Tuesday 27 December 2016

नांगेली और उसके आन्दोलन की एक दर्दनाक कहानी

केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने 19वीं सदी में दक्षिण भारत में अपने स्तनों को ढकने के हक के लिए लड़ाई लड़ने वाली नांगेली नाम की महिला की कहानी को पाठ्यक्रम से हटाने का फैसला किया है. 2006-2007 में जाति व्यवस्था और वस्त्र परिवर्तन नाम से इस सेक्शन में इस आंदोलन में जोड़ा गया था. उस आंदोलन के बारे में किताबों में बताए जाने पर कई संगठनों ने आपत्ति की थी. कई संगठनों का इस बारे में कहना था कि एक औरत का ब्रेस्ट को ढकने के लिए आंदोलन और उसके ब्रेस्ट को काट लिए जाने की कहानी शर्मनाक है और बच्चों को नहीं पढ़ाई जानी चाहिए. पर प्रश्न यह है कि आखिर क्यों न पढाई जाये जातीय व्यवस्था का यह कुरूप चेहरा? बल्कि इस कहानी के साथ बच्चों को वीर सावरकर की मोपला भी पढाई जानी चाहिए

आखिर क्या नांगेली और उसके आन्दोलन की कहानी जिसे पढ़कर समाज और सरकार आज शर्मसार हो रही है. पर प्रश्न यह है कि यदि यह शर्म 19 वीं सदी के धर्म के ठेकेदारों और शासकों को होती तो क्या हम धार्मिक रूप से इतने बड़े बदलाव केरल के अन्दर होते? नंगेली का नाम केरल के बाहर शायद किसी ने न सुना हो. किसी स्कूल के इतिहास की किताब में उनका जिक्र या कोई तस्वीर भी नहीं मिलेगी. लेकिन उनके साहस की मिसाल ऐसी है कि एक बार जानने पर कभी नहीं भूलेंगे, क्योंकि नंगेली ने स्तन ढकने के अधिकार के लिए अपने ही स्तन काट दिए थे. केरल के इतिहास के पन्नों में छिपी ये लगभग सौ से डेढ़ सौ साल पुरानी कहानी उस समय की है जब केरल के बड़े भाग में त्रावणकोर के राजा का शासन था. उस समय जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी थीं और निचली जातियों की महिलाओं को उनके स्तन न ढकने का आदेश था. उल्लंघन करने पर उन्हें ब्रेस्ट टैक्स यानी स्तन कर देना पड़ता था. नांगेली भी कथित निचली जाति में आने वाली महिला थीं. उन्होनें राजा के इस अमानवीय टैक्स का विरोध किया. नांगेली ने अपने स्तन ढकने के लिए टैक्स नहीं दिया मामला राजा तक पहुंचा तो सजा के तौर पर इस जुर्म के लिए वहां के राजा ने नांगेली के स्तन कटवा दिए. जिससे उसकी मौत हो गई. नांगेली का मौत ने दक्षिण भारत में एक सामाजिक आंदोलन की चिंगारी भड़का दी.

इस कुरूप परंपरा की चर्चा में खास तौर पर निचली जाति नादर की स्त्रियों का जिक्र होता है क्योंकि अपने वस्त्र पहनने के हक के लिए उन्होंने ही सबसे पहले विरोध जताया. नादर की ही एक उपजाति नादन पर ये बंदिशें उतनी नहीं थीं. उस समय न सिर्फ अवर्ण बल्कि नंबूदिरी ब्राहमण और क्षत्रिय नायर जैसी जातियों की औरतों पर भी शरीर का ऊपरी हिस्सा ढकने से रोकने के कई नियम थे. नंबूदिरी औरतों को घर के भीतर ऊपरी शरीर को खुला रखना पड़ता था. वे घर से बाहर निकलते समय ही अपना सीना ढक सकती थीं. लेकिन मंदिर में उन्हें ऊपरी वस्त्र खोलकर ही जाना होता था. नायर औरतों को ब्राह्मण पुरुषों के सामने अपना वक्ष खुला रखना होता था। सबसे बुरी स्थिति दलित औरतों की थी जिन्हें कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी. पहनने पर उन्हें सजा भी हो जाती थी.

इस अपमानजनक रिवाज के खिलाफ 19 वीं सदी के शुरू में आवाजें उठनी शुरू हुईं. 18 वीं सदी के अंत और 19 वीं सदी के शुरू में केरल से कई मजदूर, खासकर नादन जाति के लोग, चाय बागानों में काम करने के लिए श्रीलंका चले गए. बेहतर आर्थिक स्थिति, धर्म बदल कर ईसाई बन जाने और यूरपीय असर की वजह से इनमें जागरूकता ज्यादा थी और ये औरतें अपने शरीर को पूरा ढकने लगी थीं. धर्म-परिवर्तन करके ईसाई बन जाने वाली नादर महिलाओं ने भी इस प्रगतिशील कदम को अपनाया. इस समुदाय को जातीय व्यवस्था के कारण सम्मान तो दूर कपडे भी नहीं मिल रहे थे उस समय इस्लाम ने इन्हें बुर्का दिया ईसाइयत ने सम्मान जिस कारण केरल में बड़ा धार्मिक समीकरण उलट पुलट हुआ!

ब्रेस्ट टैक्स का मकसद जातिवाद के ढांचे को बनाए रखना था.ये एक तरह से एक औरत के निचली जाति से होने की कीमत थी. इस कर को बार-बार अदा कर पाना इन गरीब समुदायों के लिए मुमकिन नहीं था. केरल के हिंदुओं में जाति के ढांचे में नायर जाति को शूद्र माना जाता था जिनसे निचले स्तर पर एड़वा और फिर दलित समुदायों को रखा जाता था. उस दौर में दलित समुदाय के लोग ज्यादातर खेतिहर मजदूर थे और ये कर देना उनके बस के बाहर था. ऐसे में एड़वा और नायर समुदाय की औरतें ही इस कर को देने की थोड़ी क्षमता रखती थीं. जो भी इस नियम की अहेलना करती उसे सरे बाजार अपने ऊपरी वस्त्र उतारने को मजबूर किया जाता. अवर्ण औरतों को छूना न पड़े इसके लिए सवर्ण पुरुष लंबे डंडे के सिरे पर छुरी बांध लेते और किसी महिला को ब्लाउज या कंचुकी पहना देखते तो उसे दूर से ही छुरी से फाड़ देते. सवर्णों के अलावा राजा खुद भी परंपरा निभाने के पक्ष में था. क्यों न होता! आदेश था कि महल से मंदिर तक राजा की सवारी निकले तो रास्ते पर दोनों ओर नीची जातियों की अर्धनग्न कुंवारी महिलाएं फूल बरसाती हुई खड़ी रहें.
नांगेली का मौत के बाद सभी वंचित महिलाएं एक हो गईं और उनके विरोध की ताकत बढ़ गई. सभी जगह महिलाएं पूरे कपड़ों में बाहर निकलने लगीं. इसी वर्ष मद्रास के कमिश्नर ने त्रावणकोर के राजा को खबर भिजवाई कि महिलाओं को कपड़े न पहनने देने और राज्य में हिंसा और अशांति को न रोक पाने के कारण उसकी बदनामी हो रही है. अंग्रेजों के और नादर आदि अवर्ण जातियों के दबाव में आखिर त्रावणकोर के राजा को घोषणा करनी पड़ी कि सभी महिलाएं शरीर का ऊपरी हिस्सा वस्त्र से ढंक सकती हैं. 26 जुलाई 1859 को राजा के एक आदेश के जरिए महिलाओं के ऊपरी वस्त्र न पहनने के कानून को बदल दिया गया. कई स्तरों पर विरोध के बावजूद आखिर त्रावणकोर की महिलाओं ने अपने वक्ष ढकने जैसा बुनियादी हक छीन कर लिया.

अजीब लग सकता है, पर केरल जैसे प्रगतिशील माने जाने वाले राज्य में भी महिलाओं को अंगवस्त्र या ब्लाउज पहनने का हक पाने के लिए 50 साल से ज्यादा सघन संघर्ष करना पड़ा हो तो सोचो इस जाति पर कितने अत्याचार हुए होंगे हिन्दुओं को एक बार जरुर सोचना चाहिए कि आखिर गलती किसकी थी? उम्मीद करते है इस लेख को पढ़कर आप लोग वीर सावरकर की पुस्तक मोपला जरुर पढेंगे ताकि भारत की धार्मिक त्रासदी का सच्चा इतिहास जाना जा सके. आखिर क्या कारण रहे की कभी दुनिया में हमारा वैदिक परचम लहराता था जो आज सिर्फ भारतीय भू-भाग तक सिमट कर रह गया. गलती हमारी थी तो स्वीकारोक्ति भी हमारी होनी चाहिए या फिर सोचना चाहिए क्या हम फिर यही गलती अभी भी तो नहीं दोहरा रहे है?.....राजीव चौधरी 


महाराणा प्रताप भी पैदा होंगे?

अभी हाल ही में मीडिया के माध्यम से पता चला कि एक फिल्म अभिनेता ने अपनी संतान का नाम तेमूर रखा है. जिसे लेकर सोशल मीडिया में काफी शोर मचा है जबकि बच्चें के माता-पिता का तर्क है कि तैमूर का उर्दू में मतलब होता है लोहा, यानी लोहे की तरह मजबूत शख्स, बहादुर. अभी पिछले दिनों एक टीवी डिबेट में पाकिस्तानी मूल के लेखक विचारक तारेक फतेह ने कहा था. मुझे बड़ा अफसोस होता है कि भारतीय मुस्लिम आज भी अपने नाम अरबी भाषा में रखते है जबकि हिंदी भाषा में एक से एक सुन्दर नाम है. आखिर शम्स की जगह सूरज नाम रखने में क्या आपत्ति है? जबकि दोनों का शाब्दिक अर्थ एक ही है. हालाँकि यह तारेक फतेह का तर्क है लेकिन सवाल यह कि तैमूर नाम रखने पर इतना बड़ा बवाल क्यों? आखिर कौन था तैमूर? जबकि इसी इस्लाम और भाषा में दारा शिकोहअशफाक उल्ला खान से लेकर मिसाइल मैन ए पी जे अबुल कलाम तक बहुत ऐसे नाम है जो इस्लाम मे ही पैदा हुए है और जिनका नाम सुनते ही सर श्रद्धा से नमन करता है

इतिहास कहता है कि तैमूर के लिए लूट और क़त्लेआम मामूली बातें थीं. इसी कारण तैमूर हमारे लिए अपनी एक जीवनी छोड़ गया, जिससे पता चलता है कि उन तीन महीनों में क्या हुआ जब तैमूर भारत में था दिल्ली पर चढ़ाई करने से पहले तैमूर के पास कोई एक लाख हिंदू बंदी थे. उसने इन सभी को क़त्ल करने का आदेश दिया. तैमूर ने कहा ये लोग एक गलत धर्म को मानते है इसलिए उनके सारे घर जला डाले गए और जो भी पकड़ में आया उसे मार डाला गया. जिसने दिल्ली की सड़कों पर खून की नदियाँ बहा दी थी.सैकड़ों मंदिरों को अपने पैरों तले कुचल दिया था. हजारों नवयुवतियों का इस आक्रान्ता ने शील भंग किया. इतिहासकारों कहते है कि दिल्ली में वह 15 दिन रहा और उसने पूरे शहर को कसाईखाना बना दिया था. इसके बाद भी तैमूर नाम रखने के पीछे आखिर इस सिने अभिनेता और अभिनेत्री का उद्देश्य क्या है?

एक पल को मान लिया जाये नाम तो नाम ही होता है. उससे इन्सान महत्ता कम नहीं होती पर हमारे समाज में जब किसी बच्चे का नाम रखा जा रहा हो तो तमाम बातें ध्यान रखी जाती हैं. नाम ऐसा न हो कि उसे स्कूल या कॉलेज में चिढ़ाया जाए. हमारे यहां किसी को चिढ़ाना हो तो उसके नाम में से ही कुछ ऐसा निकाला जाता है ताकि वो चिढ़ जाए. शायद यही वजह है कि दुर्योधन, विभीषण, कंस और रावण जैसे नाम किसी के नहीं रखे गए. यदि किसी का नाम कंस हो तो पहली छवि उसके क्रूर होने की बनेगी. जबकि विभीषण लंका जीत में राम की सेना में मुख्य किरदार था. लेकिन फिर भी उसे देशद्रोही माना गया कि जो अपने सगे भाई का नहीं हुआ वो किसी का कैसे हो सकता है! ज्यादा दूर नहीं जाए तो प्राण नाम भी बहुत कम सुनने को मिलता है प्राण निहायत ही शरीफ इंसान थे, लेकिन परदे पर हमेशा बुराई के साथ खड़े रहते थे, इसलिए लोगों ने बच्चों के नाम प्राण नहीं रखे. प्राण की बेटी ने तो एक सर्वेक्षण ही कर डाला था कि फलां सन के बाद कितने लोगों ने बच्चों के नाम प्राण रखे हैं और नतीजा लगभग शून्य ही रहा.

भारत की सहिष्णु और धर्मनिपेक्षता का यही जीवित प्रमाण है कि यहाँ अकबर, बाबर और औरंगजेब जैसे नाम रखने पर कोई कुछ नहीं बोलता इसे सिर्फ एक धर्म का विषय माना जाता रहा है. वरना विश्व के किसी देश में ऐसी मिशाल नहीं मिलेगी शायद ही किसी कि हिम्मत हो कि इजराइल में कोई अपने बच्चें का नाम हिटलर रखे? जर्मनी में कोई अपने बच्चें का नाम स्टालिन रखे? अमेरिका में कोई ओसामा पैदा हो तो? वहां के लोग ही उस व्यक्ति का जीना मुश्किल कर देंगे. लेकिन भारत एकमात्र ऐसा देश है, जहाँ भारत को लूटने वाले और असंख्य भारतीयों को मौत के घाट उतारने वाले लोगों के नाम पर लोग अपने बच्चों का नामकरण करते हैं. आखिर किस आधार पर उन्हें अपना आदर्श मानते है? तैमूर और बाबर जैसे आक्रान्ताओं के नाम पर अपने बच्चे का नाम रखने वाले किस मानसिकता और विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते है?

एक सवाल यह भी है कि जब यह लड़का आगे समाज में जाएगा. स्कुल में जाएगा. जहाँ बच्चे को इतिहास ये बताया जाएगा की तैमूर लंग एक विदेशी आक्रमणकारी था जिसने लाखों हिन्दुओं का खून बहाया और मदिरों को तोडा तब क्या ये तैमूर सैफ अली खान खुद को स्वीकार पायेगा? शायद नहीं! क्योंकि कोई भी सभ्य समाज अपने बच्चे का नाम इन नकारात्मक छवि वालों लोगों के नाम पर नहीं रखता. कौरव 100 भाई थे. लेकिन कोई भी माँ बाप इन 100 नामों में से एक भी नाम अपने बच्चो का नहीं रखता. पर वहीँ पांचों पांडवों के नाम पर और दशरथ के चारो पुत्रों के नाम पर लोग अपने बच्चों के नाम रखते हैं. क्योंकी हम जानते है कौन सत्य के साथ खड़ा था और कौन असत्य के साथ.
त्रेतायुग युग मर्यादा पुरषोत्तम राम हुए आगे चलकर इस नाम पर भारत की करोड़ों जनता ने अपना नाम रखा. बच्चें का नाम राम नाम रखने का अर्थ था राम के पदचिन्हों पर चलना. हमारे यहाँ नामों की कोई कमी नहीं है वीर अब्दुल हमीद से लेकर वीर शिवाजी तक यहाँ एक से एक वीरों के नाम से इतिहास भरा पड़ा है. पर मुझे कोई बता रहा था कि जब मजहब विशेष मे कोई स्वामी दयानन्द, श्रद्धानन्द, मर्यादा पुरषोंत्तम राम, श्री कृष्ण भगत सिंह आदि पैदा हीं नहीं होते तो फिर कहाँ से ऐसे आदर्श नाम लाये? इनके यहाँ तो तैमूर, औरंगजेब, चंगेज खाँ, गजनी, गोरी, दाऊद, ओसामा आदि हीं जन्म लेते है, तो फिर इन्हीं हत्यारों मे से किसी एक नाम को चुनना इनकी मजबूरी है. बहरहाल नाम में क्या रखा है आज तैमूर पैदा हुआ कल जरुर किसी न किसी माता की कोख से महाराणा प्रताप भी जरुर पैदा होंगे...राजीव चौधरी 


वो हिन्दू है, अब वापिस नहीं आएगी

पाकिस्तान के सिंध की जीवती की उम्र बमुश्किल 14 साल की है लेकिन उसको अब अपने परिवार से दूर जाना है क्योंकि उसकी शादी कर दी गई है. जिस आदमी से उसकी शादी हुई है, उसने जीवती को अपने कर्ज के बदले खरीद लिया है. जीवती की मां अमेरी खासी कोहली वो बताती हैं कि उनके शौहर ने कर्ज लिया था जो बढ़ कर दोगुना हो गया और वो जानती है कि इसे चुकाना उनके बस की बात नहीं है. रकम ना चुका पाने पर अमेरी की बेटी को वो शख्स ले गया, जिससे उन्होंने उधार लिया था. अमेरी को पुलिस से भी इस मामले में कोई उम्मीद नहीं है. आमेरी कहती हैं कि सूदखोर अपने कर्जदार की सबसे खूबसूरत और कमसिन लड़की को चुन लेते हैं. ज्यादातर मामलों में वो लड़की को ईस्लाम में दाखिल करते हैं, फिर उससे शादी करते हैं और फिर कभी आपकी बेटी वापस नहीं आती. औरतों को यहां प्रोपर्टी की तरह ही देखा जाता है. उसे खरीदने वाला उसे बीवी बना सकता है, दूसरी बीवी बना सकता है, खेतों में काम करा सकता है, यहां तक कि वो उसे जिस्मफरोशी के धंधें में भी धकेल सकता है क्योंकि उसने उसकी कीमत चुकाई है और वो उसका मालिक बन गया है. लड़की को ले जाना वाला, उससे कुछ भी करा सकता है लड़की हिन्दू है तो अब वापिस नहीं आएगी.

अमेरी और उनकी बेटी जीवती की ये स्टोरी टाइम्स ऑफ इंडिया ने की है लेकिन पाकिस्तान में इस तरह की ये कोई अकेली घटना नहीं है. ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2016 की रिपोर्ट कहती है कि 20 लाख से ज्यादा पाकिस्तानी हिन्दू गुलामों की जिंदगी बसर कर रहे हैं, शायद इन आंकड़ों से उन छद्म पंथनिरपेक्षतावादियों का चेहरा बेनकाब हो जायेगा जो भारत में मानवतावादी बनने का ढोंग करते है. आज पाकिस्तान के झंडे पर अर्धचंद्र और सितारे हैं और सफेद बॉर्डर पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करता है. लेकिन यह वास्तव में दुखद और शर्मनाक है कि छह दशकों के बाद भी पाकिस्तान में हिंदुओं पर जो अत्याचार हो रहे है अब वो अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय बन गया है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, पाकिस्तान में हर साल 1000 हिंदू और ईसाई लड़कियों (ज्यादातर नाबालिग) को मुसलमान बनाकर शादी कर ली जाती है. धन बाई पाकिस्तान के उन सैंकड़ों हिंदू माताओं में से हैं जिन की बेटियों को मुसलमान बनाकर उनकी जबरन शादी कर दी गयी है.52 वर्षीय धन बाई जो कराची के लयारी इलाके में एक कमरे के फ्लैट में अपनी दो बेटियों और पति के साथ रहती हैं. तीन साल पहले धन बाई की 21 वर्षीय बेटी बानो घर से अचानक गायब हो गई थी और फिर परिवार को पता चला कि वह मुसलमान बन चुकी है और उसकी शादी हो गई है.बानो हर रोज गरीबों की मदद करने जाती थी, क्या पता कि वह कभी वापस भी नहीं आएगी. कराची हिंदू पंचायत के मुताबिक़ हर महीने 20 से 22 ऐसे मामले सामने आते हैं जिसमें लड़कियों को मुसलमान बनाया जाता है और फिर उनकी जबरन शादी की जाती है. धन बाई पिछले तीन सालों से अपनी बेटी की राह देख रही हैं और अदालतों के चक्कर काट रही हैं लेकिन तीन सालों के भीतर वह अपनी बेटी बानो को एक बार भी नहीं देख सकी हैं.

दक्षिण पाकिस्तान में इस तरह के मामले बहुत सामने आते हैं. मानवाधिकार संगठनों और पुलिस की कोशिशों से अगर कोई लड़की मिल भी जाती है और उसे वापस मां-बाप को देने की बात होती है तो ज्यादातर मौकों पर लड़की अपनी मर्जी से शौहर के साथ जाना कुबूल कर लेती है. ऐसा अमूमन इसलिए भी होता है क्योंकि वो नहीं चाहती कि बाद में उनकी वजह से उनके मां-बाप को किसी परेशानी या जुल्म का सामना करना पड़े. हिंदू अधिकार कार्यकर्ता शंकर मेघवर के मुताबिक दस वर्षीय जीवनी बघरी को 12 फरवरी 2014 को घोटकी से अगवा कर लिया गया था.13 महीने बाद उसे 11 मार्च 2015 को स्थानीय सत्र अदालत के न्यायाधीश ने वापस अपहर्ताओं को सौंप दिया. अदालत ने कहा कि अब वह इस्लाम कबूल कर चुकी है ऐसे में वह अपने माता-पिता के साथ नहीं जाना चाहती. पिछले वर्ष 14 दिसंबर को एक अन्य मामले में चार हथियारबंद लोग भील समुदाय के एक घर में घुसे थे और 13 वर्षीय सिंधी लड़की जागो भील का अपहरण कर लिया था. मेघवर कहते हैं पाकिस्तान का कानून 18 साल से कम आयु की लड़की की शादी को अपराध मानता है. लेकिन हिंदू लड़कियों के मामले में अदालत खामोश रहती हैं क्यों? न्याय के लिए कहां जाएं? किससे गुहार लगाएं?

पाकिस्तान में इस तरह के मामलों के लिए लड़ने वाले एक संगठन से जुड़े गुलाम हैदर कहते हैं कि वो खूबसूरत लड़कियों को चुनते हैं. धर्म से जुड़े इन मामलों में ना मीडिया के कैमरे पहुंचते ना पुलिस स्टेशन में इनकी कोई सुनवाई होती है इन मामलों में अधिकांश इस्लामी धार्मिक गुटों के लोग लिप्त हैं और इस्लामी मदरसों के छात्र भी ऐसा कर रहे हैं. शहर के बड़े मदरसे मुसलमान होने का प्रमाण पत्र जारी कर देते हैं.”दुर्दशा के शिकार पाकिस्तानी हिन्दू भारत को अपनी आखिरी आस मानते हैं. पाकिस्तान के हर छात्र को स्कूल में कुरान पढना जरूरी है. इसकी अवमानना ईशनिंदा की परिधि में आती है. यदा-कदा इस कानून की आड़ में कट्टरपंथी निर्दोष हिन्दुओं और अन्य गैर इस्लामियों के साथ अत्याचार करते हैं. पिछले दिनों बीबीसी में प्रकाशित एक रिपोर्ट से साफ हो गया था कि जबरन शादी ही नहीं बल्कि हिंदुओं को नौकरी भी नहीं दी जाती, अल्पसंख्यकों को पाकिस्तान में जीवन बसर करने के लिए हर रोज तरह-तरह की परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है, ऐसी परेशानियां जिनके बारे में भारत के नागरिक तो कल्पना भी नहीं कर सकते.


संध्या के पिता बिशन दास ने संध्या को एक कान्वेंट स्कूल में पढ़ाया और उसके बाद उच्च शिक्षा के लिए यूनिवर्सिटी भी भेजा. संध्या ने भी अपने पिता के सपनों को टूटने नहीं दिया और खूब मन लगाकर पढ़ाई की. संध्या यूनिवर्सिटी से (एम.एस.सी) की डिग्री तो हासिल करने में सफल रही लेकिन नौकरी नहीं क्योंकि वो हिन्दू थी उसे बताया गया जब तक वो इस्लाम स्वीकार नहीं करेगी तब तक नौकरी नहीं मिलेगी. कराची हिंदू पंचायत के अध्यक्ष अमरनाथ कहते है कि सबसे बड़ी समस्या यह है कि जब यह मामला सामने आता है तो सब लोग ख़ुश हो जाते हैं, पड़ोसी है तो वह भी ख़ुश हो जाता है कि एक और मुसलमान हो गया. यहाँ हिंदू समुदाय को घरों से निकालना और उन्हें मुसलमान करना एक योजना के तहत हो रहा है. इसमें सबसे दुखद  ये है की हमारे देश के तथाकथित मानवाधिकार कार्यकर्ता जो किसी भी बात पर चौराहों पर लेट जाते हैं, इन हिन्दुओं  का दर्द उन्हें नहीं दिखता, क्या वो मानव नहीं हैं? क्या उनका कोई मानवाधिकार नहीं है? क्या हिन्दुओं के हित में बोलना साम्प्रदायिकता है? हिन्दू भी तो एक इंसान है, मानव है तो सबसे ऊपर उठकर उसके अधिकारों की रक्षा भी तो होनी चाहिए. परन्तु भारत में मानवाधिकार संगठन हो या कोई भी वो सिर्फ उसी बात पर आवाज उठाते हैं जिससे उनका निजी स्वार्थ हो. हो सकता है इस लेख के बाद कुछ लोग मुझे  भी सांप्रदायिक समझेंगे, परन्तु बहुत विनम्रता के साथ यह बताना चाहते कि हम मानववादी है और जहाँ कहीं भी प्राणी मात्र के साथ अन्याय होता है उसके खिलाफ बोलना अपना फर्ज समझते है यदि ऐसा करना किसी की नजर में सांप्रदायिकता है तो हमें गर्व है कि हम सांप्रदायिक हैं... राजीव चौधरी 

Monday 19 December 2016

बंगाल! जारी है हिंसा और पलायन

हैदराबाद, दादरी और जेएनयू की तरफ दौड़ने वाले बुद्दिजीवी पत्रकार पिछले कई दिनों से बंगाल के धुलागढ़ का रास्ता पूछ रहे हैं। खबर है कि कोलकाता से मात्र 28 किलोमीटर दूर हावड़ा जिले के धुलागढ़ इलाके के बानिजुपोल गाँव में पिछले मंगलवार को मिलाद-उल-नबी के जुलूस के दौरान जुलूस में शामिल लोगों ने घरों में बम फेंके, तोड़फोड़ की लूटपाट कर लोगों के घरों से नकदी और कीमती सामान चुराकर ले गये। जिस कारण हिन्दुओं का एक बड़ा वर्ग वहां से पलायन कर रहा है। फिलहाल प्रशासन मौन है और वहां की मुख्यमंत्री नोटबंदी में उलझी हैं। अवार्ड लौटने वाले पत्रकार, साहित्कार, लेखक साइबेरियन पक्षियों की तरह वापस अपने घर लौट चुके हैं। एक अखलाक पर  यू.एन.ओ को चिट्ठी लिखने वाले उत्तर प्रदेश के बड़े नेता की इस मामले में शायद कलम की स्याही सूख चुकी है। इस मामले में न तो पिछले हफ्ते से मीडिया की वो मेज सजी दिखी जिन पर बैठकर लोग सहिष्णुता पर लम्बे-लम्बे वक्तव्य दे रहे होते हैं। दादरी जाकर मोटी रकम के चेक थमाने वाले नेता शायद बंगाल के धुलागढ़ का रास्ता भूल गये हों!


साम्प्रदायिक हिंसा के बीच आज धुलागढ़ अकेला है। उजड़े हुए घर और बर्बादी का मंजर है। जिसे लोग वहां आसानी से देख सकते हैं। गाँव में पसरा सन्नाटा इस बात का गवाह है कि हिंसा का मंजर कितना खौफनाक रहा होगा। असहिष्णुता के वो ठेकेदार जो पिछले दिनों जे.एन.यू. से एक नजीबके गायब होने पर मीडिया की मेज पर कब्जा जमाये बैठे थे आज सैकड़ों निर्दोष गाँववासियों के पलायन पर मौन क्यों? ममता के राज में सोनार बांग्ला बर्बाद बांग्लाबन गया है। बंगाल में आज वो हो रहा है जो शायद कभी मुस्लिम आक्रांताओं के समय में भी नहीं हुआ होगा! पिछले दिनों ममता सरकार द्वारा दुर्गा पूजा पर अभूतपूर्व प्रतिबन्ध लगाये गए थे। उच्च न्यायलय के हस्तक्षेप के कारण हिन्दू समाज ने चौन की सांस ली थी। परन्तु, मुस्लिम पर्सनल बोर्ड द्वारा भड़काए गए जेहादियों ने मुस्लिम बाहुल क्षेत्रों में हिंसा का अभूतपूर्व तांडव किया। बंगाल के पचासियों स्थानों पर हिन्दुओं पर अभूतपूर्व अत्याचार किये थे। मालदा जिले के कालिग्राम, खराबा, रिशिपारा, चांचलय मुर्शिदाबाद के तालतली, घोसपारा, जालंगी, हुगली के उर्दि पारा, चंदन नगर, तेलानिपारा, 24 परगना के हाजीनगर, नैहाटीय पश्चिम मिदनापुर गोलाबाजार, खरकपुर, पूर्व मिदनापुर के कालाबेरिया, भगवानपुर, बर्दवान के हथखोला, हावड़ा के सकरैल, अन्दुलन, आरगोरी, मानिकपुर, वीरभूम के कान्करताला तथा नादिया के हाजीनगर आदि पचास से ज्यादा स्थानों पर हिन्दुओं पर अमानवीय अत्याचार किए गए थे। इसी कड़ी में अब धूलागढ़ का नाम भी जुड़ गया है।

राज्य सरकार को स्मरण होगा कि कोलकाता के एक मौलवी ने मांगे पूरी न होने पर उन्हें कैसे धमकाया गया था। थोड़े दिन पहले ही कालिग्राम और चांचल में हिंसा को रोकने वाले पुलिस वालों और जिलाधीश को किस प्रकार पीटा गया और पुलिस स्टेशन को लूट लिया गया था,  शायद यह इनकी मानसिकता का जीता जगाता उदहारण है। जेहादियों पर कार्यवाही करने में अक्षम सरकार पीड़ित हिन्दुओं पर ही झूठे मामले दर्ज कर खानापूर्ति कर रही है। हाल के दिनों में पश्चिम बंगाल से सटे बांग्लादेश से एक रिपोर्ट के अनुसार खबरें आ रही थीं कि जेहादी मानसिकता से ग्रस्त लोगों के द्वारा की जा रही हिंसा से रोजाना 632 हिन्दू बांग्लादेश छोड़ रहे हैं। जोकि भारत में अपने लिए सुरक्षित स्थान खोज रहे हैं। अब सवाल यह है कि यदि वो बांग्लादेश छोड़कर भारत में बसते हैं तो उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी कौन लेगा? क्योंकि राजनीति के तुष्टीकरण के कारण भारत में ही भारतीय हिन्दुओं के हितों पर ही तलवार सी लटकती दिखाई दे रही है।



कश्मीर से पंडित निकाले गये! राजनीति मौन रही। केरल में साम्प्रदायिकता का सरेआम तांडव हुआ! सब खामोश रहे। कैराना पर राजनितिक दलों ने वहां के हिन्दुओं के पलायन को राजनीति से प्रेरित बताकर अपना वोट बैंक साधा! सब चुप रहे। लेकिन कब तक? एक-एक कर क्षेत्र पर क्षेत्र खाली हो रहे हैं यह तुष्टीकरण की राजनीति है या झूठी धर्मनिरपेक्षता का शोर कब तक सन्नाटे से निकलती सिसकियों को दबाएगा। क्या अब राजनेताओं और धर्मनिरपेक्ष दलों को नहीं समझ जाना चाहिए कि इन जेहादियों को अपनी मनमानी करने के लिए एक सुरक्षित क्षेत्र की तलाश है? दुनिया के किसी भी हिस्से में इनका लोकतंत्र में विश्वास नहीं है और ना ही संविधान के धर्मनिपेक्षता के ढ़ांचे का ख्याल। ये लोग सिर्फ एक पुरातन परम्परा जो इनकी नहीं बल्कि इन पर जबरन लाधी गयी है उसका बचाव हिंसक तरीके से कर रहे हैं। 

हमेशा सच्चे लेखन पर लेखक का धर्म तलाशा जाता है लेकिन यहाँ तो तुफैल अहमद जैसे निर्भीक विचार रखने वाले मुस्लिम विद्वान खुद लिख रहे हैं कि इस्लाम के मानने वाले एक बड़े वर्ग को मजहब नहीं अपने लिए एक क्षेत्र की तलाश है। तुफैल लिखते हैं कि जब मक्का में गैर मुस्लिमों ने प्रोफेट मोहम्मद से कहा कि आप और हम मक्का में साथ-साथ रह सकते हैं, किन्तु मोहम्मद ने कहा यह नहीं हो सकता, आपका धर्म अलग है, रहन-सहन अलग है, हम साथ नहीं रह सकते और यहीं से द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का जन्म हुआ। वहां अब कोई जूं नहीं बचे, न कोई यहूदी बचे। ईरान में पारसी नहीं बचे, अफगानिस्तान में, बलूचिस्तान में, पाकिस्तान में कहीं हिन्दू नहीं बचे। लाहौर सिक्ख महानगर था, अब नहीं है। वही क्रम आज भी जारी है। कश्मीर में, कैराना में, केरल में, प.बंगाल में क्या हो रहा है? मेरे पास केवल सवाल हैं, जबाब नहीं।...... लेख राजीव चौधरी  चित्र साभार गूगल

Wednesday 14 December 2016

पहरेदारों की पहरेदारी कौन करेगा?

आज देश विमुद्रीकरण के दौर से गुजर रहा है. 8 नवम्बर को प्रधानमंत्री जी के आहवान के बाद पूरा राष्ट्र इस राष्ट्र निर्माण यज्ञ में भ्रष्टाचार रुपी रोग को खत्म करने के लिए कतार में खड़ा हो गया किन्तु विडम्बना देखिये नोट बदली यानि विमुद्रीकरण काला धन खत्म करने के लिए था, परन्तु इस नोट बदली में ही करप्शन हो गया! इसका मतलब जब दवा बीमार है तो मरीज कैसे ठीक होगा? या कहो इन पहरेदारों की पहरेदारी कौन करेगा? कोई भी राष्ट्राध्यक्ष नीति नियंता होता है. वो राष्ट्र को आगे ले जाने के लिए नीतियाँ बनाता है उसको लागू करने का अधिकार क्षेत्र अधिकारीयों को प्रदान किया जाता है. ताकि वो नीतियाँ जन जन तक पहुँच सके उसका लाभ सबको मिल सके. किन्तु जिस तरीके से बेंक कर्मियों ने नोटबंदी में अपनी भूमिका निभाई उसे देखकर गरीब आदमी जरुर कहीं ना कहीं खिन्न दिखाई दे रहा है.

ताजा प्रसंग के संदर्भ में यदि बात करें तो हाल के एक महीने ने यह साबित कर दिया कि यदि किसी देश का शाशक ईमानदार हो तो भी वहां भ्रष्टाचार हो सकता है. अभी चलन से बाहर किए गए नोटों को अवैध रूप से बदलने में शामिल रैकेट का पर्दाफाश करते हुए ईडी ने धनशोधन मामले में जांच के तहत सरकारी अधिकारी समेत सात कथित बिचैलियों को गिरफ्तार किया है और कर्नाटक में 93 लाख रुपए के नए नोट बरामद किए हैं. गौरतलब है कि नोटबंदी की घोषणा के बाद जहां कई जगहों से 500 और 1000 के बंद किए जा चुके नोट बरामद हुए हैं तो कुछ जगहों से नए 2000 रुपये के नोटों में बड़ी धनराशि पकड़ी गई है. आयकर विभाग ने छापा मारकर विभिन्न  स्थोनों से 106 करोड़ रुपये की नकदी और 127 किलो सोना पकड़ा. इसमें से 10 करोड़ रुपये की नई नकदी शामिल थी. पिछले हफ्ते नई दिल्ली के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से कुछ लोगों को 27 लाख के 2000 रुपये के नए नोटों के साथ गिरफ्तार किया गया था. वहीँ गुजरात में करीब पौने तीन लाख के 2000 रुपये के नए नोटों में घूस लेते दो अधकारियों को गिरफ्तार किया गया था. यदि पुरे महीने का मोटा सा भी रिकोर्ड देखे तो 8 दिसम्बर चेन्ननई 10 करोड़, 07 दिसम्बर गोवा 1.5 करोड़, 29  नवंबर कोयंबटूर 1 करोड़, 09 दिसम्बर सूरत 76 लाख, 07 दिसम्बर उडुपी 71 लाख 09 दिसम्बर मुंबई 72 लाख होशंगाबाद 40 लाख 08 दिसम्बर गुड़गांव 27 लाख रूपये पकडे गये. इसमें कोई संदेह या प्रश्न नहीं है कि ये मोटी रकम बिना बैंक अधिकारीयों की मिली भगत के बदली गयी हो. अब सवाल यह है प्रधानमंत्री जी की इस काले धन पर की गयी पहल पर भ्रष्ट अधिकारीयों ने जो खेल भ्रष्टाचार का दिखाया उसकी जाँच कौन करेगा या अब कहो इन पहरेदारों की पहरेदारी कौन करेगा?

जब रोम साम्राज्य अपने वैभव की बुलंदियाँ छू रहा था, तब उसकी सरकार उस जमाने की सबसे बड़ी ताकत थी. रोम के कानून इतने बढ़िया थे कि आज भी कई देशों के कानून उसी से लिए गए हैं. रोम की इस कामयाबी के बावजूद,जो रोम उस समय बड़ी-बड़ी ताकतों से नहीं हार पाया वह रोम अन्दर की एक बीमारी से हार गया. वह था भ्रष्टाचार. आखिर में इसी दुश्मन के हाथों रोम बरबाद हो गया. भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग, दरअसल उसूलों की लड़ाई है. इसलिए यह जंग जीतने के लिए सिर्फ भ्रष्टाचार विरोधी कानून बनाना या बन्दुक या किसी सजा का डर दिखाना काफी नहीं है. किसी की हत्या करने पर मृत्यु दंड तक का कानूनी प्रावधान है लेकिन हत्या फिर भी होती है इसका मतलब अपराधी लोग सजा से नहीं डरते किन्तु मानवीय द्रष्टिकोण रखने वाले लोग एक चींटी को भी नहीं मारते जबकि वो कोई कानूनी अपराध नहीं है भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ने के लिए एक और कदम उठाना जरूरी है, जो इतना आसान नहीं है. वह है लोगों के दिलों में बदलाव लाना. देश-देश के लोगों को अपने मन में घूसखोरी और भ्रष्टाचार के लिए नफरत पैदा करनी चाहिए, तभी यह काली कमाई खत्म होगी. 50 दिन में अभी कुछ दिन शेष बचे है. विपक्ष सरकार पर हावी है क्योंकि उसे पिछले 2 ढाई साल में सरकार की टांग खीचने के लिए पहली बार राजनैतिक स्तर का मुद्दा मिला है वरना अभी तक तो वह अपना काम कुत्ता, पिल्ला, असहिष्णुता, सूट बूट आदि जैसे मुद्दे उठाकर अपने वोट बेंक को बचाता दिख रहा था लेकिन इस बार उसे 50 दिन का इंतजार है और उसे उम्मीद है कि बार भाजपा के वोट बैंक में भी सेंध लग सकती है. हाँ जिस तरीके से विमुद्रीकरण नीति में खेल किया उससे उनका दावा मजबूत होता दिखाई दे रहा है. सरकार को अब जल्द बड़े और कड़े कदम उठाने होंगे वरना गरीब आदमी का सरकार से वो विश्वास जरुर डोल जायेगा. जिसके सहारे वो लाईन में खड़ा अपनी बारी का इंतजार कर रहा है....राजीव चौधरी      

Friday 9 December 2016

प्रेम के नाम पर धार्मिक जाल

ये लेख लिखने से पहले मैंने अपने मन के अन्दर उठ रहे कुछ प्रश्नों उत्तर जानना चाहा. कहीं में प्रेम का विरोधी तो नहीं? कहीं में किसी धार्मिक पूर्वाग्रह का शिकार तो नहीं? या यह कि आखिर प्रेम के नाम पर ये भावनात्मक और सामाजिक छल कब तक चलेगा, प्रेम में लड़का अपना धर्म क्यों नहीं बदलता? इसके बाद मैंने इन प्रश्नों को धार्मिक, सामाजिक और मानवीय नजरिये से देखा तो तीनों के अलग-अलग उत्तर खड़े दिखाई दिए. बरहाल यहाँ प्रसंग प्रेम का है तो हालाँकि मुझे किसी की निजता में दखलंदाजी में हस्तक्षेप का अधिकार नहीं है. खबर है कि यूपीएससी सिविल सर्विसेज 2015 की टॉपर टीना डाबी ने अतहर आमिल-उल खान के शादी करने का फैसला किया है. लेकिन इस जोड़े की शादी से हिंदू महासभा नाम का संगठन खुश नहीं. संस्था ने इसे लव जिहादका मामला बताते हुए डाबी के पिता को पत्र लिखा है. लेकिन जबाब में टीना ने लिखा है, ”खुले विचारों वाली किसी भी स्वतंत्र महिला की तरह मुझे भी कुछ चुनने का हक है. मैं अपनी च्‍वॉइस से बेहद खुश हूं और आमिर भी. हमारे माता-पिता भी खुश हैं. चलो अच्छी बात है दोनों पढ़े लिखे है टीना के लिए अपना धर्म भले ही आज मायने न रखता हो लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि अतहर के लिए उसका इस्लाम मायने रखता है टीना अतहर के लिए मुस्लिम बन सकती है पर क्या अतहर टीना के लिए हिन्दू बनेगा? शायद नहीं आज वो भले ही कहता हो धर्म कोई मायने नहीं रखता लेकिन क्या वो टीना के लिए अपना धर्म छोड़ देगा? शायद नहीं और जब इनके बच्चें पैदा होंगे तो उनके नाम भारतीय नहीं बल्कि बाप की तरह ही अरबी भाषा में ही सुनाई देंगे.

वैसे तो कामकाजी और उच्च वर्ग में शादी के कोई मायने नहीं होते. आज एक कलाकार किसी से शादी करता है तो उस शादी का कल तक का भी भरोषा नहीं होता कभी संगीता बिजलानी ने भी टीना डाबी की तरह ही अजहरुद्दीन से अपने प्यार को बहुत ईमानदारी से निभाया. जबकि उन्हें पहले से जानकारी थी की अजहरुद्दीन शादीशुदा और दो बच्चों का बाप है इन सबके बावजूद उस शादी की नतीजा संगीता का योवन ढलान की ओर चला तो रिश्ता तलाक की ओर. सैफ अली खान को भी कभी अतहर की तरह अमृता की मुस्कान बहुत पसंद थी दोनों के दो बच्चें हुए जब तक अमृता जवान रही रिश्ता रहा उसके बाद सैफ का मन करीना कपूर पर आ गया अमृता को तलाक दे दिया आज लड़की सारा और बेटा अब्राहम का बाप सैफ अली है और माँ अमृता का जीवन अंधकार में क्योंकि आज वो जवान नहीं है. रीना दत्ता ने भी कभी इन्ही सपनों के साथ आमिर खान का हाथ थामा था उसे भी लगा था धर्म और संस्कार सब खोखली बातें है शादी हुई रीना दत्ता का यौवन जहाँ जरा सा ढला आमिर ने तलाक देकर अपने से 8 साल छोटी किरण राव से शादी कर ली कुछ समय पहले गौरी से शादी करने के बाद शाहरुख खान ने कहा था मैंने शादीशदुा और एंगेज्ड महिलाओं से प्यार करने को अपनी कला और पेशा बना लिया है. मैं उनका पीछा करता हूं. वो कहीं भी हों मैं उन्हें हासिल कर ही लेता हूं.

पायल नाथ ने भी यही सोचकर उमर अब्दुल्ला से शादी की थी उस समय पायल को कोई पछतावा नहीं हुआ था. वो इस नए बदलाव के लिए तैयार थी और जल्द ही अपना नया घर बसाने में व्यस्त हो गयी समय ने भी उड़ान भरी उमर अब्दुल्ला ने पायल नाथ से, बच्चे भी पैदा किये और तलाक दे दिया. वह आज रहने के लिए दर-दर भटक रही है. दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की बेटी लतिका ने 1996 में सैयद मोहम्मद इमरान से शादी की थी. नतीजा इमरान ने लतिका पर जुल्म ढाने शुरू कर दिए और यहां तक जान तक लेने की कोशिश की जैसा की कोर्ट में आरोप है. असम की कांग्रेस विधायक रूमी नाथ ने जुलाई 2012 में अपने पहले पति डॉ. राकेश कुमार सिंह को तलाक देकर समाज कल्याण विभाग में लोअर डिविजन असिस्टेंट के पद पर तैनात जाकिर से शादी कर ली. आज रूमी के शरीर पर कई जगहों पर चोट और जले के निशान हैं. रूमी का आरोप है कि पैसों की जरूरत पूरी नहीं कर पाने की वजह से जाकिर उन्हें अक्सर पीटता रहता था. पिछले दिनों ही नेशनल शूटर तारा सहदेव के आंसू सबने मीडिया के सामने देखे थे वो किस तरह अपने पति रकीबुल हसन खान की प्रताड़ना के किस्से सुना रही थी. जिसने उसे रंजीत कोहली बनकर शादी की और मुस्लिम बना दिया और अंत में तलाक हुआ


बेशक प्रेम के शुरुवाती दिनों में एक गैर मुस्लिम लड़की के लिए नमाज पढ़ना कबूल हो, बुर्का कबूल हो, ईद रमजान कबूल हो पर अपनी बेटी की शादी उसकी बुआ के लड़के से कबूल नहीं कर पाए और फिर इस स्वतन्त्रता के जीवन में एक बात जरुर याद आये खून का रंग सबका एक होता है पर सोच और संस्कार अलग होते है.
दरअसल टीना कोई परिवर्तन के नए युग की शुरुआत नहीं कर रही है. वो बस इस सब का हिस्सा बनने जा रही है. जिसमे इससे पहले बहुतों ने यह परिवर्तन और अपनी स्वतंत्रता में जी कर देख लिया हाल ही में सुना है कि अरबाज खान मलाइका अरोड़ा का 14 साल के बाद तलाक हो गया. लेकिन यह तलाक एक सवाल लेकर खड़ा हो गया कि इन दोनों का बेटा है 14 साल का एक बेटा है अरहान खान उसका मजहब क्या रहेगा? इतिहास गवाह है हर एक प्रेम की शुरुवात चिडिया की चहक की तरह स्वतंत्रा से होती है. लेकिन कई बार अंत गुमनाम और खामोशी के साथ होता है. टीना डाबी आज एक अधिकारी है वो शादी में स्वतंत्रता आदि की बात कर सकती उसके लिए आज परम्पराएँ और धर्म जैसी जीवन शैली कोई मायने नहीं रखती कल अतहर 3 या चार बच्चें पैदा कर उसे तलाक भी दे दे तो भी वो परवरिश कर सकती है अपना जीवन गुजार सकती है लेकिन जब यही काम एक बेरोजगार निम्न या मध्यम वर्ग की लड़की यही चाहत यही सपने लेकर करती है और बाद में उसे तलाक मिलता है तो वो क्या करें? दर-दर ठोकरे या शायद उसके या तो भीख या वेश्यावृति दो ही रास्ते बचते है...राजीव चौधरी 

Tuesday 6 December 2016

शादियों में मातम का जिम्मेदार कौन?

पंजाब के बठिंडा जिले में शनिवार शाम को एक शादी समारोह के दौरान एक व्यक्ति द्वारा की गई फायरिंग में 25 साल की गर्भवती डांसर की मौत हो गई. मृतक डांसर कुलविंदर कौर के पति के मुताबिक आरोपी बिल्ला ने इसलिए उसे गोली मार दी, क्योंकि उसने स्टेज से उतरकर उन लोगों के साथ डांस करने से इनकार कर दिया था. दूसरा अभी कई रोज पहले अखिल भारतीय हिंदू महासभा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष साध्वी देवा ठाकुर के खिलाफ करनाल के सिटी थाने में हत्या के आरोप में केस दर्ज हुआ है. दरअसल वह एक मंगनी के प्रोग्राम में आशीर्वाद देने पहुंची थी, वहां पहुंचकर बंदूकों साथ नजर आने वाली 26 साल की साध्वी देवा ठाकुर व उसके समर्थको द्वारा चलाई जा रही गोलियों से शादी में आई एक महिला की मौत हो गयी. ऐसा नहीं है यह सिर्फ दो घटना है बल्कि इस तरह की खबरें आये दिन अखबारों की सुर्खियाँ में होती है. जिन्हें हम पढ़कर रख देते है और कोई सबक नहीं लेते.

इसी साल सोनीपत के पलडी गांव में शादी समारोह में चली गोली से से दुल्हे के जीजा की मौत हो गई थी. कुछ समय पहले नोएडा में भी एक दर्दनाक घटना सामने आई थी जिसमें शादी में चली गोली में दूल्हे की ही मौत हो गई थी तो हरियाणा के कैथल में विवाह समारोह में डीजे बजाने को लेकर युवकों ने दुल्हन के परिजनों पर फायरिंग कर दी. इससे दुल्हन की मां की मौत हो गई थी, जबकि फुफेरे भाई सहित एक अन्य गंभीर रूप से घायल हो गया था. इसी वर्ष उत्तर प्रदेश में सीतापुर जिले में एक बारात में हर्षोल्लास के दौरान चलायी गयी गोली लगने से दूल्हे की ही मौत हो गयी. विवाह-शादी में इस प्रकार से गोली चलाना और बरातियों के लगने का यह कोई पहला मामला नहीं है. अकसर इस प्रकार के हादसे होते रहते है, जिसकी मुख्य वजह शराब का परोसना है लेकिन इसके बाद भी न तो आमजन इस प्रकार की हरकतों से बाज आ रहा है और न ही पुलिस प्रशासन और कानून कोई ठोस कार्रवाई करता नजर आ रहा है. क्या शादी ब्याह के माहौल में शराब पीना इतना ही जरुरी हो जाता है कि किसी की अनमोल जान ले ले?

शादी एक सामाजिक समारोह है, जो हर परिवार को एक न एक दिन आयोजित करना है  इसके बाद हमारे समाज में एक रीत है कि नवजात बच्चें के आगमन जन्म से लेकर किसी बुजर्ग की मौत तक सब कुछ आलिशान होना चाहिए. कहीं भी लोग ये न कहदे कि कोई कमी रह गयी.यदि बात विवाह की आये तो लोग सिर पर कर्जा कर ऐसे वाहियात खर्चे करने से भी नहीं चुकते शादी तो बस ऐसी हो कि न कभी किसी की हुई और न होगी. लोग हमेशा उसे याद रखें. खाना बढ़िया हो, सजावट अच्छी हो, नाच ऐसा हो कि लोग बरसो इस बात का जिक्र करे. हालाँकि यह तो स्वाभाविक मानवीय इच्छा है. लेकिन यह इच्छा अक्सर बेकाबू हो जाती है. लोग अपनी चादर के बाहर पाँव पसारने लगते हैं. यदि शादी में शराब और कान फोडू डीजे न हो तो लोग उसे तेहरवी बताने लगे है. नवजात शिशु के स्वागत में लोग इतना बड़ा समारोह आयोजित कर देते हैं कि वह बच्चा जन्मजात कर्जदार बन जाता है. शादियों में लोग इतना खर्च कर देते हैं कि आगे जाकर उनका गृहस्थ जीवन चौपट हो जाता है. मृत्यु-भोज का कर्ज चुकाने में जिंदा लोगों को तिल-तिलकर मरना होता है. यह बीमारी आजकल पहले से कई गुना बढ़ गई है. हर आदमी अपनी तुलना अपने से ज्यादा मालदार लोगों से करने लगता है. दूसरों की देखा-देखी लोग अंधाधुंध खर्च करते हैं. इस खर्च को पूरा करने के लिए सीधे-सादे लोग या तो कर्ज कर लेते हैं या अपनी जमीन-जायदाद बेच देते हैं और बेईमान लोग घनघोर भ्रष्टाचार में डूब जाते हैं. एक समय में शादी बहुत निजी मामला था मगर अब वह कम्पनियों के हाथों में आ गया है. हालांकि हम सभी जानते हैं कि एक बार शादी के पंडाल से बाहर निकलने के बाद शायद ही किसी को याद रहता हो कि शादी कैसी थी. मगर लोगों को लगता है कि जितना ज्यादा खर्च होगा ,जितना अधिक दिखावा होगा, शादी उतनी ही बेहतर मानी जाएगी. जिसके पास ज्यादा पैसे वह तो खर्च कर देता है. मगर जिसके पास नहीं है, उसका रास्ता बेहद कठिन हो जाता है.

अभी कई रोज पहले मेरठ से एक महिला ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा था कि क्यों न एक सर्जिकल स्ट्राइक इन विवाह के नाम पर हो रहे बेलगाम उत्पीड़न और खर्चों पर भी हो जाये? चाहे कोई भी जाति व धर्म अमीर, गरीब, मध्यम वर्ग सभी के लिए सिर्फ ( आर्य समाज, मंदिर में सादगी से, या कोर्ट में) ही विवाह का कानून बने. इससे बेलगाम खर्च के विवाह पर भी इनकम टैक्स रेड. दहेज उत्पीड़न, ट्रेफिक जाम ,कालाधन सभी परेशानियों पर एक झटके में रोक और लगाम लग जाएगी. उस महिला की इस पोस्ट और एक अदालती कारवाही ने कुछ लोगों का ध्यान आकर्षित किया. पिछले दिनों दिल्ली की एक अदालत में एक केस की सुनवाई चल रही थी. इसमें शादी में चलाई गई गोली के कारण दूल्हे के चाचा की मृत्यु हो गई थी. इसी सिलसिले में दोषी को सजा सुनाते हुए माननीय जज ने कहा कि शादियों में गोली चलाने का फैशन बढ़ता जा रहा है. इससे बरातियों या बरात देखने आए लोगों की जान चली जाती है. माननीय जज ने कहा कि शादियों में दिखावे के लिए बेशुमार पैसा खर्च किया जाता है. हमारे यहां की शादी को अगर (शाही शादी) कहा जाता है, तो क्या यह प्रतिष्ठा की बात है? दुनिया में भारत में सबसे अधिक भूखे लोग रहते हैं. यहां भूख से सबसे अधिक लोग मरते हैं. यह आश्चर्य की बात है कि क्यों हमारे यहां के नीतियां बनाने वाले लोग और बुद्धिजीवी इस बारे में नहीं सोचते. इन अवसरों पर अतिथियों की संख्या क्यों नहीं निर्धारित की जाती. माननीय जज की चिंता बिलकुल सही थी. इस पर क्षमा शर्मा कहती है कि उनकी तरह ही बहुत से लोग सोचते हैं, मगर कुछ कर नहीं पाते. करें भी कैसे. कल शादी उनके यहाँ भी होगी अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का भी तो ख्याल रखना होता है. शायद पूरी दुनिया में इस तरह से शादियां कहीं नहीं होती होंगी, जैसी हमारे यहां होती हैं. सादगी माने मजबूरी हमेशा परिवार की तथाकथित प्रतिष्ठा के नाम पर शादी में खूब लुटाया जाता है कुछ इस अंदाज में कि किसकी हिम्मत है जो रोक ले. मेरा पैसा मैं जानूं.



अक्सर हमारे समाज में अलग-अलग समुदायों की पंचायत इस तरह की शदियों के खिलाफ फरमान सुनाती दिख जाती है. हालाँकि कुछ लोग सुझाव देते कि लोगों की आमदनी और शादी के खर्चे का अनुपात तय कर देना चाहिए किन्तु यह सुझाव बिल्कुल बेकार सिद्ध होगा, जैसा कि चुनाव-खर्च का होता है. हमेशा लोग शादियों में आडंबर और धन के प्रदर्शन पर रोक लगाने की वकालत करते दिख जाते है फिर अचानक जब कोई धनाढ्‌य व्यक्ति शादी में होने वाले खर्च की सीमा को ऊंचा उठा देता है तो उसके वर्ग के समकक्ष व्यक्तियों पर एक तरह का दबाव पैदा हो जाता है कि उन्हें भी अपनी सामाजिक स्थिति को बचाए रखने के लिए इसी तरह का खर्च करना होगा. यही नहीं, इस तरह की शादियों में धूम-धड़ाका, आतिशबाजी और कि यहां तक कि गोलीबारी भी जमकर होती है जिसमें  कई बार मासूम निर्दोष लोगों की जान चली जाती है. और देखते ही देखते खुशी का माहौल मातम में बदल जाता है. पर इस मातम का जिम्मेदार कौन यह भी लोगों का सोचना होगा? क्योकि जहाँ भी शराब, शराबी और बन्दुक होगी हादसा होते देर नहीं लगती......राजीव चौधरी