Monday 16 January 2017

कुरान ने कैसे बचाई जान?

मीडिया को विश्व का सबसे बोद्धिक वर्ग समझा जाता है जो समस्त समाज को आगे लेकर चलता है उसका घटनाओं से परिचय कराता है. घटनाओं का तार्किक विश्लेषण करता है और समाज के सामने उसका सच रखता है. लेकिन कुछ खबरे ऐसी भी आती है जब मीडियाकर्मियों की बुद्धि पर तरस आता है. अभी कई रोज पहले बीबीसी समेत कई मीडिया चैनलों ने एक खबर चला रखी है कि कुरान ने बचाई हिन्दू की जानज्ञात हो बांग्लादेश में ढाका के एक रेस्तरां होली आर्टिजन बेकरी में पिछले साल एक जुलाई को हुए चरमपंथी हमले में 29 लोग मारे गए थे. आतंकियों ने उन लोगों की गर्दन चाकू से रेत डाली थी जिन्हें कुरान की आयतें नहीं आती थी जिनमें ज्यादातर जापान और इटली के पर्यटक थे लेकिन इसी होटल में काम करने वाले एक कर्मचारी शिशिर सरकार जो हिन्दू था उसने बताया कि आतंकियों ने मुझे कुरान की आयतें सुनाने को कहा. मैं आराम से खाना बनाते हुए कुरान की आयतें सुनाने लगा. मेरे बहुत सारे मुसलमान दोस्त रहे हैं. इसलिए मैं कुरान के कुछ सूरा जानता हूं लेकिन फिर भी मैं डरा हुआ था. मैं सोच रहा था कि क्या वो मेरी प्रतिक्रिया से संतुष्ट हैं? ये रमजान का महीना था इसलिए सुबह से पहले मुस्लिम बंधकों को सहरी खाने को दिया गया. मैं बहुत डरा हुआ था. डर के मारे मैं खाना निगल नहीं पा रहा था. लेकिन तभी मैंने सोचा कि अगर मैंने नहीं खाया तो उन्हें शक हो जाएगा कि मैं मुसलमान नहीं हूं. इसके बाद उन्होंने उन लोगों की गर्दन रेत डाली जिन्हें कुरान नहीं आती थी.

बस यही से सवाल खड़ा होता है कि यदि एक की जान बचने का कारण तो कुरान बनी तो उन 29 लोगों की जान जाने का कारण क्या बना जिन्हें कुरान नहीं आती थी? क्या मीडिया में साहस है जो इस खबर को तरह लिख दे कि कुरान ने ली 29 मासूमों की जान? आखिर मीडिया इस खबर से क्या जताना चाह रही है शायद यही कि यदि जिन्दा रहना है तो आयत याद करना जरूरी है? यदि ऐसा है तो मीडिया से कुछ सवाल इसी धर्मनिपेक्षता के दायरे में रहकर कर रहा हूँ ढाका में मारे गये 29 लोग यदि कुरान सुना देते तो क्या वो बच जाते? शायद हाँ? पर वो मासूम कुरान की आयतें नहीं सुना पाए इस कारण उनकी हत्या हुई आखिर उनकी हत्या का जिम्मेदार कौन? कुरान या आतंकी? हाँ यदि ऐसा होता की आतंकी हमला करते समय कुरान पढ़ने लगे थे पढ़ते-पढ़ते अपने किये पर शर्मिंदा होकर किसी की जान नही ली और बाकि बंधकों को रिहा कर दिया तो में समझता कुरान ने बचाई जान. पर जब भी इस प्रकार की चर्चा होती है तो आतंक को पंथनिरपेक्ष बताया जाता है आतंकी का कोई मजहब नहीं होता यह साबित किये जाने का प्रयास किया जाता है. मुझे नहीं पता इमाम हुसैन की गर्दन पर इब्ने मुल्जिम नामक व्यक्ति ने विष भरी तलवार से क्यों वार किया था. क्या कोई बता सकता है कि इनमे से मृतक या हत्यारे दोनों में से किसने कुरान नहीं पढ़ी थी?  

इस सारे मामले को समझने के लिए यदि अमेरिका के एक इतिहासकार, विचारक एवं समीक्षक डैनियल पाइप्स की माने तो वो लिखते है कि इस्लामवादी तीन प्रकार से विभाजित किये जा सकते हैं एक सलाफी, जो कि सलाफ के काल के प्रति श्रद्धा रखते हैं (मुसलमानों की पहली तीन पीढी), इनका लक्ष्य इसकी पुनर्स्थापना है और इसके लिये ये अरबी वस्त्र पहनते हैं, प्राचीन परम्पराओं को अपनाते हैं तथा एक मध्ययुगीन मनसिकता अपनाते हैं जिसके चलते मजहब आधारित हिंसा का वातावरण बनता है. दूसरा मुस्लिम ब्रदर और उसके जैसे जिनकी आकाँक्षा आधुनिकता के इस्लामी संस्करण की है, यह परिस्थिति पर निर्भर करता है कि वे हिंसक आधार पर कार्य करते हैं या नहीं. तीसरा विधि आधारित इस्लामवादी जो कि व्यवस्था के अंदर कार्य करते हैं, राजनीतिक, मीडिया, विधिक तथा शिक्षा गतिविधियों में लिप्त होते हैं और परिभाषा की दृष्टि से वे हिंसा में शामिल नहीं होते. लेकिन यह लोग मीडिया आदि के मंचो से उपरोक्त तीनों का समर्थन करते दिख जायेंगे. उनके मतभेद वास्तविक हैं परंतु वे एक, दूसरे व तीसरे स्थान पर हैं, सभी इस्लामवादी एक ही दिशा में बढते हैं और वह है पूरी तरह और भयानक रूप से इस्लामी कानून की स्थापना और इस लक्ष्य में परस्पर सहायक होते हैं.


यह लोग बड़ी सावधानी से दुसरे से खिलाफ की खबरें कुछ तरीके से रखते है मानों वो घटना उसके पक्ष में हुई हो और यह आज से नही पुराना रिवाज है औरंगजेब के बारे में इनसे सुन लीजिये कि क्या गजब का बादशाह था जनाब अपनी टोपियाँ खुद सीलता था. उदहारण के तौर पर अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले के बाद इस्लाम के तीसरे पायदान यानि के मीडिया और उसके बोद्धिक जगत ने इसे बिन-लादेन की व्यक्तिगत शत्रुता बताया था. मुम्बई में हुए सीरियल बम विस्फोट जिनमे सैकड़ों लोग मरे और हजारों जख्मी थे को 1992 की बावरी मस्जिद से दाउद इब्राहीम का गुस्सा बताकर अपना पल्ला झाड़ लिया था. पिछले वर्ष नीस फ्रांस की घटना जिसमें ट्रक द्वारा सड़क पर 70 से ज्यादा लोगों की हत्या की गयी थे इसके अपराधी को सनकी करार दे दिया गया था. इसी वर्ष अमेरिका के एक पब में पचास के करीब लोगों की हत्या करने वाले को यह कहकर बचाया गया था कि वह समलेंगिकता का विरोधी है जिस कारण उसने इस घटना को अंजाम दिया. क्या मीडिया आतंकियों के प्रति मुस्लिम व अन्य लोगों के मन में हमदर्दी पैदा करने का कार्य कर रहा है? उपरोक्त सभी घटनाओं और ढाका हमले की इस तकरीर को सुनकर क्या ऐसा नहीं लगता जैसे हत्या करने वाले बेहद रहमदिल हो वो कुरान के लिए कार्य कर रहे हो? आखिर क्यों इस तरह की निंदा की जाने वाली घटनाओं को मानवता के विपरीत हुई घटनाओं को हमें ही कौनसे अंदाज में परोसा जा रहा है. यह सोचना अतिआवश्यक है....राजीव चौधरी 


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