Wednesday 27 July 2016

आतंक या मजहब की पैरोकार बनी मीडिया?

गरीबी, अशिक्षा, किसी को आतंकी बना देती है ये चर्चा अब बहुत पीछे छुट गयी अब तो हर एक आतंकी घटना का नये सिरे से विश्लेषण होता है, हमला झेलने वाला देश और घटना को अंजाम देने वाले आतंकी का देश कौनसा है, घायलों और मृतको के देश, आतंकवादी के परिवार का आय व्यव विवरण| सब कुछ मीडिया के लिए प्रश्नपत्र के एक अनिवार्य खंड जैसा हो गया है| कुछ साल पहले तक आतंकवाद के खेल में भारत जैसे देश पिस रहे थे और पूरा विश्व तमाशबीन बना बैठा था| हर एक आतंकी हमले के बाद भारत को सयम बरतने की सलाह के खत अमेरिका यूरोप से आते रहते थे| किन्तु आज आतंकवाद ने अपनी जड़े इस कदर फैलाई कि समूचा विश्व मानो असुरक्षित होकर चीख रहा है द्य कब कहाँ किस देश में कोई आतंकी किस घटना को अंजाम देकर कितने निर्दोष लोगों की हत्या कर दे कुछ कहा नहीं जा सकता! बस लाशों की गिनती कर हमले के छोटे बड़े होने का कयास लगाया जाता है| हर बार आतंकवाद का कई तरह की चर्चा का सामना भी विश्व मीडिया से होता है| मसलन आतंकवादी किस धर्म का था यदि इस्लाम धर्म को मानने वाला था तो वहाबी था या सल्फी था, सुन्नी या शिया था! उसके माता-पिता तो बड़े अच्छे है आखिर इतनी कट्टर सोच कहाँ से आई? आदि-आदि प्रश्नों से दो तीन दिन स्टूडियों में जमघट लगे रहते है| मुस्लिम धर्म गुरु हर एक आतंकी घटना को सिरे से नकार देते है कि इसमें इस्लामिक मत का कोई रोल नहीं है यह तर्क भी पेश किया जाता है कि इस्लाम को मानने वाला किसी कि हत्या नहीं कर सकता| दरअसल मुस्लिम मौलवी भी अपनी जगह सही है पता उन्हें भी नहीं होता कि आखिर उनके द्वारा दी गयी धर्मिक शिक्षा कब कहाँ कैसे किसी को एक हिंसक चैराहे पर ला खड़ी कर देती है कोई नहीं जान पाता!!
लेकिन पिछले कुछ दिनों में एक नया चलन सामने आया जिसे लेकर कुछ चिन्तक, विचारक हतप्रभ है आतंकवादी अपना जोर इस बात पर लगा रहे है कि हम इस्लाम मत को मानने वाले है और उसी के लिए लड़ रहे है मसलन ढाका में कुरान की आयते ना पढ़ पाने वालो के गले रेत दिए| किसी जगह हमले से पहले नारा एक तकबीर अल्लाह हूँ अकबर कहना, या फिर इस्लामिक नियम जिन्हें एक किस्म से आतंकवादियों का सविंधान भी कहा जाता है उसे थोपा जाना आदि| किन्तु मुस्लिम धर्मगुरु और मीडिया एक सिरे से इस बात को खारिज करते है कि इनका इस्लाम से कुछ लेना देना नहीं है| उदहारण के तौर पर पिछले कुछ महीनों की आतंकी घटना का विश्लेषण देख लीजिये किस तरह आतंकवादी के प्रति सहानुभूति का तानाबाना खड़ा किया जा रहा हैद्य जर्मनी के शहर वुज्रवर्ग के निकट एक अफगानी 17 वर्षीय शरणार्थी ने कुल्हाड़ी से रेल के यात्रियों हमलाकर कई लोगो को घायल कर दिया इस पर भी बहस छिड़ी है कि वो चरमपंथ से प्रभावित था या नहीं? भारत में भी 10 लाख के इनामी आतंकी बुरहान वानी के मामले में कुछ पत्रकार उसे स्कूल मास्टर का बेटा बता सहानुभूति का पात्र बनाते नजर आये| कही हम लोग ये एक गलत परम्परा की शुरुवात तो नहीं कर रहे है?
म्यूनिख के ओलंपिया मॉल में हमला करने वाला आतंकी नहीं था। मीडिया के अनुसार हमलावर मानसिक रूप से विक्षिप्त था और उसका इलाज चल रहा था। उसे बड़े पैमाने पर गोलीबारी करने की सनक थी। वह नरसंहार से जुड़ी किताबों और लेखों से प्रभावित था। दूसरा फ्रांस के दक्षिणी शहर नीस में हुए चरमपंथी हमले को अंजाम देने वाला मोहम्मद लहवाइज बोहलोल अवसाद का शिकार एक हिंसक व्यक्ति था, जिसने कभी मस्जिद का रुख़ नहीं किया। सब जानते है कि इस 31 वर्षीय ट्यूनीशियाई नागरिक ने नीस में एक ट्रक को भीड़ पर चढ़ा दिया था। इस हमले में 10 बच्चों समेत 84 लोगों की मौत हो गई थी। तीसरा ओरलेंडो के एक समलैंगिक क्लब में 49 लोगों की हत्या करने वाला 29 वर्षीय हमलावर उमर मतीन की पूर्व पत्नी सितोरा युसुफी के अनुसार, मतीन खुद भी समलैंगिक रहा हो सकता है। लेकिन गुस्से और शर्म के कारण उसने अपनी असल पहचान छुपाने का निर्णय लिया। हमलावर के पिता ने कहा कि उसकी हरकत को मजहब से नहीं जोड़ना चाहिए| वहीं, एफबीआई की माने तो जांच में खुलासा हुआ है कि हमले को अंजाम देने से ठीक पहले मतीन ने 911 पर फोन कर कहा था कि वह आईएसआईएस का आतंकी है|
ढाका के अन्दर प्रतिष्ठित स्कूलों से पहुंचे कुछ लडको ने 21 निर्दोष लोगों की हत्या कर दी जिस पर बांग्लामदेश सरकार यह कह रही है कि वो स्थातनीय आतंकवादी हैं और उनका आईएसआईएस से कोई लेना देना नहीं हैद्यहो सकता है पर  प्रश्न यह नहीं है कि वो किस आतंकी संगठन से जुड़े है या नहीं जुड़े है, किससे प्रभावित है या नहीं है| बात इतने मायने नहीं रखती मायने रखता है जाकिर नाईक किससे प्रभावित है किससे जुड़े है? विचलित करने वाला प्रश्न यह कि आतंकी संगठन किससे जुड़े है? उनका मूल आधार क्या? उन्हें पैसा कहाँ से मिलता है, वो ही क्यों इस्लामिक ध्वज लेकर चल रहे है? क्यों वो अपनी संस्कृति अपने मजहब को सर्वश्रेष्ठ व् अन्य को बोना बताते है और वो क्यों किसी के ऊपर सिख, बोद्ध हिन्दू या इसाई मत नहीं थोपते? जाकिर नाईक के मामले में ही हमने देखा कि उसे किस तरह धर्मिक रूप से क्लीनचिट दी रही है दारुल उलूम के कार्यवाहक मोहतमिम मौलाना खालिक मद्रासी और जमियत उलेमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने एक बयान जारी कर कहा कि डॉ़ जाकिर के साथ उनके वैचारिक मतभेद भले ही हों, लेकिन वह एक इस्लामिक विद्वान हैं और वह कुरान की व्याख्या अपने ढंग से करते हैं। वह किसी दहशतगर्दी का समर्थन नहीं करते हैं। केंद्र सरकार और कुछ संगठन जानबूझ कर उनके खिलाफ जांच से पहले ही बवंडर खड़ा कर इस्लाम को बदनाम करने का षड्यंत्र कर रहे हैं। यदि इन लोगों की बात मान भी ली जाये तो लोगों के जेहन में एक सवाल जरुर चीखता है कि हाफिज सईद, अजहर मसूद, जाकिर नाईक ये सब मुस्लिम विद्वान की श्रेणी में आते है इनके अपने मदरसे है, इस्लामिक शिक्षा हिंसा नहीं सिखाती, इस्लामिक धर्मग्रन्थ शांति का पाठ पढ़ाते है और मुल्ला मौलवी अमन चैन का पैगाम देते है तो फिर इस्लामिक देशों में आतंकवाद, आगजनी बम विस्फोट और निर्दोष लोगों की हत्या का तांडव क्यों?....लेख राजीव चौधरी 

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