Thursday 30 June 2016

यूरोप का इस्लामीकरण, अगला निशाना कौन?

यूरोप का विघटन शुरू हो गया ब्रिटेन के बाद जनमत संग्रह कराकर लन्दन को भी अलग देश बनाकर  पाकिस्तानी मूल के सादिक खान को राष्ट्रपति बनाने की मांग जोर शोर से उठने लगी है| ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से बाहर आना इसकी शुरुवात का हिस्सा भर है, अभी तो नीदरलैंड्, आयरलैण्ड व् अन्य कई देश इससे बाहर आने को आतुर होंगे| सब जानते है पिछली एक शताब्दी में यूरोपियन समुदाय की दौलत जितनी तेजी से बढ़ी है उतनी ही तेजी से विश्व की मुसलिम जनसंख्या बढ़ी है। सन 1900 में जहाँ मुस्लिम समुदाय विश्व की जनसंख्या का साढ़े बारह प्रतिशत थे आज वहीं उनकी संख्या पचीस प्रतिशत से अधिक हैं। यूरोप जितना भोतिक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा उतना ही इस्लामिक समुदाय अपनी जनसँख्या के कारण एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरकर आया| फ्रेन्च विश्लेषक माइकल गुरफिन्केल का अनुमान है कि आने वाले वर्षो में यूरोप के देशों में स्वदेशियों की नई पीढ़ी और आप्रवासी मुस्लिमों की नई पीढ़ी में सड़कों पर आमने-सामने का संघर्ष होगा। यदि वर्तमान स्तिथि यही रही तो समस्त देश 2050 तक इसी रास्ते पर चले जायेंगे।
हो सकता इस त्रासदी का अंदाजा अमेरिका को हो तभी उसने ब्रिटेन से यूरोपीय संघ (ईयू) में बने रहने की अपील की है। कुछ विस्लेशको की राय माने तो अमरीका का मानना है यदि ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर निकलेगा तो उसके पश्चिम के कमजोर होने की आशंका उत्पन्न हो जाएगी। ब्रिटेन के संघ में बने रहने से आतंकवाद, आव्रजन और आर्थिक संकट जैसी चुनौतियों से सफलतापूर्वक निपटा जा सकेगा। आखिर एकाएक यूरोपीय संघ पर टूटने का खतरा क्यों मंडराने लगा है। इसका मुख्य कारण शरणार्थी संकट माना जाता है? शरणार्थियों के प्रवेश ने मंदी से जूझ रहे यूरोपीय देशों, ग्रीस, तुर्की, जर्मनी, साइप्रस, इटली और स्पेन पर न सिर्फ आर्थिक संकट पैदा कर दिया है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक और सामुदायिकता से संबंधित समस्याएं सिर उठाने लगी हैं। लगातार आ रहे शरणार्थियों के बीच आतंकवादियों के छिपकर प्रवेश करने का खतरा बढ़ गया है। सवाल है संघ के सदस्य देशों में यह नाराजगी क्यों पैदा हुई? इसकी वजह यह रही कि जर्मनी सहित अनेक यूरोपीय देशों में शरणार्थियों के प्रति नरम रुख अपनाया लिया और उनकी संख्या में तेजी से बढ़ोतरी होने लगी कि उसे संभालना मुश्किल हो गया। इससे इन देशों में कई समस्याएं उत्पन्न हो गईं| पिछले साल यूरोपीय संघ की बैठक में 160,000 शरणार्थियों को सदस्य देशों के बीच बांटे जाने के मुद्दे पर बात हुई थी। तब इस समस्या के जटिल होने की चेतावनी दी गई थी। शरणार्थियों की बाढ़ आने से स्थानीय निवासियों ने शिकायत की थी कि इनसे अपराध में बढ़ोतरी, आम उपयोग की वस्तुओं की कीमत में उछाल जैसी समस्याएं आ रही हैं। इस बीच स्वीडन,ब्रिटेन,जर्मनी आदि देशों में शरणार्थियों पर हमले होने की खबरें भी आईं,फिर इन्हें रोकने के लिए सुरक्षा बल तैनात किए गए। स्थानीय स्तर पर लोगों में उनके प्रति घृणा और हिंसा की भावना देखी गई। यदि लगातार गंभीर हो रही इस समस्या का समय रहते, आपसी समझदारी से समाधान नहीं ​निकाला गया तो अन्य देश भी इसकी सदस्यता छोड़  सकते हैं।
कुल मिलाकर देखा जाये तो यूरोपीय संघ आज टूटने के कगार पर है क्योकि अब कई और देश भी इससे बाहर जाने का रास्ता तलाश करने लगे है जिसका सबसे बड़ा कारण यूरोप में बढती मुस्लिम आबादी के रूप में देखा जा रहा है| अपने जन्म से ही इस्लाम ने जो भाषा प्रचलित की, उसने मानव जाति को दो वर्गों में बांट दिया। इस्लाम को मानने वाले मुसलिम, मानने वाले काफिर। इस्लाम द्वारा शासित क्षेत्र दारूल इस्लाम और उससे बाहर का दारूल हर्ब बना दिया गया। और अपनी सोच और संस्कृति को ही पवित्र मान लिया गया| पूरा विश्व शायद अभी अपनी मूर्छा से नहीं निकला और उसके बौद्धिक जगत में पिछले डेढ़ हजार वर्ष के इतिहास को ठीक से समझने और उससे सीख लेने की आकांक्षा नहीं जगी, वरना एक सरसरी दृष्टि डाल कर भी यह देखा जा सकता है इस्लाम को मानने वालों का राजनीतिक-मजहबी विस्तार कितनी बड़ी चुनौती है। पिछले चौदह सौ वर्षों का इतिहास के पन्नों से यदि धूल हटे तो देखे  आपसी संघर्ष और प्रतिद्वंद्विता का इतिहास रहा है, जिसकी आंच में भारत को भी एक हजार वर्षो तक झुलसना पड़ा है
ईश्वर के प्रति निष्ठा और भौतिक जीवन के संचालन को अलग-अलग खानों में रख कर यूरोपीय जाति ने विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास करके अपूर्व सामरिक और भौतिक शक्ति अर्जित की है। जबकि उनके पड़ोस में रहने वाले मुसलिम समुदाय के लिए इसका कोई महत्त्व नहीं रहा है, क्योंकि इस्लाम में अल्लाह के प्रति संपूर्ण निष्ठा ही सब कुछ है| उसका एक बड़ा हिस्सा भौतिकवाद के हमेशा खिलाफ रहा है इसलिए इस्लाम यूरोप की शक्ति को ललकारने की प्रेरणा बना हुआ है। हाल के वर्षो में इस्लाम की कट्टरता यूरोप में एक बड़ा राजनीतिक,सामाजिक, धार्मिक प्रश्न बन गया है। कई यूरोपीय देश में इस्लाम के प्रथाओं के खिलाफ कानून बनाये ऐसा इसलिए हुआ कि यूरोप में मजहबी संस्कृति के नाम पर कानून-संविधान का खुल्ला-खुल्लम उंलघन कर राजनीतिक ताकत बढ़ाने का खेल-खेला जा रहा है। किन्तु जैसे ही उदार समाज व्यवस्था पर इस्लाम ने अपनी मजहबी संस्कृतियां हावी की और अलग कानून-संविधान कोड की मांग शुरू की वैसे ही यूरोप का समाज व्यवस्था ने मजहबी संस्कृतियों के प्रचार-प्रसार के खिलाफ सक्रियता भी दिखानी शुरू की है। फ्रांस में बुर्का के खिलाफ संवैधानिक प्रतिबंध इसकी सबसे बड़ी कड़ी है। हालाँकि पहले तो इन मजहबी प्रथाओं को इस्लाम से जुडी संस्थाएं मजबूत कर रहीं थी और अब मीडिया भी इसमें शामिल हो गया। इस्लामिक मूल्यों और रूढ़ियों के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक मीडिया यूरोप में खड़े हैं जो इस्लाम और गैर इस्लामिक आबादी के बीच टकराहट,घृणा का बाजार लगा रहे हैं। मीडिया के उपर मजहबी संहिताएं हावी होना न सिर्फ यूरोप में इस्लामिक कट्टरता को बढाने वाला और औरत की आजादी को प्रभावित करने जैसी चिंताएं शुरू हो गयी  है आज   यूरोप का भविष्य केवल इसके निवासियों के लिये ही महत्वपूर्ण नहीं है। वरन हम सबके लिए महत्पूर्ण है क्योकि अभी तक जो यूरोप पुरे निरपेक्ष मार्ग की ओर घसीट रहा था जो अब खुद साम्प्रदायिकता आग में जलता दिखाई दे रहा है| हो सकता है कल यूरोप इस्लामी रंग को अपना ले तो सोचो यूरोप के बाद अगला किसका नम्बर होगा? राजीव चौधरी


Tuesday 28 June 2016

क्या इसके लिए भी मुस्लिम बने ?

जलती चिता, उठता धुंआ, रोता बिलखता परिवार, फिजा में दुःख और विषाद उत्तर प्रदेश के शिकोहाबाद में सेना के शहीद जवान वीर सिंह की अंतिम यात्रा में भारतीय समाज के जातिगत बंटवारे की कहानी कहते नजर आये| भले ही आज प्रधानमंत्री जी कह रहे हो मेरा देश बदल रहा है लेकिन कुप्रथाओं का मकडजाल अभी भी लोगों की मानसिकता से हटता दिखाई नहीं दे रहा है| कुछ दिन पहले तक देश के शहीद जवान के लिए सर्वधर्म गर्व करता था किन्तु आज शहीदों का पहले धर्म और अब शहीद की जाति भी तलाशी जाने लगी है| देश के लिए लड़ते हुए शहीद होने पर हर किसी को फक्र होता है। लेकिन क्या लोगों ने सोचा है कि जिस मातृभूमि के लिए वह दिन-रात जंगलों की खाक छान रहा है। तुम सो जाओ में जाग रहा हूँ उसी के शहीद होने पर उसके अपने गांव वाले ही अंतिम संस्कार के लिए जमीन का एक टुकड़ा भी न दे पाएं। क्योकि शहीद जवान वीर सिंह नट (नीचली जाति) के थे। इसी के चलते ऊंची जाति के दबंगों ने ऐतराज जताया। देश और समाज की गर्दन झुका देने वाली ये शर्मनाक घटना यूपी के ही शिकोहाबाद में घटी है । शहीद की जाति को मुद्दा बनाकर दबंगों ने शमशान घाट पर अंतिम संस्कार नहीं होने दिया। बाद में एसडीएम ने  अंतिम संस्कार के लिए 10Û10 सरकारी जमीन का टुकड़ा मंजूर किया लेकिन तब तक तो उस शहीद की आत्मा छलनी होकर यही बयान कर रही होगी कि सुना तो यही था हमने भी कि देश  में शहीदों का बड़ा सम्मान है| हाय री जाति! जो मरने के बाद भी नहीं जाती| मत कहिएगा अब कि जाति आधारित भेदभाव खत्म हो चुका है मर जाते है वो देश के लिए लड़ते हुए तिरंगे में लिपटी जब उसकी लाश  आएगी दुनिया कहेगी, शहीद था ये लोग नाक दबाकर कहेंगे नही फला जाति का था| हाँ यदि शहीद मुस्लिम समुदाय होता तो शायद उसके लिए राजनेतिक और सामाजिक स्तर पर जमीन की कमी ना रही होती!!
यह बीमारी एक जगह नहीं पुरे देश में व्याप्त है जैसलमेर जैसे छोटे से शहर में लगभग 47 शमशान घाट है जबकि जयपुर में इनकी तादाद 57 है हर जाति का अपना अंतिम दाह-संस्कार स्थल हैं और उपजातियों ने भी अपने मोक्ष धाम बना लिए है लेकिन क्या भूमिहीन एक दलित के लिए जिंदगी का आखरी सफर भी सुखद नहीं होता, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में उन्हें अंतिम क्रिया के लिए जगह तलाशने के लिए कड़ी मसक्कत करनी पड़ती है भारत के सामाजिक ढांचे में इंसानियत का यह विभाजन जन्म के साथ शुरू होता है और मौत के बाद भी शमशान घाट तक इंसान का पीछा करता है| ऐसे एक नहीं देश में अनेंको किस्से है| किसी कवि ने कहा है कि बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ-साथ, उड़ते ही शाख से कई हिस्सों में बट गए! भले ही हमने आज अपनी पहचान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महाशक्ति  होने की बना ली हो, किन्तु देश अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर कमजोर और बीमार सा दिखाई दे रहा है| बीमारी भी ऐसी जिसके कारण हमने कंधार से लेकर ढाका तक गवां दिया लाहौर से लेकर कश्मीर गवां दिया इतिहास साक्षी है हम गैरों से जब हारे अपनी एक कमजोरी की वजह से हारे वो कमजोरी रही हमारी जातिवाद नामक बीमारी जो हमारे जेहन में इस कदर बस गयी कि हमने सब कुछ गवां दिया किन्तु ना जाने क्यों आज तक इस बीमारी को लिए बैठे है| आखिर किसके लिए? बाकि जो बचा है उसे गंवाने के लिए?
किसी दार्शनिक से एक जिज्ञासु ने पूछा – राष्ट्र की व्यवस्था के लिए मूलभूत किन-किन चीजों की आवश्यकता होती है ? उस दार्शनिक ने जवाब दिया - अनाज, सेना और सुसंस्कार। ये तीन बिंदु ऐसे हैं जिनपर किसी भी राश्ट्र की सुरक्षा टिकी है। जिज्ञासु ने पुनः पूछा - यदि इनमें से किसी चीज की कमी हो तो क्या उससे काम चल जाएगा। दार्शनिक ने कहा - सेना के अभाव में अनाज और संस्कार के बल पर राष्ट्र टिक सकता है। जिज्ञासु ने पुनः पूछा - यदि किसी दो की कमी हो तो फिर क्या होगा ? दार्शनिक ने कहा - कदाचित सैनिक के अभाव में राष्ट्र चल सकता है, अनाज के अभाव में राष्ट्र चल सकता है, लेकिन जिस राष्ट्र के सुसंस्कार समाप्त हो गए, उसका अस्तित्व कुछ नहीं रह सकता है

परन्तु आज शमशान घाट से लेकर नाई की दुकान तक जातिवाद का बोलबाला है| मेरा भारत बदल रहा है , भारत आगे बढ़ रहा है या भारत पुन: हजारो साल पीछे जा रहा है? आज यह प्रष्न प्रासंगिक हो गया है|  हाल ही में मुजफ्फरनगर के भूप खीरी में जातिवाद की सनक का एक मामला सामने आया यहां रहने वाले दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों ने आरोप लगाया है कि उनके बाल नहीं काटे जाते हैं। भूप खीरी में पिछड़ी जाति के लोगों के बाल काटने से यहां के बार्बर शॉप मना कर देते हैं। पीड़ित गांववालों का कहना है ठाकुरों की हनक के आगे किसी ने भी आवाज उठाने की हम्मत नहीं दिखायी। लेकिन अब हम एकजुट हैं और संविधान में भारतीय नागरिक के समानता के अधिकार की मांग करते हैं। गाँव के ठाकुरों ने बार्बर शॉप वाले, बाल काटने वालों को हमारे बाल काटने से मना करने को कहा है। उन्ही के दबाव के चलते हमारे बाल नहीं काटे जाते हैं। जबकि मुस्लिमों को इन दुकान पर बाल कटवाने से कोई नहीं रोकता क्या बाल कटवाने के लिए भी हमें मुसलमान बनना पड़ेगा?.........लेख राजीव चौधरी 

Sunday 26 June 2016

पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है!!

घाटी में एक बार फिर से राजनितिक हलचल है| इस बार जम्मू-कश्मीर की सीएम महबूबा मुफ्ती ने गांदरबल जिले में तुलमुला के क्षीर भवानी मंदिर में पूजा की। महबूबा के इस कदम को राजनैतिक हलके भले ही पंडितों के बीच पीडीपी की पहुंच को बढ़ाने के तौर पर देख रहे हो किन्तु उनके इस बयान पंडितों के बिना कश्मीर अधूरा है ने विस्थपित कश्मीरी पंडितो के चेहरे पर कुछ पल को ही किन्तु मुस्कान जरुर भर दी है| हालाँकि इस बयान से अभी उनके विस्थापन का रास्ता साफ नहीं माना जा रहा है क्योकि कश्मीर में अलगाववादी गुटों ने कश्मीरी पंडितों को दोबारा कश्मीर में बसाने के सरकार के फैसले का शन्तिपूर्ण विरोध करने का फैसला लिया है| सब जानते है लोकसभा चुनाव और जम्मू कश्मीर विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने कश्मीरी पंडितों को वापस घाटी में लाने का वादा किया था| शायद इसी कारण गठबंधन की पीडीपी सरकार केंद्र के सामने लगातार झुकती दिखाई सी दे रही है|
अधिकारियों का कहना है कि वे वापस आने वाले कश्मीरी पंडितों के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाएंगे जहां वे सुरक्षित रह सकें| लेकिन इस योजना को उस वक्त घक्का पहुंचा जब कई लोगों ने सरकार पर यह आरोप लगाना शुरू किया कि सरकार फिलिस्तीन में इसराइल जैसी व्यवस्था बनाने की कोशिश कर रही है| किन्तु अधिकारियों के लिए सबसे बड़ी समस्या यह पैदा हो गई है कि कश्मीरी अलगाववादी नेता मीरवाइज उमर फारूक, यासीन मलिक और सयैद अली शाह गिलानी ने सरकार के इस फैसले के खिलाफ आपस में हाथ मिला लिए हैं| कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष संजय टिक्कू का कहना है कि घाटी छोड़ने वाले 95 फीसदी हिंदुओं ने अपने घर और जमीन बेच दिए हैं इसलिए जाहिर है कि वे अपने पुराने घर में तो नहीं लौट सकते हैं| इसलिए सरकार को उनके लिए अलग व्यव् कर देनी चाहिए| लेकिन मीरवाइज उमर फारूक ने बीबीसी से कहा, हम चाहते हैं कि कश्मीरी पंडित वापस आए हर कश्मीरी मुसलमान इस पर सहमत है हम मानते हैं कि यह एक मानवीय मुद्दा है| पंडितों को वापस आने का हक है| और सरकार को उन्हें बसाने के लिए अच्छा मुआवजा देना चाहिए लेकिन हम विशेष तरह की व्यवस्था के खिलाफ है क्योंकि यह कश्मीरियों में गहरी दरार पैदा करेगा|हालाँकि इस बात को सब जानते है कश्मीरियों में दरार भी इन्हीं अलगाववादियों की वजह से आई थी| इस आलोचना के बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अपने फैसले को लगभग बदलते हुए इस बात पर जोर दिया कि वो कश्मीरी पंडितों के तब तक सिर्फ रहने की जगह मुहैया कराने की बात कर रही थीं जब तक कि वे अपना घर ना तैयार कर लें| लेकिन घाटी में बहुत सारे लोग उनकी इस सफाई से सहमत नहीं हैं|
संजय टिक्कू कहते हैं, कि पल भर में हालात नहीं बदल सकते हैं 2008 में सरकार ने अमरनाथ हिंदू श्राइन बोर्ड को जमीन आवंटित करने का फैसला किया था जिसे लेकर कई दिनों तक विरोध-प्रदर्शन होते रहे थे| एक हिंदू के तौर पर यहां मुझे उस वक्त काफी असुरक्षा महसूस हुई थी|मेरे मुसलमान पड़ोसी जब मुझे देखते थे तो मुझे लगता मैं 1990 के चरमपंथ के दौर में चला गया हूँ| आज घाटी में सिर्फ 2764 हिंदू बचे रह गए हैं जो अपने ही देश में खोफ के साये में जीने को विवश है|आज की पीढ़ी के मुसलमान नौजवानों और पंडितों के बीच उतना जुड़ाव नहीं है|  आखिर कश्मीरी चरमपंथी मुस्लिम युवा कैसे स्वीकार करेंगे कि विस्थापित पंडित इसी घाटी का हिस्सा है,

संजय टिक्कू का मानना है कि घाटी छोड़कर गए लोग अब घाटी में इन लोगों के कारण जीवन के दबाव को नहीं झेल पाएंगे और परेशानी आते ही दोबारा से भाग खड़े होंगे|  मैं सोचता हूं कि इसका हल एक ऐसे स्मार्ट सिटी को बनाकर निकाला जा सकता है जिसमें पचास फीसदी घर पंडितों के लिए हों और बचे हुए घर मुस्लिम, सिख और दूसरे हर पंथ के लिए हों जो वहां शांति से रहना चाहता है तब जाकर हम यहां एक सच्ची साझा संस्कृति वाले समाज का निर्माण कर पाएंगे| वरना वहां इस माहौल में साझे निर्माण की बात करना बेमानी होगा| आखिर इस हाल में कैसे होगा साझा निर्माण?  

आज करीब तीन से 4 लाख कश्मीरी पंडित संघर्ष कर रहे है| उन्हें नहीं पता वो किसके खिलाफ संघर्ष कर रहे अपने देश के निति निर्मातों के खिलाफ या चरमपंथियों के खिलाफ? क्योकि अब यदि अलगाववादी गुटों की बात मान भी ली जाये तो क्या गारंटी है कि मिश्रित आबादी होने से 26 सालों से दिलो जमी मेल कुछ पल में दूर हो जाएगी और चरमपंथी अलगाववादी दल चेन से जीने देंगे? क्या यहां के बहुसंख्यक मुस्लिम ये चाहते हैं कि कश्मीरी पंडित अपने घरों को लौटें? और एक ऐसा माहौल बने कि चिनाब झेलम के पानी में चरमपंथियों की मजहब की नफरत की आग के बजाय 26 सालों से पंडितों के रिसते जख्मों को दो ठंडी बूंद सवेदना की मिल जाये?....चित्र और आंकड़े बीबीसी से साभार ...लेख राजीव चौधरी 

Saturday 25 June 2016

और वो मर गयी!!

लातूर की रहने वाली मोहिनी ने अचानक इस साल 16 जनवरी को दुपट्टे से फांसी लगाई और मर गईं| मोहिनी तो मौत की गोद में सो गयी किन्तु उसका लिखा सुसाइड नोट जिन्दा लोगों की आत्मा झझकोरने के लिए काफी है मोहिनी लिखती है कि, "यह सब आत्मा की शांति के लिए करते हैं लेकिन मैं अपनी ख़ुशी से यह क़दम उठा रही हूँ| ख़ुशी होगी कि मैंने दहेज़ और शादी पर आपके जो रुपए ख़र्च हो जाते, उन्हें बचाया है| आख़िर कब तक बेटी वाले वाले बेटे वालों के आगे झुकते रहेंगे?" ये प्रश्न जरुर उस समाज के मुंह पर तमाचे जैसा है जो हमेशा दहेज विरोधी होने का दंभ भरता रहता है| कुछ समय पहले तक लगता था जैसे –जैसे समाज शिक्षित होगा ये दहेज रूपी कुप्रथा का भी अंत हो जायेगा| किन्तु ऐसा नहीं हुआ और यह कुप्रथा समय के साथ और मजबूत होती चली गयी| आमतौर पर हमारे देश में गाँवो से लेकर शहरों तक सब दहेज विरोधी है, जब दहेज विरोध की बात आती है सब एक सुर में बोलते भी है कि दहेज जैसी बीमारी बंद होनी चाहिए| किन्तु जब बात अपने बेटे या बेटी की शादी की आती है तो यह कुप्रथा मान सम्मान का रूप धारण कर लेती है|
नब्बे के दशक से बड़े स्तर पर दहेज प्रथा के खिलाफ जनजागरण अभियान चलाये गये बसों, ट्रको आदि से लेकर दीवारों पर स्लोगन लिखकर लोगों को जागरूक करने का काम किया गया| किन्तु नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा और दहेज के आग में बेटियां झुलसती चली गयी| आखिर दहेज की असली बीमारी छिपी कहाँ है? कहीं लोग सच में तो दहेज लेना- देना पसंद तो नहीं करते है? जो यह बीमारी अपनी जगह यथावत खड़ी है| इस बीमारी को फ़ैलाने में मीडिया की दोहरी भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता जैसे पिछले दिनों भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाडी रविन्द्र जडेजा को उसके ससुर द्वारा एक करोड़ की गाड़ी दिए जाना मीडिया की नजरों में गिफ्ट था| किन्तु यदि कोई मध्यम वर्ग के तबके में इस तरह के लेन-देन हो तो उसे दहेज बताया जाता है| आखिर ऐसा क्यों? सब जानते है हमेशा छोटा वर्ग अपने से बड़े वर्ग का अनुसरण करता है यदि बड़ा शिक्षित, संपन्न वर्ग दिखावा करने को या अपने गुणगान को ऐसे कृत्य करेगा तो निश्चित ही छोटा वर्ग उसके पदचिन्हों पर चलेगा|
दूसरा पिछले दिनों लक्ष्मी नगर मेट्रो स्टेशन पर एक लड़की ने ट्रेन के आगे कूदकर इसलिए अपनी जान दे दी थी कि वो जिस लड़के से प्रेम विवाह करना चाहती थी वो लड़का अपनी माँ के कहने पर दहेज में गाड़ी की मांग कर रहा था| गाड़ी देने में लड़की पक्ष असमर्थ हो गया और अंत में लड़की ने आत्महत्या को सरल रास्ता समझा| समझने के लिए काफी है कि दोनों के मध्य उपजे प्रेम सम्बन्ध भी दहेज प्रथा को झुका न सके! आमतौर पर पुरुष समाज को दहेज का लोभी माना जाता रहा है जबकि इसमें एक बड़ी भागीदारी महिला समाज की है| एक सास को दहेज चाहिए, एक ननद, देवरानी, जेठानी सबको दहेज चाहिए यदि नारी जाति अपने परिवारों में दहेज के खिलाफ खड़ी हो जाये तो हमारा मानना है इस कुप्रथा पर काफी हद अंकुश लग सकता है| अलबत्ता ऐसा नहीं है कि आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं के लिए सिर्फ दहेज प्रथा ही दोषी है कई बार गृहस्थ के जीवन में बढ़ रही निराशा, संघर्ष करने की घटती क्षमता और जीने की इच्छाशक्ति की कमी की ओर भी संकेत करती हैं। कुछ दिन पहले हरियाणा फतेहाबाद जिले के भूना कस्बे में कल दो सगी बहनों ने गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी  आत्महत्या करने वाली दोनों सगी बहनें कोमल और शिल्पा। बेहद पढ़ी-लिखी एमए, एमकॉम और MBA की डिग्री होल्डर थी। लेकिन उनके सुसाइड की जो वजह सामने आई.. उसे जानकर हर कोई सन्न था किसी को यकीन नहीं हो रहा क्या ऐसा भी हो सकता है। नौकरी नहीं मिली तो जान दे दी!! दहेज की तरह यह भी कड़वा सत्य है कई बार लोग समाज और अपने रिश्तेदारों की अपेक्षाओं पर खरा न उतरने के कारण भी निराशा में आत्महत्या कर लेते हैं। लेकिन इसे हम कुप्रथा नहीं निराशावाद या अच्छे संस्कारो की कमी भी कह सकते है


मौजूदा समय के भौतिकवादी माहौल ने लोगों की महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं को काफी बढ़ा दिया है। अधिकांश माता-पिता और रिश्तेदार भौतिक संसाधनों को मान-सम्मान से जोड़ देते हैं। जिन परिवारों की लड़कियों को मनपसंद वर मिलने की चाह पूरी नहीं होती ससुराल में स्वतन्त्रता के साथ अपेक्षाएं पूरी नहीं होती हैं तो वो युवतियां  जिंदगी से ही मायूस होकर खुद को दोषी समझकर आत्महत्या का रास्ता चुन लेती है। आज अच्छे वर का मतलब परिवारों और संस्कारों के बजाय पैसे से तोलकर देखा जाने लगा है| मसलन ऐसा समझा जाने लगा है कि यदि मेरी जेब खूब पैसा है तो में अपनी ओलाद के लिए किसी को भी खरीद सकता हूँ!! जबकि सब जानते जीवन की सच्ची खुशियाँ या पारिवारिक संस्कार पैसो से नहीं खरीदे जा सकते है, पैसो से इन्सान तो खरीद सकते है जीवन की खुशियाँ नहीं!! राजीव चौधरी 

Thursday 23 June 2016

यह चरमपंथ कौन सा धर्म है?

अभी पिछले कुछ दिनों से एक नया धर्म सामने आया जिसे चरमपंथी कहा जाता है, कबीरपंथी सुना था दादूपंथी सुना था पर यह चरमपंथी अभी प्रचलन में आया है| जब कहीं भी इस्लामिक आतंकियों द्वारा हमला होता है तो उसे चरमपंथ का हमला कहा जाता है| यदि चरमपंथ और इस्लामिक उग्रवाद अलग-अलग है तो फिर इन मानवता के हत्यारों के द्वारा अल्लाह के नाम का हमेशा एक ही नारा लगाने का क्या कारण है? हम यह बात किसी धार्मिक विद्वेष में नहीं कह रहे बस साफ करना चाहते है कि यह चरमपंथ आखिर कौन सा मजहब है? अब इस चरमपंथ के दर्पण से धूल हटाकर देखे तो साफ दिख जायेगा उसके लिए हमे पिछले महीनों के राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय बयानों पर नजर डालनी होगी कुछ महीने पहले चीन के एक अधिकारी ने मुस्लिम महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले बुर्के को लोगों द्वारा अपनी पहचान छिपाने के लिए दुरुपयोग किया जाने वाला आवरण बताते हुए कहा कि बुर्का चरमपंथ और पिछड़ेपन का परिधानहै। जिस कारण पिछले कुछ सालों से विश्व में चरमपंथी हमलों में साफ बढ़ोतरी दिख रही है|

अफगानिस्तान के मुद्दे पर आयोजित मंत्री स्तरीय सम्मेलन हार्ट ऑफ एशिया में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से यह सुनिष्चित करने के लिए भी कहा कि आतंकवाद और चरमपंथ के बलों को किसी भी नाम, रूप या स्वरूप में पनाहगाह या शरणस्थल न मिल पाएं। संघीय जांच ब्यूरो का कहना है कि सान बर्नार्डिनो में हुई गोलीबारी के बाद (एफबीआई) ने अपनी जाँच में कहा अंजाम देने वाले पाकिस्तानी पति-पत्नी चरमपंथ से प्रभावित थे और उन्होंने हमले से कुछेक दिन पहले ही एक मदरसे में निशाना लगाने का अभ्यास किया था। कुछ दिन पहले एक प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए ओबामा ने कहा था, पाकिस्तान एवं अफगानिस्तान में अल कायदा को तबाह करने जैसी कामयाबियों के बावजूद चरमपंथ अब भी कायम है। ऐसे में हमें आतंकवाद पर हावी बने रहने की जरूरत है और अमेरिकी रक्षा मुख्यालय पेंटागन के वरिष्ट अधिकारी ने कहा कि हिंसक चरमपंथ  दक्षिण एशिया में सबसे तेजी से विस्तार लेती और तात्कालिक चुनौती है।

हालाँकि इस मामले को साफ देखने की कोई जरूरत नहीं रह जाती बस पुरे विश्व ने हिम्मत की कमी के कारण नाम बदल दिया किन्तु कुछ लोग ईमानदारी से आज भी सच स्वीकार करते है प्रतिष्ठित अरब पत्रकार अब्दुल रहमान अल-रसद ने पिछले दिनों अपने कॉलम में लिखा था फ्रांस में हुए हालिया आतंकी हमले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन पेरिस के बजाय किसी मुस्लिम देश की राजधानी में होना चाहिए था, क्योंकि इस मामले में मुसलमान ही संकट में शामिल हैं और उन्हीं पर आरोप लगाया गया है| चरमपंथ की कहानी मुस्लिम समाज से शुरू होती है और उन्हीं के समर्थन एवं चुप्पी की वजह से इसने आतंकवाद का रूप लिया और लोगों को नुकसान पहुंचा रहा है। इसका कोई मतलब नहीं कि पीड़ित फ्रांस के लोग सड़कों पर उतरे। आवश्यकता इस बात की है कि मुस्लिम समाज पेरिस के अपराध और इस्लामी चरमपंथ को सामान्य रूप से स्वीकार कर माफी मांगे|
कुछ दिनों पहले पूर्व पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल मुशर्रफ से पूछा गया कि पाकिस्तान को किससे ज्यादा खतरा है  चरमपंथ से या भारत से तो मुशर्रफ जवाब चरमपंथ ही था। अब प्रश्न फिर यही है कि इस दोहरेपन की शुरूआत मुस्लिम समुदाय से हुई, या मीडिया से  जहां इस बात पर भारी मतभेद है कि आज कौन-सी चीज प्रामाणिक इस्लाम का गठन करती है। या हम खुद को मूर्ख बनाते हैं, जब हम मुसलमानों से कहते हैं कि वास्तविक इस्लामयह है, वास्तविक इस्लाम शांति का नाम है क्योंकि मुसलमानों का कोई वेटिकन नहीं है। धार्मिक प्राधिकार का कोई एक स्रोत नहीं है, आज कई इस्लाम हैं- नैतिकतावादी वहाबी, सलाफी, जेहादी विकृति उनमें से एक है और हम जितना सोचते हैं, उससे कहीं ज्यादा समर्थन उसे प्राप्त है। इबादत की बजाय अल्ला-हो-अकबरके गूंजते नारे, जिसका नतीजा जमीन पर बेकसूर लोगों का खून और बाकी बचे उनके रिश्तेदारों के हिस्से समूची जिंदगी का दर्द। यह दर्द जितना ज्यादा होता है, आतंकियों का सुकून उतना ही ज्यादा होता है। इससे उपजी विद्रोह की आग जितनी सुलगे, चरमपंथियों की उतनी ही बड़ी कामयाबी। इन घटनाओं को अंजाम देते हुए चरमपंथियों के जितने भी अपने साथी मरे, उनकी मौत संगठन की शहादत सूची में उतनी ही महिमामंडित होती है। सुरक्षा बलों के हाथों जितने आतंकी मरेंगे, बदले की भावना उतनी ही ज्यादा परवान चढ़ेगी। एक हमले की कामयाबी अगले ऐसे कई धमाकों की रणनीति की बुनियाद भी खड़ी कर देती है। पूरी दुनिया में आतंकी संगठनों का यही तरीका और उसका ऐसा ही अंजाम है। फिर कोई बताये तो सही चरमपंथ और इस्लामिक आतंक में अंतर क्या है? चित्र गूगल से साभार lekh by Rajeev choudhary 




Wednesday 22 June 2016

जीसस ईश्वर का बेटा नहीं था!!

कभी चरमपंथियों की आँख की किरकिरी रही अपनी बेबाक शेली के लिए मशहूर बंगलादेशी  मूल की लेखिका तसलीमा ने एक बार फिर एक नई बहस को जन्म दे दिया है| इस बार उन्होंने ईसाईयों के भगवान जीसस पर सवाल उठाया है| उन्होंने जीसस के कुंवारी माँ से पैदा होने वाले बच्चे की चमत्कारिक कथा पर कहा है कि ना जीसस की माँ कुंवारी थी और ना ही जीसस ईश्वर का बेटा था| मामला उस वक्त उछला जब जैकब मैथ्यू नाम के एक शख्स ने तसलीमा से पूछा क्या क्रिसमस मनाने में कुछ गलत है? इस सवाल का जबाब देते हुए तसलीमा ने कहा- हाँ मैं झूठे जश्न नहीं मनाती जीसस ईश्वर का बेटा नहीं था|

दरअसल तसलीमा मनुर्भव (मानवताद्) में विश्वास करती है उन्होंने कई मौको पर कहा है कि अंधश्रद्धा  में कोई रूचि नहीं है। यहाँ एक बात अपनी जगह अपना विश्वास बनाती है हमारे शास्त्रों के अनुसार हम सब ईश्वर की संताने है। किन्तु इसका यह कतई मतलब नहीं हैं कि कोई इसे चमत्कारिक रूप से रखकर स्वंय को ईश्वर की संतान कहकर खुद को ईश्वर का बेटा बताकर अन्धविश्वास को बढावा दे! बाइबिल के अनुसार ईश्वर ने 6  दिनों में सर्ष्टि का निर्माण किया और सातवें दिन आराम किया। कोई इस बात को 1  प्रतिशत मान भी ले किन्तु यहाँ प्रश्न यह उठता है कि क्या वो आजतक आराम ही कर रहा है क्योंकि इसके आगे का काम बाइबिल में नहीं लिखा। जिसने 6  दिन में ब्रह्मांड की रचना की तो इसके बाद उसने क्या किया? बाइबिल के अनुसार ईसा की माता मरियम गलीलिया प्रांत के नाजरेथ गाँव की रहने वाली थीं। उनकी सगाई दाऊद के राजवंशी यूसुफ नामक बढ़ई से हुई थी। विवाह के पहले ही वह कुँवारी रहते हुए ही ईश्वरीय प्रभाव से गर्भवती हो गईं। ईश्वर की ओर से संकेत पाकर यूसुफ ने उन्हें पत्नी स्वरूप ग्रहण किया। इस प्रकार जनता ईसा की अलौकिक उत्पत्ति से अनभिज्ञ रही।

 संत ईसा की जीवनी (The Life of Saint Issa) है .पुस्तक में लिखा है ईसा अपना शहर  गलील छोडकर एक काफिले के साथ सिंध होते हुए स्वर्ग यानी कश्मीर गए,धर्म  का ज्ञान प्राप्त  किया और यहा संस्कृत और पाली भाषा भी सीखी यही नही ईसा मसीह ने संस्कृत में अपना  नाम ईसा रख लिया था जो यजुर्वेद  के चालीसवें अध्याय के पहले  मंत्र ईशावास्यमितयस्य से   लिया  गया  है नोतोविच ने अपनी  किताब  में ईसा  के बारे में जो महत्त्वपूर्ण जानकारी  दी  है  उसके कुछ अंश दिए  जा रहे  हैं 

 भारत के विद्वानों ने ईसा मसीह आदर से स्वागत किया, वेदों की शिक्षा देने के साथ संस्कृत भी सिखायी विद्वानों ने बताया कि वैदिक ज्ञान से सभी दुर्गुणों को दूर करके आत्मशुद्धि कैसे हो सकती है फिर ईसा राजग्रह होते हुए बनारस चले गए और वहीँ पर छह साल रह कर ज्ञान  प्राप्त करते रहे और जब  ईसा मसीह वैदिक धर्म का ज्ञान प्राप्त कर चुके थे तो उनकी  आयु  29 साल हो गयी थी इसलिए वह यह ज्ञान अपने लोगों तक देने के लिए वापिस येरुशलम लौट गए जहाँ कुछ ही महीनों के बाद यहूदियों ने उनपर झूठे आरोप लगा लगा कर क्रूस पर चढवा दिया  था|

 क्योंकि ईसा मनुष्य को  ईश्वर का पुत्र कहते थे इसके बाद ईसाईयों के भगवान जीसस का पुनर्जन्म होता है। परंतु प्रश्न यह है कि इस पुनर्जन्मत के बाद दोबारा वे कहां गायब हो गये। ईसाइयत इसके बारे में बिलकुल मौन है। कि इसके बाद वे कहां चले गए और उनकी स्वायभाविक मृत्यु कब हुई। यह प्रश्न आज भी दफ़न है क्योकि जीसस को यदि भगवान बनाना था तो उसे मरना ही होगा। नहीं तो ईसाइयत ही मर जाती। क्यों कि समस्त ईसाइयत उनके पुनर्जन्म पर निर्भर करती है।यहूदियों ने लोगों समझ लिया यदि  जीसस पुन: जीवित होते है और यही चमत्काकर बन जायेगा। यही सोचकर यहूदियों ने सीधे साधे ईसा को भगवान बना दिया....लेख राजीव चौधरी 

Friday 17 June 2016

क्या अब यहाँ आत्मरक्षा करना भी जुर्म है?

क्या अब यहाँ आत्मरक्षा करना भी जुर्म है?
सरकार कहती है, नारीशक्ति मजबूत हो, जिस देश की माताएं-बहने मानसिक,आत्मिक रूप से मजबूत होगी उस देश की आने वाली संताने भी मजबूत होगी, जिससे देश धर्म का मान सम्मान ऊँचा होगा  किन्तु आज के हालात देखे तो देश के अन्दर हर एक घंटे में हजारों की तादात में महिलाओं के साथ छेड़छाड़, रेप, आदि ना जाने कितने शर्म से सर झुका देने वाले केस दर्ज होते है| यह सब जानते हुए फिर भी कल से कुछेक मीडिया के लोग चीख रहे है कि आखिर देश में हो क्या रहा है। रोजाना महिलाओं के होते अपमान पर वासना की भट्टी में जल रही नारी के सम्मान पर चीखने वाली मीडिया पूछ रही है, क्या वाकई ऐसे हालात हैं कि लड़कियों के लिए अब हर कोई ट्रेनिंग केम्प लगा रहा हैं। इन ट्रेनिंग केम्पों में आत्म रक्षण के लिए तलवार,एयर गन ,जुडो कराटे के अलावा प्रेम में धोखे से बचने की ट्रेनिंग इन महिला प्रषिक्षणार्थियों को दी जा रही है। ये कोई नई घटना नहीं है| सबको ज्ञात है आर्यवीर दल, आर्य समाज लड़कियों को आत्मरक्षा, चरित्रनिर्माण प्रशिक्षण देता आया है| शिविर का उद्देष्य बहन बेटियों को आत्मरक्षा, धर्म रक्षा एवं नारी स्वावलम्बन को ध्यान में रखते हुए दिया जाता रहा है, ताकि वे आत्मरक्षा के लिए दूसरे पर आश्रित ना रह सकें। यह कोई नई परम्परा नहीं है, न कोई न कोई नया रिवाज हमारे यहाँ तो वैदिक प्राचीन काल  का इतिहास नारी की गौरवमयी  कीर्ति से  भरा पड़ा है नारी जाति ने समय समय पर अपने साहस पूर्ण कार्यों से दुष्मनों के दांत खट्टे किये हैं| प्राचीन काल में स्त्रियों का पद परिवार में अत्यंत महत्वपूर्ण था गृहस्थी का कोई भी कार्य उनकी सम्मति के बिना नहीं किया जा सकता था| न केवल धर्म व् समाज बल्कि रण क्षेत्र में भी नारी अपने पति का सहयोग करती थी| कहते है अद्वित्य रण कौशल से  कैकयी ने अपने  महाराज दशरथ को चकित किया था| गंधार के राजा रवेल की पुत्री विश्पला ने सेनापति का दायित्व स्वयं पर लेकर युद्ध किया वह वीरता से लड़ी पर टांग कट गयी, जब ऐसे अवस्था में घर पहुंची तो पिता को दुखी देख बोली यह रोने का समय नहीं, आप मेरा इलाज कराइये मेरा पैर ठीक कराइये जिससे मैं फिर से ठीक कड़ी हो सकूं तो फिर मैं वापस शत्रुओं का सामना करूंगी|
ऐसी ना जाने कितनी वीर माताएं बहने इस भारत माता की कोख से जन्मी जिसके एक दो नहीं ना जाने कितने नारी के त्याग से बलिदान तक के यहाँ हजारो किस्से मिल जायेंगे| झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई, विदेशी शासकों को खदेड़ने वाले भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अमर सेनानी थी| जिन्होंने भारत में सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की पुनरूस्थापना के लिए अपने जीवन का सर्वस्व बलिदान दिया। कौन भूल सकता हाड़ी रानी के उस पत्र को जो उसने युद्ध में जाते हुए राजा को भेजा था जिसमें उसने लिखा था मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं। अब बेफ्रिक होकर अपने कर्तव्य का पालन करें मैं तो चली स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी। पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल, एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया। ताकि राजा युद्ध में बेखोफ लड़ सके| शिवाजी महाराज की माता जिजाबाई भी किसी प्रेरणा से कम नहीं| ऐसी ही भारत की एक वीरांगना दुर्गावती थीं जिन्होने अपने विवाह के चार वर्ष बाद अपने पति दलपत शाह की असमय मृत्यु के बाद अपने पुत्र वीरनारायण को सिंहासन पर बैठाकर उसके संरक्षक के रूप में स्वयं शाशन करना प्रारंभ किया और मुगल शाशको से लड़ते-लड़ते बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं थी।
यदि वो इतिहास पुराना लगता हो तो तमलुक बंगाल की रहने वाली मातंगिनी हाजरा ने 1942 में भारत छोडो आन्दोलन में भाग लिया और आन्दोलन में प्रदर्शन क दौरान वे 73 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों की गोलियों का शिकार होकर मौत के मुह में समाई असम के दारांग जिले में गौह्पुर गाँव की 14 वर्षीय बालिका कनक लता बरुआ ने 1942 इसवी के भारत छोडो आन्दोलन में भाग लिया अपने गाँव में निकले जुलूस का नेत्त्रत्व इस बालिका ने किया तथा थाने पर तिरंगा झंडा फहराने के लिए आगे बढ़ी पर वहां के गद्दार थानेदार ने उस पर गोली चला दी जिससे वहीँ उसका प्राणांत हो गया| इस कड़ी में स्वतन्त्रता सेनानी दुर्गा भाभी भी किसी परिचय का मोहताज नहीं है कस्तूरबा गाँधी, जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में घूमकर महिलाओं में सत्याग्रह का शंख फूंका| चंपारण, भारत छोडो आन्दोलन में जिनका योगदान अविस्मर्णीय रहा इस तरह की नारी वीरता भरी कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है.और किसी भी वीरता, धैर्य ज्ञान की तुलना नहीं की जा सकती| किन्तु इस सबके बावजूद नारी को अबला बेचारी कहा जाता है| यदि ये सब वीर महिलाएं गलत थी तो फाड़कर फेंक दीजिये इतिहास को यदि नहीं नारी चरित्र निर्माण आत्मरक्षा शिविर में हस्तक्षेप के बजाय सहयोग कीजिये ताकि हमारे देश कि नारी शक्ति आत्मनिर्भर हो| अब यदि हम कुछ और उदाहरण  देखें तो हम यही पाएंगे कि नारी यदि कहीं झुकी है तो अपनों के लिए झुकी है न कि अपने लिए उसने यदि दुःख सहकर भी अपने चेहरे पर शिकन तक नहीं आने दी है तभी एक गीत में लिखा है कोमल है कमजोर नहीं तू, शक्ति का नाम ही नारी है|

किन्तु आज इस शक्ति को किस तरह अपमानित किया जा रहा है यह सोचनीय विषय है आर्य समाज ने हमेशा नारी शक्ति को ऊँचा उठाया देश और समाज को सन्देश दिया नारी हमारे लिए पूजनीय है आर्य वीर दल के प्रदेश मंत्री आचार्य धर्मवीर जी ने इस प्रशिक्षण शिविर को लेकर ठीक कहा है कि हम बच्चों को शारीरिक आत्मिक और समाजिक उत्थान के लिए ऐसे केम्प पूरे देश में लगाएंगे। इस केम्प में हम ने बच्चों को आत्मरक्षण और बौद्धिक चीजें सिखाई हैं। देश में लड़कियों को हेय द्रष्टि से देखा जाता है, उनके अंदर आत्म विश्वास जागे, इसलिए हमने ये केम्प लगाया है। राष्ट्र को भ्रष्ट करने की जो साजिश होगी हम उसके खिलाफ खड़े होंगे हम अपनी संस्कृति को बचा रहे हैं। हमने इन बच्चियों को बताया है कि दोस्ती और थोड़े प्रलोभन के चक्कर में ऐसे ना फसे। अपने गुरु, माता पिता की आज्ञा का पालन करें। इसमें कुछ गलत कैसे हो गया क्या अब आत्मरक्षा करना भी जुर्म और पाप हो गया? 


Tuesday 14 June 2016

आर्य समाज ने ढूंढा और देखा ‘सत्य क्या है?’

लेख महेन्द्र प्रकाश शिवाकोटी, काठमाण्डू, नेपाल
काठमाण्डू नेपाल में प्रत्येक वर्ष (जेष्ठ) जून में महीने में पुस्तक मेला लगता है। इस बार 20वां नेपाल अन्तर्राष्ट्रीय पुस्तक प्रदर्शनी नेपाल, भारत और चीन के प्रकाशन स्टाल लगे हैं। इस मेला में वैदिक प्रकाशन पहले कभी नहीं देखा और न सुना । मैं दो कारण से इस स्टाल से आकर्षित हुआ| पहला मै आध्यात्मिक व्यक्ति हूं। दूसरा मैं नेपाल में संविधान निर्माण के क्रम में ‘‘आर्य ब्राह्मण संघ नेपाल’’ का महासचिव हूं। स्टाल में धार्मिक और आध्यात्मिक पुस्तके थीं वेद को ज्यादा महत्त्व देकर सजाया गया था। मैं एक आध्यात्मिक विषय का जिज्ञासु व विद्यार्थी होने के कारण इस स्टाल के प्रति ज्यादा आकर्षित हुआ। स्टाल में दिल्ली से आए रवि प्रकाश जी बड़े सहयोगी और पाठक के जिज्ञासाओं का समाधान कर रहे थे।
रवि प्रकाश जी के सामने मैने भी कुछ जिज्ञासा रखीं। नेपाल भारत में हमारे पूर्वजों से मानते हुए आये हैं धार्मिक आस्था, महान ग्रन्थो, भगवान के अवतार, भारत से आने वाले बड़े-बड़े महात्माओं के प्रवचन और दृष्टानत के भावनाओं से ऊपर उठकर आर्य समाज का विचार सुनकर मुझे बहुत ही अजीब और आश्चर्य लगा।
यदि आर्य समाज के सत्य विचार जनमानस में नहीं आएंगे तो विरोध के लिए विरोध, मुद्दे के लिए मुद्दा, विचार के लिए विचार ही रहेंगे। उससे ऊपर उठकर कुछ काम करने का साहस कौन करेगा? क्या आज तक सत्य छिपा हुआ था? क्या हम लोगों को अन्धविश्वास ने घेर कर रखा है? आने वाले दिन आर्य समाज के लिए महत्त्वपूर्ण अवसर, चुनौती और कठिन संघर्ष की यात्रा होगी।
क्या हम ;नेपाल और भारतवासी आजतक तो माना हुआ, सुना हुआ सब अन्ध विश्वास ही है? भगवान कौन है? अवतार क्या है? महात्मा कौन हैं? विष्णु कौन है? राम कौन है? कृष्ण, शिव, ब्रह्म कौन है? ब्रह्माण्ड का सत्य क्या है? जो पहले भी था? आज भी है और कल भी रहेगा।
यदि आर्य समाज ने खोजा, देखा सत्य ही संसार का सही मार्ग है तो इम लोग सत्य बात सुनकर ग्रहण नहीं कर सके? क्या इस बात का प्रचार हो नहीं सका? क्या आर्य समाज ने सत्य बात अल्मारी की दराज में बन्द करके रखी है? क्या सत्य और असत्यके आन्दोलन आगे नहीं बढ़ा? क्या सत्य और असत्य में इतना मतभेद रहा?
समग्र कहने का तात्पर्य आर्यसमाज जागरूक? निष्कलंक और भगवान का सत्य का रथ संसार भर में दौड़ाने के लिए पीछे न रहे। आर्य समाज सही अर्थ में सत्य का अभियान आगे बढ़ाना है तो महाभारत में कृष्ण और अर्जुन के प्रयोग किया रथ  अब सत्यका प्रकाश सारे पृथ्वी पर चलाना पड़ेगा। तभी सत्य प्रत्येक के मन के अन्दर और घर के भीतर जाए ऐसा कठोर साहस और संकल्प करना पड़ेगा ऐसा मेरा मत है।
अन्त में आर्य सभा का नेपाल में वेद प्रचार प्रसार बहुत कम है। सीमित दायरा से निकलकर, जनमानस में ले जाने की बहुत जरूरत है। समाज में वेद के प्रति जो श्रधा है लेकिन वेद के दर्शन किसी ने नहीं किये है, वैदिक पुनर्जागरण के लिए आर्य समाज आगे आए और हम सभी का साथ सहयोग रहेगा यदि मेरा हार्दिक विनम्र अनुरोध है।  लेखक नेपाल में संविधान निर्माण के क्रम में ‘‘आर्य ब्राह्मण संघ नेपाल’’ का महासचिव है