  से भी ऊँचा स्थान देता है| 

आप सभी महानुभावों से अनुरोध है खुद को समझना ईश्वर को जानना, नारी शोषण की नहीं पूजा की अधिकारी है, सत्य सनातन वैदिक धर्म और वेदों से जाना जा सकता है| जो लोग आज यूरोप के रहन-सहन की पैरवी करते है वो शायद नहीं जानते जिस समय हमारे देश में नारी को ऊँचा स्थान था उस समय यूरोप के अन्दर महिला को आत्माविहीन समझा जाता था| उसका अनादर होता था| उसे डायन कहकर जिन्दा जला दिया जाता था| अंग्रेज गये किन्तु हमारे देश के अन्दर भुत प्रेत और अंधविश्वास छोड़ गये| जिसके लिए  स्वामी जी ने 1853 में हरिद्वार के अन्दर पाखण्ड खंडनी पताका फहराई थी| जिसको लेकर  आर्य समाज आज भी नारी मुक्ति, जातिवाद और अन्धविश्वास के खात्मे को लेकर मुखर है,, इस सामाजिक भेदभाव को मिटाने में आर्य समाज के साथ मिलकर आप भी अपना सहयोग देकर राष्ट्र को महानता की ओर ले जा सकते है... आर्य समाज दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा ..




Tuesday 26 April 2016

कहाँ है स्वर्ग नरक? आर्य समाज

हम आज वैज्ञानिक युग में जी रहे है| हमारे जीवन में उपयोग के लगभग सभी साधन भौतिक है| किन्तु फिर भी हम कभी कभी कल्पना में जीते है और हमारी अधिकतर कल्पना अलौकिक होती है, जिसमें यथार्थ के जीवन को भूलकर लोग चमत्कारों की आशा में जीते है| अलौकिक कल्पना में सबसे ज्यादा स्वर्ग नरक आदि के बारे में सोचते है| किन्तु कभी कल्पना की बहती नदी के किनारे पर खड़े होकर हमने सोचा है| की कहाँ है स्वर्ग नरक? मंदिर में जाओ, स्वर्गो के नक़्शे टंगे है- पहला स्वर्ग, दूसरा स्वर्ग, पहला खंड, दूसरा खंड सच खंड तक; स्वर्ग के नक़्शे टंगे मिलेंगे| इन्सान की मूढ़ता की कोई सीमा नहीं है, कोई अंत नहीं है| बड़ी अजीब विडम्बना है अपने घर के नक्शे दूसरों से बनवाने वाले पुजारी स्वर्ग के नक़्शे आसानी से बना लेते है| हमेशा कहते है श्रद्धा से स्वर्ग पाना है तो मंदिर आओ, भगवान पर भोग लगाओ| चलो मान लिया स्वीकार कर लिया है| लेकिन श्रद्धा से स्वर्ग को पाने से पहले श्रद्धा को भी तो पाना है| पाखंड से श्रद्धा कैसे मिलेगी? 
किन्तु श्रद्धा का नाम लेकर सर्व सम्प्रदाय हमेशा से भयभीत करते आ रहे है| अग्नि में जलोंगे, आग के उबलते कड़ाहों में डाले जाओंगे| या तो भयभीत करते है या फिर प्रलोभन देते है कि स्वर्ग में अप्सराएँ, हूरें तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही है| अजीब खेल खेलते है अश्रदा में नरक और श्रद्धा में स्वर्ग खड़ा कर देते है किन्तु कभी नहीं बताते कि श्रद्धा कहाँ से आयेगी? श्रद्धा आती है, नैतिकता से, ईमानदारी से, कामवासना की मुक्ति से| चश्मा लगाने से कोई पढ़ा लिखा नही होता उसके पहले स्वध्याय करना पड़ता है, पढना पड़ता है लेकिन तथाकथित धर्मगुरुओं ने श्रद्धा के बनावटी चश्मे लगा दिए लोगों के चेहरों पर पहले श्रद्धा बाँट दी फिर स्वर्ग नरक थमा दिए| लोगों को डरा-डराकर धन इकठ्ठा कर लिया नये नये मत संप्रदाय चला दिए स्वर्ग –नरक के लिए आत्मघाती तक बना डाला| अधिकतर धर्मगुरु पंडित पुजारी खुद को ब्रह्मा का नातेदार बताकर वर्षो से स्वर्ग की टिकट बेच रहे है|


जीवित आदमी के लिए वेद को छोड़कर कोई ग्रन्थ स्वर्ग का निर्माण नहीं कर पाया सब सम्प्रदाय मृत शरीरों के लिए स्वर्ग लिए बैठे है  क्या कोई धर्मगुरु बता सकता है कैसा होता है स्वर्ग? वैशेषिक दर्शन के आविष्कर्ता कणाद ऋषि  कहते है “बुद्धिपूर्वा वाक्यकृतिवेदे” अर्थात वेदवाणी की रचना परमेश्वर ने बुद्धिपूर्वक की है|  इसलिए मोक्षप्राप्ति के मार्ग में चलने वालों को दो बातों की आवश्यकता होती है-एक तो स्रष्टि उत्पत्ति के कारणों को जानना और उन कारणों के अनादी ईश्वर को प्राप्त करना, दूसरा स्रष्टि के उपयोग की विधि का समझना| स्रष्टि के कारणों और ईश्वर की प्राप्ति के उपायों के ज्ञान से स्रष्टि, प्रलय, जीव ईश्वर, कर्म कर्मफल और ईश्वर-जीव के संयोग तथा उनकी प्राप्ति से जीवन में जो सुख प्राप्त होता है वही स्वर्ग है, अन्यथा स्वर्ग कोई विशेष स्थान नहीं है,जिसकी लालसा में यहाँ वहां भटका जाये| आर्य समाज 

Monday 25 April 2016

ज्ञान की चुनौती लें, इसमें हार नहीं होती 


मेरे बचपनकी कहानी सचमुच सकारात्मकता की कहानी है। मैं जब पांच वर्ष का था तो पिताजी की मृत्यु हो गई। उसके सदमे में मेरे दादा भी चल बसे। मैं दृष्टिहीन बाबा (दादाजी के भाई) के साथ रहता था। मां का पुनर्विवाह हुआ। हमारे सौतेले पिता का एक बेटा था। उसके साथ हमें पढ़ने स्कूल भेजा। थोड़े दिनों बाद उन्होंने स्कूल में जाकर पूछा कि बच्चे पढ़ाई में कैसे हैं तो अध्यापक ने कहा कि आपके बड़े बेटे (हमारा सौतेला भाई) में तो संभावना नहीं है, लेकिन छोटा बच्चा कुछ होनहार लगता है। इस पर ध्यान दीजिए। अध्यापक की बात का हमारे पिताजी पर उल्टा ही असर हुआ। उन्होंने हमारी किताबें छीनी, पट्‌टी फोड़ दी। हमारी मां उनसे किताबें लेने की कोशिश करती रहीं, लेकिन उन्होंने किताबें सामने जल रहे चूल्हे में जला दीं। फिर कह दिया कि आज से कोई स्कूल नहीं जाएगा। मेरी आत्मकथा मेरा बचपन, मेरे कंधों परमें मैंने सबकुछ बयान किया है। अब इसका दूसरा भाग युद्धरतरहा है। 



इस तरह हमारी पढ़ाई रुक गई, लेकिन पढ़ने की बेचैनी थी। हम कोशिश करते कि कोई किताब मिल जाए पढ़ने की। साथ के बच्चे थे, उनके पास जाकर कुछ सीखने की कोशिश की। उन्हें वह भी बुरा लगता था। हमारे सौतेले पिता के भाई जुआरी थे। बदायूं के पास नदरौली गांव की बात है। दीपावली का समय था और वे जुए में जीतकर आए थे। सारे पैसे जिसमें थे वह कुर्ता घर में टंगा था और वे बाहर गए थे। मैंने सोचा इतने रुपए में एक रुपया निकालकर किताब खरीदी जा सकती है। रुपया निकालकर मैं दुकान पर जाकर किताब देख रहा था कि पिताजी के बीच वाले भाई ने देख लिया। मैंने आशंका से किताब नहीं खरीदी और चला आया। घर लौटा तो देखा कि मेरी मां रास्ते पर कराह रही है, उसे बहुत मारा है। उन पर रुपया चुराने का इल्जाम लगाया गया था। मैंने सोचा सच्चाई बताई तो जो हालत मां की हुई है, उससे ज्यादा बुरी हालत मेरी हो जाएगी। बाद में पढ़ाई भी की। मैं सोचता रहा कि मां को यह बात बताऊंगा पर कभी बता नहीं पाया। मुझे इसका बड़ा अफसोस रहा। जब मां थीं, मुझे रोजगार नहीं मिल सका कि मैं बताऊं कि किताब के लिए चुराने का कितना अच्छा नतीजा निकला है। यह कसक लंबे समय बनी रही। 

इस घटना के बाद मेरी मां मुझे दिल्ली ले आईं मेरी मौसी के यहां राजौरी गार्डन में। उनका एक बेटा पढ़ता था। मेरी मां मुझे वहां छोड़कर चली गईं। वहां मैंने काम करना शुरू किया। कुछ दिन तो घरों में अखबार डाले। कुछ दिन मुझे एक रुपए रोज पर होटल में बर्तन साफ करने का काम मिल गया था। उसी दौरान मुझे मौसाजी ने सब्जी मंडी जाकर नींबू लाकर बेचना सीखा दिया था। मैं राजौरी गार्डन में नींबू बेचता था। मौसाजी के पड़ोस में रिटायर्ड अफसर रहते थे। बुजुर्ग थे और दृष्टिहीन हो चुके थे। उनके बच्चे विदेश चले गए थे उन्होंने मौसाजी से कहा कि इस बच्चे को सामने के नगर निगम के स्कूल में दाखिला दिला दो। यह दोपहर तक नींबू बेचकर जाता है और यहां दोपहर की दूसरी पाली में इसका एडिमिशन हो जाएगा। मेरा एडमिशन हो गया, लेकिन पहले ही दिन मेरे नींबू नहीं बिके और मुझे लौटने में देर हो गई। मैं 12-12:30 तक जाता था, लेकिन उस दिन 1 बजे से भी ज्यादा वक्त हो गया। मौसाजी ने बहुत फटकारा कि स्कूल तुम्हारे मौसा का नहीं है। स्कूल हाथ से निकल गया। पढ़ने का मौका फिर रह गया। 
वहीं एक सिख युगल था, जिसकी कोई संतान नहीं थी। उन्होंने कहा कि हम इस बच्चे को गोद लेना चाहते हैं। उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए कुछ पुरानी किताबें दीं और कहा कि हम इसे पढ़ाएंगे। मां को पता चला तो वे भागी-भागी आईं और मोह-ममता में हमें वहां से लेकर चली गईं। वे हमें जहां हम पैदा हुए थे नदरौली में छोड़कर वे अपने पति के घर चली गईं, क्योंकि वहां उनके दो बच्चे थे। गांव में फिर मजदूरी शुरू हो गई। 

उस वक्त गांव में स्कूल बन रहा था। गांव में दो-तीन स्वतंत्रता सेनानी थे, जो स्कूल के लिए लोगों से श्रमदान करा रहे थे। मैं भी चला गया। काम के साथ-साथ मैं कुछ कविता गुनगुुना रहा था। शौक था तुकबंदी का। दो स्वतंत्रता सेनानी अध्यापकों ने सुना तो अलग ले गए और पूछा कि किसकी कविता गा रहे हो। मैंने कहा कि मन बहलाने के लिए खुद ही लिख लेता हूं, गा लेता हूं। चूंकि मैं दलित बच्चा था, कपड़े फटे थे, मजदूरी करता था तो कोई सोच नहीं सकता था कि मुझे अक्षर-ज्ञान होगा। उन्होंने पूछा क्या तुम पढ़े हुए हो? गांव के लोगों को खुशी हुई कि जिसका दादा दृष्टिहीन है, पिता है नहीं, मां नहीं है और कविता करता है, यह तो चमत्कार है। उन दिनों में एक राजमिस्त्री के साथ काम कर रहा था और सुबह थैला लेकर भागा-भागा जा रहा था तो एक अध्यापक खेत में फसल देख रहे थे। उन्होंने मुझे बुलाया और कहां तुम्हें हम पढ़ाएंगे। दया की कोई बात नहीं है। स्कूल के बाद तुम हमारे यहां काम कर लेना तो हम वह खर्च वसूल लेंगे। हमने फैसला ले लिया। यह जिंदगी के जुएं जैसा था। मैं वहां चला गया। सालभर वे काम कराते रहे। उसी साल सीधे छठी की परीक्षा दी तो मैं पास हो गया। मैंने पास के गांव जाकर स्कूल में परीक्षा दी थी तो वहां के प्रिंसिपल ने एक सरकारी योजना के तहत मुुझे सीधे आठवीं में प्रवेश दिला दिया। फिर मैं नौवीं और दसवीं कक्षा भी पास कर ली थी मैं दिल्ली गया। मेरे मौसेरे भाई ने एमबीबीएस कर लिया था। उन्होंने कहा दसवीं से कुछ होगा नहीं, तुम थोड़ा और पढ़ लो। 
गांव लौटा तो जुलाई गुजर गया था। इंटर कॉलेज गया तो प्रिंसिपल ने कहा कि भई तुम लेट आए हो और मजबूरी है कि प्रवेश दे नहीं सकते। जब मैं निराश होकर लौट रहा था उन्होंने बुलवाकर कहा कि एक तरीका है। 15 अगस्त को हमारे यहां वाद-विवाद स्पर्द्धा होती है। यदि तुम वह जीत लो तो तुम्हें एडमिशन मिल जाएगा। हमारा मैनेजमेंट उसके लिए तैयार रहता है। मैंने चुनौती ली। बहुत बेचैनी थी। नींद नहीं रही थी। मेरे बाबा ने पूछा क्या बात है बेटा। मैंने समस्या बताई तो बोले, ‘रुपया-पैसे की बात तो है नहीं कि हार मान लो, ज्ञान की बात है पूरा दम लगा दो।मेरे मौसेरे भाई ने दिल्ली में कई दूतावासों में मेरा नाम लिखा दिया था। उन दिनों विदेशी दूतावास अपना प्रचार साहित्य मुफ्त भेजा करते थे। मैंने उसी में से रेफरेंस निकाल-निकालकर अपना भाषण तैयार किया। यह 1977 की बात होगी। लोग भाषण सुनकर चकित रह गए कि यह मजदूर बच्चा दुनियाभर के रेफरेंस दे रहा है। हम स्पर्द्धा जीत गए। हमारा एडमिशन हो गया। 

बीए करने चंदौसी के लिए निकला तो किराए के पैसे तक नहीं थे। घर के बर्तन तक बहन की शादी में चले गए थे। मजदूरी से छोटी-सी लुटिया थी। सीधे बेचता तो चोरी का आरोप लगता इसलिए उसे तोड़कर बेचा और किराये की व्यवस्था हुई। फिर बीए किया। इतनी मुश्किल से मैंने शिक्षा पूरी की। एमए में हम ट्रेन से बिना टिकट जा रहे थे। चैकिंग शुरू हुई तो मैंने सोचा कि पकड़े गए तो पढ़ाई छूट जाएगी, इसलिए चलती ट्रेन से कूद गया। सिर फुट गया, कपड़े फट गए, किताबें फट गईं। मुझ पर गांव के आर्य समाज का बहुत असर था। उनके भजनों के असर से ही मैं कवि बना। गांव में दो शास्त्री भाई पक्के गांधीवादी थे। मैं जब लिखने लगा तो छोटे भाई कवि थे। वे उसकी समीक्षा करते, प्रोत्साहन देते। सफर कठिन और बहुत लंबा रहा। मेेेरे जीवन का मूल मंत्र रहा है शिक्षा। हर हाल में पढ़ना। पढ़ाई की ललक ऐसी थी कि मैं कोई भी जोखिम लेने को तैयार था, भूखा रहने को तैयार था, कुछ भी करने को राजी था। घर छोड़ना है, नाते-रिश्ते छोड़ने हैं। सबसे बड़ी बात है कि मेरी जीत हुई और बड़ी जीत हुई है। 

बीए करने दूसरे शहर जाना था तो किराये के पैसे नहीं थे। घर में मजदूरी करके खरीदी हुई एक लुटिया थी। उसे बेचकर किराये के पैसे जुटाए। 

मुझे कहा गया कि वाद-विवाद स्पर्द्धा जीत लो तो इंटर कॉलेज में प्रवेश मिल जाएगा। मुझे चिंता में देख मेरे बाबा ने कहा, ‘रुपए-पैसे की बात तो है नहीं कि हार मान लो। ज्ञान की बात है तो पूरा दम लगा दो। 
आर्यसमाज द्वारा दलितोद्धार का प्रेरणादायक प्रसंग  

आर्यसमाज द्वारा दलितोद्धार का प्रेरणादायक प्रसंग 

श्योराज सिंह बेचैन का जन्म  दलित परिवार में हुआ था। बचपन में पिता का साया सर से उठ गया। माता ने दूसरा विवाह कर लिया। सौतेले पिता ने पढ़ने लिखने में रूचि रखने वाले श्योराज की पुस्तकें जला दी। विषम परिस्थितियों में श्योराज सिंह ने जीवन में अत्यन्त गरीबी को झेलते हुए, मजदूरी करते करते कविताओं की रचना करना आरम्भ किया। आर्यसमाज के भजनोपदेशक उनके छोटे से गांव में उत्तर प्रदेश में प्रचार करने के लिए आते थे। उनके राष्ट्रवादी, समाज कल्याण एवं आध्यात्मिकता का सन्देश देने वाले भजनों से प्रेरणा लेकर श्योराज सिंह ने कवितायेँ लिखना आरम्भ किया।  गांव के एक आर्यसमाजी शास्त्री ने जातिवाद की संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर उनके पढ़ने लिखने का प्रबंध किया। स्वामी दयानन्द से प्रेरणा लेकर प्रगति की सीढियाँ चढ़ते हुए श्योराज सिंह को आज साहित्य जगत में लेखन के लिए साहित्य भूषण पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया है। आप दिल्ली यूनिवर्सिटी में हिंदी विभाग में प्रोफेसर है। वाणी प्रकाशन द्वारा आपकी आत्मकथा को प्रकाशित किया गया है।

आर्यसमाज ने अपनी स्थापना से लेकर आज तक न जाने कितने होनहार लोगों का जीवन निर्माण किया हैं। आशा है स्वामी दयानन्द कि यह कल्याणकारी चेतना संसार का इसी प्रकार से कल्याण करती रहे। 

श्योराज सिंह बेचैन की संक्षिप्त आत्मकथा को पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर समाचार पत्र के इस लिंक पर जाये