Monday 5 December 2016

बर्मा बोद्ध दारुल बुद्ध हो गये

लगता है अपनी आस्था, उपासना के तौर तरीके बचाने का यह सबसे कठिन दौर है. हर जगह बहुसंख्यक समुदाय अल्पसंख्यको पर हावी है. कठिन दौर इसलिए कि कुछ जगह छोड़कर हर जगह धार्मिक आस्था के चलते अल्पसंख्यको को अपना देश छोड़ना पड़ रहा है. सिर्फ इसलिए कि उनका पूजा, उपासना, उनके विवाह और सामाजिक जीवन में चली रही कुछ पुरातनकालीन मान्यताए बची रह सके. लेकिन आज लगता है विश्व का धार्मिक और राजनैतिक गठजोड़ एक नया समीकरण खड़ा कर रहा है. जिनका साथ धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत मानने वाले अंदरूनी रूप से दे रहे है. 

लगता है इनके मानवीय द्रष्टिकौण खोखले होकर सिर्फ आपसी सम्मान और आत्ममुग्धता और शाशन पर आन टिके है. यदि भारत से शुरू करें तो देखें आजादी के बाद से मुस्लिम और ईसाई जैसे अल्पसंख्यक वर्ग के लोग राष्ट्रपति, फील्ड मार्शल और एयर चीफ मार्शल आदि जैसे देश के ऊंचे पदों पर बैठे है. यहां तक कि सबसे खराब साम्प्रदायिक तनाव के दौर में भी अल्पसंख्यको को अपने घरो से पलायन नही करना पड़ा. कश्मीर ही इसका अपवाद है, जहां हिन्दू धर्म के लोग अल्पसंख्यक थे. घाटी का बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय अपने पड़ोसियों के इस धार्मिक पलायन का मूकदर्शक बना रहा, इसे छिपाने के लिए ही उन्हें हिन्दू नहीं बल्कि कश्मीरी पंडित कहा जाता है.हिन्दू बहुल देश में इस पलायन को लेकर कोई विरोध प्रदर्शन नही हुआ क्यूंकि मीडिया और सभी सरकारो ने हिन्दुओ पर ही इस पूरे प्रकरण का दोष मढ़ा. और शेष हिन्दूभारत ने इस सिद्धांत को आसानी से मान भी लिया.

दूसरा इसका ताजा उदहारण कैराना में सभी ने देखा. कथित धर्मनिरपेक्षवादी लोगों ने इस सच को भी राजनैतिक एजेंडा बनाकर इसकी गंभीरता को नष्ट कर दिया. बहरहाल संयुक्त राष्ट्र के एक अधिकारी ने कहा है कि बर्मा रोहिंग्या मुसलमानों का बड़े पैमाने पर सफाया कर रहा है. लेकिन रोहिंग्या मुसलमानों पर हो रहे इस भयानक अत्याचार पर पूरी दुनिया चुप है. जैसे इराक में यजीदी समुदाय पर धार्मिक हिंसा के समय चुप थे. हालाँकि बांग्लादेश की राजधानी ढाका में हजारों मुसलमानों ने रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में प्रदर्शन किया है. इस पर शकील अख्तर लिखते है कि इसी बांग्लादेश में कट्टर मुस्लिमों के द्वारा चलाये जा रहे दमन चक्र पर कोई मुस्लिम बाहर नहीं आया जिस धार्मिक भेदभाव और नफरत के कारण 1964 से 2013 तक एक करोड़ तेरह लाख हिंदू बांग्लादेश छोड़ चुके हैं. औसत 630 हिंदू रोजाना बांग्लादेश से कहीं और जा रहे हैं. पाकिसतान में भी धार्मिक अल्पसंख्यकों को भेदभाव और घृणा का सामना करना पड़ता है. हजारों हिंदू हर साल देश छोड़ कर दूसरे देशों का रुख कर रहे हैं. पाकिस्तान में ये दुखद पहलू न चर्चा का विषय है और न ही ये देश की अंतरात्मा को झकझोरता है. देश के सुन्नी चरमपंथी संगठनों ने बीते कई दशक से अल्पसंख्यक शिया समुदाय को धार्मिक तौर ख़त्म करने की अघोषित मुहिम चला रखी है. शिया मस्जिदों, स्कूल, इमामबाड़ों, यहां तक कि तीज त्यौहार भी चरमपंथियों के निशाने पर हैं. देश की दूसरी अल्पसंख्यक समुदाय अहमदिया को न केवल काफिर करार दिया गया बल्कि उनकी आस्था ही अक्सर उनकी मौत की वजह बन जाता है.

बीबीसी न्यूज़ के हवाले से पता चला कि 2014 अमरीकी शोध संस्था पिउ रिसर्च सेंटर के एक अध्ययन के मुताबिक़ दुनिया भर में मजहब की वजह से पैदा होने वाले सामाजिक तकरार में बढ़ोतरी हुई है. इस शोध में विश्व के 198 देशों को आधार बनाया गया था और इसमें साल 2007 से 2012 के आंकड़ों को शामिल किया गया. शोध में पाया गया कि इनमें से अब एक तिहाई मुल्क ऐसे हैं जहां धर्म के आधार पर पनपा सामाजिक विद्वेष बढ़ा है. साल 2011 में ऐसे देशों या क्षेत्रों की संख्या महज 29 फीसद थी. शोध में ये भी पाया गया कि कई क्षेत्र जैसे यूरोप के कुछ ऐसे मुल्क हैं जहां धर्म पर लगाई गई सरकारी पाबंदी में भी इजाफा हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाले मुल्कों में पाकिस्तान, बर्मा, मिस्र, इंडोनेशिया और रूस में लोगों को साल 2012 में सबसे ज्यादा धार्मिक विद्वेष का सामना करना पड़ा. मजहबी विद्वेष की वजह से औरतों को निशाना बनाये जाने के मामले में चीन का भी जिक्र हुआ है जहां चंद मुस्लिम औरतों के नकाब को मुंह से नोच लिया गया.

बीसवी शताब्दी ने अनेक साम्राज्यों को नष्ट होते देखा, साथ ही धरती पर अनेक नए देशो को जन्म लेते हुए भी, इस उथल - पुथल ने कुछ ताकतों को अल्पसंख्यक से बहुसंख्यक बना दिया और बहुसंख्यको को अल्पसंख्यक में तब्दील कर दिया. म्यांमार की सेना द्वारा रोहिंग्या मुसलमानों के खिलाफ अभियान को देखकर मुस्लिम समुदाय के कुछ लेखक, बुद्धिजीवी लोग इस मामले को लेकर दबी जबान से ही सही पर मुखर है और मानवीय द्रष्टि से होना भी चाहिए लेकिन इनकी कलम जब गुम हो जाती है जब सिगरेट के भाव यजीदी समुदाय की बच्चियां बेचीं जा रही थी. क्या इन लोगों ने केशर की क्यारी को 90 के दशक में छिन्न-भिन्न होते नही देखा. आज बुद्ध का कंधार कहा है? सिखों का ननकाना, कहाँ  है हिंगलाज? इस तरह कहा जा सकता है की कौन सा समूह कब अल्पसंख्यक बन जायेगे और कब बहुसंख्यक का रूप धारण कर लेगे कुछ नहीं कहा जा सकता.

हर तरफ वातावरण में एक बेचैनी सी है. जो लोग इस समय को भौतिक युग समझ रहे है वो समझते रहो लेकिन सच यह है कि यह दौर धार्मिक हिंसा से भी अछूता नहीं है. बल पूर्वक धर्म का नाम लेकर हर जगह अल्पसंख्यको के रोजगार उनके मकान और बहु बेटियों की इज्जत लूटी जा रही है. इस कृत्य को कुछ इस तरह रंग दिया जा रहा है कि स्थानीय स्तर पर लोग इसे जायज ठहराने और चंदा देने में भी संकोच नही बरतते. इस्लाम में दारुल हरब और दारुल इस्लाम नामक शब्दावली है,  इसका मतलब सब समझते है और अधिकतर मुस्लिम समाज के लोग इस शब्दावली को मान्यता भी देते है. मुझे नहीं पता इस प्रसंग को यहाँ रखना कितना उचित है किन्तु मेरे नजरिये से यह प्रासंगिक होता है क्योंकि जब अन्य मत के लोग दारुल बोद्ध या दारुल इसाई या हिन्दू होते है तो इसे साम्प्रदायिकता क्यों कहा जाता है. आशा है मुस्लिम विचारक समाज को बाँटने वाली ऐसी विचाधारा का भी विरोध करें धर्म अब शांति प्यार और सद्भाव का नाम नहीं रहा, यह घृणा, हिंसा और भेदभाव के आधार बन चुका है. धार्मिक उन्माद और धार्मिक उग्रवाद की भावना ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है. नफरतों का ये सिलसिला उस समय तक जारी रहेगा जब तक मजहबी रहनुमा धार्मिक गद्दियों से उतरकर मानवता की कतार में नहीं आते.,,,राजीव चौधरी 

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