Wednesday 1 June 2016

इंसान चंद सांसें, कहाँ से लेगा?

पर्यावरण दिवस मात्र एक उत्सव नहीं, हम सबकी जिम्मेदारी है 1000 स्थानों पर यज्ञ करने का लक्ष्य धार्मिक ही नहीं वरन् वैज्ञानिक भी है। दिन-प्रतिदिन हो रहे पर्यावरण में बदलाव को देखते हुए दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा ने यह महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है। क्यों ना यज्ञ के द्वारा ही जागरूकता फैलाई जाये! कहीं ऐसा न हो कि विश्व पर्यावरण दिवस प्रकृति को समर्पित दुनियाभर में मनाया जाने वाला सबसे बड़ा उत्सव मात्र बनकर रह जाए या फिर एक दिन अखबारों में सोशल मीडिया आदि पर शुभकामनायें देने तक सिकुड़ जाए? यदि हालात ऐसे ही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब बाज़ार से शुद्ध ऑक्सीजन के पाउच लेकर हम सांस लिया करेंगे। कुछ वर्ष पहले तक क्या हम यह सोचते थे कि पानी खरीदकर पीना पड़ेगा? किन्तु आज पी रहे हैं न! दिन पर दिन नदियों के अस्तित्व पर खतरा मंडराता जा रहा है। बड़े-बड़े जल स्रोत सूख रहे हैं, वनों का क्षेत्रफल घट रहा है। वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि प्रकृति ने वायुमंडल की दूसरी परत में ओजोन गैसों के रूप में जीवधारियों के लिए जो रक्षात्मक आवरण दिया है उसका दस प्रतिषत इस सदी के अंत तक नष्ट हो जाएगा। दिनों-दिन गम्भीर रूप लेती इस समस्या से निपटने के लिए आज आवश्यकता है एक ऐसे अभियान की, जिसमें हम सब स्वप्रेरणा से सक्रिय होकर भागीदारी निभाएँ। इसमें हर कोई नेत्त्रत्व करें, क्योंकि जिस पर्यावरण के लिए यह अभियान है उस पर सबका समान अधिकार है, ताकि पर्यावरण दिवस हमारे लिए कोई उत्सव न होकर एक जिम्मेदारी भरा दिवस बन जाये।
आमतौर पर देखा जाता है कि लोगों को जागरूक करने की दिशा में सरकार पर्यावरण बचाने के नाम पर हर साल करोड़ां रुपये विज्ञापन पर खर्च करती है। किन्तु फिर भी सुधार न के बराबर है नतीजा ढाक के तीन पात। दूसरा आज जहाँ भी नजरे दौड़ाकर देखते हैं तो दिन पर दिन हरे भरे पेड़ पौधों की जगह सीमेंट-कंक्रीट के मकान नुमा जंगल और जहरीला धुआं उगलती फैक्ट्रियाँ ले रही है जिस कारण प्रदूषण की मात्रा इतनी अधिक बढ़ती जा रही है कि इंसान चंद सांसें भी सुकून से लेने को तरसने लगा है। कहीं ऐसा तो नहीं की प्रकृति को नष्ट कर हम अपना ही गला अपने ही हाथों से घोट रहे हों?
सबसे दुःखद बात यह है कि आज पर्यावरण के रख-रखाव को लेकर पश्चिमी देश हमें सचेत कर रहे हैं। जबकि हम तो इनसे कई हजार साल आगे हैं। प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों की जीवन में क्या उपयोगिता है? इसका ज्ञान वैदिककाल में ही हमारे ऋषि मुनियों ने हमें दे दिया था।  ऋग्वेद कहता है इस ब्रह्मांड में प्रकृति सबसे शक्तिशाली है, क्योंकि यही सृजन एवं विकास और यही ट्ठास तथा विनाश करती है। अतः प्रकृति के विरुद्ध आचरण नहीं करना चाहिए। प्राचीनकाल से हम यह चिंतन के अनुसार सुनते आए हैं कि जीव पंचमहाभूतों जल, पृथ्वी वायु, आकाश, अग्नि से मिलकर बना है इनमें से किसी की भी सत्ता डगमगा गई तो इसका हश्र क्या होगा,यह सभी जानते हैं। फिर यह अज्ञानता क्यों? पढ़-लिखकर भी मनुष्य अज्ञानी बनकर स्वार्थ तक सिमट गया है। वह इन तत्वों के प्रति छेड़छाड़ को गंभीरता से क्यों नहीं ले रहा है। जहां हम कहते जा रहे हैं कि हम भौतिक सुख-संपदा में आगे बढ़ रहे हैं, वहीं उसके कुत्सित परिणाम का दमन क्यों भूल रहे हैं। जब तक किसी भी वस्तु, अविष्कार, खोज के गुण-दोष  को नहीं टटोलेंगे, तब तक आगे बढ़ना हमारे लिए पीछे हटने के बराबर है। पर्यावरण का ध्यान रखते हुए हम आगे बढ़ेंगे तभी वह हमारे लिए सही अर्थों में आगे बढ़ना है।
पृथ्वी का अस्तित्व बचाने के लिए जल तथा पर्यावरण प्रदूषण को हर तरह से रोकना होगा, नहीं तो लोगों के सामने इसका भयावह परिणाम आ सकता है। जैसे-जैसे विकास की रफ्तार बढ़ रही है, जीवनयापन भी कठिन होता जा रहा है लेकिन फिर भी शरीर से नित नयी व्याधियां जन्म ले रही हैं। आश्चर्य तो यह है कि पुराने समय में जब सुबह से शाम तक लोग प्रत्येक काम अपने हाथों से करते थे,  तब वातावरण कुछ और था, पर्यावरण संरक्षित था। इसी को हमें ध्यान में रखना होगा। मानव जीवन प्रकृति पर आश्रित है अतः प्रकृति के साथ दुश्मन की तरह नहीं, वरन् मित्र की तरह काम करना शुरू करना होगा जिसके लिए हमें इस कार्य में किसी को नहीं जोड़ना बल्कि इस षुभ कार्य में इस अभियान में खुद को जोड़ना है। सोचो जब आगे आने वाली पीढ़ी हमसे साँस तक के लेने लिए शुद्ध हवा मांगेगी तब-तक शायद हमारे पास न जवाब होगा और न पर्यावरण?... दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा 

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