Wednesday 28 September 2016

डिस्को की आड़ में..सुप्रीम कोर्ट!

नारी का सम्मान करना एवं उसके हितों की रक्षा करना हमारे देश की सदियों पुरानी संस्कृति है. यह एक विडम्बना ही है कि भारतीय समाज में नारी की स्थिति अत्यन्त विरोधाभासी रही है. जिसमें चाहे सरकार शामिल हो, न्यायालय हो या हमारा समाज. अभी हाल ही में एक बार फिर देश की संस्कृतिक विरासत पर उच्च न्यायालय को हावी होते सभी ने देखा है. सुप्रीम कोर्ट ने डांस बार में शराब परोसने पर पाबंदी, संबंधी महाराष्ट्र के नए कानून को असंगत और पूरी तरह से मनमाना करार दिया है. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस तरह की  पाबंदी यह बताती है कि राज्य सरकार की सोच सदियों पुरानी है. अगर शराब न परोसी जाए तो बार लाइसेंस देने का क्या मतलब था. जबकि महाराष्ट्र सरकार के पक्षाकार का कहना है कि शराब पीना और परोसना हमारे मूल अधिकार नहीं है. ज्ञात हो महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी की सरकार ने 2005 में डांस बार पर रोक लगा दी थी. क्योंकि ये सामाजिक बुराई का प्रतीक थे. उस समय इस गठबंधन सरकार के फैसले का व्यापक रूप से स्वागत हुआ था. और देखते ही देखते इस रोक की चपेट में ठाणे, नवी मुंबई, पुणे, रायगढ़ के डांस बार भी आ गए. गैर सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस रोक की वजह से करीब 6 लाख महिलाएं बेरोजगार हो गई थीं. साल 2013 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा डांस बार से प्रतिबंध हटा दिया गया पर अगले वर्ष 2014 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा पुलिस अधिनियम में दोबारा इसे लागू करने के सम्बंध में नया प्रावधान लाया गया था. किन्तु  अक्टूबर 2015 में  सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र में डांस बार पर लगी रोक को यह कहते हुए कि बार में डांस हो सकता है लेकिन किसी तरह की फूहड़ता नहीं. सशर्त हटाने का फैसला सुनाया था जिसके बाद डांस बार धडल्ले से चल निकले थे.

सदियों से ही भारतीय समाज में नारी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है. उसी के बलबूते पर भारतीय समाज खड़ा है. नारी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. चाहे वह सीता हो, झांसी की रानी, इन्दिरा गाँधी हो, ओलम्पिक में पदक जीतने वाली साक्षी मलिक या पीवीसंधू, हो. किन्तु इन्ही सब के बीच से निकलकर आई वो नारी भी है जिन्हें बार बाला बोला जाता है. गरीबी, भूख, बेरोजगारी या मजबूरी इन्हें खींच लाती है इन अमीरों की ऐशगाह में. जहाँ उन्हें कुछ छोटी मोटी रकम के लिए कम से कम कपडें पहनकर जिस्म की नुमाइश के बदले पैसे मिलते है. जब महाराष्ट्र सरकार ने इसे हमारी संस्कृति के खिलाफ है, अश्लीलता बताकर बंद करने का आदेश दिया तो सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर आदेश निरस्त कर दिया कि ये अश्लीलता नहीं बल्कि उनकी कला है. अगर इन बार में अपनी कला का प्रदर्शन कर रही है तो उसे गलत नहीं कहा जाना चाहिए.मामला यही रुकता दिखाई नहीं दे रहा है. पीठ ने डांस बार में सीसीटीवी कैमरे लगाने की अनिवार्यता पर भी सवाल उठाए. जवाब में सरकार के वरिष्ठ वकील ने कहा कि अगर डांस बार में कुछ गलत होता है तो सीसीटीवी फुटेज से पुलिस को जांच में मदद मिलेगी. मगर कुछ लोग इस फैसले से खुश नहीं हैं क्योंकि वो कहते हैं सीसीटीवी कैमरे लगाए जाने का फैसला आम आदमी की निजता में दखलंदाजी है. और यह तर्क सामने रखे कि यह सब हमारी संस्कृति का हिस्सा है हमारी संस्कृति के अनुसार दरबार में महिलाएं डांस करती थीं और उस दरबार में शराब भी परोसी जाती थी.
अगर उनके डांस का ही सवाल है, तो आज से नहीं बल्कि पिछले कई सैंकड़ों सालों से महिलाएं पुरूषों या भीड़ के सामने डांस कर रही हैं. यहां तक कि भगवान इंद्र के युग से लेकर राजा-महाराजों के दरबार में महिलाओं की ओर से डांस किया जाता था. बहरहाल इतना कहा जा सकता है कि अभी हमारे देश का पतन और अधिक होता दिखाई दे रहा है. दरअसल जब कभी पौराणिको ने काल्पनिक इंद्र और उसकी सभा में नाचती नर्तकी का उल्लेख कर इस झूठ को सत्य का रूप दिया होगा उन्होंने खुद नहीं सोचा होगा कि इनके इस झूठ की कीमत नारी जाति को हमेशा चुकानी पड़ेगी. अक्सर हमारी सरकारे एक ओर तो नारी को शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित कर उसे महिमामंडित करती है, जगह-जगह लोग नारी जागृति, नारी सम्मान की बात करते हें. बडे अधिकारी, नेतागण, अन्य सभी बुद्धिजीवी लोग सभाओं, गोष्ठियों एवं छोटे-बड़े मंचो पर नारी के समान अधिकार, महिला उत्पीडन के मुद्‌दों पर लच्छेदार भाषण झाडते हैं, लेकिन दूसरी ओर असल जीवन में इस पुरुष प्रधान समाज का नारी के प्रति वास्तविक नजरिया कुछ और ही होता है.
समझने को काफी है कि एक बार डांसर का जीवन 16 वर्ष की उम्र से शुरू होता है. जैसे-जैसे उम्र ढलती है, इन्हें कोई नहीं पूछता. बाद की जिन्दगी बेहद तकलीफदेह बन कर रह जाती है क्योंकि इनकी कीमत इनके चेहरे से लगाई जाती है. ज्यादा उम्र वाली औरतों का बार में कोई काम नहीं रहता इसके बाद अधिकांश को देहव्यापार की मंडी का रुख करना पड़ता है. जो एक बार इस दुनिया में आ गई तो समझो यहाँ से बाहर जाने के सारे रास्ते बंद हैं. इनकी जिन्दगी बार की चकाचैंध से शुरू जरूर होती है मगर इसका अंत जिस्म फरोशी की बदनाम काली गलियों में जाकर होता है. वो सिर्फ एक ऐसी देह बनकर रह जाती है जिसे भोगने को तो अधिकांश तैयार हो जायेंगे परन्तु अपनाने को कोई नही.! अक्सर सांस्कृतिक संध्या तो कहीं संस्कृतिक कार्यक्रमो के नाम पर, थानों में, नेताओं के जन्मदिन और पार्टियों में  समाचार पत्रों में अश्लील नृत्य की खबरें प्रसारित होती रहती है. जिनकी मीडिया से लेकर राजनैतिक गलियारों में निंदा होती देखी जा सकती है. पर कभी कोई कार्रवाही नहीं होती दिखती, सरकार महिला रोजगार की बात तो करती दिख जाती है किन्तु बार बालाओं के मामले में उनके स्थाई रोजगार के लिए कोई योजना सरकार से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सुझाई नहीं जाती. उलटा इस बार तो सुप्रीम कोर्ट ही महिलाओं के हक महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान से जुड़े कानून की अवहेलना सा करता नजर आ रहा है. क्या सुप्रीम कोर्ट यह भी तय कट बता सकता है कि बार डांसर महिलाएं है या नहीं है? यदि है तो फिर उनके सम्मान और रोजगार की रक्षा के प्रति उच्च न्यायालय प्रतिबद्ध क्यों नहीं?...लेख राजीव चौधरी 

पाकिस्तान के साथ किसका तकरार ?

मनसे की धमकी के बाद पाक कलाकार फवाद खान के भारत छोड़ने के बाद राजनीति और मीडिया में एक अजीब बहस चल पड़ी कुछ इसे कला का अपमान तो कोई कला पर हमला बता रहा है. क्वीनके निर्देशक विकास बहल का कहना है कि पड़ोसी देश के कलाकारों को देश छोड़ने पर मजबूर करने के बजाए, इस प्रकार के मुद्दों (आतंकवाद से संघर्ष) पर भावी कार्रवाई के लिए रणनीति बनानी चाहिए. गायक अभिजीत ने भाषा से संयम खोते हुए कई बालीवुड फिल्म निर्माताओं को दलाल और पाक कलाकारों को बेशर्म तक कह डाला. पूरा प्रकरण देखकर कहा जा सकता है कि बालीवुड दो हिस्सों में बंटता सा नजर आया. अभिजीत ने पिछले दिनों गुलाम अली के खिलाफ भी कहा था कि इन लोगो के पास सिर्फ आतंकवाद है और हम अपने देश में इन्हें पाल रहे है. पर उस समय सिने अभिनेता नसरुददीन शाह ने इस मामले पर दुख जताते हुए कहा था इस घटना से में बहुत शर्मिंदा हूँ क्योंकि जब में लाहौर गया था तो मेरा बहुत शानदार स्वागत किया गया था. इसका मतलब लड़ाई कलाकारों की नहीं है. न व्यापारियों की, राजनेता भी गलबहिया करते नजर आते है और क्रिकेटर भी.

भारत और पाकिस्तानी कलाकारो का एक दूसरे के यहां आना जाना लगा रहता है. राजनेता और मीडिया भी खबरों के अलावा आपसी संवाद स्थापित करते रहते है. क्रिकेटर भी मैच के बाद या कमेंटरी रुम में अच्छा वार्तालाप करते है. उधोगपति और व्यापारी भी अपने हितोनुसार आते जाते और मिलते रहते है. अब इस सारे प्रसंग पर गौर करने  कई सारे प्रश्न जन्म लेते है कि जब राजनीति, कला, व्यापार और खेल के साथ पाकिस्तान की कोई दुश्मनी नहीं है तो पाकिस्तान का भारत में दुश्मन कौन है? भारत की सेना? पर सेना के जवानों की यहाँ कौनसी ऐसी फैक्ट्री या परियोंजना चल रही है जो पाकिस्तानी उसे हथियाना चाहते है? या फिर पाकिस्तान के दुश्मन वो लोग जरुर है जो बाजारों में सामान खरीदते आतंकियों द्वारा बम विस्फोट में मारे जाते है. या फिर सरहद के किनारे बसे गाँवो में खेलते मासूम बच्चे जो अचानक हुई गोलाबारी में मारे जाते है वो जरुर पाकिस्तान के दुश्मन होंगे? 

फ़िल्मी सितारें तो पाकिस्तान के दोस्त है भला कला में क्या दुश्मनी? ओमपुरी उधर फिल्म बनाता है फवाद खान इधर कुमार सानू के वहां शो होते है और राहत फतेह अली खान के इधर. सानिया मिर्जा का शोहर पाकिस्तानी है तो अलगावादी नेता यासीन मलिक की बीबी पाकिस्तानी. जब राजनीती, कला, व्यापार और मीडिया में से पाकिस्तान का यहाँ कोई दुश्मन नहीं है तो पाकिस्तान का यहाँ तकरार किससे है? क्यों रोजाना सीमा पार से सीजफायर टूटते है,  क्यों हमारे देश के सैनिको पर घात लगाकर हमले होते है. क्यों उडी, पठानकोट में आतंकी हमले होते है?  आखिर उनकी यह दुश्मनी किससे है और कलाकारों की नजर में दुश्मनी का मापदंड क्या है?


स्थितियों का विश्लेषण करने की मेरी सीमित योग्यता के चलते मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ अभिजीत ने जो कहा वह उसकी देश के प्रति गहरी आस्था को दर्शाता है उसने कला से पहले देश को सम्मान दिया, हो सकता है उसके अन्दर शहीद हुए जवानों के परिवारों के प्रति प्रेम जागा हो, आखिर जो लोग सीमा पर बैठकर हमारे हितो की रक्षा करते है क्या हम उनके हित के लिए दो शब्द भी नही कह सकते? जब हिन्दुस्तान के मुस्लिम राजनेता सलमान रुश्दी के जयपुर साहित्य सम्मेलन में आने का विरोध कर सकते है तो मनसे और अभिजीत ने गुलाम अली का विरोध करके कोई पाप अनाचार नहीं किया इनके अन्दर भी देश प्रेम की भावना हिलोरे मार सकती है! क्योकि जिस देश से कलाकार आते है उसी देश से आतंक भी आता है, जिस देश के कलाकार यहाँ से पैसा और सोहरत बटोरकर ले जाते है उसी देश के आतंकी आकर जवानों के सर काटकर ले जाते है. तो इसका मतलब पाकिस्तान मेरा दुश्मन है? या फिर हर उसका दुश्मन है जिन्हें भारत की मिटटी से प्यार है?  दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा लेख राजीव चौधरी 

Monday 26 September 2016

बुरहान हीरो है तो फेजुल्लाह आतंकवादी कैसे?

संयुक्त राष्ट्र महासभा में कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कहा है कि बुरहान वानी एक नौजवान नेता थे जिनकी भारतीय सेना ने जान ले ली, वो हालिया कश्मीरी स्वतंत्रता के प्रतीक के तौर पर उभरे थे जो कि एक लोकप्रिय और शांतिपूर्ण आजादी मांगने का अभियान है जिसकी अगुवाई कश्मीर के नौजवान और बुजुर्ग, पुरुष और महिला कर रहे हैं. नवाज अपने भाषण में कश्मीर के मुद्दे को कश्मीर की स्वतंत्रता से जोड़कर बता रहे थे जबकि बीते महीने नवाज शरीफ ही पाकिस्तान में नारे लगा रहे थे की कश्मीर बनेगा पाकिस्तान. हालाँकि भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शरीफ को जबाब देते हुए कहा है कि संयु्क्त राष्ट्र महासभा में हिज्बुल चरमपंथी बुरहान वानी का शरीफ द्वारा जो महिमामंडन किया, इससे पाकिस्तान का चरमपंथ से संबंध जाहिर होता है. सब जानते है बुरहान वानी हिजबुल मुजाहिदीन का एक घोषित कमांडर था जो कि एक आतंकी संगठन है.
नवाज शरीफ के भाषण पर अमेरिका में रहे पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक्कानी के अनुसार नवाज शरीफ के भाषण को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत ज्यादा तव्वजो नहीं मिली. क्योंकि संयुक्त राष्ट्र में 1947 से लोग ये सुन रहे है. रह गया आतंकवाद का मामला तो उस पर पूरी दुनिया सहमत है कि आतंकवाद का कोई औचित्य नहीं है. पाकिस्तान को अब ये कारोबार बंद करना होगा. दुनिया सब कुछ जानती है. पाकिस्तान का जिक्र करते हुए हक्कानी ने कहा कि पाकिस्तान के आतंकवाद पर अब दुनिया खुल कर बोलती है. यदि इसके बाद भी पाकिस्तान आतंकवाद से पल्ला झाड़ता है तो ये पाकिस्तान के लिए पछतावे के सिवा कुछ नहीं होगा. सर्वविदित है कि दिसम्बर 2014 पाकिस्तान के पेशावर के एक स्कूल में आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान द्वारा करीब 141 बच्चें मारे गए थे जबकि पाक सुरक्षाबलों की कार्रवाई में सभी 6 हमलावर भी मारे गए हैं। उस समय भारत में भी शोक व्यक्त किया गया था. एक अच्छे पड़ोसी का धर्म निभाते हुए हमने स्कूलों की एक दिन छुट्टी के साथ पुरे भारत ने इस दुःख की घड़ी में पाकिस्तान का साथ दिया था. तब भारत ने तहरीक-ए- तालिबान के कमांडर फेजुल्लाह जोकि इस हमले का मास्टर माइंड था उसे मासूम और युवा नेता कहने के बजाय आतंकी ही कहा था. यदि आज पाकिस्तान की नजर में हिजबुल आतंकी बुरहान वानी मासूम नेता है, तो फिर उत्तरी वजीरिस्तान में अपनी आजादी की लड़ाई लड़ रहे तहरीक-ए-तालिबान के लड़ाके भी मासूम कहे जा सकते है? जिन पर पाकिस्तान की सेना लड़ाकू विमानों से बम बरसा रही है.
यह कोई नहीं बात है. पाकिस्तान हमेशा से विश्व समुदाय के सामने आतंक के प्रति दो मुखोटे रखता रहा है. जिसे पाकिस्तान ने गुड तालिबान और बेड तालिबान में विभक्त कर परिभाषित किया. मसलन जो आतंकवादी पाकिस्तान से बाहर हमले को अंजाम दे वो अच्छा तालिबान और पाकिस्तान में मासूम लोगों की हत्या करे वो बुरा तालिबान. शायद इसी वजह से आज विश्व में जब भी कहीं आतंक पर चर्चा होती है तो चर्चा में पाकिस्तान का नाम भी जरुर लिया जाता है. यह बात किसी से छिपी नहीं है कि कई अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय आतंकी पाकिस्तान की पनाह में मारे जा चुके जबकि कईयों का अभी भी सबसे सुरक्षित ठिकाना पाकिस्तान आज भी में बना हुआ है. जिनमें कई आतंकी संगठनों का रवैया पाकिस्तान के प्रति उदार रहा है. जबकि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का रुख शुरू से कड़ा रहा है. उसका मानना है कि पाकिस्तान अमेरिका का गुलाम है और उसके नेता देश के गद्दार हैं. यही वजह है कि यह संगठन पाकिस्तानी नेताओं का दुश्मन नंबर वन है. उसका मानना है कि कबाइली इलाकों में अमेरिकी फौज के हमले पाकिस्तानी नेताओं की सहमति से हो रहे हैं. एक अनुमान के अनुसार इसके करीब 30000 से 35000 सदस्य हैं. प्रतिबंध लगने के बाद अल-कायदा, सिपह-ए-साहबा, लश्कर-ए-झांगवी, लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, हरकत-उल-मुजाहिदीन और हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लामी जैसे कई बड़े आतंकी संगठन भी पाकिस्तानी तालिबान में शामिल हो गए हैं.
दरअसल, पाकिस्तान ने पिछली सदी के 80 के दशक में आतंक के जहरीले नाग को दूध पिलाना शुरू किया था. पाकिस्तानी शासकों ने अपनी महत्वाकांक्षाओं को इन विवशताओं के समीकरण में मिलाकर आतंक को न सिर्फ शह दी बल्कि उसको पाला पोसा. जिस कारण आज पाकिस्तान आतंक के अपने ही जाल में बुरी तरह फंस गया है. उसने जो गड्ढा पूरी दुनिया के लिए खोदा था. अब उसमें खुद ही आ धंसा है. लेकिन इन सबके बावजूद भी पाकिस्तान भारत के साथ मिलकर आतंकवाद के विरूद्घ ईमानदाराना लड़ाई लड़ने के लिए तैयार नहीं है. यदि भारत में आतंकी पठानकोट, गुरदासपुर, मुंबई, या उडी में हमला करते है, तो पाकिस्तान की नजर में वो हीरो होते है, किन्तु वहीं आतंकी जब लाहौर के पार्क में धमाका करते है, पेशावर या बाघा बोर्डर पर हमला कर पाकिस्तानी अवाम को मारते है तो आतंकवादी या बुरे तालिबानी हो जाते है. क्यों? गुलाम कश्मीर में जब कोई पाकिस्तान से अपने भू-भाग से मुक्ति चाहता है तो वो आतंकी होता है किन्तु जब कोई जिहाद की आड़ लेकर भारतीय सेना या समुदाय पर हमला करता है. उसे आजादी का परवाना कहा जाता है. युवा नेता कहा जाता है. यह दोहरा मापदंड किस लिए? हो सकता है इसी कारण लादेन और मुल्ला मंसूर जैसे आतंकी, जो अमेरिका में 3 हजार निर्दोष लोगों के हत्यारे थे वो भले ही समस्त विश्व के आतंकी रहे हो पर वो पाकिस्तान के हीरो रहे होंगे थे.
. इस सब के बावजूद पाकिस्तान चाहें तो बर्मा से सीख ले सकता है. उसने किस तरह पिछले वर्ष नागालेंड में भारतीय सेना के 18 जवानों की हत्या के बाद अपने देश में भारत को कार्रवाही के लिए खुली छुट दी थी. जिस कारण वहां आतंकी केम्प तबाह हुए थे. किन्तु पाकिस्तान इस मामले में भारत के खिलाफ आतंकियों को न केवल अपनी जमीन और हथियार उपलब्ध कराता बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी पैरोकारी कर उन्हें हीरो बताता है. हालाँकि पाकिस्तान की यह परम्परा कोई नई नहीं है. पाक शासकों की भारत के प्रति यह दुर्भावना पुरानी है पाकिस्तान ने जिस तरह अपनी मिसाइल और अधिकतर युद्धक सामग्री को उन लोगों के नाम पर बनाया है जो कभी भारत को लुटने आया करते है. उसने गोरी, गजनवी आदि मिसाइल का निर्माण किया. उससे यह साबित होता है कि इस दुर्भावना का शिकार सभी पूर्व शाशक रहे है जो पाकिस्तान की राजनीति को विरासत में मिलती है. पाकिस्तान ने आज तक किसी भी मकान, मस्जिद या किसी सेवा को दाराशिकोह जैसे धर्मनिरपेक्ष लोगों का नाम नहीं दिया. क्या दाराशिकोह भी बुरा तालिबान था? और गोरी, गजनवी ओरंगजेब अच्छे तालिबानी हीरो? भारत सरकार को अब समझ जाना चाहिए कि सुरक्षा के मोर्चे पर कुछ नहीं बदला है.पाकिस्तान में भारत के प्रति दुर्भावना बहुत गहरी है जो कुछ मुलाकातों या से समाप्त नहीं हो सकती है. इससे आगे भी पाकिस्तान का दुहरा खेल अब उससे भी अधिक घिनौना होगा. कौन विश्वास करेगा कि पाकिस्तान सरकार और खुफिया सेवा को ओसामा बिन लादेन के छुपे होने की खबर नहीं थी? पाकिस्तान आज विश्व के लिए विस्फोटक बना हुआ है, जो आगे एक-एक दिन भारत समेत पुरे विश्व के लिए खतरनाक होता जा रहा है...दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा लेख्र राजीव चौधरी 

Saturday 24 September 2016

युद्ध तो अवश्य होगा..

रक्षा मामलों के विश्लेषक राहुल बेदी के मुताबिक, सेना इस हालिया हमले के जवाब देने के लिए आतुर है. इससे परमाणु हथियारों से लैस दोनों पड़ोसियों के बीच तनाव बढ़ जाएगा. तो सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता राम माधव ने कहा है कि भारत के तथाकथित रणनीतिक संयम रखने के दिन लद गए. सेना के पूर्व अफसरों ने सुर में सुर मिलाते हुए कहा कि भारत को पलटवार करना चाहिए. इसके जबाब में पाकिस्तान के पूर्व गृहमंत्री अब्दुल रहमान मलिक भारतीय प्रधानमंत्री के लिए अपशब्द बोलकर परमाणु हमले की धमकी दे रहे है. इस सारी उपापोह के बीच भारतीय जनता एक सवाल होटों पर लिए खड़ी है कि क्या युद्ध होगा?
तो में आपको बता दूँ. जब ‪‎कृष्ण अंतिम कोशिश के रूप में शांति संधि के लिए ‪‎हस्तिनापुर जा रहे थे तो द्रोपदी ने बड़ी ही ‪‎व्याकुलता से कृष्ण से पूछा था कि  ‘हे केशव, तो अब युद्ध नहीं होगा? कृष्ण ने उस समय द्रोपदी से कहा था  तुम मुझ से ज्यादा दुर्योधन पर विश्वास रखो, वो मेरी हर कोशिश को नाकाम कर देगा, इसलिए, हे द्रोपदी, निश्चिंत रहो, युद्ध तो अवश्य होगा। तो यहाँ भी सब भारतीय ‪‎नरेंद्र मोदी से ज्यादा ‪‎पाकिस्तान पर विश्वास रखे. युद्ध  तो अवश्य होगा। पर कैसे होगा इसका अभी सिर्फ आकलन ही किया जा सकता है. किन्तु इसमें अहम और ज्यादा गंभीर सवाल पर यह सोचना है कि क्या भारत के पास यह क्षमता है कि वह पाकिस्तान के अंदर पहले से तय ठिकानों पर हमला कर दे या उसकी जमीन पर सीमित युद्ध छेड़ दे? सोशल मीडिया में इस पर बहस छिड़ी हुई है कि भारतीय वायु सेना को पाकिस्तान स्थित ठिकानों पर क्यों अचूक और सटीक हमले करने चाहिए या नहीं.पर ज्यादातर रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा करना आसान नहीं है, क्योंकि पाकिस्तान के पास हवाई सुरक्षा के पुख़्ता इंतजाम हैं. इस पर भी संदेह जताया जा रहा है कि क्या भारत ने गैर पारंपरिक शक्ति संतुलन की क्षमता विकसित की है.
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि युद्ध होगा या नहीं होगा? तो लोगों को सोचना होगा कि युद्ध न कोई तमाशा है और न ही कोई मनोरंजन का साधन. युद्ध में मासूम लोग मरते है युद्ध से जमीने बंजर होती है. घायलों की कराह होती है. हर एक घटना के बाद भारत और पाकिस्तान की जनता युद्ध-युद्ध चिल्लाती है. कारण इन दोनों देशो ने अभी तक युद्ध देखा ही नहीं है.युद्ध के बारे में सिर्फ पढ़ा है. यदि युद्ध देखा भी है तो टीवी के सीरियल और फिल्मों में या फिर तीन चार बार सीमा पर फौजी जंगे देखी है. युद्ध देखा है लाओस वियतनाम इराक ने या युद्ध की त्रासदी झेली है जापान ने उनसे पूछो क्या होता है युद्ध? यूरोप के देशों से पूछो क्या होता युद्ध? मैं ये नहीं कहता कि इस डर से नपुंशक बन कर जियो. नहीं! जैसी स्थिति हो ऐसा प्रहार करो जरूरी नहीं कि सभी युद्ध हथियारों ही जीते जाते हो दुश्मन को भूखा मारकर भी युद्ध जीता जा सकता है!
बहरहाल कुल मिलाकर विदेश नीति के संबंध में हमें यह समझने की जरूरत है कि पहले विश्व दो ध्रुवीय था, लेकिन 21वीं शताब्दी में पूरा विश्व एक दूसरे पर ज्यादा निर्भर है. दुश्मन की निर्भरता के रास्ते रोक कर भी उसे कमजोर, पंगु किया जा सकता है. समझोते तोड़े जा सकते है. संधियाँ भी एक तरफा समाप्त की जा सकती है. उस अवस्था में हम भले ही ना भी लड़े पर भूगोल और परिस्थिति अपने शिकार को पकड़ लेती है. किसी भी देश की विदेश नीति उसके उसके भूगोल द्वारा निर्धारित होती है और हम पाकिस्तान की भोगोलिक स्थिति से भलीभांति परिचित है. हमेशा इस तर्क के सहारे युद्ध किये जाते रहे है कि शांति के लिए युद्ध जरूरी है. किन्तु युद्ध के बाद अमन या शांति का केवल नाम होता दरअसल उसके पीछे खामोशी छिपी होती है. न हमे अभी तक नाभकीय युद्ध का अंदाजा है न पाकिस्तान को दोनों देशों की मीडिया रात दिन युद्ध पर बहस कर रही है जबकि इस बात का सबको पता है कि दुसरे विश्व युद्ध को करवाने में यदि सबसे अहम रोल किसी का रहा था तो वो उस समय की मीडिया का रहा था. जो राजनेताओं को ताने देने लगी थी. नपुंशक और कायर तक लिखने लगी थी. आज भी मुझे कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है. आज फिर मीडिया मानचित्रो को लेकर उन पर हमले कर रही है पर भूल जाती है कि मानचित्रो पर कलम चलाने से भूगोल नहीं जीते जाते उसके लिए रक्त से धरा लाल होती है. माओं को लाल बहनों को भाई और पत्नी को अपनी मांग का सिंदूर लुटाना पड़ता है. किन्तु इस युद्ध को तो हम धरा को लाल किये बिना भी दुश्मन से जीत सकते है उसकी निर्भरता पर वार कर सकते है.
अभी में एक रिपोर्ट पढ़ रहा कि क्या बलूचिस्तान का मामला उठानेवाले भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सिन्धु जल संधि के मुद्दे को आतंकवाद, दाउद इब्राहीम और हाफिज सईद से जोड़ने का साहस करेंगे! अंतर्राष्ट्रीय कानून की मान्यता है कि बदली हुई परिस्थितियों या घटनाओं के आधार पर कोई संधि भंग की जा सकती है. जिस प्रकार पाकिस्तान अपनी सीमा में भारत के खिलाफ आतंकवादी समूहों को पाल पोस रहा है, यह अपने आप में सिन्धु जलसन्धि (आईडब्ल्यूटी) भंग करने का पर्याप्त आधार है. सिंधु पाकिस्तान के गले की नस है. यदि भारत पाकिस्तान को अपने व्यवहार में सुधार लाने और आतंकवादियों का निर्यात रोकने के लिए विवश करना चाहता है तो आईडब्ल्यूटी भंग करने से अच्छा कारगर उपाय कोई नहीं! भारत के पास इस एकतरफा लेकिन अनिश्चितकालीन संधि को भंग करने के पर्याप्त अंतरराष्ट्रीय कानूनी विकल्प मौजूद है. अमेरिका और रूस के बीच हुई ऐसी ही एक अनिश्चितकालीन अवधि की एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल संधि को अमेरिका ने भी बाद में वापस लिया था.
ऐसे समय में जब दोनों देशों के पास परमाणु शस्त्र हैं, और पाकिस्तान का रक्षा मंत्री खुलकर उनके प्रयोग की धमकी देता रहता है, उडी आतंकी हमले के बाद पानी कार्ड का अस्त्र ही भारत के लिए सबसे कारगर उपाय हो सकता है. दक्षिण एशिया के विशेषज्ञ स्टीफन कोहन का मानना है कि भारत-पाकिस्तान का कलह दुनिया के उन विवादों में एक है, जिनका निपटारा नहीं हो सकता है. हो सकता है कि कभी ख़त्म ही न हो. उन्होंने बीबीसी से कहा है, ‘यह ऐसा विवाद है जो पाकिस्तान जीत नहीं सकता और भारत हार नहीं सकता. इसके बाद भी सब जानते है भारत की विदेश नीति के निर्धारण में एतिहासिक परम्पराओं की भूमिका सराहनीय है. भारतीय दर्शनशास्त्र की सद्भावना उदारता और मानवतावादी सिद्धांत पर आधारित है. हम कमजोर नहीं किन्तु फिर भी अपनी इस परम्परागत नीति का अनुसरण करते है कि जियो और जीने दो. यदि इस सब के बावजूद भी कौरवो की समझ में नही आता तो पांड्वो को युद्ध के लिए तैयार रहना होगा........दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा लेख राजीव चौधरी    

Friday 23 September 2016

पकिस्तान की असली समस्या!

अमेरिकी सांसदों ने पाकिस्तान को आतंकवादी देश घोषित करने के लिए बिल पेश किया है. उडी हमले के बाद इसे भारत का सफलतम कूटनीतिक प्रयास कहा जा सकता है. हालाँकि इसके बाद हो सकता है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदायों से पाकिस्तान के पक्ष और विपक्ष में कई तरह के बयान सामने आये. लेकिन हर एक बयान को भारत के लिए शुभ संकेत कहा जा सकता है. क्योकि हर एक बयान में पाकिस्तान के साथ आतंकवाद शब्द का जिक्र अवश्य होगा. यदि ऐसा होता है तो एक झूठे आभासी देश की आर्थिक स्थिति पर चोट होकर बिखरने का खतरा मंडराता सा दिखाई देगा.
झूठा और आभासी क्यों कहा? तो में बता दूँ 14 अगस्त 1947 से विश्व मानचित्र के पटल पर उभरा पाकिस्तान दरअसल कोई देश नहीं है वो भारतीय भू-भाग का एक टुकड़ा है जो एक सीमा रेखा खींचकर धर्म के नाम पर सिर्फ दिखावें को मजहब के सहारे खड़ा हुआ था. ताकि भारत से अलग हो अपने मजहब के मूल्यों की रक्षा की जा सके. समय के साथ पाकिस्तान में मजहब के मूल्यों का तो पता नहीं पर मानवीय मूल्य बिखरते जरुर नजर आये जो एक धर्म की सबसे बड़ी पूंजी होती है. पाकिस्तान में मजहब के नाम पर एक बड़ा जाल फैलता गया जो जितना बड़ा मुल्ला उसे उतनी ज्यादा दाद और इमदाद का कारोबार सा सामाजिक और राजनितिक स्तर पर चल पड़ा. जो आज पाकिस्तान को एक आतंकवादी देश के रूप स्थापित सा करता नजर आने लगा है.
बंटवारे के बाद पाकिस्तानी शासकों की कोशिश ये थी कि हम भारतीय उपमहाद्वीप से कटकर सांस्कृतिक, धार्मिक रूप से तो मध्य एशिया के इस्लामिक देशों पलड़े में चले जाये और राजनेतिक रूप से विश्व शक्तियों के पाले में रहकर भारत के बराबर अपनी पहचान बनाये. जिसमे वो काफी हद तक कामयाब और नाकामयाब दोनों हुए. अमीर इस्लामिक देशों से धर्म के नाम पर खूब चंदा बटोरा तो रूस अमेरिका जैसी महाशक्तियों के टकराव का फायदा उठाकर हथियार. किन्तु इसका नुकसान भी पाकिस्तान को काफी उठाना पड़ा चूँकि उन्हें पाकिस्तान उस समय के भारतीय उपमहादेश से अमानत के रूप में मिला था। 1947 तक साझे इतिहास, भूगोल से बाहर आये पाकिस्तान को चाहे वह इतिहास हो या उनकी भाषा, धर्म, कला, रहन-सहन, रीति-रिवाज, किंवदंतियाँ या मुहावरे। अपनी राष्ट्रीय आत्म-पहचान को अभिव्यक्त करने या दावेदार बनने के लिए वे जिस दिशा में भी मुड़ते, वहाँ वे भारत की लंबी गहरी छाया विद्यमान पाते गये।
इस कारण वे अपने को भारत से भिन्न साबित करने के लिए तरह-तरह के अजीब साधनों एवं उपायों का सहारा लेने लगे। विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में वे इतिहास को विकृत करते गये, माने गये तथ्यों एवं आँकड़ों को तोड़-मरोड़ कर रखते गये। इसलिए उन्होंने अपने इतिहास में भारत के दुश्मन गौरी, गजनवी, मोहमद बिन कासिम जैसे लुटेरों को अपना आदर्श लिखना शुरू किया. इसके लिए ना उन्होंने सिंध का असली इतिहास स्वीकारा ना ही बलूच लोगों का, पख्तून समुदाय की तो बात ही छोड़ दीजिये मसलन अपने इतिहास को अन्य धर्मो खासकर हिन्दू धर्म के खिलाफ बना डाला. उन्होंने अपने इतिहास में जो घटना भारत के लिए अशुभ थी नफरत दर्शाने को उसे ही शुभ लिख दिया. ताकि आने वाली पीढ़ी बंटवारे का असली कारण न पूछ पाए.
शुरुआत में तो इसका लाभ जितना सियासी जमातों को मिला उतना ही मजहबी तंजीमो को भी मिला लेकिन बाद में सियासी जमातों से ज्यादा मुल्ला मोलवियों को मिलने लगा. जिस कारण वहां का लोकतंत्र और सत्ता मजहबी रंग से रंग पुतकर खड़ी होने लगी. जब सत्ता के ऊपर धर्म और भाषा दोनों ताकत के बल पर हावी हुई तो उसकी हानि पाकिस्तान को बांग्लादेश के रूप में उठानी भी पड़ी. क्योकि पाकिस्तान का पाकिस्तान में भाषा और नेताओं के अलावा कुछ नहीं था. सिंध हो या करांची बलूचिस्तान हो पख्तून इलाका सबकी अपनी अलग-अलग भाषा और, सांस्कृतिक विरासत थी, जो अपने भाषाई व अन्य सांस्कृतिक परम्पराओं पर होने वाली चोट पर उखड़ने लगे जिसे सम्हालने के लिए पाकिस्तानी हुक्मरानों को सेना का सहारा लेना पड़ने लगा.

जहाँ भी राजनैतिक और मजहबी तंजीमे अपने भू अधिकार या अपनी सांस्कृतिक विरासत, और भाषा के लिए खड़ी होती वहीं सेना को उतार दिया जाता विद्रोह तो कुचला जाता पर पाकिस्तान की राजनीति में सेना का एक बड़ा हस्तक्षेप होता गया जिसने वहां फिर कई बार लोकतंत्र के मूल्यों पर भी हमला कर राजनीति कहो या लोकतंत्र को भी कैद किया, कैद के बाद यदि रिहा भी किया तो हमेशा इस शर्त पर किया कि सेना की छत्र-छाँव में ही या एक निश्चित दायरे में रहकर ही शाशन का हिस्सा बनना होगा. मतलब प्रशासनिक स्तर पर सेना और सामाजिक जीवन पर मजहब हावी हो गया जिनके बीच से वहां की राजनीति गुजरने लगी. साफ कहें तो पाकिस्तान के लोगों ने बस कुछ ही पल आजादी का सूरज देखा है जिसके बाद उसे सेना और मजहब के ठेकेदारों ने अपने व्यक्तिगत सुख और आनंद के लिए पाकिस्तान की सुरक्षा का हवाला देकर हमेशा अस्त सा कर दिया.
धीरे-धीरे नफरत की शिक्षा की फसल पकनी आरम्भ हुई जो उसने विशेषकर भारत के लिए बोई थी, भारत में तो जो किया वो किया इसके बाद उसने अपने बीज पाकिस्तान में बिखेरने शुरू किये तो पाकिस्तान ने विश्व स्तर पर खुद को आतंकवाद से त्रस्त देश का रोना रोकर हर बार बच निकलने का प्रयास जारी रखा. जिसके बदले उसे अंतर्राष्ट्रीय सहानुभूति और आर्थिक सहायता राशि मिलना आरम्भ हो गयी. शीत युद्ध के दौरान या तालिबान के खात्मे के समय अमेरिका को पाकिस्तान की जमीन उपयोग करने को मिली तो पाकिस्तान को बदले में पैसा. जो उसने भारत के खिलाफ छदम युद्ध शुरू करने और हथियार खरीदने में गवां दिया. बहरहाल यह चर्चा लम्बी है.यदि आज वर्तमान में आये तो एक ओर पाकिस्तान का खोखला लोकतंत्र तो दूसरी और मजहबी तंजीमे तो तीसरी पाकिस्तान की सबसे बड़ी धुरी सेना बनी हुई है. और इनके बीच खड़ी है पाकिस्तान की जनता जो आधुनिक शिक्षा, रोजगार जैसे मूलभूत अधिकार लिए तरस रही है. 
इसी कारण चाहकर भी कोई सरकार भारत से रिश्ते मजबूत नहीं बना पाती यदि भारत से रिश्ते मजबूत होते है तो भारत से पुस्तक, वीडियो एवं अन्य सांस्कृतिक सामग्रियों का आयात होता है और उन्हें भय है कि यदि ऐसे आयात पर प्रतिबंध या नियंत्रण बनाए न रखें तो उनकी खुद की पहचान बनाने की कोशिश विफल हो जाएगी, जो उन्होंने 70 साल से अपने लोगों के अन्दर बनाई है. यदि भारत से सम्बन्ध मजबूत बनते है तो मजहब के ठेकेदारों को इमदाद मिलना कम हो जाता है. सेना को राजनीति से अपना नियन्त्रण सा खत्म होता दिखाई देने लगता है, भाषाई और सांस्कृतिक आधार पर लोग अपनी मांग तेज करने लगते है. मसलन जब भी वहां का आवाम उन्हें दरकता दिखाई देता लगता है तो उसे भारत से खतरा दिखाया जाने लगता है, कश्मीर समस्या का राग अलापा जाने लगता है, बयानबाजी के शोर में हमेशा अपने लोगों की आवाजे दबा दी जाती है जिससे सेना, मजहब और सियासत तीनों की दुकान चल उठती है. कश्मीर पाकिस्तान की कोई समस्या नहीं है बस वो अपनी समस्याओं पर पर्दा डालने के कश्मीर समस्या को उठाये रखता है. यही इस पड़ोसी के साथ राष्ट्रीय आत्म-पहचान की सबसे बड़ी समस्या है कि किसी भी तरह भारत के लिए समस्या पैदा करे, क्योंकि इसी की बदौलत पाकिस्तान एक देश के तौर पर बना रह सकता है....दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा राजीव चौधरी 

Monday 19 September 2016

उडी हमला, निंदा नही कार्रवाही करे

जम्मू-कश्मीर में, एक बार फिर सेना के मनोबल पर प्रहार किया गया जिससे 17 सैनिक शहीद हो गए और 20 अन्य घायल हो गए। हमले में घायल हुए 20 सैनिकों में से 7 की हालत गंभीर है. इसे साफ-साफ भारत पर पाकिस्तान का हमला भी कहा जा सकता है। एक बार फिर सोशल मीडिया पर निंदा आलोचना का ट्रेंड देखने को मिलेगा, हमलावरों के प्रति रोष व्यक्त किया जायेगा, एक बार फिर सूखी आँखों से नम और अश्रुपूर्ण श्रद्धाजंली का नाट्य रूपांतरण सा होता दिखाई देगा. न्यूज़ रूम में टाई लगाये वो पत्रकार बंधू जो बुरहान वानी को गरीब माँ का बेटा बता रहे थे ब्रेक ले लेकर न्यूज़ रूम से आतंक के खिलाफ युद्ध छेड़ते नजर आयेंगे, एक फिर बार से न्यूज़ स्टूडियों में भारत पाकिस्तान की मिसाइल, टेंक और सैन्य क्षमता का आकलन होगा, हथियार और पैदल सेना की गिनती होती दिखाई देगी. जब तक कोई नई खबर नहीं आएगी सिलसिला चलेगा फिर अचानक या तो दलितों पर हमला हो जायेगा या बीफ पर बहस छिड जाएगी नहीं तो मुस्लिम भारत माँ जय क्यों बोले यह सबसे बड़ा सवाल बन जायेगा. मतलब एक पुरानी परम्परा को जीवित रखने का कार्य जारी रहेगा. इसके कुछ दिन बाद फिर शांति वार्ता की मेज से धूल झाड़ने का काम होता दिखाई देगा ताकि पाकिस्तान की गोद में बैठकर अलगावादी नेता उस पर कोहनी टिका कश्मीर को बटवारे का धंधा बना सके. पूर्व की भांति हल कुछ नहीं होगा कुछ दिन बाद सैनिको की जगह नये सैनिक ले लेंगे और जन्नत के नाम पर नये आतंकी खड़े हो जायेंगे. सिलसिला चलता रहेगा और पाकिस्तान इस धारणा को मजबूत करता रहेगा कि कश्मीर बनेगा पाकिस्तान
कल जिस माँ ने पुत्र खोया है उस माँ की छाती जरुर फ़टी होगी, दुनिया उस बाप की भी लूटी होगी, जिसने अपना सहारा खोया है दर्द की सुई एक पत्नी और उस संतान के तन मन में चुभी होंगी, जिनकी मांग का सिंदूर और जिसके सर से बाप का साया छिना है, यदि कभी कुछ नहीं होगा तो उन लोगों को, जिन्होंने कश्मीर को कब्रिस्तान बना डाला. सालों से अलगावादी नेताओं का चेहरा बेनकाब हो चूका है कि वो किस तरह दुश्मन देश से मिलकर देश की संप्रभुता, अखंडता पर चोट कर रहे है. पर वो आजाद ही उनकी आजादी ही कश्मीर की आजादी को मजबूत कर रही है. महाभारत में एक प्रसंग है कि युद्ध के दौरान कई बार कृष्ण ने अर्जुन से परंपरागत नियमों को तोड़ने के लिए कहा जिससे धर्म की रक्षा हो सके। जो अधर्म के रास्ते पर चलेगा उसका सर्वनाश निश्चित है, फिर चाहे वह कोई भी व्यक्ति क्यों ना हो। कर्ण गलत नहीं थे सिर्फ उन्होंने गलत का साथ दिया था. इस कारण उन्हें मौत मिली समझने के लिए यही काफी है. अब केवल अकर्मण्य बने रहने का खतरा देश कब तक उठाता रहेगा यह सोचनीय विषय है।
भारतीय जवाबी कार्रवाई कड़ी होनी चाहिए। प्रतिकार जल्द और कड़ा होना चाहिए।” एक तरफ हम लोग विश्व शक्तियों के भारत की साथ तुलना करते नहीं थकते दूसरी और देखे तो हम इतने कमजोर राष्ट्र बन चुके है कि अपने हितों पर होती चोट पर निंदा से ज्यादा कभी कुछ नहीं कर पाते.यदि हमे निंदा से ही काम चलाना है तो फिर इस हथियार की होड़ से बाहर आना चाहिए, या फिर अब हमे श्रीलंका जैसे छोटे देश से भी सीखना चाहिए कि किस तरह उन्होंने लिट्ठे जैसे मजबूत आतंकी नेटवर्क के ढांचे को नेस्तनाबूद किया, हमें इजराइल से सीखना चाहिए कि अपने दुश्मनों के बीच रहकर अपना स्वाभिमान कैसे बचाया जाता है. चीन से सीखे जो भले ही अक्सर कहता रहा है कि वह अपने नागरिकों को अपनी आस्थाओं के लिए व्यापक स्वतंत्रता देता है पर सब जानते है कि चीन सरकार अपने सभी धार्मिक समूहों पर कड़े नियंत्रण रखती है, लेकिन हमारी 125 करोड़ से ज्यादा आबादी की सरकार चंद अलगावादी नेताओं से निपटने में अक्षम दिखाई दे जाती है. क्या साधन की कमी है या इच्छाशक्ति की? यह बात भारत सरकार स्पष्ट करनी चाहिए
म्यूनिख ओलिंपिक खेलों के दौरान 11 इजराइली एथलीटों को बंधक बनाया और बाद में सबकी हत्या कर दी. बंधकों को छुड़ाने की कोशिश में वेस्ट जर्मनी द्वारा की गई कार्रवाई में 5 आतंकी मारे गए. लेकिन इसके बाद बाकी बचे तीन आतंकियों, जिनमें इस साजिश का मास्टरमाइंड भी शामिल था, को वहां की खुफिया एजेंसी मोसाद ने सिर्फ एक महीने के अंदर ही ऑपरेशन ‘रैथ ऑफ गॉड’ चलाकर न सिर्फ खोजा बल्कि मार भी गिराया. इजराइल ने हमले की निंदा नही की बस प्रतिकार किया. 2004 में हमास के प्रमुख नेता एज्ज अल-दीन शेख खलील को सीरिया की राजधानी दमिश्क में मारा, 2008 में हिजबुल्ला के प्रमुख नेता इमाद मुघनियाह को दमिश्क में मौत के घाट उतारा, 2008 में सीरिया न्यूक्लियर प्रोग्राम के प्रमुख मोहम्मद सुलेमान को तारतुस में मारा और 2010 में दुबई में हमास के प्रमुख नेता महमूद-अल-मबहू को मौत की नींद सुला दिया. यानी इजराइल का दुश्मन दुनिया में कहीं भी छिपकर बैठा हो मोसाद उसे उसके अंजाम तक पहुंचाकर ही दम लेता है. भारत ने अगर अपने दुश्मनों को खुद ही मारना नहीं सीखा तो आने वाले समय में भी उसे आतंकी हमलों का दर्द झेलना होगा और वह सिर्फ मोस्ट वॉन्टेड लोगों की लिस्ट ही सौंपता रह जाएगा.
आये दिन जवानों के धर्य पर हमला होता है,कभी बोडों आतंक के जरिये तो कभी नक्सलवाद के जरिये, कश्मीर का हाल तो किसी से छिपा नहीं वहां तो जवान गाली और गोली दोनों खा रहे है. कश्मीर में हर एक घटना के बाद नेहरु और पाकिस्तान को दोषी ठहराकर पल्ला झाड़ लिया जाता है चलो मान लिया कि कश्मीर समस्या नेहरु की देन है जिस कारण वहां सैनिक मर रहे है किन्तु नक्सलवादी और बोडों द्वारा मारे जा रहे सैनिक किसकी गलती का परिणाम है? इस सर्वदलीय गलती पर पर कोई भी दल चर्चा करने को तैयार नहीं होता. कोई भी देश वीरता के साथ जन्म लेता है और कायरता के साथ मर जाता है, अत्यधिक शांति भी कायरता की जननी होती है, शांति के लिए यदि युद्ध जरूरी हो तो युद्ध भी करना चाहिए सौ दिन बेगुनाहों का रुदन सुनने से बेहतर है एक दिन गुनहगारों की चीख सुन ली जाये, जिसका सबसे बड़ा उदहारण इसी देश में सन चौरासी का आपरेशन ब्लू स्टार है. दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा …राजीव चौधरी

Wednesday 14 September 2016

गाय का दुश्मन कौन ?

12 सितम्बर को नजीबाबाद उत्तर प्रदेश वन प्रभाग की बढ़ापुर रेंज की सीमा से सटे गांव जहानाबाद खोबड़ा में गाय की वफादारी निभाने की अनूठी घटना सामने आई है। खेत में चारा चरते समय अचानक एक बाघ ने पशुपालक पर हमला किया। इस पर उसकी 40 गायों के झुंड ने मुकाबला करते हुए बाघ को वहां से भगा दिया।, गायों ने अपने स्वामी की जान बचा ली। ये तो गाय की वफादारी थी पर देखिये इन्सान की वफादारी क्या कहती है पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने तथाकथित गौरक्षा के नाम पर दुकान चलाने वालों को आड़े हाथों लिया था जिसके बाद पुरे देश में प्रधानमंत्री की आलोचना सुनी गयी थी तब न जाने कितनी कविता कितने लेख प्रधानमंत्री के इस बयान पर सोशल मीडिया में पढने को मिले. आए दिन देश के किसी न किसी क्षेत्र से गाय से भरे ट्रक, गौरक्षकों अथवा पुलिस द्वारा पकड़े जाने की खबरें आती रहती हैं. इन खबरों के सामने आने के बाद वातावरण तनावपूर्ण हो जाता है. कई बार ऐसे  वातावरण के मध्य हिंसा अथवा सांप्रदायिक हिंसा भी भडक चुकी है. परंतु ऐसे अवसरों पर यह तो देखा जाता है कि अपने ट्रक में बेरहमी से भरकर इन गायों को कौन ले जा रहा था तथा क्यों ले जा रहा था? परंतु इस बात की चर्चा करना कोई जरूरी नहीं समझता कि हत्यारों के हाथों में इन गायों को पहुंचाने का जि़म्मेदार कौन है? यदि सही मायने में देखा जाए तो गौवध की शुरुआत वहीं से होती है जहां कि कम दूध देने अथवा दूध देना बंद कर देने वाली गायों को किसी खरीददार के हवाले कर दिया जाता है.
 अभी हाल ही में इंडिया टुडे की एक टीम ने एक खबर जारी की जिसे पढ़कर सर शर्म से झुक गया. हमारा उद्देश्य किसी गौशाला के प्रति या गौरक्षक के लिए हीन भावना जगाना नहीं है. बस एक वो सच जो इसकी आड़ में छिपा बैठा है. उसे उजागर करना है. या ये कहो जो लोग खुद को हिन्दू कहकर अपनी आत्मा को बेचकर इन गौमाता को कटान के लिए बेच रहे है उनके चेहरे से नकाब हटाना है बीते कुछ साल में देश में जिस तरह गाय हाईलाइट हुई है, वैसे और कुछ नहीं हुआ. गाय की पूजा करने वाले गौभक्तों की देश में कमी नहीं. लेकिन स्वयंभू गौरक्षक दस्तों की कारगुजारियां भी हाल के दिनों में खूब देखने को मिली. देश के 29 में से 24 राज्यों में गोवध पर प्रतिबंध है. उत्तर प्रदेश भी ऐसा ही राज्य है जहां गोवध पर सख्त सजा का प्रावधान है. जाहिर है कि कानून का पालन करने के लिए गायों पर यहां पुलिस की भी नजर रहनी चाहिए. पवित्र गायों के लिए सबसे सुरक्षित और अच्छी जगह कोई मानी चाहिए तो वो देश का गाय-पट्टी (काऊ बेल्ट) क्षेत्र है. इस क्षेत्र का बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश में है. लेकिन इसी क्षेत्र में गाय की स्थिति का जो सच सामने आया, वो हैरान कर देने वाला है. सबसे सुरक्षित माने जाने वाले क्षेत्र में ही गाय को कैसे-कैसे खतरों का सामना करना पड़ रहा है. कैसे यहां गौशाला संचालकों, दलालों और भ्रष्ट पुलिसवालों का नापाक गठजोड़ कर रहा है गायों और बछड़ों की खरीद-बेच का गोरखधंधा? उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले के सैफनी कस्बे में पशुओं के बाजार. यहां बकरीद पर कुरबानी के लिए गाय और बछड़ों को लेकर खुले तौर पर मोलभाव किया जा रहा था. रिपोर्टर ने खुद को खरीददार बताते हुए कीमत जाननी चाही तो पता चला कि 16,000 से लेकर 22,000 हजार रुपए में गाय खरीदी जा सकती है. यहां देखकर सबसे ज्यादा हैरानी हुई कि सब कुछ बेखौफ चल रहा था.

रिपोर्टर ने एक पशु विक्रेता से कहा, बकरीद के लिए एक गाय चाहिए.? इस पर जवाब मिला- यहाँ बाजार में घूमकर देखिए, बहुत मिल जाएंगी.! एक और पशु विक्रेता ने क्रीम रंग की गाय के लिए 17,000 रुपए की मांग की. टीम को रामपुर में सिर्फ जीवित पशु ही नहीं बिकते दिखे. यहां बीफ मार्केट में मीट का भी धड़ल्ले से कारोबार होते दिखा. मीट विक्रेताओं ने ये भी माना कि वो गोमांस बेच रहे हैं. रिपोर्टर ने जब एक मीट दुकानदार से पूछा, क्या तुम्हारे पास गाय (मीट) है? इस पर दुकानदार का जवाब था- हाँ जो मीट दुकानदार बेच रहा था, उसकी कीमत उसने 160 रुपए प्रति किलो बताई. एक और दुकानदार ने दावा किया कि पुलिस ने यहां सब (दुकानदारों) को आगाह कर रखा है कि जो भी मीट दुकान पर लटकाओ, उसकी स्किन पूरी तरह साफ होनी चाहिए. जिससे कभी अचानक इंस्पेक्शन हो तो कुछ पकड़ा ना जाए. रामपुर में एक गौशाला के संचालक का बर्ताव सबसे ज्यादा झटका देने वाला था. कान्हा गौशाला को चलाने वाले सुंदर पांडेय से रिपोर्टर ने पूछा- बकरीद पर कुरबानी के लिए वो गाय का इंतजाम कैसे करा सकता है? इस पर पांडेय का जवाब था, दो दिन में वो इसे त्योहार के लिए उपलब्ध करा देगा, अभी जो यहां (कान्हा गौशाला) में जो मौजूदा स्टॉक है वो कुरबानी के लिए फिट नहीं है, कुछ के सींग टूटे हैं, कुछ की टांगे क्षतिग्रस्त हैं. आप को कुरबानी के लिए बेदाग पशु चाहिए.? पांडे की बातों से ये भी साफ हुआ कि यहां से मीट के लिए बछड़े को भी खरीदा जा सकता है.
अगले दिन टीम अलीम नाम के एक दलाल तक पहुंची. अलीम ने बताया कि ये पूरा गोरखधंधा कैसे चलता है. अलीम ने कहा, पुलिस (गायों) को पकड़ती है और पुलिस स्टेशन लाती है. यहां से उन्हें गौशाला वाले खरीद कर ले जाते हैं. पशुओं की संख्या और सेहत के हिसाब से दो, तीन, चार लाख रुपए का भुगतान किया जाता है. इसके बाद गौशाला वाले इन गायों का अपना पैसा वसूलते हैं. वो उन्हें बेच देते हैं (कालाबाजार में). हालाँकि यह एक खबर नहीं है इससे पहले भी उत्तर प्रदेश में गजरौला से प्रकाशित अमर उजाला अमरोहा के पेज पर दस नवम्बर 2015 को एक  खबर प्रकाशित हुई थी जिसमे बताया गया था कि गौ समिति के ही गौ रक्षकों ने गायों को संभल के कसाईयों को बेच दिया ! इसके बाद उसी दौरान दूसरी खबर मुरादाबाद के ही काँठ से आई थी कि कान्हा समिति ने भोजपुर में ही 9 लाख में गौ का सौदा कर डाला अब बताएये इससे बड़ी बेशर्मी कहाँ मिलेगी? कि धर्म और मर्यादा ताक पर रखकर माता को ही बेच दिया जाए! समाज में वैमनस्य फैलाने वाले यह तथाकथित सफेदपोश किस तरह धर्म की आड़ में न सिर्फ पैसा बना रहे हैं बल्कि समाज के एक बड़े हिस्से में गुंडागर्दी और अराजकता के बल पर साम्प्रदायिकता को मजबूत कर रहे हैं इसलिए इन तथाकथित गौ सेवकों के चेहरों से नकाब उठाना कितना जरूरी है यह यह खबरें बताने के लिए काफी हैं और समाज और प्रशासन को इन कथित गौ व्यापारियों की गतिविधियों से कितना होशियार रहने की जरूरत है यह यहाँ बताने की कोई जरूरत नहीं है!........(दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) चित्र साभार गूगल राजीव चौधरी 

Monday 12 September 2016

इस्लामिक बैंक जरूरत किसकी ?

अभी तक सबने धार्मिक आधार पर पूजा, उपासना के स्थान स्कूल, कॉलेज, और आरक्षण में बंटवारा होता देखा होगा। लेकिन भारत में अब पहला धार्मिक आधार पर बैंक भी शुरु होने जा रहा है। मतलब मुस्लिमों के लिए अलग बेंक. इसकी पहली शुरुआत गुजरात से होगी । जहां देश का पहला जेद्दाह का इस्लामिक डेवेलपमेंट बैंक (आईडीबी) अपनी पहली शाखा खोलने जा रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक ने सरकार के साथ मिलकर ब्याज मुक्त बैंकिंग शुरू करने का प्रस्ताव दिया है। इस बैंकिंग की शुरूआत करने का प्रस्ताव इसलिए लाया गया है ताकि धार्मिक कारणों से बैंकिंग सिस्टम से दूर रहने वाले लोगों खासकर मुस्लिमों को भी इसका हिस्सा बनाया जा सके। क्योंकि मौजूदा भारतीय बेंको के अन्दर सभी सिस्टम ब्याज आधारित हैं। बता दें कि ब्याज आधारित बैंकिंग इस्लाम में प्रतिबंधित है। इस तरह की बैंकिंग को इस्लामिक फाइनेंस या इस्लामिक बैंकिंग भी कहा जाता है।
अपने सालाना रिपोर्ट में आरबीआई ने पिछले दिनों यह प्रस्ताव बनाया है। दरअसल दुसरे विश्व युद्ध के बाद पूरे विश्व के देशों का भूगोल बदला था. जिसके बाद इस्लामिक देशों को लगा कि अब इस्लाम का प्रचार-प्रसार तलवार के जोर पर नहीं किया जा सकता इसके लिए नये और उदारवादी रास्ते तलाश करने होंगे. जिसके बाद 1969 में रबात में हुए इस्लामिक देशों के प्रमुखों के सम्मेलन में यह निर्णय किया गया था कि विश्व में इस्लाम के प्रचार प्रसार के लिए बैंकिंग व्यवस्था का भी इस्तेमाल किया जाए। ताकि गरीब और कमजोर लोगों को बिना ब्याज के पैसा देकर इस्लाम की मान्यताओं की तरफ आकर्षित कर उनका धर्मांतरण किया जा सके. 1981 में पाकिस्तानी बैंकिंग विशेषज्ञ मौलाना अब्दुल रहमान कैनानी ने कराची के डॉन समाचार पत्र में अपने एक आलेख के जरिये इस तरफ फिर मुस्लिम देशों का ध्यान खिंचा जिसके जेद्दाह में पहला इस्लामिक विकास बैंक स्थापित किया गया। इस समय इस्लामिक बैंक की विश्व के 56 इस्लामी देशों में शाखाएं हैं। भारत एक मात्र गैर- मुस्लिम देश होगा जिसमें इस्लामिक बैंकिग व्यवस्था शुरु की जा रही है।
इकोनॉमिक टाइम्स के मुताबिक इस्लामिक देशों के पास भरपूर पैसा है। अगर मोदी सरकार इंटरेस्ट फ्री बैंकिंग शुरू कर दे तो यह पैसा भारत में आ सकता है। लेकिन इसमें बड़ी खास बात यह है कि यह बेंक भारत के सविंधान के अनुरूप चलने के बजाय शरियत कानून के अनुसार चलेगा? क्या मुस्लिम देशों में बेंक बिना ब्याज दरों के काम करते है? इस बात की गारंटी कौन देगा कि भारत के अन्दर मुस्लिम इस बेंक का इस्तेमाल बिना ब्याजदरों के करेंगे? यदि बेंक शरियत के अनुसार ब्याज का लेनदेन नहीं करता तो बेंक कर्मचारियों का वेतन या बेंक की कमाई के स्रोत क्या है? इसके बाद यदि कोई इसके अन्दर ब्याज दरों के द्वारा लेनदेन करता है तो शरियत के अनुसार उनकी सजा क्या है? यह भी सार्वजनिक होना चाहिए| हमें नहीं पता आखिर इस फैसले के पीछे सरकार का उद्देश्य क्या है! पर इतना जानते है बाबर 1500 सौ सैनिको को लेकर भारत आया था और फिर पीढ़ियों तक राज किया इसके बाद ईस्ट इंडिया नाम की एक छोटी सी कम्पनी भारत आई जिसने अपना एक तंबू कलकत्ता में गाडा था जिसके बाद 250 सौ साल राज किया था. ना हमारा अतीत ज्यादा पुराना है न हमारे घाव और न ही हमारी स्वतन्त्रता. अभी कुछ ही समय बीता है उस काले अध्याय से छुटकारा मिले.
इस्लामिक देशों का पैसा अगर इस तरह से देश में आएगा तो इससे आतंकवादियों को बड़ी मदद भी मिल सकती है। कहा जा रहा है कि इस सौदे को करवाने में प्रधानमंत्री के एक करीबी मुस्लिम नेता जफर सरेशवाला की विशेष भूमिका है। जफर सरेशवाला ने इस समझौते की पुष्टि की और कहा कि इस्लामी बैंक की पहली शाखा अहमदाबाद में खोली जाएगी। यह बैंक मुस्लिम वक्फ संपत्तियों के विकास पर भी भारी धनराशि खर्च करेगा जिससे भारतीय मुसलमानों को भारी लाभ होगा। गौरतलब है कि इस्लामिक विकास बैंक सउदी अरब का सरकारी बैंक है। इससे जो लाभ प्राप्त होता है उसका इस्तेमाल इस्लाम के प्रचार प्रसार और धर्मांतरण के लिए किया जाता है। दस वर्ष पूर्व इस्लामिक विकास बैंक के निर्देशक मंडल की एक बैठक दुबई में हुई थी जिसमें यह मत व्यक्त किया गया था कि विश्व में भारत ऐसा देश है जिसमें गैर-मुसलमानों की संख्या सबसे अधिक है। इसलिए भारत में इस्लाम के प्रचार-प्रसार और धर्मांतरण की सबसे ज्यादा संभावनाएं हैं। इस बैंक ने देश में इस्लाम के प्रचार के लिए एक कार्यक्रम भी बनाया था पर तब तत्कालीन सरकार ने मना कर दिया था किन्तु आज मौजूदा भारत सरकार ने देश में इस्लामिक बैंकिंग व्यवस्था शुरु करने के लिए हरी झंडी दे दी है
अब प्रश्न यह कि क्या इस बेंक के दरवाजे गैर-मुसलमानों के लिए भी खुले होंगे? या उनसे गैर-मुसलमान भी ब्याज रहित ऋण प्राप्त कर सकेंगे? यदि नहीं! तो क्या इस ऋण का इस्तेमाल गैर-मुलसमानों के इस्लाम कबूल करने के लिए प्रलोभन के रुप में तो नहीं किया जाएगा? क्या इस्लामी बैंकों की शाखाओं का इस्तेमाल आतंकवादियों को फंड उपलब्ध कराने के लिए तो नहीं होगा? ऐसा नहीं है कि भारत सरकार ने मुस्लिमों को खुश करने या उनके सामाजिक उद्धार के लिए कोई कार्य नहीं किया! राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिमों के आर्थिक उत्थान के लिए एक कार्यक्रम शुरु किया था उसके तहत राष्ट्रीयकृत बैंकों के निर्देशक मंडलों को यह निर्देश दिया गया था कि वह ऋण देते समय मुस्लिम समुदाय का विशेष ध्यान रखें। बैंकों द्वारा जो ऋण वितरित किया जाता है उसका कम से कम 15 प्रतिशत मुसलमानों को दिया जाना चाहिए। इसी नीति पर मोदी सरकार भी चल रही है। अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री डा. नजमा हेपतुल्ला ने राष्ट्रीयकृत बैंकों को यह निर्देश दिया है कि मुसलमानों को स्वरोजगार शुरु करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कर्ज दिया जाए वह भी बहुत कम ब्याज पर। सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि जो संघ परिवार पिछली सरकार के समय देश में इस्लामी बैंकिग व्यवस्था को शुरु करने का जबर्दस्त विरोध कर रहा था अब उसने देश में इस्लामी बैंक की शाखाएं खोलने के बारे में अपनी जुबान क्यों बंद कर रखी है? क्या अब संघ परिवार के लिए राष्ट्रहितों की बजाय राजनीतिक हित सर्वोपरि हो गए हैं? जबकि भारत में इस्लामिक बैंक संविधान विरोधी और आतंकवाद समर्थित हो सकता है।...(दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) Rajeev Choudhary 


देश गुलाम क्यों बनता है ?

हमारा देश 1947 में स्वतंत्र हुआ था. किन्तु सही अर्थो  में हम आज भी पराधीन है. भाषा के पराधीन. मुगलों और अंग्रेजो की भाषा के पराधीन. हमारे तहसील और थाने अभी भी इन भाषाओं से स्वतंत्र नहीं है एक आरोप पत्र से लेकर भूमि के आय व्यय तक में उर्दू भाषा अभी भी यहाँ विराजमान है. तो वहीं हिंदी  संवैधानिक  मान्यता प्राप्त  मात्र भाषा व्यवहार में है। देश में एक नहीं दो  राजभाषाएँ हैं। अंग्रेजी वास्तव में दूसरी सहभाषा हो कर भी सत्ता के सभी केंद्रों  पर राज  कर  रही है। दूसरी ओर हिंदी प्रथम संवैधानिक राजभाषा के पद पर होते हुए भी मात्र कागज पर है। मतलब आज हिदी अँग्रेजी के अनुवाद की भाषा बनकर रह गयी है। दुनिया में ऐसी सोचनीय स्थिति किसी भाषा की नहीं होगी। देश की भाषा अपने पद से अधिकार से वंचित है। विदेशी भाषा  का  प्रभुत्व  देश की सत्ता पर, राजकाज  पर, शिक्षा, न्याय, मीडिया, व्यापार, उद्योग, उच्च वर्ग जो मुश्किल से चार प्रतिशत है, उसके आम व्यवहार में है। जिस कारण हिंदी प्रसांगिक बनकर रह गयी. हिंदी वस्तुत: फारसी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, हिन्दी का या हिंद से सम्बन्धित। हिन्दी शब्द की उत्पत्ति सिन्धु -सिंध से हुई है क्योंकि ईरानी भाषा में स को ह बोला जाता है। इस प्रकार हिन्दी शब्द वास्तव में सिन्धु शब्द का प्रतिरूप है। कालांतर में हिंद शब्द सम्पूर्ण भारत का पर्याय बनकर उभरा । इसी हिंदी से हिन्दी शब्द बना। आज हम जिस भाषा को हिन्दी के रूप में जानते है,वह आधुनिक आर्य भाषाओं में से एक है। आर्य भाषा का प्राचीनतम रूप वैदिक संस्कृत है, जो साहित्य की आत्मिक भाषा थी।
2 फरवरी 1865 के दिन लॉर्ड मैकाले ने ब्रिटिश संसद में दिए गए अपने भाषण में जो कहा थामैंने पूरे भारत कोने-कोने में भ्रमण कर ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं देखा जो या तो भिखारी हो या चोर हो। इस देश में मैंने ऐसी समृद्धता, शिष्टता और लोगों में इतनी  अधिक क्षमता देखी है कि मैं यह सोच भी नहीं सकता कि हम इस देश पर तब तक राज कर पायेंगे, जब तक कि हम इस देश की रीड़ की हड्डी को ही न तोड़ दें, जो कि इस देश के अध्यात्म और संस्कृति निहित है। अत: मेरा यह प्रस्ताव है कि हम उनकी पुरानी तथा प्राचीन शिक्षा प्रंणाली को बदल दें। यदि ये  भारतीय सोचने  लगे कि  विदेशी और अँग्रेजी  ही श्रेष्ठ है और हमारी संस्कृति से उच्चतर है तो वे अपना आत्म सम्मान, अपनी  पहचान तथा अपनी  संस्कृति को ही खो देंगे और तब वे वह बन जायेंगे जो हम उन्हें वास्तविकता में बनाना चाहते हैं। सही अर्थ में एक गुलाम देश. मेकाले का कथन वह बताता है कि स्वाधीनता के सत्तर वर्ष हो जाने पर भी अपनी भाषाओं और शिक्षा जैसे बुनियादी क्षेत्र में हमारी मानसिकता अब भी अँग्रेजी और अँग्रेजियत से मुक्त से मुक्त नहीं है। राष्ट्र स्वाधीन है, परंतु राष्ट्र की अपनी राष्ट्र भाषा तक नहीं है।
शिक्षा, न्याय, प्रशासन और जीवन के हर क्षेत्र में अँग्रेजी भाषा का प्रभुत्व निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। अब हमें यह सत्य स्वीकार करना है कि हमने अँग्रेजी को ही माध्यम माना लेकिन समझा नहीं कि माध्यम ही संदेश होता है। अँग्रेजी से चिपके रहे और अब अँग्रेजी भाषी देशों के अंध भक्त हैं। फ्राँस और जर्मनी पश्चिमी होते हुए भी अँग्रेजी से विज्ञान नहीं सीखते। पूर्व का जापान, जापानी में ही विज्ञान की पढ़ाई करता है। रूस भी विज्ञान की पढ़ाई अपनी भाषा रसियन  के माध्यम से करता है। परंतु हमारी धारणा है कि विज्ञान और तकनीक को अँग्रेजी में ही सीखा और विकसित किया जा सकता है, भारत की किसी भी भाषा में नहीं सीखा जा सकता है। हमें समझने ही नहीं दिया गया कि भाषा सिर्फ माध्यम नहीं है, वह हमारी जीवन पद्धति भी है और उसे अभिव्यक्त करने का साधन भी है। वह हमारी संस्कृति और सभ्यता का सार है। उसे त्याग कर हम कोई भी मौलिक काम कभी भी नहीं कर सकते हैं। अन्य भाषाऐं सीख कर उनमें कुशल कारीगर तो हो सकते हैं किंतु उनसे मौलिक सृजन नहीं कर सकते हैं। मौलिकता और सृजन का सीधा संबंध हमारी जीवन पद्धति को अपने वास्तविक रूप में पूरी तरह से खुल कर अभिव्यक्त करने से है। यह अभिव्यक्ति सिर्फ अपनी भाषा में ही कर सकते हैं। बीसवीं सदी में रूस और जापान विज्ञान में ब्रिटेन और अमेरिका से आगे नहीं थे।
आज उपभोक्ता वस्तुओं और तकनीक में जापान इन सबसे आगे है। सामरिक विज्ञान और अंतरिक्ष की खोज में रूस किसी से कम नहीं है। दोनों देशों में विज्ञान और तकनीक में अपनी जीवन पद्धतियों को नहीं बदला। इन देशों ने सार्वभौम विज्ञान को अपनी भाषाओं में सीखा और तकनीक को अपने देश की भाषाओं की आवश्यकताओं के अनुसार विकसित किया। लेकिन हमने अपनी मान्यता बना रखी है कि विज्ञान और आधुनिकता अँग्रेजी भाषा से सीखी और लायी जा सकती है। अंग्रेज भाषा में साहित्य रचने वाले भारतीयों के लेखन में मौलिकता का अभाव होता है। इस कारण वे अँग्रेजी साहित्य में सही जगह नहीं पा रहे हैं। यही हालत अँग्रेजी से डॉक्टर, इंजीनियर या तकनीक सीखने वालों की है। अँग्रेजी हमें किसी क्षेत्र में आगे नही बढ़ने देगी। हम उसके अंध बन कर ही रह सकते हैं। असली सवाल हिंदी या भारतीय भाषाओं का है ही नहीं, अपितु भारत का अपने साक्षात्कार के माध्यम से भारत होने का है। इंडिया से मुक्त होना होगा। जब तक हम अँग्रेजी से अपनी समस्याओं के ताले खोलने की कोशिश करेंगे, तब तक हम विषमता, भेदभाव, गरीबी, बेरोजगारी और हर व्यक्ति को सच्ची स्वाधीनता दे नहीं सकेंगे और नही सच्चे लोकतंत्र की स्थापना कर सकेंगे। भारत के भविष्य का निर्माण हिंदी सहित भारतीय भाषाओं को अपना कर ही किया जा सकता है। हमें पता लगाना होगा कि भारत की भाषाओं में कहाँ-कहाँ पर कितने युवाओं ने इंजीनियर, वैज्ञानिक, तकनीक के लिए संघर्ष किया है। अँग्रेजी भाषा से मुक्ति के लिए अपनी भाषाओं को अंगीकार किया है। इनका यशोगान हिंदी वालों को अवश्य करना चाहिए। हमारा लक्ष्य अँग्रेजी भाषा की अनिवार्यता के ख़िलाफ भारतीय भाषाओं को सम्मान देने का होना चाहिए।...आर्य समाज (दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा) Rajeev choudahray