Wednesday 27 December 2017

बस यही तो आर्य समाज की लड़ाई है

भाषा, धर्म और संस्कार किसी भी राष्ट्र की सबसे बड़ी पूंजी होती हैं, क्योंकि यही चीजें किसी राष्ट्र को उसकी पहचान और उसका गौरव प्राप्त कराती है। दूसरी बात यह चीजें आती है उस राष्ट्र के साहित्य से। मसलन साहित्य जैसा होगा निःसंदेह राष्ट्र का निर्माण भी वैसा ही होगा। आज हमारे बच्चे क्या पढ़ते हैं एंडी और जोसेफ की कहानी? आप उनका पाठ्यक्रम उठा लीजिये और स्वयं देखिये उनके मासूम मनो पर क्या छापा जा रहा हैं? जब किसी साहित्य पतन होता है तो वह सिर्फ साहित्य तक सीमित नहीं रहता अपितु साहित्य के साथ एक संस्कृति, एक सभ्यता और कई बार तो धर्म और राष्ट्र भी खतरे में पड़ जाते हैं। यदि इस प्रसंग में गौर करें तो साहित्य जैसा दस साल पहले था अब नहीं हैहालाँकि भाषा का पतन भी साहित्य के पतन में मुख्य कारक समझा जाता है। 

दरअसल भारतीय साहित्य और भाषाओं का विस्तार करने के लिए भारत सरकार ने 1957 में नेशनल बुक ट्रस्ट की स्थापना की गयी थी। इसके मुख्य उद्देश्य समाज में भारतीय भाषाओं का प्रोत्साहन एवं लोगों में विभिन्न भारतीय भाषा के साहित्य के प्रति रुचि जाग्रत करना था। जिसके तहत हर वर्ष विश्व पुस्तक मेले का आयोजन किया जाना भी शामिल है। यदि आज विश्व पुस्तक मेले में भाषा के स्तर पर भारत की मौजूदगी का अध्ययन करते हैं तो हम इस बात का शोर तो सुनते हैं कि हिन्दी विश्व की बड़ी भाषाओं में से एक है लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? दिल्ली में आयोजित पिछले चार विश्व पुस्तक मेले का मीडिया स्टडीज ग्रुप ने एक तुलनात्मक अध्ययन किया है। संस्था की रिपोर्ट बेहद चौकाने वाली रही साल 2013 के विश्व पुस्तक मेले में भाषावार शामिल 1098 प्रकाशकों में अंग्रेजी के 643, हिन्दी के 323, उर्दू के 44, संस्कृत के 18, विदेशी प्रतिभागी 30 थे। वर्ष 2017 में यह घटकर भारतीय भाषाओं की उपस्थिति और भी कम हुई। कुल 789 प्रकाशनों में अंग्रेजी के 448, हिन्दी के 272, उर्दू के 16, पंजाबी के 10, बांग्ला के 07, मलयालम के 06, संस्कृत 03, और 19 विदेशी प्रतिभागी शामिल थे।

हिन्दी में स्टॉल की जो संख्या दिख रही है, उनका विलेषण करें तो बड़ी संख्या में धर्म-कर्म, कर्मकांडी, जादू-टोना, अश्लील साहित्य की दुकानें हैं। जो मेले को फुटपाथी दुकान के रूप में बना देते हैं। इसके बाद यदि चर्चा करें तो पिछले कुछ सालों में विश्व पुस्तक मेले में धार्मिक संगठनों के स्टाल की बाढ़ सी आई है। हॉल के एक कोने में दलित और बौ( साहित्य का एक स्टाल लगा है। यहां बु( की तस्वीरें, इस्लाम से जुड़े तमाम संगठन शिया हो या सुन्नी। अहमदिया शाखा का भी एक स्टाल यहां लगा हुआ मिलेगा। तमाम ईसाई और अन्य मत के लोग बड़े-बड़े स्टाल सजाये फ्री में अपनी धार्मिक पुस्तकों बाईबल इत्यादि का वितरण करते दिखाई देते हैं तो इस्लाम वाले हर वर्ष कई ट्रक ‘‘कुरान’’ गैर मुस्लिमों को फ्री में प्रदान करते हैं। इन लोगों के उद्देश्य को जानकर और मजहबी स्टाल देखकर कोई भी सनातन धर्म प्रेमी हैरान हुए बिना नहीं रह सकता।

यहां आसाराम, ओशो, रामपाल, गुरु महाराज घसीटा राम, राधा स्वामी सत्संग, माताजी निर्मला देवी, शिरडी साई ग्लोबल फाउंडेशन से लेकर तमाम बाबाओं के स्टॉल यहाँ मंदिरों और इस्लामिक स्टाल मस्जिदों की भांति सजे दिखाई देंगे। मसलन कहने का आशय यह है कि वेद क्या है, धर्म क्या है, हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक संरचना आपको कहीं दिखाई नहीं देगी। कहीं स्टाल धर्मांतरण के अड्डे बने दिखाई देंगे तो कहीं बाबा अन्धविश्वास की लपेट लगाकर अपने भक्त जोड़ते दिखाई देंगे। 
इसके बाद हॉल संख्या 7 में थीम पवेलियन बनाया जाता है जिसे बाल साहित्य के लिए आरक्षित किया जाता है। लेकिन कमाल देखिये! यहाँ भी अन्य मतों की मिशनरीज बच्चों के लिए कॉमिक्स से लेकर आर्ट बुक्स, टीनएज साहित्य, 3डी आदि से अपना प्रचार करते आसानी से दिख सकते हैं। अधिकांश साहित्य अंग्रेजी भाषा में होता है। यानि के लार्ड मेकाले का वह कथन यहाँ पूरा होता दिखता है कि किसी देश को गुलाम बनाना हो तो वहां का बचपन वश में कर लीजिये भविष्य खुद ही गुलाम हो जायेगा। शायद ही यहाँ कोई बाबा या या खुद को हिन्दू धार्मिक संगठन बताने वाले यहाँ जाकर अपने स्टाल लगाते हां? बस यही आर्य समाज की लड़ाई है जिसे वह एकजुट होकर लड़ता आया है।

अब इस स्थिति में आर्य समाज क्या करे? अक्सर बहुतेरे लोग यही सवाल दागकर सोचते हैं कि हमने सवाल खड़ा कर दिया काम खत्म? जबकि यहीं से आर्य समाज का कार्य शुरू होता है हर वर्ष आर्य समाज ही तो विश्व पुस्तक मेले में अपनी महान वैदिक सभ्यता का पहरेदार बनकर जाता है। 50 रुपये की कीमत का सत्यार्थ प्रकाश दानी महानुभावों के सहयोग से 10 रुपये में उपलब्ध कराया जाता है। गत वर्ष हिन्दी भाषा में सत्यार्थ प्रकाश ने समूचे मेले में सभी भाषाओं में बिक्री होने वाली किसी एक पुस्तक की सर्वाधिक बिक्री का रिकॉर्ड स्थापित किया था। उर्दू, अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में सत्यार्थ प्रकाश की बिक्री इसके अतिरिक्त रही और विशेष बात यह है कि सत्यार्थ प्रकाश की यह प्रतियां मुस्लिम सहित मुख्यतः गैर आर्य समाजियों के घरों में भी गई। 

इस बार आर्य समाज का हाल संख्या 7 में बच्चों के लिए विशेष स्टाल है आप खुद को सोशल मीडिया फेसबुक या व्हाट्सएप्प और अखबारों के हवाले मत छोड़िये। आपको ये अखबार मर्दाना ताकत की दवा, बंगाली बाबाओं और जादू टोने के यंत्रों के ग्राहक में बदलकर रख देंगे। इसलिए आप इस बार पुस्तक मेले जायें तो हॉल नम्बर 12-12ए में आर्य समाज के स्टाल  282 - 291 में जरूर जाइये। बच्चों को हाल नम्बर 7 में लेकर जाएँ तो स्टाल नम्बर 161 में जाने से मत चूकियेगा वहां आर्य समाज का स्टाल मिलेगा क्रांतिकारियों और देशभक्ति के कॉमिक्स से साथ वहां से भी उनके लिए वैकल्पिक सामग्री खरीद लाइये। इस कसौटी पर कसते चलिए कि कौन सी पुस्तक आपके बच्चे को बेहतर मनुष्य बनने में मदद करती है, कौन सी जहर भरती है। अपनी भाषा अपने सनातन वैदिक धर्म का रक्षक बनकर स्वयं खड़ा होने का समय है, आर्य समाज के साथ इस राष्ट्र निर्माण के यज्ञ में अपना योगदान दीजिये। वैदिक साहित्य का प्रचार ही राष्ट्र और धर्म बचा सकता है।

 लेख राजीव चौधरी 

लोग धर्म के नाम पर पाखंड और ढ़ोंग ढ़ो रहे हैं?

उज्जैन में 18 दिसम्बर की बीती रात चक्रतीर्थ शमशान घाट पर एक विशेष तांत्रिक अनुष्ठान हुआ। अमावस्या की रात भैरवनाथ मंदिर पर तांत्रिक बम-बमनाथ ने शराब से महायज्ञ किया। इस महायज्ञ में हजार लीटर देशी-विदेशी शराब में चढ़ाई गई। इस बेहूदे प्रदर्शन को देखने लिए भीड़ इकट्ठी हुई और कमाल देखिये इसका कोई विरोध भी नहीं हुआ। विरोध क्यों होगा? यह सब सदियों पुरानी परम्परा के नाम पर हुआ! यह परम्परावादी देश है, या कहो रूढ़िवादी देश है। यहां सिर्फ मूर्खता होनी चाहिए यदि मुर्खता और ढ़ोंग पुराना है तो क्या कहने। ढ़ोंग जितना पुराना उतनी ज्यादा आस्था है शायद अब धर्म की व्याख्या यही शेष रह गयी है। 


महायज्ञ में भारी संख्या में भीड़ उपस्थित थी। हालाँकि यह भीड़ भारत देश के सम्बन्ध में स्वभाविक है क्योंकि जहाँ पागलपन होगा वहां भीड़ जरूर उपस्थित होगी। भला ऐसा मौका क्यों चूकना! अजीब कर्मकांड देखने की आकांक्षा तो इन्सान के अन्दर बड़ी प्रबल होती ही है। कोई और देश होता, तो इन कथित तांत्रिकां, बाबाओं को पकड़ कर पागलखाने में छोड़ देता लेकिन यह भारत है अधिकांश आबादी अभी भी परम्पराओं में जी रही है। सबका जीवन अतीत में है। कहते हैं अपनी सांस्कृतिक विरासत अक्षुण्ण रखने में कोई नुकसान नहीं है पर नुकसान तब होता है जब लोग चमत्कारी बाबाओं के ढ़ोंग, दकियानूसी परम्पराओं के चक्कर में पड़ते हैं। इससे सिर्फ एक हानि जो सबसे बड़ी होती है वह होती है धर्म की हानि।

कहा जा रहा है विश्व शांति और जनकल्याण के लिए यह अनुष्ठान करने के लिए यह महायज्ञ आयोजित किया गया। कितना अजीब है सब कुछ शांति के लिए सुरा यज्ञ? यदि शराब से शांति होती है तो क्यों न हर गली हर मोहल्ले यहां तक कि देश की सीमाओं पर भी यह शांति के केंद्र खोल दिए जाये? आर्य समाज से जुड़े होने के कारण हम रूढ़िवादी नहीं हैं, ढ़ोंगी परम्परावादी नहीं है। हम रूढ़ि-विरोधी, ढ़ोंग विरोधी हैं, इन कथित परम्पराओं के विरोधी हैं। हम अतीत के अंधविश्वासां के विरोधी हैं। हमारा साथ कौन दे? हमारा विरोध स्वभाविक है पर हम इसे स्वीकार करते हैं कि चलो हमारे कारण कुछ चहल-पहल तो हुई किसी को तो आत्मचिंतन करने का मौका मिला, इस भीड़ से कोई एक तो निकला जिसने यह कहा कि यह ढ़ोंग धर्म नहीं है। कुछ तो आंधी उठी। सदियों की अंधी ठहरी मानसिकताओं में कुछ तो हलचल हुई किसी को तो जीवन का बोध हुआ। किसी ने तो हमारे कारण सच्चे परमात्मा को जानने का आनन्द लिया।


जब मैंने उज्जैन की इस खबर को पढ़ा तो मेरे मन में एक पल को निराशा घर कर गयी पर एक दो लोगों से चर्चा की उन्होंने कहा इसे आस्था के रूप में भी देख सकते हैं? पर क्या आस्था की परिभाषा सिर्फ मूर्खता बनकर रह गयी? हम पाखण्ड के विरोधी हैं और दावे से कह सकते हैं जो जरा भी जागरूक नहीं हैं तो भारतीय कैसे हो सकता है? फिर किस गर्व से वह खुद को हिन्दू कह सकता है? मगर आज धर्म अंधी श्रधाओं की गलियों में खो गया, अंधकार ने आस्था को धर्म बनकर गटक लिया गया। सब कुछ हासियें पर जा रहा है क्या लोग उतना भी नहीं बचा पाएंगे जितना मूल्यवान है? हमसे केवल वे ही लोग खुश हो सकते हैं, जिनके पास थोड़ी प्रतिभा बची है, जिनके पास थोड़ी बौ(क क्षमता बची है, जिनके पास थोड़ा आत्मबल है, थोड़ा आत्मगौरव है, जो थोड़े आत्मवान हैं। जो इस महान वैदिक धर्म को बचा लेने का साहस रखते हैं। उनके अतिरिक्त, हमारे साथ भीड़ नहीं चल सकती है. क्योंकि हमारे पास अंधी पागल आस्थाओं का डमरू नहीं है।


हम ज्यादा आंकड़ें प्रस्तुत नहीं करते पर कौन इस बात से इंकार कर सकता है कि भारत के कई बड़े मंदिरों में शराब के रूप में प्रसाद वितरित नहीं की जाती हैं? दरअसल ये शराब नहीं बल्कि एक महान पागलपन बांटा जा रहा है, एक सामान्य इन्सान की सोच को जकड़ा जा रहा है भय से अन्धविश्वास खड़ा कर आसानी से इन्हें धर्म का चोला पहना दिया गया। बड़ा दुःख होता है यह देखकर कि इस बौद्धिक दुनिया में देश की राजधानी के बीचो-बीच पुराना किला के पार स्थित प्राचीन भैरों मंदिरदेवता के प्रसाद में लोकल और इंटरनेशनल लेवल तक की शराब चढ़ाई जाती है। मंदिर के आसपास इसी वजह से तमाम भिखारी खाली गिलास लिए भटकते नजर आते रहते हैं। प्रसाद का सेवन कर चुके अधिकतर भिखारी पूरी तरह से नशे में होते हैं। नशे में धुत्त भिखारियों की लाइन में आपको बच्चों सहित हर उम्र के लोग नजर आ जाएंगे। लोगों के ज्यादा नशे में होने की वजह से कई बार यह लोग गम्भीर अपराध करने से भी नहीं चूकते। पर क्या कहें, किसे कहे? मंदिरों में जाकर वोट मांगने वाले नेताओं को? धर्म के नाम पर बाहर शराबी पियक्कड़ बैठे है अन्दर एक मूर्ति पियक्कड़ जिसे जितना जी करे उतनी शराब पिला दो, शनिवार और रविवार को यह समस्या और विकट हो जाती है क्योंकि इन दिनों काफी भक्त मंदिर में भैरो बाबा के दर्शन को आते हैं। सप्ताह के अंत के दौरान मंदिर परिसर में बोतलें और शराब के कार्टून बिखरे नजर आते हैं। 

पर एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि जागरूकता की परवाह कौन करता है? वह जो इस अंधकार में डूबा हुआ कुछ पाने के लिए हाथ में बोतल लिए खड़ा हैशायद इसके लिए स्वयं पहले, लोगों को पाखंड से बाहर निकलना होगा जानना होगा कि धर्म का इन सारी बातों से कोई सम्बन्ध नहीं हैं, उनको इसे व्यापार समझना होगा उसे जानना होगा धर्म का सम्बन्ध तो सिर्फ एक चीज से है ‘‘वह ध्यान है।’’ और धर्म की एक ही खोज है, वह ज्ञान और सत्य है। शेष सब बकवास और पाखंड है सबसे छुटकारा पा लेना चाहिए...

 फोटो साभार गूगल...लेख  राजीव चौधरी 

Friday 22 December 2017

लो, चलाओ गोलियां

स्वामी श्रद्धानन्द जी के सामने लड़ाई एक मोर्चे पर नहीं थी बल्कि लड़ाई के मोर्चे तीन थे, एक विदेशी शाशन, दूसरा यहाँ फैला अन्धविश्वास जो धर्म को निरंतर पतित कर रहा था और तीसरा धर्मांतरण जिसकी फसल जातिवाद के नाम पर काटी जा रही थी. कहते है जो लोग सिर्फ राष्ट्र के काम आते है ऐसे लोग काल की उपज नहीं होते, अपितु काल को बनाया करते हैं. उनकी काल निर्माण की कुशलता, उनकी राष्ट्र धर्म के प्रति निष्ठां और सेवाभाव इसी कारण वे असाधारण महापुरुषों की पंक्ति में शामिल हो जाते है और उनका मुंशीराम से स्वामी श्रद्धानन्द तक का सफर पूरे विश्व के लिए प्रेरणादायी बन जाता है. भारत में लार्ड मैकाले द्वारा बनाई गयी अंग्रेजी माध्यम की पश्चिमी शिक्षा नीति के स्थान पर राष्ट्रीय विकल्प के रूप में राष्ट्रभाषा हिन्दी के माध्यम से वैदिक साहित्य, भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति एवं साहित्य के साथ-साथ आधुनिक विषयों की उच्च शिक्षा के अध्ययन-अध्यापन तथा अनुसंधान के गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय स्थापित करने वाले स्वामी श्रद्धानन्द का जीवन चरित्र मात्र कुछ शब्दों में कैसे पिरोया जा सकता. जब काशी विश्वनाथ मंदिर के कपाट सिर्फ रीवा की रानी के लिए खोलने और साधारण जनता के लिए बंद किए जाने व एक पादरी के व्यभिचार का दृश्य देख मुंशीराम का धर्म से विश्वास उठ गया और वह बुरी संगत में पड़ गए. किन्तु, स्वामी दयानंद सरस्वती के साथ बरेली में हुए सत्संग ने उन्हें जीवन का अनमोल आनंद दिया, जिसे उन्होंने सारे संसार को वितरित किया.

स्वामी श्रद्धानंद उन महापुरुषों में से एक थे जो अपने राष्ट्र के निर्माण लिए अपनी धन संपदा, अपना घर, अपना परिवार और तो और स्वयं को भी इस राष्ट्र के लिए दान कर गये. समाज सुधारक के रूप में उनके जीवन का अवलोकन करें तो पाते हैं कि उन्होंने प्रबल विरोध के बावजूद स्त्री शिक्षा के लिए अग्रणी भूमिका निभाई. स्वयं की बेटी अमृत कला को जब उन्होंने ईस-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल गाते सुना तो घर-घर जाकर चंदा इकट्ठा कर गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय की स्थापना हरिद्वार में कर अपने बेटे हरीश्चंद्र और इंद्र को सबसे पहले भर्ती करवाया. स्वामी जी का विचार था कि जिस समाज और देश में शिक्षक स्वयं चरित्रवान नहीं होते उसकी दशा अच्छी हो ही नहीं सकती. उनका कहना था कि हमारे यहां टीचर हैं, प्रोफेसर हैं, प्रिसिंपल हैं, उस्ताद हैं, मौलवी हैं पर आचार्य नहीं हैं. आचार्य अर्थात् आचारवान व्यक्ति की सबसे बड़ी आवश्यकता है.

उनका कहना था जिस राष्ट्र के शिक्षक उन्नत होंगे तो उस राष्ट्र का भविष्य स्वयं ही उन्नत होगा. चरित्रवान व्यक्तियों के अभाव में महान से महान व धनवान से धनवान राष्ट्र भी समाप्त हो जाते हैं. जात-पात व ऊंच-नीच के भेदभाव को मिटाकर समग्र समाज के कल्याण के लिए उन्होंने अनेक कार्य किए. प्रबल सामाजिक विरोधों के बावजूद अपनी बेटी अमृत कला, बेटे हरिश्चद्र व इंद्र का विवाह जात-पात के समस्त बंधनों को तोड कर कराया. उनका विचार था कि छुआछूत को लेकर इस देश में अनेक जटिलताओं ने जन्म लिया है तथा वैदिक वर्ण व्यवस्था के द्वारा ही इसका अंत कर अछूतोद्धार संभव है. उनका दलितों के प्रति अटूट प्रेम व सेवा भाव अविस्मरणीय है.

गुरुकुल में एक ब्रह्मचारी के रुग्ण होने पर जब उसने उल्टी की इच्छा जताई तब स्वामी जी द्वारा स्वयं की हथेली में उल्टियों को लेते देख सभी हत्प्रभ रह गए. ऐसी सेवा और सहानुभूति और कहां मिलेगी? स्वामी श्रद्धानन्द का विचार था कि अज्ञान, स्वार्थ व प्रलोभन के कारण धर्मांतरण कर बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि करना देश को मजबूत करने के लिए परम आवश्यक है. इसीलिए, स्वामी जी ने भारतीय हिंदू शुद्धि सभा की स्थापना कर दो लाख से अधिक मलकानों को शुद्ध किया. एक बार शुद्धि सभा के प्रधान को उन्होंने पत्र लिख कर कहा कि अब तो यही इच्छा है कि दूसरा शरीर धारण कर शुद्धि के अधूरे काम को पूरा करूं

वह निराले वीर थे. लौह पुरुष सरदार बल्लभ भाई पटेल ने कहा था कि स्वामी श्रद्धानन्द की याद आते ही 1919 का दृश्य आंखों के आगे आ जाता है. सिपाही फायर करने की तैयारी में हैं. स्वामी जी छाती खोल कर आगे आते हैं और कहते हैं- लो, चलाओ गोलियां. इस वीरता पर कौन मुग्ध नहीं होगा? महात्मा गांधी के अनुसार वह वीर सैनिक थे. वीर सैनिक रोग शैय्या पर नहीं, परंतु रणांगण में मरना पसंद करते हैं. वह वीर के समान जीये तथा वीर के समान मरे. जब एक मतान्ध युवक ने उनसे चर्चा करने के बहाने छल से गोली दाग दी थी.

देश की अनेक समस्याओं तथा हिन्दुओं के उद्धार हेतु उनकी एक पुस्तक  हिन्दू संगठन- मरणोन्मुख जाति का रक्षक आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है. राजनीतिज्ञों के बारे में स्वामी जी का मत था कि भारत को सेवकों की आवश्यकता है लीडरों की नहीं. श्री राम का कार्य इसीलिए सफल हुआ क्योंकि उन्हें हनुमान जैसा सेवक मिला. वह हिन्दी को राष्ट्र भाषा और देवनागरी को राष्ट्रलिपि के रूप में अपनाने के पक्षधर थे. सतधर्म प्रचारक नामक पत्र उन दिनों उर्दू में छपता था. एक दिन अचानक ग्राहकों के पास जब यह पत्र हिंदी में पहुंचा तो सभी दंग रह गए क्योंकि उन दिनों उर्दू का ही चलन था. त्याग व अटूट संकल्प के धनी स्वामी श्रद्धानन्द ने 1868 में यह घोषणा की कि जब तक गुरुकुल के लिए 30 हजार रुपए इकट्ठे नहीं हो जाते तब तक वह घर में पैर नहीं रखेंगे. इसके बाद उन्होंने भिक्षा की झोली फैलाकर कर न सिर्फ घर-घर घूम 40 हजार रुपये इकट्ठे किए बल्कि वहीं डेरा डाल कर अपना पूरा पुस्तकालय, प्रिंटिंग प्रेस और जालंधर स्थित कोठी भी गुरुकुल पर न्योछावर कर दी उनकी इस दान की शक्ति, देश और धर्म के प्रति प्रेम पर कौन मुग्ध नहीं हो जाता? उस वीर संन्यासी का स्मरण हमारे अन्दर सदैव वीरता और बलिदान के भावों को भरता रहे...

 राजीव चौधरी 

Saturday 16 December 2017

यूरोप का भव्य भ्रम

जब कोई इन्सान कमजोर होने के बावजूद जब खुद को ताकतवर समझने लगे तो मनोविज्ञान में इसे भव्य भ्रम का शिकार कहा जाता है। एक ऐसे ही रोग का शिकार आज यूरोपीय देश दिखाई देते हैं। कहा जा रहा है कि अगले 30 या 40 साल की बड़ी खबर इस प्रकार होगी कि यूरोपीय आबादी लुप्त हो गयी, जिनके पूर्वजों ने आधुनिक दुनिया का निर्माण किया था। जिन्होंने कम से कम पांच शताब्दियों के लिए पुराने महाद्वीप की असीम सफलता प्राप्त की है। प्रसिद्ध इतालवी पत्रकार ओरियाना फलासी का दावा है कि यूरोपीय महाद्वीप पर ईसाई धर्म का प्राचीन गढ़ तेजी से इस्लाम को महत्वाकांक्षी और मुखरता का रास्ता दे रहा है। वे साथ ही एक डरा हुआ मासूम सवाल भी उठा रहे हैं कि क्या इस्लाम यूरोप को जीत जाएगा


निःसंदेह अगले 10 वर्ष विश्व सभ्यता के परिवर्तन में निर्णायक सिद्ध होंगे। होगा क्या अभी महज परिकल्पना सिर्फ इतनी है कि यदि आज यूरोपीय समुदाय अपनी विज्ञान की ताकत के भव्य भ्रम में डटा रहा तो भविष्य में यूरोप में धार्मिक प्रार्थना के गीतों के साथ भूगोल में भी परिवर्तन दिखाई देंगे। हमने आज से दो वर्ष पहले भी आर्य सन्देश में यूरोप के नये धार्मिक समीकरण पर प्रकाश डालते हुए लिखा था कि स्वदेशी यूरोपवासी नष्ट हो रहे हैं और विदेशी मुस्लिम समाज की संख्या निरंतर बढ़ रही है। किसी जनसंख्या को कायम रखने के लिये आवश्यक है कि महिलाओं का सन्तान धारण करने का औसत 2.1 हो परन्तु पूरे यूरोपीय संघ में यह दर एक तिहाई 1.5 प्रति महिला है और वह भी गिर रही है इसी रिक्त स्थान में इस्लाम और मुसलमान को प्रवेश मिल रहा है जहाँ यूरोपवासी बड़ी आयु में भी कम बच्चे पैदा करते हैं वहीं मुसलमान युवावस्था में ही बड़ी संख्या में सन्तानों को जन्म देते हैं। यदि आज यूरोप के आंकड़ों के नये धार्मिक समीकरण पर नजर डालें तो नई शरणार्थी नीति जोकि उदारवादी नीति के बाद फ्रांस में इस्लाम मत को मानने वालों की संख्या 20% जर्मनी 14% ब्रिटेन 18% स्वीडन 20%नीदरलैंड 10% और बेल्जियम 15% से ज्यादा आंकी जा रही है। विश्लेषकों का अनुमान है कि ब्रिटेन में, इस्लामी मस्जिदों ने चर्च ऑफ इंग्लैंड से प्रत्येक हफ्ते में अधिक लोगों की मेजबानी की है! पारम्परिक ईसाई धर्म के शून्य को भरना यूरोप में एक मजबूत, ऊर्जावान और युवा आंदोलन की जरूरत है। यदि यह वर्तमान प्रजनन दर पर जारी रही तो  यूरोपीय लोग पिछले समय की गुजरी सभ्यता के रूप में दिखाई देंगे।

जब ऐसा होगा तो भव्य चर्च पुरानी सभ्यता के अवशेष बनकर रह जायंगे यह भी हो सकता है कि सउदी शैली का प्रशासन उसे मस्जिद में न परिवर्तित कर दे या तालिबान जैसा प्रशासन उसे उड़ा न दे? यूरोप के कुछ विश्लेषक आज इस पर चिन्ता जाहिर कर सवाल उठा रहे हैं कि क्या भविष्य में वेटिकन मक्का का आदेश मानने को बाध्य होगा? क्योंकि आज शरणार्थी आव्रजन की अनुमति के द्वारा यूरोप उदारवाद की चादर से अपने अंतिम संस्कार को ढ़ंक रहा है? पिछले दिनों इजरायल की विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट में कहा गया था कि इस्लाम अब यूरोप में दूसरा सबसे बड़ा धर्म है। इस रिपोर्ट के अनुसार, अधिकांश यूरोपीय संघ के राष्ट्र कट्टरपंथी मुसलमानों की मौजूदगी को राज्य की सुरक्षा और अपने जीवन जीने के ढं़ग के लिए खतरा मानते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है, ‘‘जनसांख्यिकीय आंकड़ों के मुताबिक, उच्च जन्म दर और निरंतर सामूहिक अप्रवासीकरण के कारण मुस्लिमों की संख्या निरन्तर बढ़ती रहेगी। इसका मतलब यह है कि इस तरह की बढ़ोत्तरी भविष्य में यूरोप के आकार पर एक काली परछाई दिखाई देगी।

कई सदियों तक, मुस्लिम, जो यूरोप के ईसाईयों में एक थे, ने अपने धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के लिए खतरे पैदा किया थे। अब दोनों पक्ष, एक दूसरे के धर्म प्रचार में दूसरे को प्रतिद्वंद्वी मानते हैं! इस्लाम और ईसाई धर्म दोनों के द्वारा दो धर्मों ने मानव जाति की निष्ठा पर ऐसे सार्वभौमिक दावे किए हैं, जिनमें एक के बीच दूसरा खुद को ‘‘कैदी’’ मानता है। इसी कारण वर्तमान घृणा अब इन दोनों संस्कृतयों के बीच में वृधि पर है।

सदियों से, यूरोप में एक समानता है, जो सभी लोगों को अलग-अलग भाषाएं बोलने से एकजुट करती रही है। यही आम तत्व उनकी ईसाई विरासत थी। इस सामान्य धार्मिक विरासत में एक दिलचस्प अतीत है जिसे इन्कार नहीं किया जा सकता। लेकिन अब यूरोप कितना जल्दी इस्लामत हो रहा है? इतनी जल्दी है कि यहां तक कि इतिहासकार बर्नार्ड लुईस ने जर्मन अखबार डाइ वेलेट को स्पष्ट रूप से बताया था कि सदी के अंत तक यूरोप इस्लामी हो जाएगा। इसका मतलब है कि यदि वर्तमान रुझान जारी है, तो सदी के अंत तक मुसलमानों की संख्या ईसाइयों की संख्या से अधिक होने का अनुमान है। 

शोधकर्ताओं का एक झुण्ड इसका कारण गिनाते हुए कहता है कि 2016 में, पूरे यूरोप में मुसलमानों की औसत उम्र 30.4 थी, अन्य यूरोपीय लोगों (43.8) के लिए औसत से 13 साल कम थी। इसे दूसरे तरीके से देखते हुए, यूरोप के सभी मुस्लिमों में से 50 फीसदी 30 साल से कम उम्र के हैंइसके अलावा, यूरोप में औसत मुस्लिम महिला की प्रजनन दर 2.6 बच्चों की है, और गैर मुस्लिम महिला ;1.6 बच्चोंद्ध पर टिकी है। यानि एक मुस्लिम महिला की प्रजनन दर लक्ष्य पर केन्द्रित है तो वहीं गैर मुस्लिम प्रजनन की स्वभाविक प्रक्रिया के विरोध में खड़ी दिखाई देती है। यूरोप भर में, आने वाले मुस्लिम बहुमत के संकेत हैं। बेल्जियम के बंदरगाह शहर एंटवर्प में मुसलमानों में लगभग 50 प्रतिशत प्राथमिक विद्यालय हैं बु्रसेल्स की एक चौथाई जनसंख्या मुस्लिम मूल की हो चुकी है। शायद अब दुनिया इंतजार में है कि कौन सा यूरोपीय देश इस्लामी शासन में पहले आएगा या फिर यूरोप में पहले मुस्लिम राष्ट्र का निर्माण किस इस्लामी शब्द के नाम पर होगा?

 राजीव चौधरी चित्र साभार गूगल