Friday 25 November 2016

‘बिग बॉस में स्वामी ओम जी कि जगह यदि कोई और होता?

भारत संस्कृति, सभ्यता, संस्कार और वैदिक धर्म के नाम से जाना जाने वाला देश था. इस भूमि पर समय -समय पर ऋषि, महर्षियों का आगमन हुआ. महापुरुष जन्मे और धर्म का सार लोगों तक पहुँचाया. शायद ही विश्व के किसी देश की सभ्यता इतनी गर्वीली रही हो. रोम के इतिहास में संसार के सिरमौर प्रबुद्ध भारत का वैभव का भी अध्यगयन किया गया. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने शाक्यमुनि भारतीय संस्कृति की विविधताओं से आकर्षित होकर अनेक लेखकों ने इसके विभिन्न् पक्षों एवं अवधारणों का बखूबी वर्णन किया है. भारत की अमूर्त सांस्कृवतिक विरासत जांचा परखा और पाया कि धर्म और ज्ञान का आरम्भ यही से हुआ. किन्तु अब यदि आज के भारत की बात की जाये तो जिस देश में महर्षि कणाद, भारद्वाज जैसे महान ऋषि हुए वहां आज आसाराम, राधे माँ, ओम स्वामी ओम जैसे भ्रष्ट लोग इस भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विरासत पर धर्म गुरु बनकर प्रहार कर रहे है. प्रहार ही नहीं कई जगह तो नेतृत्व भी करते दिखाई दे जाते है.

अभी हाल ही में कलर्स टेलीविजन के बड़े शो बिग बॉस 10के प्रतिभागी स्वामी ओम जी आजकल बड़ी चर्चाओं में है. लम्बा तिलक, गेरुए वस्त्र, बड़ी-बड़ी जटाएं मतलब हर एक वो श्रंगार किये है जिसे देखकर आम लोग या भोली भाली जनता सन्यासी समझ लेती है. लेकिन इन चेहरों का सच देखिये ओम स्वामी उस वक्त सुर्खियों में आए थे जब एक न्यूज चैनल में डिबेट के दौरान उन्होंने राधे माँ का पक्ष लेते हुए एक महिला धर्मगुरू के साथ हाथापाई की थी. बिग बॉस के घर में बिताए तीन सप्ताह में ओम स्वामी कई कारणों से चर्चा में रहे, उन्होंने दावा किया कि वह पैदा होते ही बोलने लगे थे और वह पानी पर चल सकते हैं. हालाँकि स्वामी ओम जी भले ही खुद को चरित्रवान बताने की पुरजोर कोशिश करते हैं. लेकिन फिर भी उनके साथ वाले किरादर उन्हें ढोंगी और झूठे कहने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते हैं. स्वामी ओम को लेकर जारी हुए एक रिपोर्ट में यह सामने आया है कि उन्होंने कुछ समय पहले यह दावा किया था कि देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वर्ष 2015 के दिल्ली चुनाव के दौरान उनसे मदद मांगी थी. ओम का यह भी कहना है कि वो एक इंडिपेंडेंट पॉलिटिकल पार्टी से जुड़े हुए हैं और उन्होंने 2015 में विधानसभा का चुनाव भी लड़ा था. स्वामी ओम पर यह भी आरोप है कि एक बार इन्होंने अपने ही भाई की दुकान से साइकिल के कीमती पार्ट्स को चुरा लिया था. जबकि इनके उपर हथियार रखने, दिल्ली के दुकान से साइकिलें चोरी करने और अश्लील फोटो दिखाकर महिला से पैसे ठगने का संगीन आरोप लगे भी हुए हैं. बताया जा रहा है कि चार गैर जमानती और टाडा एक्ट के साथ कुल 7 मामले स्वामी ओम पर दर्ज है.


हालाँकि हमारा मुद्दा यह नहीं है कि ओम स्वामी क्या है. वो कितना बड़ा बाबा या अपराधी है. न हम उसके अपराधो की लिस्ट बनाते है. बल्कि हमारा प्रश्न यह कि यदि बिग बॉस जैसे फूहड़ कार्यक्रम में कोई मौलवी या पादरी होता तो क्या होता? भारतीय मीडिया क्या इसी तरह चटकारे ले लेकर खबर चलाती? यदि यह किरदार किसी मोलवी को लेकर किया होता तो अभी तक अरब से लेकर सोमालिया तक मिस्र से लेकर नाइजीरिया तक फतवे जारी नहीं कर दिए गये होते? हमारा समाज सबसे सहिष्णु है. इस वजह से इसका लाभ उठाया जाता रहा है. ओम जी महाराज एक तरफ तो  भारतीय संस्कृति और भक्ति की बातें करते हैं लेकिन दूसरी तरफ वह अपने चोले और भारतीय संस्कृति की धज्जियां उड़ाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे है.

सर्वविदित है कि 2015 में एक नन के मां बनने की कहानी पर आधारित नाटक एग्नेस ऑफ गॉडको लेकर भारत समेत सभी इसाई संस्थाए विरोध में खड़ी हो गयी थी. कैथोलिक सेक्युलर फोरम (सीएसएफ) और कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया (सीबीसीआई) ने इसे दिखाए जाने का विरोध किया था. उनका कहना था कि यह नाटक ईसाइयों की धार्मिक मान्यताओं को गलत तरीके से पेश करता है. वहीं, सीबीसीआई ने गृह मंत्री को चिट्ठी लिखकर कहा था कि यह उनके समुदाय के लाखों पादरियों की गलत छवि पेश करता है, जो ब्रह्मचर्य की जिंदगी बिताने के लिए समर्पित हैं. तब वर्तमान ग्रहमंत्री राजनाथ सिंह तक इस मामले में हस्तक्षेप किया था. इसके बाद भी नाटक के को जान से मारने की धमकी दी जा रही थी. क्या कभी हिन्दूओ ने अपने धर्म के सन्दर्भ में हुए अनादर का विरोध किया हैं ?...राजीव चौधरी 


Thursday 24 November 2016

क्यों बांग्लादेश से हिन्दू भारत में बसना चाहते है ?

खबर है की अब बांग्लादेश देश से हिन्दू पलायन कर रहे है. हालाँकि हिन्दुओं के पलायन की यह कोई नई खबर नहीं है. कभी पाकिस्तान से पलायन, तो कभी कश्मीर और कैराना से, पलायन ही तो कर रहे है. हाल ही में ढाका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डॉ. अब्दुल बरकत ने अपनी किताब में लिखा है कि अगर में बांग्लादेश से इसी प्रकार हिन्दुओं का पलायन होता रहा तो अगले 30 साल में बांग्लादेश में एक भी हिंदू नहीं बचेगा. अब्दुल बरकत के अनुसार औसतन 632 हिंदू रोजाना बांग्लादेश छोड़ रहे है. दैनिक ट्रिब्यून की रिपोर्ट में प्रोफेसर बरकत के हवाले से कहा गया है अगले तीन दशक में बांग्लादेश में एक भी हिंदू नहीं बचेगा. हालाँकि उन्होंने साथ ही हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं पर स्नेहलेप करते हुए कहा बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले हो रहे हैं. ऐसे में हर विवेकशील बांग्लादेशी नागरिक को उनकी हिफाजत के लिए उठ खड़ा होना चाहिए.
यह एक घटना नहीं है. न एक देश की कहानी ये वो दर्द है जो पड़ोसी देशों में रहकर एक अल्पसंख्यक हिन्दू हर रोज सहता है. धार्मिक कट्टरपंथी समाज के बीच विभाजन के बीज बो रहे हैं. जिनसे अल्पसंख्यक समुदायों को कठघरे में खड़ा किया जा सके. भारत में हर एक साम्प्रदायिक घटना के बाद सेकुलर समुदाय चिंतित होकर विश्व समुदाय से न्याय की गुहार लगाता दिखाई दे जाता. चाहे वो महाराष्ट्र विधानसभा के अन्दर एक मुस्लिम समुदाय के युवक को रमजान के महीने में रोटी खिलाना ही क्यों न हो. परन्तु जब बात पड़ोसी देशों या भारत के अन्दर किसी राज्य में अल्पसंख्यक हिन्दू की आती है तो इन लोगों की जबान पर ताला लटका दिखाई दे जाता है. पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय की लगातार बिगड़ती सामाजिक-आर्थिक स्थिति की जानकारी दुर्दशा और उनके मानवाधिकारों के हनन देखे तो 1947 में पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 20 फीसदी थी, जो घटकर अब सिर्फ दो फीसदी रह गई है. पाकिस्तान से बांग्लादेश स्वतंत्र होने के बाबजूद भी यह सिलसिला जारी रहा क्योंकि बांग्लादेश में 1981 में यह संख्या 12.1 प्रतिशत रह गई और लेकिन 2011 के आंकड़ों के मुताबिक हिन्दुओं की आबादी मात्र 8.5 प्रतिशत रह गई है और बची खुची हिंदू आबादी भी भारत में ही आकर बसना चाहती है.पर कमाल देखिये कि कोई अन्य समुदाय या धर्म के या मुस्लिम ही भारत से जाकर वहां बसना नहीं चाहते.

इस्लामी देशों की तो बात छोड़िए, हिंदुस्तान में ही ऐसे अनेक राज्य और स्थान हैं जहां हिन्दुओं पर अत्याचार होते हैं. उन्हें अपनी बेटी, बहुओं की इज्जत के साथ घर-परिवार भी छोड़ना पड़ता है लेकिन किसी भी दल का कोई भी ढोंगी धर्मनिरपेक्षतावादी इस विषय पर अपना मुंह नहीं खोलता। उत्तर प्रदेश के मुस्लिम बहुल इलाकों, कश्मीर, केरल, तमिलनाडु और बंगाल के एक बड़े हिस्से में ऐसा होता है, लेकिन वोटों के लालच में कोई दल या नेता इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता है.कभी बांग्लादेश की नींव भी भारत की तरह धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों पर रखी गई थी. वहां की आजादी के लिए हिन्दुओं के बलिदान काम नहीं थे. मुस्लिमों के साथ आजादी की लड़ाई और इकट्ठा जश्न मनाने के बाद आज समय के साथ वहां की राजनीति और नैतिक सिद्धांतो पर कट्टरपंथी हावी हो गये. मुस्लिम बहुल बांग्लादेश में भी अल्पसंख्यकों को धर्मनिपेक्षता का पाठ पढ़ाया जा रहा है लेकिन इसका तरीका पूरी तरह से मुस्लिम है, जैसा कि मुस्लिम देशों में गैर-मुस्लिमों के साथ होता है. वास्तव में ऐसे देशों में हिंदुओं और उनकी लड़कियों, महिलाओं को बाजारू सामान से भी गया गुजरा समझा जाता है. अक्टूबर, 2001 जब पूर्णिमा रानी के घर पर करीब 30 लोगों ने हमला किया. उनका कुछ लोगों से जमीन को लेकर विवाद था. जिसकी कीमत मासूम पूर्णिमा ने चुकाई. हमलावरों ने माता पिता के सामने ही पूर्णिमा को हवस का शिकार बनाया था. मुझे आज यह वाक्या लिखने में शर्म आ रही है किन्तु इन तथाकथित धर्मनिरपेक्ष चोले में बैठे लोगों के कानों तक एक माँ की तड़फ जानी चाहिए जब दर्द से तड़फती बेटी की हालत को देख एक मां को भी उनसे कहना पड़ा, था अब्दुल अली मैं तुमसे रहम की भीख मांगती हूं, जैसा तुमने कहा मै मुसलमान न होने की वजह से अपवित्र हूं लेकिन मेरी बच्ची पर रहम करो. मै तुम्हारे पांव पडती हूं, वह अभी 14 साल की है, बहुत कमजोर है. अपने अल्लाह के लिए कम से कम एक-एक कर बलात्कार करो.


अप्रैल, 2003 में एक किशोरी विभा सिंह स्कूल जाने के लिए घर से निकली थी जहाँ से उसका अपहरण कर लिया और अगले छह दिन तक खुलना शहर में उसे तीन अलग-अलग घरों में रखा गया जहां बड़ी निर्ममता से उसको शारीरिक यातनाएं दी गईं। इतना ही नहीं, गुंडों ने बर्बरता की सभी सीमाएं लांघीं और उसके शरीर के विभिन्न अंगों पर ब्लेड और चाकू से चीरा लगाया. न जाने इन देशो में ऐसी कितनी घटना धर्म के नाम पर होती है. लेकिन भारत के बहुत पढ़े लिखे और अत्यधिक शिक्षित कथित धर्मनिरपेक्षवादी, अभिव्यक्ति के नाम पर छाती कूटने वाली सेकुलर जमात को इन मासूमों की सिसकियाँ सुनाई नहीं देती. धर्मनिरपेक्षता का अर्थ होता है कि आपका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।लेकिन हमारे देश में धर्मनिपेक्षता का अर्थ है मुस्लिमों के वोट और इन वोटों को पाने की खातिर आप अपने धर्म को गाली देकर तुष्टिकरण की सारी सीमाएं लांघ सकते हैं. लेख राजीव चौधरी चित्र गूगल से साभार 

Tuesday 22 November 2016

नोटबंदी और विपक्ष की गुटबंदी

8/11 अचानक नोटबंदी से कई सारे मामले खुलकर सामने आये.जहाँ भ्रष्टाचार से लड़ने वाली ताकते जिन्होंने 2012 में देश हिला दिया था वो इसके विरोध में खड़ी हो गयी. तो वही सारे काले इल्म के माहिर बाबा, दुनिया की परेशानियों का इलाज चुटकी में करने वाले रूहानी फकीर, हाथ देखकर भविष्य बताने वाले ज्योतिषी सब के सब इस समय बेंको के बाहर लाइन में खड़े नजर आये. कुछ अर्थशास्त्री इसे देश के अच्छा और बेहतर कदम बता रहे तो कुछ इससे लाभ और हानि दोनों मिश्रित कर देख रहे है. सब्जीमंडी से लेकर संसद तक देश का विपक्ष मुखर है. बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने नोटबंदी के खिलाफ विपक्ष को एक जाने को कहा है. हालाँकि हमारा उद्देश्य सत्तापक्ष की प्रसंशा या विपक्ष की आलोचना का नहीं है. हाँ यदि किसी को आपत्ति है तो  सकारात्मक, निपक्ष राजनीति को अलग रखकर एक स्वच्छ बहस होनी चाहिए. न की इससे जनता में अफवाह फेलाकर अपने राजनैतिक हित तलाश किये जाये.  क्योंकि नोटबंदी देश और समाज से जुडी एक सरकारी नीति है, न की कोई राजनीति. जिसका मूल्याकन जरूरी है. सब जानते है हमारे देश में भ्रष्टाचार अपने उच्च शिखर पर है एक निचले स्तर से लेकर ऊपर तक बिना रिश्वत के लेनदेन नहीं होता. भ्रष्टाचार से उत्पन्न धन को अर्थशास्त्री कालाधन कहते है क्योंकि वो धन आम आदमी से लेकर सरकार तक की पंहुच से बाहर होता है.
बीबीसी को दिए अपने एक साक्षात्कार में दिल्ली के मुख्यमंत्री द्वारा एक के बाद एक कई आरोप केंद्र सरकार पर जड़े गये इस बीच वो कई बार वो बीबीसी संवादाता नितिन श्रीवास्तव पर भड़कते भी नजर आये. खैर फ़िलहाल देश का एक बड़ा धडा अब इन आरोपों को गंभीरता से नहीं लेता. अब सवाल यह है कि क्या इससे काले धन की अर्थव्यवस्था नियंत्रित होगी? जाने-माने अर्थशास्त्री नितिन देसाई जिनका लेख दैनिक जागरण के सम्पादकीय में लिखते है कि साल 2015-16 में भारत की राष्ट्रीय आय 134 लाख करोड़ रुपये थी और इसमें 500 और 1000 रुपये के नोटों का हिस्सा करीब 10 प्रतिशत है. 31दिसंबर तक हम नहीं जान पाएंगे कि इसमें से कितने नोट वैध तरीके से कमाए गए हैं और कितने अवैध तरीके से. लेकिन कहा जा रहा है कि इसका करीब 20 प्रतिशत हिस्सा प्रथम चार दिनों में बैंकों में जमा करा दिया गया है. देश में काले धन का अधिकांश हिस्सा या तो रियल इस्टेट या सर्राफा बाजार या विदेशी बैंकों में जमा के रूप में है. जब तक हम जड़ पर प्रहार नहीं करेंगे तब तक काले धन की अर्थव्यवस्था से पीछा नहीं छुड़ा सकेंगे और इसकी जड़ कर चोरी, राजनीतिक उगाही और भ्रष्टाचार में निहित है.
नोट बंदी का व्यापक असर इस वक्त बैंकों और एटीएम के बाहर लगी लाइन के तहत नकारात्मक अंदाज में देखा और प्रचारित किया जा रहा है. मगर केंद्र सरकार ने 500 और 1000 रुपए के नोट पर जिस तरह से पाबंदी लगाकर भ्रष्टाचार के दम पर जमा किए गए अकूत कालेधन को तबाह किया है वह काफी सराहनीय है. इस फैसले का व्यापक असर आने वाले दिनों में अंतरराष्ट्रीय बाजार पर भी देखने को मिलेगा. इससे भारतीय मुद्रा का विदेशों में प्रभुत्व और बढ़ जाएगा. हालांकि, इस फैसले को लेकर लोगों में तमाम तरह के सवाल उठ रहे हैं. फिर भी सभी को इसे स्वीकार करने की जरूरत है कि इस निर्णय का बड़े पैमाने पर सकारात्मक व नकारात्मक असर आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा. हालाँकि, इस कदम से देश के असंगठित क्षेत्रों को कुछ समय के बाद मजबूती मिलेगी. दूसरा इसका सबसे बड़ा पहलु यह है कि अतिवादी, आतंकवादी, नक्सली व अन्य राष्ट्रद्रोही शक्तियों के पास जमा भारतीय मुद्रा जिसका उपयोग वो लोग देश में हिंसा, अलगाव, और दहशत फैलाने में करते थे कहीं न कहीं उनपर भी यह नोट की चोट पड़ी है. एक बड़ी बात यह भी है कि रुपये का कागज तैयार करने के लिए दुनिया में 4 फर्म हैं  फ्रांस की अर्जो विगिज, अमेरिका का पोर्टल, स्वीडन का गेन और पेपर फैब्रिक्स ल्युसेंटल इनमें से दो फोर्मो का 2010-11 में पाकिस्तान के साथ भी रूपए के कागज का अनुबंध हो चुका है

जिसका भारत ने विरोध भी किया था, अर्थात नोट छापने के लिए जो कागज भारत लेता था वही कागज 2010 से पाकिस्तान भी ले रहा है, फलस्वरूप पाकिस्तान उस कागज के अधिकतम हिस्से का इस्तेमाल भारतीय रूपए(नकली नोट) छाप कर भारत मे भेजने का काम कर रहा है. इसीलिए वर्तमान सरकार ने आनन-फानन मे अब जर्मनी के एक प्रिंटिंग प्रेस से कागज लेने का अनुबंध किया. साथ ही ये भी अनुबंध किए कि ये कागज जर्मनी किसी अन्य को नहीं दे सकता, ताकि भविष्य में फिर कभी नकली नोट की समस्या भारत में न हो सके. ये कागज पहले वाले से बहुत हल्का और अधिक सुरक्षित हैं, ये पानी, धूप से खराब नही हो सकता. लेकिन जब देश की अर्थव्यवस्था को कुछ फायदा होता दिखाई दे रहा है तो संसद से लेकर सड़क तक नोटबंदी पर सियासी संग्राम शुरू हो गया है. कुछ लोग परेशानी होने के बाद भी सरकार के पक्ष में बोलकर इसे राष्ट्र यज्ञ बता रहे है तो वही कुछ लोग इसे तानाशाही व अच्छा फैसला नहीं बता रहे है इस सब के बाद संसद से सड़क तक विपक्ष के चैतरफा हमले से सरकार के इरादों पर तो कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है लेकिन पिछले एक हफ्ते से नोटबंदी से जिस तरह लोगों को परेशानी उठानी पड़ रही है उससे ये सवाल जरूर उठ रहा है कि क्या इससे मोदी सरकार पर राजनीतिक असर पड़ सकता है? या एक बार फिर विपक्ष मुंह की खायेगा?...Rajeev Choudhary 


विश्व की बदलती राजनीति

ट्रंप की जीत के बाद पूरे विश्व की राजनीति में एक अजीब परिवर्तन दिखाई दे रहा है. कभी जिन मुद्दों पर सरकारें बदनाम होती थी या गिर जाती थी आज उन्हीं मुद्दों पर पूर्ण बहुमत से सरकारें बन रही है. यानि के झूठी धर्मनिपेक्षता, समाजवाद के गीत, खुद को उदारवादी और परम सहिष्णु कहने वाले नेताओं को लोग नकारते से नजर आ रहे है. चाहें वो भारत का चुनाव या अमेरिका जैसे समर्द्ध देश का. डोनाल्ड ट्रंप पर जो आरोप लगे, उनमें से अधिकांश ऐसे थे जिनकी सत्यता के बारे में शायद ही किसी को कोई संदेह हो. उन पर मुस्लिम विरोधी होने का आरोप लगा. ठीक यही आरोप भारत में मोदी पर भी अक्सर लगाये जाते रहे है. खैर इस चर्चा पर तो यहां जगह कम पड़ जाएगी लेकिन अमेरिका के राष्ट्रपति बनने जा रहे डोनाल्ड ट्रंप को बेवजह की चर्चा में बनाए रखने वाले मुद्दों का अंत नहीं होगा. दरअसल, ट्रंप की कामयाबी और इसमें पारंपरिक मुद्दों का गौण हो जाना सिर्फ अमेरिका में ही नहीं दिख रहा है. बल्कि दुनिया में पिछले कुछ सालों में कई ऐसे मौके आए हैं जिनसे ऐसे संकेत मिले हैं कि आम लोगों के लिए सियासत के मुद्दे बदल रहे हैं. ट्रम्प ने वही बात की जो अमेरिकी जनता सुनना चाह रही थी. सही अर्थो में कहा जाये तो मुस्लिम देशों से बाहर जिस प्रत्याशी या पार्टी का मुसलमान खुलकर विरोध करता है वो ही सत्ता का स्वाद चखता है.
भारत का ही उदाहरण लें तो नरेंद्र मोदी को लेकर जमकर नकारात्मक बातें की गई थीं. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर उनके कार्यकाल में दंगा हुआ था. इसलिए उन्हें दंगाई, खून का सौदागर, मुस्लिम विरोधी और पता नहीं क्या-क्या कहा गया. उन पर यह आरोप भी लगाया गया कि वे तानाशाह हैं. अंदेशा जाहिर किया गया कि यदि वे प्रधानमंत्री बने तो कयामत आ जाएगी. लेकिन बदले में नरेंद्र मोदी पूर्ण से भी अधिक बहुमत से देश के प्रधानमंत्री बने. दबी जुबान में ही सही मीडिया के एक हिस्से में उनके चरित्र पर भी सवाल उठे. लेकिन आम मतदाताओं ने इनमें से किसी भी बात पर यकीन नहीं किया और उन्हें ऐसा जनादेश दिया जैसा पिछले 30 साल में किसी को नहीं दिया था. इससे मतलब साफ है कि जिन बातों को राजनीतिक वर्ग और मीडिया मुद्दा बना रहे होते है, वे आम लोगों के लिए प्रासंगिक रह ही नहीं गये है.

कभी पहले यौन संबध उजागर होने के आरोपों से भी राजनीति खत्म हो जाया करती थी, लेकिन आज लगता है मतदाताओं के लिए यह कोई मुद्दा नहीं रह गया हैं. इनकी जगह अन्य मुद्दे खड़े हो गये दरअसल जिस जेहादी विचारधारा को भारत ने 800 साल झेला. वो आज यूरोप और अमेरिका आदि गैर मुस्लिम देशों में अपनी जड़ें जमा रही है. या ये कहो एक पुरानी एतिहासिक विचारधारा आधुनिक विज्ञान के सामने खड़ी है. ऐसे में यह कहना कोई गुनाह नहीं होगा कि विश्व की उदार मीडिया और सेकुलरवाद जिस इस्लाम को एक शांति और सहिष्णुता का मार्ग बताकर वोट बटोर रहे थे उसे पिछले कुछ सालों से पुरे विश्व का युवा एक बड़े खतरे के रूप में भी देख रहा है. चेचन्या के कट्टरवादी गुटों के विरोध के बाद रूस के राष्ट्रपति चुनावों में व्लादिमीर पुतिन पूर्ण बहुमत पाकर जीते थे. ठीक यही कुछ भारत और उसके बाद अमेरिका में देखने को मिला.

यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के बाहर निकलने के मुद्दे पर जनमत सर्वेक्षण का जो परिणाम आया, उसमें भी यह संकेत था कि आम लोग और राजनीतिक लोगों की सोच में काफी फासला खड़ा हो गया है जिसमें मीडिया भी शामिल है, बहुत कम लोगों को उम्मीद थी कि ब्रिटेन के लोग यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के पक्ष में राय देंगे. लेकिन नतीजों ने सारे अनुमानों को धता बता दिया. मतलब कि जनता क्या सोच रही है और नेता उसे क्या देना चाह रहे है इसमें काफी कुछ दुरी देखने को मिली. आज दुनिया के अलग-अलग हिस्से की इन अलग-अलग घटनाओं को आपस में जोड़ने पर एक चीज जो सामने निकलकर आई है कि पूरी दुनिया में आम लोगों के मुद्दे बदल रहे हैं. पारंपरिक मुद्दे अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं लेकिन एक बड़ा राजनीतिक वर्ग अब भी उन्हीं पारंपरिक मुद्दों पर अटका हुआ है और नए मुद्दों की पहचान कर पाने में सक्षम नहीं दिख रहा है.


कट्टरपंथी इस्लामिक आतंकवाद से विश्व भयभीत है.अमेरिका भी 9/11 की त्रासदी  झेल चुका है. ट्रम्प ने कोई बड़ा तीर नहीं चलाया बस मुस्लिम के खिलाफ  ब्यान दिए उसने मुस्लिमों के अमेरिका में प्रवेश को प्रतिबंधित करने और प्रवासी मुस्लिमों पर नजर रखने की बात कही थी. इस कारण मुसलमान नाराज हो गये थे. किसी विचारधारा के विरुद्ध कुछ कहना उस विचारधारा के अनुयायियों के विरुद्ध बोलने में कोई अंतर नहीं रह गया है. इस्लाम और मुसलमान दो ऐसी चीज हो गयी जो एक के बारे में कुछ कहना दुसरे का अपमान समझा जाने लगा है. जबकि जो लोग इस्लाम को झूठे-सच्चे श्रद्धा-सुमन चढ़ाते रहते हैं, जैसे जॉर्ज बुश, टोनी ब्लेयर, ओबामा या याहया खान, अल कायदा, हिजबुल मुजाहिदीन, लश्करे तोयबा, आई एस आई एस आदि उन्हीं लोगों ने लाखों मुसलमानों को मारा है. सीधा आदेश देकर, स्वयं भाग लेकर या दोनों तरीकों से.

पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, सीरिया, ईराक, यमन, बहरीन, आदि देशों में मुसलमान किनके हाथों मारे जा रहे हैं? इस तथ्य को नोट करना चाहिए, और वैचारिक संघर्ष का आह्वान करने वालों की नेकनीयती समझनी करनी चाहिए. मीडिया और सामाजिक मीडिया के कारण दुनिया सिमट गई है और मनुष्य का आपस में संपर्क और हाल बहुत आसान हो गया है इसलिए दुनिया जहां एक जेब में जगह पा लेती है तब किसी के लिए तथ्यों को जानना मुश्किल नहीं रहा.आज इस्लामी राजनीतिक विचारधारा को किसी आलोचना से बचाने के लिए ओछी चतुराई का सहारा लेना बताता है कि  सच बात मान लीजिये चेहरे पर धूल है, इल्जाम आइनों पर लगाना फिजूल है..........Rajeev choudhary 

Tuesday 15 November 2016

जापान जहाँ बसती है हमारी संस्कृति

यदि भारत में विविधता में एकता है तो जापान में आपको एकता में विविधता दिखाई देगी. जापान में जहाँ बुद्ध. सिंतों को मानने वाले लोग है वहीं हिंदू देवी देवताओं की पूजा की जाती है. ये बात कम ही लोगों को मालूम होगी. जापान में कई हिंदू देवी-देवताओं को जैसे ब्रह्मा, गणेश, आदि की पूजा आज भी की जाती है. ये विषय मूर्ति पूजा के लिहाज से भले ही गर्व करने लायक न हो किन्तु भारतीय धार्मिक संस्कृति की गहराई जरुर बताता है. बेशक जापान में सबसे ज्यादा लोग बुद्ध के उपासक है पर बुद्ध भी तो वैदिक सभ्यता का उपासक रहा है.

बुद्ध ने तृष्णा को सभी दुखों का मूल माना है. चार आर्य सत्य माने गए हैं. कि संसार में दुख है, दूसरा- दुख का कारण है, तीसरा- कारण है तृष्णा और चौथा- तृष्णा से मुक्ति का उपाय है आर्य अष्टांगिक मार्ग. अर्थात वह मार्ग जो अनार्य को आर्य बना दे. इससे शायद वेद मार्गी के भी कोई वैचारिक मतभेद नहीं होंगे. दोनों में ही मोक्ष ( निर्वाण) को अंतिम लक्ष्य माना गया है एवं मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुरूषार्थ करने को श्रेष्ठ माना गया है. जापान की नगरी नारी में मथुरा-वृन्दावन जैसी राग- रंग की धूम- धाम रहती है. वहाँ के मन्दिरों में आकर्षक नृत्य के साथ अनेकों धर्मोत्सव होते रहते हैं. जापानी स्वभावतः प्रकृति- सौंदर्य के पूजक हैं. उनके निजी घरों में भी छोटे- बड़े उद्यान बने होते हैं. तिक्को का तोशूगू मन्दिर पहाड़ काटकर इस प्रकार बनाया है, जिससे न केवल धर्म- भावना की वरन् प्रकृति पूजा की आकांक्षा भी पूरी हो सके.

कुछ वक्त पहले नई दिल्ली में फोटोग्राफर बेनॉय के बहल के फोटोग्राफ्स की एक प्रदर्शनी हुई, जिससे जापानी देवी-देवताओं की झलक मिली. बेनॉय के मुताबिक़ हिंदी के कई शब्द जापानी भाषा में सुनाई देते हैं.ऐसा ही एक शब्द है (सेवा) जिसका मतलब जापानी में भी वही है जो हिंदी में होता है. बेनॉय कहते हैं कि जापानी किसी भी प्रार्थना का अनुवाद नहीं करते. उनको लगता है कि ऐसा करने से इसकी शक्ति और असर कम हो जाएगा. भारतीय सभ्यता के बहुत सारे रंग जापान में देखने को मिलते हैं. सरस्वती के कई मंदिर भी जापान में देखने को मिलते हैं. संस्कृत में लिखी पांडुलिपियां कई जापानी घरों में मिल जाती है. आज भी जापान की भाषा (काना) में कई संस्कृत के शब्द सुनाई देते हैं. इतना ही नहीं काना का आधार ही संस्कृत है. बहल के अनुसार जापान की मुख्य दूध कंपनी का नाम सुजाता है. उस कंपनी के अधिकारी ने बताया कि ये उसी युवती का नाम है जिसने बुद्ध को निर्वाण से पहले खीर खिलाई थी. आज हम भारत में संस्कृत नहीं बोलते, इस भाषा के स्कूल कॉलेज में अपने बच्चों को भेजना नहीं चाहते. संस्कृत को महत्व नहीं देते और सांप्रदायिक समझते हैं वहीं जापान ने इस भाषा को सम्मान दिया है और वहां के लोग इस अपनी पुरातन सभ्यता का हिस्सा मानते हैं. जापानी पुरातत्त्ववेत्ता तकाकसू ने जापानी संस्कृति का इतिहास लिखते हुए स्वीकार किया है. कि उसका विकास भारतीय संस्कृति की छाया में हुआ है. भारत में बने स्तूप को जापान में पैगोडा का रूप दिया गया है. साथ ही, साहित्य के क्षेत्र में भी जापान व भारत लगभग एक समान हैं

इतिहास कहता है कि ईसाई और इस्लाम धर्म से पूर्व बौद्ध मत की उत्पत्ति हुई थी. उक्त दोनों मत के बाद यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा मत है. इस धर्म को मानने वाले ज्यादातर चीन, जापान, कोरिया, थाईलैंड, कंबोडिया, श्रीलंका समेत लगभग 13 देशों में है. इसे हम बुद्ध का साम्राज्य भी कह सकते है. दरअसल वैदिक सभ्यता की जड़ें किसी एक पैगम्बर पर टिकी न होकर सत्य, अहिंसा सहिष्णुता, ब्रह्मचर्य , करूणा पर टिकी हैं. हमारे धर्म के अनुसार सनातनी, जैन सिख बौद्ध इत्यादि सभी लोग आ जाते हैं. जो पुर्नजन्म में विश्वास करते हैं और मानते हैं कि व्यक्ति के कर्मों के आधार पर ही उसे अगला जन्म मिलता है

हिन्दू की परिभाषा को धर्म से अलग नहीं किया जा सकता.  यही कारण है कि भारत में हिन्दू की परिभाषा में सिख बौद्ध जैन आर्य सनातनी इत्यादि आते हैं इनमें रोटी बेटी का व्यवहार सामान्य माना जाता है । एवं एक दूसरे के धार्मिक स्थलों को लेकर कोई झगड़ा अथवा द्वेष की भावना नहीं है. सभी पंथ एक दूसरे के पूजा स्थलों पर आदर के साथ जाते हैं. कौन नहीं जनता कि जब गुरू तेग बहादुर ने कश्मीरी पंडितो के बलात धर्म परिवर्तन के विरूद्ध अपना बलिदान दिया था.

बुद्ध ने कोई नया पंथ नहीं चलाया था. वरन् उन्होंने मानवीय गुणों को अपने अंदर बढ़ाने के लिए अनार्य से आर्य बनने के लिए ध्यान की विधि विपश्यना दी विपश्यना करने वाले लोगों के वंशजो ने अपना नया पंथ बना लिया. ऐसा नहीं कि वैदिक सभ्यता केवल जापान तक सिमित है बल्कि बाली में एक इमारत के निर्माण की खुदाई के दौरान मजदूरों को एक विशाल हिन्दू इमारत को पाया, जो कभी हिन्दू धर्म का केंद्र रहा होगा. दुनिया के कई देश ऐसे हैं यहां आंशिक रूप से या फिर पूर्ण रूप से हिन्दू देवी-देवताओं को माना जाता है और उनकी पूजा की जाती है. आज उन देशों का धर्म चाहे जो हो, उनकी अधिकतम आबादी चाहे जिस धर्म को मानती हो लेकिन एक वक्त ऐसा था जब हिन्दू धर्म की जड़ें वहां गहरी थीं...विनय आर्य

Saturday 12 November 2016

विराट जनजातीय वैदिक महासम्मेलन. आसाम-नागालैंड

भारत में जनजातीय समुदाय के लोगों की काफी बड़ी संख्या है और देश में 50 से भी अधिक प्रमुख जनजातीय समुदाय हैं. देश में रहने वाले जनजातीय समुदाय के लोग नजातीय समुदाय को हक और अधिकार प्राप्त करने के लिए आज हमें आंदोलन खड़ा करना चाहिए. जनजातीय समुदाय के पारंपरिक और सांस्कृति विरासत बचाने के आर्य समाज ने बीड़ा उठाया है. व्यापक दृष्टिकोण अपना कर काम करने से ही जनजातीय समुदाय का उत्थान संभव है. आप सब भलीभांति परिचित है कि पूर्वोत्तर राज्य किस प्रकार अन्य समुदाय  के जाल में फंस चुकें है? वहां से हमारी प्राचीन संस्कृति हमारा धर्म सब कुछ चौपट किया जा रहा है. जिसे देखते हुए आर्य समाज 19-20-21-नवम्बर को आसाम नागालैंड की भूमि पर विराट जनजातीय वैदिक महासम्मेलन करने जा रहा है.  








Friday 11 November 2016

चलते चलते काठमांडू दर्शन

यदि धार्मिक धरोहर सहेजने की बात की जाये तो नेपाल भारत से कुछ अंक ज्यादा ले जायेगा. कारण हमने जहाँ मुगल और ब्रिटिश साम्राज्य सभ्यता को अपना इतिहास समझ उसे बचाकर रखा वहीं नेपाल ने अभी पुरानत हिंदुत्व सभ्यता सहेजने का काम किया. हिन्दू ही नहीं नेपाल ने बोद्ध मत का भी काफी रख रखाव किया. किन्तु उसे धार्मिक जीवन शैली तक ही सिमित रखा पर सनातन परम्परा को अभी तक सामाजिक राजनैतिक जीवन शैली में कायम रखे हुए है. मतलब कि जैसे साप्ताहिक अवकाश रविवार की  बजाय शनिवार को होता है. गाड़ियों पर देवनागरी हिंदी भाषा के शब्द और अंको में नम्बर लिखे मिलेंगे. यहाँ अभी भी अंग्रेजी कलेंडर के बजाय सनातन हिन्दू आर्य कलेंडर ही प्रयोग होता है. आम जीवन में हिंदू धर्म का प्रभाव अब भी कायम है. संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र के राष्ट्रपति से लेकर सड़कों पर मौजूद पुलिसकर्मियों तक- राज्य के अधिकारियों को अपनी हिंदू पहचान प्रदर्शित करने में कोई हिचक नहीं होती. ज्यादातर सार्वजनिक अवकाश हिंदू त्यौहारों दशहरा, दिवाली और रामनवमी पर होते हैं. सरकारी विभाग नियमित रूप से कई मंदिरों और पारंपरिक अनुष्ठानों के लिए बजट जारी करते हैं. काठमांडू की सड़कों पर आपको कोई लघुशंका करता नहीं मिलेगा इसके लिए यहाँ प्रसासनिक स्तर पर भारी दंड का प्रावधान है.
अंतर्राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन काठमांडू सफलता के वैदिक नाद के साथ संम्पन्न हो चूका था देश-विदेश से आये हजारों की संख्या में आर्य लोग अपने घरों की ओर लौटने लगे थे. सम्मलेन की खुमारी इस तरह लोगों के मन मस्तिक्ष पर हावी थी कि अभी तक लोग वैदिक भजन गुनगुनाते मिल जाते थे. आर्य समाज का शुभ वैदिक कार्यक्रम भली प्रकार सम्पन्न होने से हमारे मन भी पुष्प की भांति प्रफुलित खिले थे. तो हमने काठमांडू घुमने का मन बनाया. सर्वप्रथम ये सोचा की जाया कहाँ जाये? फिर भी बिना किसी से पूछे निकल पड़े काठमांडू की तंग गलियों से होकर एक अनजान शहर में कुछ जाना पहचाना खोजने. थोड़ी दूर चलने के बाद काठमांडू स्थित बसंतपुर दरबार स्क्वेयर में हम लोग पहुँच चुके थे यहाँ की मुख्य पहचान  यहाँ का काष्ठ मंडप जिसके बारे मेँ कहा जाता है  कि आज से लगभग 5 हजार साल पहले महाभारत काल में काष्ठ मंडप का निर्माण श्री कृष्ण के लिए किया गया था. इस का निर्माण एक ही वृक्ष की लकडी से हुआ था और इसमेँ एक भी  कील का इस्तेमाल नहीँ हुआ था. यहाँ पर पंच महायज्ञ का प्रतिदिन आयोजन होता है. लोग आते-जाते मंदिर के बाहर लोहे से बने गोलाकार हवनकुंड में आहुति देते रहते देखे जा सकते है. पक्षियों को दाना डालते है ब्राह्मणों को भोज कराते है. मंदिर तो पूरी तरह जमींदोज हो चूका है किन्तु हवन अभी प्रतिदिन चलता रहता है वैसे बसंतपुर के के करीब 80 फीसदी मंदिर तबाह हो गए. जमींदोज हुए मंदिरों में काष्ठ मंडप मंदिर, पंचतले मंदिर, दसावतार मंदिर और कृष्ण मंदिर शामिल हैं. जो बचे है उन्हें लकड़ी की बल्लियों के सहारे खड़ा रखा गया है.
इसके अलावा काठमांडू दरबार स्क्वायर मेँ एक  मंदिर ऐसा भी है  जोकि हिंदू और जैन दोनो  धर्म के मानने वालोँ के लिए है और ये तीन मंजिला है. इस मंदिर का शिल्प वास्तव मेँ अदभुत है. यहाँ पर एक मंदिर शिव पार्वती मंदिर के नाम से भी है और यह भी यहाँ का  प्रसिद्ध मंदिर है. इसके अलावा यहाँ पर कुमारी महल भी है जहाँ पर जीवित कुमारी रहती है. यह एक मठ की तरह है. एक लड़की को जीवित देवी माना  जाता है और वह वह वहाँ तब तक रहती है जब तक की वह अपनी एक कुमारी अवस्था को खत्म कर सामान्य जीवन मेँ नहीँ लौट जाती. ऐसा माना जाता है कि जब देवी अपनी सामान्य अवस्था में लौट आती है तो भी उसे विवाह आदि या किसी पुरुष से दूर ही रखा जाता है. हम भी कुंवारी देवी के दर्शन के लिए इस महल मेँ चले गये  यहाँ आकर पता चला  कि देवी बहुत अलग अलग समय पर दर्शन देती है. अभी जो उनके दर्शन का समय था उसमेँ कुछ समय बाकि था. एक बार को तो मन हुआ कि छोड़ो लेकिन उसके बाद फिर भी अशोक जी के कहने पर खड़े रहे थोड़ी देर बाद और विदेशी लोग भी आने लगे और करीब 5 मिनट बाद तो वहाँ पर काफी भीड़ हो गई. मंदिर प्रसाशन की ओर से सबको शांत रहने की सलाह दी सब खामोश हो गये अब बस केवल खिडकियों पर बैठे कबूतरों की घुटरघू सुनाई दे रही थी. हमारे सामने ही एक खिड़की लगी हुई थी जिसमेँ बताया गया था कि यहाँ से देवी दर्शन देंगी. अब अचानक खिड़की से एक वृद्ध स्त्री जो कभी पहले वहां देवी रही होगी उसके इशारे पर देवी ने दर्शन दिए.  देवी ने किसी भी भक्त की तरफ देखा तक नहीँ सामने देखती रही. भक्तो ने उनको प्रणाम किया किसी को भी ज्यादा जोर से बोलने और फोटो खींचने की मनाही थी.  एक मिनट बाद ही देवी वापस अंदर चली गई.
जीवित देवी यानि कुमारी कोई 10 या 12 साल की एक बच्ची थी जिसका श्रंगार प्राचीन नेपाली ढंग से किया गया था. काजल आँखों से शुरू होकर कानों तक लगा था. अब हमें सिर्फ यह पता करना बाकि था कि जीवित देवी का चयन किस आधार पर होता है. पहले तो हम लोगों ने मंदिर प्रसाशन से पता किया लेकिन उन्होंने इस बारे में कम समय का हवाला देकर बताने से स्पष्ट इंकार कर दिया किन्तु अन्य लोगों से जो जानकारी जुटाई वो इस प्रकार थी कि नेपाल में कुमारी के चयन के मापदंड सख्त हैं. कई तरह की परीक्षाओं पर खरा उतरने के बाद दो वर्ष की उम्र में सजनी शाक्य को श्कुमारीश् चुना गया था और उनसे उम्मीद थी कि रजस्वला होने से पहले (यानी मासिकधर्म शुरु होने से पहले) तक वह उत्सवों में हिस्सा लेगी और भक्तों को आर्शीर्वाद देती रहेंगीं.शारीरिक विशेषताओं के साथ बहुत सारी अनिवार्यताओं पर खरा उतरना जरूरी होता है. तब कहीं वह कुमारी बन पाती हैं सोलहवीँ सदी मेँ राजाओं ने जब इस जगह को बनवाया तो तेलजू मंदिर के तहखाने के अन्दर एक लड़की चली गयी तहखाने के अन्दर घुप अँधेरा था और लड़की बिना डरे उसमें अन्दर थी तो पुजारियों ने उसे जीवित देवी का दर्जा दिया. इसके बाद परम्परा चलती आ रही है कि जो लड़की तेलजू मंदिर के तहखाने में बिना डरे रह लेती है उसे ही जीवित कुमारी मान लिया जाता है और उसे बाद में कुमारी देवी के मंदिर में भेज दिया जाता है. ज्ञात रहे नेपाल में राजशाही के दौरान राजा बनने की शपथ से लेकर हर अति महत्वपूर्ण काम बिना कुमारी देवी के आर्शीवाद के नही होते थे.

काठमांडू का प्राचीन नाम काष्टमंडप था. एक ही वृक्ष की से मंडप निर्माण होने के कारण इस स्थान का नाम का काष्ठ मंडप पड़ा. कालांतर में अपभ्रंश के रुप में काठमांडू जाना जाता है. इसके बाद अगले दिन हम लोग रॉयल पेलेश देखने की इच्छा लिए निकल पड़े तो पता चला यह सिर्फ सुबह 11 बजे से सांय तीन बजे तक खुलता है. हम थोडा लेट थे तो इसके बाद हम पशुपति नाथ मंदिर देखने पहुंचे. नेपाल की पहचान पशुपति नाथ के कारण ही है, अधिकतर हिन्दू तीर्थयात्री पशुपतिनाथ के ही दर्शन करने नेपाल पहुंचते हैं. यहाँ पहुंचने पर भी आम भारतीय मंदिरों जैसा दृष्य दिखाई दिया. भभूत लपेटे साधू महात्मा. मंदिर के अन्दर कीर्तन आरती गाते लोग वही माला, मोती, पूजन सामग्री की दुकानें सजी हुई थी. नेपाल की अधिकतर दुकानों में मालिक नहीं मालकिनें ही दिखाई दी. मंदिर परिसर में कैमरे का प्रयोग वर्जित है. लगभग बड़े मंदिरों में कैमरे का प्रयोग वर्जित कर दिया जाता है. सुरक्षा कारण बता कर इसका व्यावसायिक लाभ उठाया जाता है तथा मंदिर समिति द्वारा चित्र बेचे जाते हैं.मंदिर के मुख्यद्वार में प्रवेश करने पर पीतल निर्मित विशाल नंदी बैल दिखाई देता है. किसी भी धातू निर्मित इतना बड़ा नंदी मैने अन्य किसी स्थान पर नही देखा. लगभग 7 फुट के अधिष्ठान पर सजग नंदी स्थापित है.  मंदिर पगौड़ा शैली में काष्ठ निर्मित है. मंदिर के शीर्ष पटल पर राजाज्ञा लगी हुई है तथा राजाओं के चित्रों के साथ द्वारा किए गए निर्माण की तारीखें भी लिखी हुई हैं. मंदिर के शीर्ष एवं दरवाजों पर सुंदर कलाकृतियों का निर्माण हुआ है. लकड़ियों पर भी बेलबूटों के साथ मानवाकृतियों की खुदाई की हुई है. मंदिर के पूर्व की तरफ के परकोटे से झांकने पर बागमति नदी दिखाई देती है.


नेपाल के निवासी धार्मिक कर्मकांड एवं पिंडदान इत्यादि इसी नदी के किनारे पर कराते दिखाई दिए. जिस समय हम पहुंचे एक दाह संस्कार हो रहा था तो थोड़ी दुरी पर दूसरे की तेयारी चल रही थी. नदी के किनारे मुक्ति घाट, आर्य घाट  बना हुआ है, यहाँ अंतिम संस्कार क्रिया होती है। इसके साथ मृतक संस्कार करवाने के लिए कई घाट बने हुए हैं. जिसका निर्माण पुराने समय के शासकों ने कराया है. पशुपति नाथ के दर्शन करने में ही अँधेरा हो गया हमारा कारवां चल पड़ा अगले पड़ाव की ओर ..... Rajeev Choudhary 

Thursday 10 November 2016

दुख, वेदना, हताशा और कुप्रथा

चित का फटना और फटने का दर्द भीतर ही भीतर सहना कितना कठिन है? पर यह इस नारी की सहनशक्ति का प्रमाण भी है. कुप्रथाएं किसी भी समाज में हो वो हमेशा किसी न किसी के लिए दुःख का कारण जरुर बनती है. बल्कि कई बार तो कईयों की जिन्दगी तक को तबाह तक कर डालती है. एक ऐसी ही कहानी कई रोज पहले दैनिक जागरण अखबार में पढ़ी. खबर थी कि तीन तलाक और हलाला के नियम से दुखी एक मुस्लिम महिला ने इस्लाम छोड़कर हिन्दू धर्म को अपनाने का एलान किया है. उसने इस्लाम धर्म के नाम पर हो रही महिलाओं की दुर्दशा पर खुलकर अपने उद्गार व्यक्त किए. जय शिव सेना ने महिला का धर्म परिवर्तन कराने में या कहो कुप्रथा से पीछा छुड़ाने में अपना सहयोग देने का आश्वासन दिया.

राजनगर स्थित आर्य समाज मंदिर में 25 वर्षीय मुस्लिम महिला शबनम (बदला हुआ नाम) ने इस्लाम धर्म के नाम पर महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों का जिक्र करते हुए कहा कि लगभग सभी मुस्लिम महिलाएं किसी न किसी प्रकार से यातनाएं झेल रही हैं. कम उम्र में उनका निकाह कर दिया जाता है, फिर उन पर जल्दी जल्दी बच्चे पैदा करने का दबाव दिया जाता है. बच्चा न पैदा होने पर उन्हें तमाम शारीरिक यातनाएं दी जाती हैं और छोटी छोटी बातों पर तलाक दे दिया जाता है. तलाक देने के बाद महिलाओं की स्थिति और भी दुखदायी हो जाती है. पीड़ित लड़की का कहना है कि तलाक के बाद शौहर से दोबारा निकाह करने के लिए मुस्लिम समाज द्वारा चलाई गई प्रथा हलाला से गुजरना होता है. उसने बताया कि तलाक के बाद उसके शौहर ने फिर से साथ रहने के लिए उसका हलाला भी कराया और दोस्त के हवाले कर दिया. तीन महीने बाद जब वह पति के पास पहुंची तो उसे स्वीकार करने के बजाय पति ने वेश्यावृत्ति में धकेल दिया. हो सकता है इस खबर को पढ़कर धर्म विशेष के लोगों की नजरें शर्म से झुक जाये.या शायद कुछ ऐसे भी हो जो परम्पराओं के नाम पर एक नारी के मन और आत्मा को छलनी कर देने वाले इस प्रकरण को मजहब का हवाला देकर सही ठहराए? किन्तु कहीं न कहीं पुरे प्रकरण में मानवता जरुर शर्मशार हुई है.
एक महिला की घुटन भरी जिन्दगी. जिसकी साथ ऐसी घटना घटित होती है उसकी जिन्दगी घर के अन्धेरे कोनों में सुबक कर रोने में ही बीत जाती है. कोई एक भी तो उनकी नहीं सुनता उनकी सिसकियों भरी आवाज. न घर में न घर के बाहर, न भाई न पिता, न मस्जिद न मुल्ला मौलवी, न नेता न समाज सुधारक सब के सब मौन. कोई भी तो मौलवी ऐसी घटना के विरुद्ध फतवा जारी नहीं करता. जिस कारण पाशविक धार्मिकता की आड़ में स्त्री तो पुरुष के पांव की जूती, बच्चा पैदा करने वाली मशीन पुरुष की भोग्या ऐसी धारणाओं की बलिवेदी पर परवान हो जाती है. चार पांच बच्चों के साथ जीवन कितना नारकीय बन जाता है यह तो केवल भोगने वाला ही जान सकता है.

जानने वाले जानते हैं कि औरत के तलाक के मांगने के मामले शायद ही कभी सुनने को मिलते हैं. वजह ये है कि उसमें खासा वक्त लगता है. जब महिला को तलाक लेना हो तो उसे एक से दूसरे मौलवी के पास धक्के खाने पड़ते हैं. कभी बरेलवी के पास, कभी दारुल उलूम के पास. वह मौलवी के पास जाती है तो वे तलाक लेने की हजारों वजहें पूछते हैं. जबकि मर्द को कोई वजह नहीं देनी पड़ती. औरत वजह भी बताए तो उसे खारिज कर देते हैं कि ये वजह तो इस काबिल है ही नहीं कि तुम्हें तलाक दिया जाए. मतलब इस्लाम के अन्दर औरत वजह से भी तलाक नहीं दे सकती और पुरुष बेवजह भी तलाक दे सकता है. जिसका जीता जागता उदहारण अभी हाल ही में जोधपुर राजस्थान में देखने को मिला था कि किस तरह बीच सड़क पर एक मुस्लिम युवक ने अपनी पत्नी को तलाक दिया. मोरक्को की सामाजिक कार्यकर्ता फातिमा मेर्निसी इस्लाम के इस पुराने तंत्र पर प्रहार करती कहती है कि इसमें महिलाओं को महज संस्थानिक व अधिकार में रखने की कवायद की जाती रही है और इसे मजहब के नाम पर पवित्र पाठ का नाम दिया गया है.

आज पूरे मुस्लिम संसार में सब कुछ उलट पुलट हो रहा हैं. लेकिन कुप्रथाओं पर मुसलमान वही पुराने ढर्रे पुराने संस्कारों की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं. कुछ लोग इसे मजहब से जोड़कर देख रहे है तो कुछ महज मुस्लिम मौलानाओं की जिद से. पूरे संसार में नारियों के लिए मुक्ति आंदोलन चले और आज वह स्वतंत्रता के मुक्त वातावरण में सांस ले रही हैं. हिन्दुओं ने समय के साथ सती जैसी गन्दी प्रथा को दूर कर नारी को स्वतंत्र कर दिया. परन्तु मुस्लिम समाज की महिलाओं की मुक्ति का एक भी स्वप्न संसार के किसी कोने से नहीं फूटता. इस्लामिक समाज में नारी मुक्ति के लिए कोई भी समाज सुधारक, चिन्तक, कोई नेता व कोई भी धार्मिक व्यक्ति आगे नहीं आया. आगे आती सिर्फ कुछ मुस्लिम महिला पर उनकी आवाज उनके चरित्र से जोड़कर बंद कर दी जाती है. पिछले कुछ सालों से एक तमिल मुस्लिम लेखिका मुता विवाह के खिलाफ संघर्ष कर रही है. जब उनसे पूछा कि यह मुता विवाह है क्या?  तो उसनें बताया केवल थोड़े समय के लिए शादी फिर तलाक तलाक तलाक. असंख्य अस्वस्थ रहन सहन, दारिद्रय, अशिक्षा ने हमारे समाज को उजाड़ बना दिया है. तलाक के बाद आंसुओं की सम्पत्ति , चुपचाप सिसकने की इजाजत के सिवा कुछ भी नहीं. दुख, वेदना, हताशा व दरिद्रता के सिवाय कुछ नहीं बचता. मिस्र की एक मुस्लिम महिला ग़दीर अहमद अभी हाल ही में इस्लाम में नारी को लेकर मुखर है वो कहती है आप अकेली नहीं हैं. आप जिस संघर्ष से गुजर रही हैं, मैं उससे गुजर चुकी हूं. मैंने अकेलापन, असहाय, कमज़ोरी और शर्म को महसूस किया था. ऐसे समय भी आए जब मैं पूरी तरह निढाल हो गई. मुझे यह हक़ नहीं कि आपसे कह सकूं कि आप भी मेरी तरह ही संघर्ष करें. लेकिन मैं अपील करती हूं कि जिस पर आपको भरोसा हो, चाहें वो कोई हो उससे मदद मांगे. एक बार मदद मांगने से आप कम अकेली, कम ख़तरे में ख़ुद को पाएंगी. हम साथ मिल कर उस संस्कृति को बदल सकते हैं जो हमे डराती है और शर्मिंदा करती है. हम एक साथ जी सकती हैं, बहनों के रूप में हम इस दुनिया को औरतों के लिए बेहतर बना सकती हैं..लेख राजीव चौधरी 

Monday 7 November 2016

लाशों का मूल्य क्या चल रहा है?

देश में कुछ समय पहले तक जन समस्याओं का प्रतिनिधित्व मीडिया करती थी और नेता उसके पीछे चलते थे किन्तु आज हालात बदल गये नेता एजेंडा सेट करते है और मीडिया उसके पीछे चलती है. भारतीय राजनीति का अपना एक गौरव रहा है, अपना इतिहास है. समय-समय पर बड़े-बड़े बदलाव राजनीति में होते आ रहे हैं. विदुर से लेकर चाणक्य तक और मोदी से लेकर केजरीवाल तक इसी भारतीय राजनीति की देन है. लेकिन वर्तमान की राजनीति जनता की मूलभूत जरूरतों, राष्ट्रहित जनहित के बजाय (लाशों) पर आकर टिकी से दिखाई दे रही है. अभी कल फेसबुक पर एक पोस्ट पढ़ी जो प्रश्नवाचक चिन्ह के साथ थी कि राजनीति में लाशों का क्या मूल्य चल रहा है? पता नहीं व्यंग था या वर्तमान राजनीति पर कटाक्ष! किन्तु भारतवर्ष की राजनीति में लाशों का बढ़ता महत्व देखते हुए यह प्रश्न प्रासंगिक जरुर था. यह सत्य है कि पिछले कुछ समय से भारतीय राजनीति लाशों के इर्द-गिर्द ही मंडराती पाई जाती है. इसे आप समय का मखोल कहो या जिन्दा राजनीति की मृत सवेंदना दोनों ही सूरत में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. क्योंकि कुछ समय से राजनीतिक लोगों ने अपनी विचारधारा बदल ली है। यह कभी तो लाशों को लेकर चिंतित होते हैं तो कभी घोड़े की टांग को लेकर. रोहित वेमुला हो या अकलाख, डॉ नारंग हो या भिवानी से आत्महत्या करने वाला रामकिशन हो, मतलब हर एक दल की अपनी लाशें हो गयी.
सालों पहले देश में राजनैतिक रोटियां सेकी जाती थी किन्तु आज बोटियाँ सेकी जा रही है. हे भारतीय राजनीति के संवेदनहीन नेताओं क्या आपको भूखे लोगों की कराह सुनाई नहीं देती? जिन्दा किसान के आंसू या सीमा पर लड़ते जवान की याद आपको क्यों नहीं आती या फिर जीवन से ज्यादा गुरुत्वाकर्षण मौत में हो गया? छात्र रोहित वेमुला ने आत्महत्या की थी. जब उसे उतारा गया था तो सुनने में आता है कि उसकी धड़कने चल रही थी. लेकिन मरने इसलिए दिया गया क्योंकि वह जिंदा किसी के काम का नहीं था. अतः उसका मरना बेहद जरूरी था और राजनीति ने ऐसा ही किया कि छात्र रोहित की मौत पर जमकर सियासी ड्रामा हुआ था. आज बीजेपी का पक्ष कमजोर पड़ रहा है. क्योंकि OROP से ना खुश होकर पूर्व सैनिक ने आत्महत्या की है . जिस पर बीजेपी जवाब नहीं दे पा रही है और मौके की नजाकत को देखते हुए आम आदमी पार्टी और कांग्रेस आज सैनिकों के सबसे बड़े शुभचिंतक के रुप में उभर कर सामने आ रहे हैं . वो बात अलग है कि OROP का मामला 1973 से अटका हुआ था और कांग्रेस कुछ नहीं कर पाई थी.

संविधान के अनुसार आत्महत्या अपराध है यदि कोई ऐसा करता है तो वो अपराधी है. किन्तु राजनेताओं के लिए यह अपराध शहादत बन जाता है. लेकिन सही अर्थो में तो ऐसा करने वाला कायर होता है. इसके बाद नेता कहते है कि हम भारतीय संविधान का सम्मान करते है. ऐसा नहीं है कि डेढ़ अरब की आबादी से एक रामकिशन या रोहित का चले जाना कोई भारी जन त्रासदी हुई है जाना सबको है एक दिन हम भी जायेंगे किन्तु भगवान से यही प्रार्थना है कि मेरा शव राजनेताओं की वोट की दुकान न बने. रामकिशन की मौत के बाद राहुल गाँधी और केजरीवाल ने इस मामले में जमकर अफरातफरी मचाई केजरीवाल ने तो शब्दों की गरिमा को भूलकर इसे केंद्र सरकार की गुंडागर्दी तक कह डाला और उनकी पार्टी तर्क रखा कि घटना दिल्ली प्रदेश में घटी है तो केजरीवाल के लिए यह जरूरी था. पर मुझे याद है कि सियाचिन में कई दिनों तक बर्फ में दबा रहने वाला जवान हनुमंतथप्पा भी दिल्ली के एक अस्पताल में जिन्दगी और मौत की जंग लड़ रहा था किन्तु उसके लिए राहुल और केजरीवाल के पास टाइम नहीं था.
देखा जाये तो इस देश में हर रोज हजारों लोग मरते है कोई बीमारी से तड़फकर कोई भूख से लड़कर, कहीं दहेज के कारण बेटी तो कहीं कर्ज में डूबा बाप आत्महत्या कर लेता है. यहाँ न जाने कितने किसान आत्महत्या करते है पर उनकी मौत पर नेताओं के लिए उनके परिवार के लिए कोई संवेदना नहीं होती. दूर दराज गांवों की बात छोड़िए, देश की राजधानी में ही लोग भूख से तड़पकर मर जाते हैं लेकिन उनको लेकर न कोई चर्चा, न कोई अवार्ड वापसी, न ही मीडिया पर जैसे ही किसी अन्य समुदाय विशेष या धर्म विशेष में इस प्रकार की घटना घटती है तो नेतागण उसे विश्वस्तरीय मुद्दा बनाने से नहीं हिचकते. दूर न जाकर पास ही देख लो पिछले हफ्ते सिमी के आठ आतंकी जेल तोड़कर फरार हुए जिन्हें बाद में मुठभेड़ में मार गिराया तो राजनेताओं ने उसे वोट से जोड़कर न्यायिक जाँच की मांग तक कर डाली जस्टिस काटजू ने तो इस मुठभेड़ में शामिल पुलिसकर्मियों के लिए फांसी की मांग तक कर डाली. जाने माने शायर मुनव्वर राणा ने भोपाल में सिमी के संदिग्ध  आतंकियों के एनकाउंटर को फर्जी बताया और कहा कहा कि एनकाउंटर में जब तक 5-10 पुलिसवाले और 15-20 लोग ना मारे जाए, तब तक एनकाउंटर कैसा? ये वही मुनव्वर राणा है जो अवार्ड वापसी करने वाली लिस्ट में सबसे ज्यादा चर्चित थे. बहरहाल इन लोगों पर क्यों अपनी कलम की स्याही बेकार की जाये यही लोग है जो याकूब को भी फरिश्ता बता रहे थे. इनकी अपनी दुकानदारी है और अपने ग्राहक. शायद इसी वजह से दादरी, हैदराबाद तो कभी सुनपेड़ और भिवानी होते रहेंगे क्योकि यहाँ हर किसी की अपनी लाशें है......विनय आर्य 

Friday 4 November 2016

हिजाब का खेल या खेल का हिजाब?

खबर है कि भारतीय शूटर हिना सिद्धू ने नौवीं एशियाई एयरगन शूटिंग चैंपियनशिप से अपना नाम वापस ले लिया है. ईरान में होने वाली इस चैंपियनशिप में हिजाब पहनने की अनिवार्यता के चलते हिना ने ये कदम उठाया है. यह प्रतियोगिता दिसंबर में ईरान की राजधानी तेहरान में होगी. इस भारतीय खिलाडी ने कहा है कि वो ऐसा करने वाली कोई क्रांतिकारी खिलाडी नहीं है, ले‍किन व्यक्तिगत रूप से उन्हें लगता है कि किसी खिलाड़ी के लिए हिजाब पहनना अनिवार्य करना खेल भावना के लिए ठीक नहीं है. एक खिलाड़ी होने का उन्हें गर्व है क्योंकि अलग-अलग संस्कृाति, पृष्ठभूमि, लिंग, विचारधारा और धर्म के लोग बिना किसी पूर्वाग्रह के एक दूसरे से खेलने के लिए आते हैं., खेल मानवीय प्रयासों और प्रदर्शन का प्रतिनिधित्व करता है. न की किसी धर्म का! 
यदि यहीं पर रुख दूसरी खबर का करें तो चेचन्या की सरकार ने शादियों पर नजर रखने के लिए ख़ास अफसरों को तैनात करने का फैसला किया है. ये अफसर शादी के दौरान होने वाले अनुचित व्यवहार रोकेंगे. कार्यकारी संस्कृति मंत्री खोजा-बाऊदी दायेव ने कहा, विशेष कार्यकारी समूह सार्वजनिक जगहों में होने वाली सभी शादियों में शिरकत करेंगे. यदि पोशाकें और नृत्य की भंगिमाएं राष्ट्रीय रीति रिवाजों और इस्लामिक परंपराओं के ख़िलाफ हुईं तो शादी रोक दी जाएंगी.कई बार लगता है कि इस्लाम जीवन शैली से ज्यादा परम्पराओं में बसता है. या कहो पुरातन परम्पराओं के बचाव का नाम ही धर्म विशेष रह गया है? सब जानते है कि इस्लाम के मानने वालों की एक बहुत बड़ी तादाद कट्टरवादी नहीं है. वहीं कई कट्टरपंथी ऐसे भी हैं जिनका दूसरों का सिर धड़ से अलग करने के काम से कोई वास्ता नहीं है. इसके बावजूद, मुस्लिम सोच में एक ऐसी दिक़्क़त है जिसके बारे में बात करने से ज्यादातर मुस्लिम बचते हैं. ऐसा नहीं है कि ये सोच केवल मुसलमानों के भीतर ही है, लेकिन आजकल यह उनके बीच ख़ासतौर पर प्रचलित है. इस दिक़्क़त की एक पहचान यह है कि कई मुसलमान, यहाँ तक कि कुछ धर्मनिरपेक्ष मुस्लिम भी, मुस्लिम संस्कृति और समाज से जुड़ी हर चीज का बचाव करते हैं. इसके लिए आम तौर पर अपने गौरवशाली अतीत की दुहाई दी जाती है, साथ ही वर्तमान समय की परेशानियों के लिए किसी बड़े खलनायक को जिम्मेदार ठहराया जाता है.
जंग या बहस कोई भी हो विचारधारा को लेकर होती है और ताकतवर लोग हमेशा अपनी विचारधारा को बड़ा रखना चाहते है. इन्सान वैसे तो हमेशा वैचारिक स्वतंत्रता का पक्षधर रहा किन्तु समूह में आकर वो हमेशा उस समूह की विचारधारा की सम्मान करने की बात करता है क्योकि समूह हमेशा संगठन की गरिमा की बात करता है. कुछ समय पहले मैंने बीबीसी की एक रिपोर्ट में पढ़ा था कि फैशनेबल कपड़े पहनने पर एक फलस्तीनी लेखिका ने कुछ पश्चिमी देशों में बुर्क़ा पहनने के विरोध या उसपर प्रतिबंध की कोशिशों की आलोचना की थी. जबकि वो खुद बुर्का नहीं पहनती थी. लेकिन अपने कई अन्य बुर्क़ा न पहनने वाले साथियों की तरह उन्हें भी लगा कि अपने भाइयों के पक्ष में बोलना उनकी जिम्मेदारी है. उन्होंने तर्क दिया था कि पश्चिमी देश बिकनी पर क्यों नहीं प्रतिबंध लगाते, क्योंकि यह कहा जा सकता है कि बिकनी से भी महिलाओं की उसी तरह एक ख़ास छवि बनती है जैसी कि बुर्क़े से. भले भी उस लेखिका की नीयत अच्छी थी, लेकिन तर्क बुरा था. कोई भी पश्चिमी देश महिलाओं को बिकनी पहनने के लिए जबरदस्ती जोर नहीं डालता. आप पश्चिम में किसी भी समुद्र तट पर पूरे कपड़े पहनकर घूम सकते हैं! लेकिन कई इस्लामी देश, जैसे कि सऊदी अरब, बुर्का पहनने के लिए बाध्य करते हैं और इसे जबरदस्ती लागू करते हैं. मुझे लगता है कि मुसलमानों को अपने तर्कों और बहानों की पूरी ईमानदारी से जाँच करनी चाहिए.
मुस्लिम लेखिका अय्यान हिरसी कहती है कि जमाना तो बदला पर अभी भी इस्लाम में बहुत कुछ नहीं बदला वहीं आधुनिक विवाद की ऐतिहासक जड़ेंइस पुस्तक में लेखिका लैला अहमद कहती हैं इस्लाम में स्त्रीवाद व स्त्री कि ये आवरण प्रथा सर्वप्रथम ससानियन समाज में प्रचलित था जिसे लिंगभेद के लिये इस्तेमाल किया जाता था साथ ही इस आवरण का प्रयोग ईसाई समुदाय में मध्य पूर्व व मेडिटेरियन भागों में, इस्लाम के उदय के समय था. मोहम्मद के जीवनकाल में व उस काल के अंतिम समय में, सिर्फ उनकी पत्नियां वे मुस्लिम थी जो आवरण में रहती थी. उनकी मृत्यु के बाद और मुस्लिम समुदाय की स्थिति के अनुसार, उच्च वर्ग की महिलाएं आवरण में रहने लगी और धीरे धीरे ये मुस्लिम उच्च वर्ग की महिलाओं का प्रतीक बन गया.  आवरण में या बुर्के में रहना, इसे जीवन में मोहम्मद द्वारा प्रचलित नही किया गया था वरन्‌ ये वहां पर पहले से मौजूद था. शायद इसका कारण वहां उड़ता रेत रहा हो. जिसे बाद में सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाने लगा था. जो कि अब बदलते समय में धार्मिक प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है. शायद मुस्लिम समाज में, अपनी प्रतिष्ठा व धन प्रदर्शन का मुद्‌दा बनाकर आवरण को ग्रहण करने की प्रथा धीरे धीरे मोहम्मद की पत्नियों को अपना आदर्श बनाकर आगे चल पड़ी.वरना हिजाब का कोई भी पर्यावाची बुर्के या पर्दे से नहीं बल्कि हिजाब का अर्थ सिर्फ शर्म बताया गया है.
सोमालिया की लेखिका इरशद मांझी ने कुछ समय पहले आक्सफोर्ड में मुस्लिम विद्यार्थियों, प्रोफेसरों तथा बुद्धिजीवियों से कहा था कि मुस्लिमों को धमकी और शिकायत का रवैया छोड़कर आत्म अवलोकन और खुले विचार- विमर्श पर उतरना चाहिए यदि मुसलमान भी अपनी ऐसी कमजोरी मान लें तो यह बड़ा रचनात्मक कदम होगा. यदि मुस्लिम समुदाय अपने वैचारिक स्त्रोतों के एकमात्र सत्य या त्रुटिहीन होने की जिद छोड़ दे तो उसमें विवेकशील चिंतन स्वत: आरंभ हो जाएगा जब तक मुसलमान अपनी जिद ठाने रहेंगे, समस्या बनी रहेगी जो इस्लाम के अथवा मानवता के हित में नहीं होगा. मुस्लिम समाज में सुधारों की आवाज उठाने में मुस्लिम महिलाएं आगे हैं-? पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि से लेकर ईरान, सऊदी अरब, यूरोप, अमेरिका तक सुधारवादी मुसलमानों के बीच निर्भीक स्वर स्त्रियों का ही है. यह इस्लामी रीति-रिवाजों में पुनर्विचार की जरूरत पर बल देता है.  इसलिए अब तसलीमा नसरीन को अपवाद रूप में नहीं लिया जा सकता. उनकी तरह ही अय्यान हिरसी अली, वफा सुल्तान, फेहमिना दुर्रानी, इसरद मांझी, बसमा बिन सऊद आदि की आवाजें मुखर हो रही हैं. अब इन्हें अज्ञानी, इस्लाम विरोधी और अमेरिकी एजेंट कहकर झुठलाया नहीं जा सकता. बसमा तो स्वयं सऊदी राजपरिवार की हैं. आज नहीं तो कल मुस्लिम नेताओं, उलेमाओं और आलिमो को उन पर गंभीर विचार करना ही होगा। धमकी या हिंसा के बल पर या परम्पराओं के रखरखाव के लिए किसी को कब तक चुप किया जा सकता है? लेख राजीव चौधरी