Monday 27 February 2017

जातिवाद के असली पोषक, मनु या तथाकथित नेता?

यदि जातिवाद की बात आये तो मेरे हिसाब से इसकी सर्वाधिक  शिकार मनुस्मृति बनी. कारण एक कि यह  आदर्श समाज और राज्य की स्थापना के लिए एक उपयुक्त ग्रन्थ था. शायद आदर्श राजनीति हमारे राजनेताओं के कंठ से नीचे उतरने वाला शब्द नहीं था इसी कारण हर वर्ष मनु स्मृति दहन दिवस मनाकर समाज को शुद्ध करने की राजनैतिक परम्परा देश में देखने को मिलती है. बीती शताब्दी का जब तीसरा दशक था और साल 1927 तब बाबा साहब अंबेडकर ने कुछ लोगों के साथ मिलकर मनुस्मृतिकी तत्कालीन प्रति जलाई थी. जिसे आज तक कुछ दलित चिन्तक और नेता आसानी से एक रस्म सी निभाते हुए दीख जाते है. लेकिन जलाने के पीछे का सच या अम्बेडकर का उद्देश्य आज तक इन दलित विचारको ने किसी के सामने नहीं रखा. जबकि अंबेडकर ने ही एक से ज्यादा अवसरों पर इस बात को स्वीकारा था कि मनुस्मृति के नाम से प्रचलित मौजूदा किताब वास्तव में मनु के अलावा मुख्य रूप से किसी अन्य के विचारों से भरी पोथी थी, जिसमें बाद में भी कई लोगों ने जोड़-तोड़ की. जिसमें जातिवाद बारे में तमाम तरह के परस्पर-विरोधी प्रसंग और पौराणिक आख्यान पाये जाते हैं, जिसमें शिव को लिंगपूजित होने का शाप देने से लेकर, विष्णु को लात मारने और फिर उनसे अपनी बेटी ब्याहने तक की कहानियां मौज़ूद हैं. इस वजह से इन झूठी बातों से भरी किताब को जलाना उचित है.

सबसे पहले हमें एक बात समझ लेनी होगी कि भारत शुरू से ही बौद्धिक और अध्यात्मिक संघर्षों और समन्वयों की स्थली रहा है. श्रमण और ब्राह्मण से लेकर शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन और संतमत तक ने वैदिक ग्रंथों की अपने-अपने तरीके से व्याख्या करने का बौद्धिक और साधनापरक प्रयास किया. लेकिन समय के साथ-साथ ब्राह्मण-धर्म, का जन्मना जिस कारण देश पुरोहितवाद का शिकार हो गया. लेकिन यहाँ सवाल यह उपस्थित होता है कि इस पुरोहितवाद, जातिवाद को जीवित किसने रखा? देश के स्वतंत्र होने के पश्चात इन विसंगतियों पर अभी भी अंकुश क्यों नहीं? आपको नहीं लगता कि हमारे देश के नेता मनु महाराज के नाम पर किताबे जलाकर इन विसंगतियों को जिन्दा रखने का भरसक प्रयास कर रहे है. अम्बेडकर के समय मनु स्मृति इसलिए जलाई गयी थी कि प्रकाशन की घोर लापहरवाही या उसके व्याख्याकार ने उसमे त्रुटियाँ पैदा की थी. लेकिन आज भी उन्हीं त्रुटी के साथ अनेक प्रकाशक अशुद्ध मनु स्मृति को इस वजह से भी छाप रहे है कि उक्त ग्रन्थ पढने के लिए न सही जलाने के लिए तो बिकेगा ही!

राजनीति की ट्रेन हमेशा इतिहास की पटरी पर चलती है. इस कारण कुछेक दलित चिंतक और अपनी जेबे भरने वाले विचारक दलित उत्थान के नाम पर चुनाव जीतने वाले नेता आज भी इस कार्य को जिन्दा रखे हुए है. क्या पुस्तक जलाने से दलित उद्धार हो जायेगा? क्या एक पुस्तक के जला देने से उन्हें सामाजिक बराबरी का अधिकार मिल जायेगा? यदि हाँ तो फिर 90 सालों में इसके जलाने से कितना लाभ हुआ? यह बात भी सामने रखनी चाहिए. देश के कानून में जब समानता का अधिकार है तो सामाजिक जीवन में भेदभाव का जिम्मेदार कौन? जहाँ इस सवाल पर चर्चा होनी चाहिए थी वहां विषय बदलकर इसको दूसरा रूप दिया जा रहा है. चलो अशुद्ध ग्रन्थ पढ़कर एक पल को मान लिया कि इनका गुस्सा व्याख्याकार पर न होकर मनु के प्रति है. भावावेश में और सामाजिक-राजनीतिक संदेश देने के लिए उसके नाम से चलने वाली पुस्तक को एक  बार चंदन की चिता पर रखकर जला भी डाला. चलो वह भी ठीक. लेकिन यह क्या कि हम कुत्सित दुष्प्रचार का घिनौना तेल डाल-डाल कर जब-तब उसे जलाते रहें. उस किताब पर जूती रख कर कहें कि हम नारीवादी हैं और सभ्य हैं. किसने रोका है, खराब बातों को निकाल बाहर कीजिए. चाहें तो अच्छी बातों को रख लीजिए, उन्हें जीवन में भी उतारिए. उसे और बेहतर बनाइये. चाहे जैसी भी हो, अपनी धरोहरों और अतीत की गलतियों से निपटने के लिए हमें सत्यशोधन और सत्याग्रह और सहिष्णुता का सहारा लेना भी सीखना चाहिए.

हम आज की आधुनिक पीढ़ी के लोग है, जहाँ आज हमे एकता समरसता के साथ आगे बढ़ना था. वहां हमें आज किताबें जलाने जैसे मध्ययुगीन तरीके शोभा नहीं देते. अतीत में पुस्तकालयों के ही दहन का काम नालंदा से लेकर कई जगह कुछ सिरफिरे लोगों ने किया था. हम ऐसा क्यों करें? दहन जो हुआ सो हुआ. अब हम थोड़ा रहन, सहन, सीखना चाहिए दलित नेताओं को या राजनैतिक पार्टियों को समझना चाहिए कि आखिर मनु के नाम पर कब तक अपनी राजनीति करोंगे! भारत में वामपंथ, दक्षिणपंथ राजनीतिक इतिहासकारों की बौद्धिक लापरवाही, इसी एक ग्रन्थ पर आकर क्यों टिक गयी यदि मनु स्मृति में मनुष्य को सामाजिक तौर पर विभक्त करते समय पैरो को शुद्र कहा गया तो इसमें दुखी होने की बात क्यों उसी मनु स्मृति में प्रथम प्रणाम चरणों को ही लिखा गया है न की मस्तक को जिसे उसमें ब्राह्मण कहा गया.

लेकिन दलितों और पिछड़ों पर राजनीति करने वाले राजनेताओं द्वारा इसलिए एक अनोखा रास्ता ढूंढ़ निकाला गया. यदि अपने किसी कुकृत्य को भी जायज ठहराना हो तो उसे किसी प्रामाणिक ग्रंथ के हवाले से कह दो. यही कार्य आज के नेता सामाजिक जीवन में करते नजर आ रहे है. क्या यह लोग बता सकते है मनु के विरोध के अलावा इन लोगों ने सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के कल्याण के लिए क्या किया? सिर्फ इतना किया कि उनकी सामाजिक दशा पर पार्टी बनाकर सत्ता का पान किया न कि उनकी शिक्षा सर्व समावेशी विकास का कार्य इस विषय में दलितों को सोचना होगा कि आजादी के इतने दिनों बाद आरक्षण के बावजूद भी वो आजतक दलित क्यों है? अब समय यह सोचने का कि जातिवाद के असली पोषक मनु महाराज है या जातिवादी नेता?

राजीव चौधरी 

आदर्शों की तलाश में भटकता युवा

जो राष्ट्र अपने महापुरुषों से मुंह मोड़ लेता है उस राष्ट्र का क्षरण कोई नहीं रोक सकता। इस बार विश्व पुस्तक मेले में सनी लियोनी के जीवन पर आधारित पुस्तक प्रसि( प्रकाशकों के स्टाल पर बेची जा रही थी जो एक कलाकार से साथ पोर्न स्टार भी हैं। सनी के जीवन पर आधारित पुस्तक में उसकी सफलता की कहानी को युवा समाज के सामने परोसने का कार्य कुछ इस तरह हो रहा था मानो भावी भारत की निर्माता नई पीढ़ी के पास आदर्श सफल महापुरषों की कमी हो और इस कमी की पूर्ति सनी लियोनी आदि से पूरी की जा सकती हो? उसे नवयुवतियों बच्चियों के सामने एक आदर्श के तौर पर पेश किया। मुझे पता नहीं चल पा रहा है कि 21वीं सदी में हमने सफलता की क्या परिभाषा गढ़ ली किन्तु जो भी गढ़ी वो आने वाली पीढ़ी के लिए या कहो इस राष्ट्र के लिए बिल्कुल भी शुभ संकेत नहीं है। जिस तरह आज हमारे पाठ्क्रम बदले जा रहे हैं उसे देखकर अहसास जरुर होता है कि शायद आने वाले वर्षों में नैतिक शिक्षा जैसे विषयों में भी सनी लियोनी जैसी कलाकार अपनी जगह बना ले तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

इस काम में देश के युवाओं का मार्गदर्शन जहाँ मीडिया आदि को करना था वहां इसके उलट कार्य होता दिख रहा है मसलन अमूल घी का विज्ञापन दिन में एक बार और पेप्सी कोक आदि का दस बार आएगा तो वो युवा अमूल घी नहीं पेप्सी कोक को ही अपने स्वास्थ के लिए सही समझेगा! यह बात सर्वविदित है कि वर्तमान समय में हम जिस भारत में बैठे हैं उसका निर्माण हमने नहीं किया इसके निर्माण के पीछे असंख्य क्रांतिकारियों, स्वामी दयानन्द जैसे धर्म और समाज सुधारकां, स्वामी श्र(ानन्द जैसे बलिदानियों और देश के अन्य महापुरुषों का त्याग है। लेकिन क्या हम आज इन्हें भुलाकर फिल्मी पर्दों के हीरो और तथाकथित धर्मगुरुओं से इनकी पूर्ति करना चाह रहे हैं

हम धीरे-धीरे अपने आदर्श मिटा रहे हैं भारतीय नारी तो ऐसी होती थीं जो महापुरुषों को भी पुत्र के रूप में प्राप्त कर लेती थीं। हमारा इतिहास आदर्श नारियों से भरा है अपने स्कूलों के दिनों की याद आते ही, उस समय हमारे पाठ्यपुस्तक में कहानी के रूप में दिया गया महापुरुषों के जीवनी पर आधारित लेख पर ध्यान चला जाता है। झाँसी की रानी, रानी सारन्धा, सुभाष चन्द्र बोस, लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक, स्वामी दयानन्द आदि के जीवन-कथा और उनके राजनीतिक और दार्शनिक उपलब्धियों के बयान उन दिनों के शिक्षक काफी लगन के साथ विद्यार्थियों के सामने पेश करते थे। वास्तव में, उस समय, देश में नायक के रूप में, ऐसे ही व्यक्तित्व का पूजन होता था। एक आध बार फिल्मी हीरो या मशहूर खिलाड़ी को लेकर तो आम बैठक में चर्चा जरूर हो जाती थी, लेकिन कभी भी उन्हें महापुरुषों का दर्जा देना तो दूर, बराबरी की कल्पना भी नहीं की जाती थी। बल्कि उन महापुरुषों की जीवन-शैली तथा देश और देशवासियों के प्रति अपार प्रेम हमेशा ही बच्चों के लिए मार्गदर्शन का काम करता था।

अब मीडिया द्वारा परोसे जा रहे नये महापुरुष यानी अवतार के रूप में फिल्मी सितारें और क्रिकेट खिलाड़ियों का आगमन उन महापुरुषों की विदाई का रास्ता साफ कर रहे हैं। आजकल के नौजवानों के लिए इन जगमगाते महापुरुषों से लगाव गत जमाने के अपने देशभक्ति और आदर्श के लिए पहचाने वाले लोगों से काफी अधिक हैं। आधुनिक समाज में इनके प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता। कहीं ये नई संस्कृति का जन्म तो नहीं? यदि हाँ तो इस जन्म के परिणाम ही कितने खतरनाक होंगे अभी से समाचार पत्रों में पढ़कर पता लगाया जा सकता है, एक समय था जब पंजाब केसरी अखबार के गुरुवार के रंगीन पेज को भी अधिकतर बच्चों से छिपा दिया जाता था। लेकिन बदलते समय में आज छोटे बच्चों के हाथ में मोबाइल और उसमें खराब फिल्में आसानी से मिल जाएगीं। सोचिये आने वाले देश के भविष्य का चरित्र कैसा होगा!

एक बच्चे का निर्माण विद्यालयों में, परिवारों में, बच्चों की परवरिश का ढंग ही निर्धारित करता है। समाज में बुनियादी तौर पर परिवार और उसके पूरक के रूप में विद्यालय ही अच्छे नागरिक बनाने का काम करते हैं। छोटे बच्चे तो कच्ची मिट्टी के गोले जैसे हैं, जैसे एक कुम्हार अपने कलाकृतियों के सहारे उससे मूर्तियां बनाते हैं, उसी तरह समाज के इन प्रतिष्ठानों को ही नागरिक बनाने का जिम्मेदारी दी गई है। लेकिन आज कालेज-स्कूल राजनीति और फूहड़ता के अड्डे बनते जा रहे हैं। ना शिक्षा बची न ढंग के शिक्षक यदि कुछ शिक्षक हैं भी तो जो विद्यादान और संस्कारों के जरिये मानवता का पाठ पढ़ाकर अच्छे नागरिक बनाने का सपना देखते हैं पर फिर भी यह उनका सपना ही रह जाता है कारण बाहरी दुनिया में नायक के रूप में शाहरुख खान भगत सिंह से ज्यादा अहमियत रखता है और लक्ष्मीबाई से सनी लियोनी कहीं अधिक लोकप्रिय बन गयी। आधुनिक फिल्मी हीरो की नकली फाईटिंग के सामने तो महाराणा प्रताप, नेताजी सुभाषचंद्र बोस,  शिवाजी महाराज की वीरता बौनी ही लगती है। हम केवल एक शानदार परम्परा को ही नहीं भूल रहे बल्कि अपना इतिहास भी मिटा रहे हैं हालाँकि कुछ लोग कहते हैं कि हम सिर्फ अतीत की जुगाली करके आगे नहीं बढ़ सकते पर हम अतीत्त से वो प्रेरणा ले सकते हैं जो हमारे हर कदम को मजबूत बनाने के लिए मदद करती है। दुनिया में कोई भी देश या जाति ने अपनी परम्परा भूलकर दूसरों की नकल करके प्रगति नहीं की यदि की तो उसका इतिहास तो बचा पर संस्कृति और भूगोल दिखाई नहीं दिया! यदि आज युवा इन आधुनिक अभिनेता/अभिनेत्रियों को अपना आदर्श समझने लगे तो युवाओं के साथ-साथ समाज और राष्ट्र का भी क्षरण होगा।...राजीव चौधरी  

बटवारे के अड्डे बनते शिक्षण संस्थान

ज्यादा पुरानी बात नहीं है सब जानते हैं 1947 में  देश के बटवारे की नींव अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रखी गयी थी। आज यह फसल जेएनयू में सिंचती नजर आ रही है। पिछले वर्ष उमर खालिद और कन्हैया कुमार की अगुवाई में जेएनयू में हुई राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के खिलाफ दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा के तत्त्वाधान में आर्य समाज ने दिल्ली में दर्जनों से ज्यादा जगह धरना प्रदर्शन कर दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाही की मांग की थी। क्योंकि आर्य समाज गुलामी की पीड़ा समझता है, राष्ट्र के साथ-साथ आर्य समाज ने भी बंटवारे का दंश झेला था। सैंकड़ों कुरबानियों के साथ आर्य समाज ने आजादी का वह मूल्य चुकाया था जिसे इतिहास कभी नहीं भुला सकता पर क्या ऐसे सभी मामलों में आर्य समाज को हर बार धरना प्रदर्शन करना पड़ेगा? जब  देश स्वतंत्र है एक लोकतान्त्रिक तरीकों से चुनी सरकार है तो सरकार अपने दायित्व की पूर्ति करे क्या संविधान में राष्ट्र विरोध के लिए कोई सजा का प्रावधान नहीं है? जो इस तरह खुलेआम अभिवयक्ति की आजादी के नाम पर राजद्रोह हो रहा है।

विद्यार्थी जीवन मानव जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समय होता है। इस काल में विद्यार्थी जिन विषयों का अध्ययन करता है अथवा जिन नैतिक मूल्यों को वह आत्मसात् करता है वही जीवन मूल्य उसके और किसी राष्ट्र के भविष्य निर्माण का आधार बनते हैं। लेकिन आज के इन शिक्षण संस्थाओं में देखें तो कुछेक छात्रों द्वारा बाकि के छात्रों के भविष्य को किसी मोमबत्ती की तरह दोनों ओर से आग लगाने का कार्य हो रहा है। फिर खबर है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से ऊपजी अस्थिरता के बाद अब डीयू में भी इस तरह की कोशिशें शुरू हो गई हैं। जेएनयू के बाद अब विचारधारा की लड़ाई डीयू तक पहुंच गई है। रामजस कॉलेज विवाद अब पूरी तरह राजनीतिक रंग ले चुका है और इसको लेकर अब डीयू के शिक्षक भी लामबंद हो गए हैं। क्या ऐसे में कोई बता सकता है कि देश के लोगों की मेहनत के टैक्स से चलने वाले यह शिक्षण संस्थान शिक्षा के केंद्र हैं या राजनीति और देशविरोधी गतिविधियों के अड्डे?

हालाँकि डीयू में ऐसा पहली बार हुआ है कि छात्रों के बीच की लड़ाई शिक्षकों की लड़ाई बन गई है, क्योंकि इसमें एक तरफ जहां वामपंथी शिक्षक संघ डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट के कई पदाधिकारी लोगों को आमंत्रित कर रहे हैं वहीं भाजपा समर्थित शिक्षक संघ नेशनल डेमोक्रेटिक टीचर्स फ्रंट सहित राष्ट्रवादी शिक्षक संघ ने भी मोर्चा खोल दिया है। ऐसे में राष्ट्र के शुभचिंतकों के सामने प्रश्न यह उपजता है कि डीयू हो या जेएनयू या फिर अन्य शिक्षण संस्थान इसमें पढ़ाने वाले शिक्षकों को वेतनमान किस कार्य के लिए दिया जाता है और पने वाले छात्रों को किस कार्य के लिए छात्रवृति प्रदान की जा रही है? यदि राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहने और उन्हें समर्थन करने के लिए तो फिर आतंकवाद, नक्सलवाद के अड्डों और इन शिक्षण संस्थानों में अंतर क्या है? आखिर क्यों कुछ चुनिन्दा छात्रों और अध्यापकों को इन शिक्षण संस्थानों से बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जा रहा है? क्यों इस संस्थानों में राष्ट्र के टुकड़े करने और बंटवारे का पाठ पढाया जा रहा है

यदि सत्ता के शिखर बैठे लोग गलतियाँ करें तो विपक्ष को ईमानदारी से उन मुद्दों को उठाना चाहिए लेकिन देशद्रोह जैसे मुद्दों पर सरकार और विपक्ष एक मत होने के बजाय राजनीति करने लगे तो देश का दुर्भाग्य ही कहलाया जायेगा। हो सकता है सक्रिय राजनीति में जाने का रास्ता स्कूल-कालेज से होकर जाता हो लेकिन जरूरी है कि दायरे में रह विद्यार्थी जीवन में राजनीति करें, और यह राजनीति शिक्षा की कीमत पर नहीं होनी चाहिए। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है  अतः जहाँ वह निवास करता है उसके आस-पास होने वाली घटनाओं के प्रभाव से वह स्वयं को अलग नहीं रख सकता है। उस राष्ट्र की राजनीतिक, धार्मिक व आर्थिक परिस्थितियाँ उसके जीवन पर प्रभाव डालती हैं। सामान्य तौर पर लोगों की यह धारणा है कि विद्यार्थी जीवन में राजनीति का समावेश नहीं होना चाहिए। 

अक्सर देश के राजनेता देश-विदेश की क्रांतियों के उदाहरण देते हुए कहते हैं कि राजनीतिक बदलाव के लिए जागरूक और पढ़े लिखे युवाओं को आगे आना होगा। उदहारण अपनी जगह सही भी है किन्तु यहाँ तो देश तोड़ने, बाँटने जैसे मुद्दे लेकर युवा आगे आ रहे हैं और विडम्बना देखिये देश के उच्च स्तर के राजनेता इन्हें इस कार्य के लिए नमन कर रहे हैं हम मानते हैं कि एक वक्त था, जब देश में राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, वीपी सिंह आदि ने राष्ट्र हितों का हवाला देकर छात्र शक्ति को जागृत किया था और लोकतांत्रिक अधिकारों के संरक्षण के साथ-साथ सत्ता परिवर्तन और खराब व्यवस्थाओं को बदलने का महत्वपूर्ण काम किया था लेकिन उनके लिए सर्वोच राष्ट्र हित था न कि आधुनिक छात्र नेताओं की तरह राष्ट्र विखंडन।

युवाओं को देश का भविष्य कहा जाता है। परन्तु जब वर्तमान में युवा ही दिशाहीन और दशाहीन होंगे तो देश का भविष्य कैसे सुधरेगा? ध्यान से देखने पर हम यह भी पाते हैं कि सोशल मीडिया के जरिये खुद को अभिव्यक्त करने वाली यह युवा पीढ़ी शिक्षा और रोजगार जैसे स्थायी मुद्दों को लेकर नहीं, बल्कि देश की नींव को बर्बाद करने वाले मुद्दों को ज्यादा तरजीह देती नजर आ रही है। शायद इसकी एक बड़ी वजह यह है कि आज देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में छात्र नेता खुद अराजकता के प्रतीक बन गए हैं और वे स्थापित राजनीतिक दलों के हाथों की कठपुतली की तरह काम कर रहे हैं। इस कारण विश्वविद्यालयों से बाहर आने पर उन्हें स्थापित दलों का चुनावी टिकट तो मिल जाता है, लेकिन उन्हें जनता का जरा भी समर्थन हासिल नहीं हो पाता है। जरूरत छात्रसंघों की राजनीति को रचनात्मक स्वरूप देने की है न कि उन्हें विभिन्न राजनीतिक दलों के हाथों कठपुतली बनने की। साफ है कि छात्रसंघ यदि सियासत के मोहरे बनना बंद कर दें तो वे देश और जनता के सामने एक नया एजेंडा और उम्मीद पेश कर सकते हैं और तभी उनके नेताओं को लेकर जनता के मन में कोई सम्मान और आस जग पाएगी। आज सरकार को देखना चाहिए कि यह आम छात्र है या खास जाति के लोग ऐसा कर रहे हैं या कुछ लोग उनको साधन बनाकर आगे बढ़ा रहे हैं। ये तत्त्व कौन से हैं इनका उद्देश्य क्या है? ये घटनाएं महत्वपूर्ण और गंभीर हैं। इन पर सरकार को संज्ञान लेना आवश्यक है।
विनय आर्य 


Monday 20 February 2017

अरसे बाद एक अच्छा बिल

अक्सर जब भी शादी में कम खर्चे और बिना किसी बड़े तामझाम के बात होती है तो आर्य समाज का नाम जरुर आता है। कारण जितना खर्चा आमतौर पर घरों में किटी पार्टी या जन्मदिवस जैसे छोटे-मोटे आयोजनों पर होता है उतने में आर्य समाज मंदिर में वैदिक रीति अनुसार वैवाहिक जोड़े शादी जैसे पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। सब जानते हैं कि आज शादी समारोह में एक पवित्र बंधन की रस्म से ज्यादा अन्य शान शौकत का ज्यादा दिखावा हो रहा है। हवन मंत्रोच्चारण और सात फेरों से ज्यादा नृत्य-गीत और शराब आदि में लोग मशगूल रहते हैं। इससे किसी को क्या दिक्कत हो रही है, यह कोई नहीं सोचता?

जल्द ही शादी-विवाह में फिजूलखर्ची रोकने, मेहमानों की संख्या सीमित करने और समारोह के दौरान परोसे जाने वाले व्यंजनों को सीमित करने के मकसद वाला एक निजी विधेयक लोकसभा में पेश किया जाएगा। लोकसभा के आगामी सत्र में विवाह ;अनिवार्य पंजीकरण और फिजूलखर्च रोकथामद्ध विधेयक, 2016 एक निजी विधेयक के रूप में पेश किया जाएगा। लोकसभा में कांग्रेस सांसद रंजीता रंजन यह निजी विधेयक पेश करेंगी, जिसमें कहा गया है कि अगर कोई परिवार विवाह के दौरान 5 लाख रुपये से अधिक राशि खर्च करता है, तब उसे गरीब परिवार की लड़कियों के विवाह में इसकी 10 प्रतिशत राशि का योगदान करना होगा।


इस विधेयक का मकसद विवाह में फिजूलखर्ची रोकना और सादगी को प्रोत्साहन देना है। शादी दो लोगों का पवित्र बंधन होता है और ऐसे में सादगी को महत्व दिया जाना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से इन दिनों शादी विवाह में दिखावा और फिजूलखर्ची बढ़ गई है। जिस कारण शादी एक बंधन कम और एक प्रतियोगिता जैसा नजर आने लगा है। हालांकि समाज का एक बड़ा हिस्सा चाहता है कि शादियों का खर्च उनकी हैसियत के अंदर रहे। वे शादियों के खर्च को सामाजिक तौर पर शान दिखाने की प्रतियोगिता से अलग रखना चाहते हैं। शायद यह बिल यही दर्शाता है कि हमारी शादी जैसी परम्पराएं तो मजबूत रहे बस शादियों के खर्च को सीमाओं में बांधने की कोशिश हो।
अक्सर देखने में आता है कि वैवाहिक समारोह में जहाँ डीजे, कानफोडू संगीत या अन्य क्रियाकलापों में कोई समय अवधि निश्चित नहीं होती कई बार तो यह शोर-शराबा पूरी रात चलता रहता है वहीं अक्सर लोग इस बात की चिंता व्यक्त करते दिख जाते हैं कि पंडित ऐसा हो जो यह रस्म कम से कम समय में पूरी कर दे। जबकि विवाह का असली मकसद मंत्रोचारण के साथ दो आत्माओं को एक पवित्र बंधन में पिरोने का कार्य होता है मसलन सिर्फ फेरों में ही जल्दबाजी क्यों?


हमारे मन में अक्सर यह सवाल आता है कि आखिर हमारे देश में खास से लेकर आम घर-परिवारों में शादियों या दूसरे समारोहों में इतने पैसे की बर्बादी क्यों होती है? आप इसका आंतरिक अध्ययन करके देखें तो पाएंगे कि भारत के हर समाज में अपनी क्षमता से अधिक पैसे शादी पर खर्च करने की मनोप्रवृत्ति काम करती है। इसके कई कारण होते हैं। अपने दैनिक जीवन में सीमित संसाधनों से अपना काम चलाने वाले व्यक्ति के लिए शादी सिर्फ एक सामाजिक समारोह न होकर यह दिखाने का अवसर बनकर रह गया कि उसने पिछले 25-30 सालों में क्या किया? आर्थिक सीढ़ियों पर कितनी पायदान इस बीच वह चढ़ चुका है यह दिखाने के लिए बेहद खर्चीली शादी एवं भव्य मकान दिखाना शेष रह गया। हमेशा इस तर्क की चोट पर भी लोग खर्च करते दिख जाते हैं कि शादी ऐसी हो जो लोग सालों तक याद रखे या फिर जिसका खाया है उसका उधार चुकाना है। हालाँकि पंडाल से बाहर आने पर किसी को याद नहीं रहता कि शादी कितनी महंगी और उसमे कितनी भव्यता थी।

पिछले दिनों देश में दो शादियों ने सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। एक तो अमीर उद्योगपति और पूर्व मंत्री जी. जनार्दन रेड्डी की बेटी ब्रह्माणी की शादी में 500 करोड़ रुपए खर्च और दूसरा सूरत में एक शादी में दूल्हा-दुल्हन के परिजनों ने बारात में आए मेहमानों को केवल एक कप चाय पिलाकर विदाई दी। इस शादी पर केवल 500 रुपये का खर्च आया। यदि इस तरह का कम खर्चे का चलन समाज में बढ़ जाये तो कन्या भूर्ण हत्या से लेकर दहेज तक एक साथ कई विसंगतियों पर लगाम लग जाएगी। 


हम विवाह समारोह के खिलाफ नहीं हैं पर इसके खर्च में दिखावे का समर्थन नहीं करते जिनके पास अकूत धन है, उनके लिए कोई परेशानी नहीं होती। लेकिन इसी तरह के दिखावे का प्रदर्शन कम पैसे वालों के भीतर भी एक स्वाभाविक भूख पैदा करता है। इसके बाद होता यही है कि आमतौर पर कम आमदनी वाले लोग भी शादी या पारिवारिक समारोहों में कर्ज लेकर सामाजिक प्रतिष्ठा एवं बच्चों की खुषी के नाम पर खर्च करते हैं। कई बार इस तरह के प्रदर्शन की चाह में लोग कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं। यह कहां की समझदारी है? कोई व्यक्ति जिन्दगी के किसी क्षेत्र में सफल होकर ज्यादा धन कमाए, इसमें किसी को क्या एतराज होगा! लेकिन विवाह पंडाल के बाहर वधु पक्ष की तरफ से खड़ी की गयी चमचमाती गाड़ी दिखावे की मानसिकता के सिवा अलावा कुछ नहीं। इसी कारण आज उपभोक्तावाद की चकाचौंध में किसी भी रास्ते विलासिता की चीजें हासिल करने की ललक ने युवकों को लालची बना दिया है। अफसोस कि इस नए दौर के नौजवान भी दहेज लेने-देने में कोई शर्म महसूस नहीं करते। अब इस प्रस्ताव के आने से हो सकता है दिखावे के इस तरह के आयोजनों पर कुछ लगाम लगे! संसद को चाहिए इस तरह के विधेयक को ध्वनिमत से पारित करें क्योंकि विवाह बेहद सादगी गरिमापूर्ण कर्त्तव्य की एक डगर बने न कि किसी शोर शराबा और फूहड़ता से भरा आयोजन।....विनय आर्य 


पाकिस्तान का दर्द दुनिया क्यों समझे?

14 फरवरी का दिन था। इस्लामबाद की सड़कों पर जिस युवक-युवती के हाथ में गुलाब का फूल दिखता पुलिस गिरफ्तार कर लेती। सरकारी फरमान था कि वेलेंटाइन डे पर कोई युवक-युवती किसी को गुलाब न दे पाए। यह विदेशी त्यौहार है इससे पूरी पाकिस्तानी कौम को खतरा होगा। जिसके बाद एक-एक कर गुब्बारे और फूल बेचने वाले गरीबों को गिरफ्तार किया गया। लेकिन उसी दिन लाहौर की सड़कों पर आतंकी खून खराबा कर हमलों की जिम्मेदारी ले रहे थे। लेकिन इस्लामाबाद बम बारूद से ज्यादा गुलाब के फूलों सा डरा सहमा सा नजर आ रहा था। उसी दिन वहां की मीडिया भी अपनी संस्कृति और इस्लाम की दुहाई देकर वेलेंटाइन डे का विरोध करती नजर आ रही। क्या कोई बता सकता है किसी मुल्क के लिए फूल खरतनाक है या बम-बारूद? युवाओ के हाथ में गुलाब सही है या असलहा? मुझे नहीं पता उनकी यह सोच इस्लामिक है या पाकिस्तानी! पर जो भी हो यह तय है कि यह सोच आने वाले भविष्य में पाकिस्तान को बर्बाद जरुर कर देगी।


सन् 1947 से दुनिया के नक्शे पर आया एक देश पाकिस्तान शायद शुरू से ही यथार्थ को भूल कल्पनाओं में जी रहा है। वह मजहब के रास्ते दुनिया को फतेह करने के रोग से शिकार दिखाई देता है। जिसका सबसे बड़ा सबूत यह कि आज भारत और अफगानिस्तान के अलावा पूरी दुनिया में आतंकवाद कहीं भी हो, उसमें पाकिस्तान के निशान जरुर दिखाई देते हैं। चाहे अमेरिका के सैनबर्नार्डिनो में तश्फीन मलिक का हाथ हो या कंधार और भारत में कोई हमला। सबमें अमूमन पाकिस्तान का ही हाथ होता है। शायद इस्लामाबाद हाफिज सईद और अजहर मसूद के जरिये जिन्ना के पाकिस्तान का नक्शा बड़ा करना चाहता है। यदि यह उनकी प्रमाणिक सोच है तो इस्लामाबाद की किस्मत में अभी काफी खून देखना बाकी है। हाल ही में हफ्ते भर के भीतर वहां एक के बाद एक कई आतंकी हमले हो चुके हैं और इन घटनाओं के निशाने पर सेना के जवान, पुलिसकर्मी, जज, पत्रकार और स्त्रियों व बच्चों समेत सभी तबकों के लोग रहे हैं। एक हफ्ते में करीब 100 से 200 लोग मारे गये। शायद भौगोलिक दृष्टि से भी इन वारदातों का दायरा व्यापक है इन सब वारदातों से पाकिस्तान अपने क्षेत्रफल से ज्यादा स्थान विश्व के अखबारों के पन्नो में पा गया।

पिछले एक सप्ताह से पाकिस्तानी अवाम और मीडिया इस बात को लेकर मुखर है कि दुनिया को पाकिस्तान का दर्द समझना चाहिए कि वह किस तरह आतंक से पीड़ित है। बिल्कुल मानवता के नाते यह समझना भी चाहिए लेकिन सवाल यह कि आतंकी अजहर मसूद को बचाने के लिए चीन से वीटो कराने वाला पाकिस्तान क्या किसी का दर्द समझता है? सब जानते है इस्लामाबाद ने आतंक को दो हिस्सों में विभक्त किया है जिसे वह अच्छा और बुरा तालिबान कहता है। उनकी नजर में भारत में मुम्बई अटेक होता है तो अच्छा तालिबान पर जब पेशावर में 150 बच्चें या शहबाज कलंदर दरगाह शाह की दरगाह पर 100 लोग मरते है तो बुरा तालिबान। उडी हमला कर 19 भारतीय जवानों की हत्या करने वाले अच्छे तालिबानी लेकिन क्वेटा में पुलिस ट्रेनिंग सेंटर पर हमला कर 61 जवानों को मारने वाले बुरे तालिबानी होते हैं।

शहबाज कलंदर  दरगाह शाह पर हमले के 24 घंटे बाद ही पाक आर्मी ने 50 से 100 के बीच आतंकियों को मार गिराने का दावा किया है। फिलहाल अफगानिस्तान से लगी सीमा भी सील कर दी गई है पर सवाल है कि इतने कम समय में, सेना ने इतनी ज्यादा जगहों पर मुठभेड़ कैसे की? क्या उसे वे सारे ठिकाने पता थे और सब कुछ जानते हुए भी खामोशी बरती जा रही थी? इन सवालों से भी पाकिस्तान अपने घर में ही घिरता नजर आ रहा है। इतिहास के कुछ पन्ने कहते है कि जिन्ना ने मुसलमानों की बेहतरी के लिए अलग पाकिस्तान की मांग की थी लेकिन थोड़े समय के बाद जिन्ना का पाकिस्तान मजहबी तंजीमों, उलेमाओं, मोलवियों और आतंकियों का पाकिस्तान बनकर रह गया और बने भी क्यों ना? क्योंकि जिस देश का प्रधानमंत्री एक आतंकी बुरहान वानी को युवाओं का रोल माडल उनका आदर्श बताने से गुरेज नहीं करता तो उस मुल्क के युवा बुरहान वानी ही बनेंगे न कि अब्दुल कलाम। जहाँ सरकारी स्तर पर आतंकियों को महिमामंडित किया जाता हो और भौतिक विज्ञानी नोबेल प्राइज विजेता प्रोफेसर अब्दुससलाम जैसे लोगों का का अपमान तो सब आसानी से सोच सकते है कि वहां युवा क्या बनेंगे
 पाकिस्तान वैश्विक मंच पर खुद को आतंक से पीड़ित देश होने का रोना रोता है। ताजा हमले से भी जाहिर होता है कि यह तथ्य अपनी जगह सही भी है। लेकिन जब काबुल या दिल्ली से आतंक से निपटने की बात की बात दोहराई जाती है तो पाकिस्तान का दोहरा चरित्र देखने को मिलता है। बलूचिस्तान, पश्चिमी वजीरिस्तान आदि में पाक आर्मी आप्रेशन जर्बे अज्ब चलाकर हवाई हमले करती है तो उसे आतंक का खात्मा आतंक के खिलाफ पाक मुहीम बताया जाता है लेकिन जब कश्मीर में भारत की फौज पर उसके पाले सांप जहर उगलते है तो इस्लामबाद की तरफ से उन्हें आजादी के परवाने कहकर होसला अफजाई होती है।

शायद अब इस्लामबाद को समझना चाहिए मजहबी आतंक किसी मुल्क के लिए लाभ का सौदा नहीं होता। इसके उदहारण के लिए उसे मिडिल ईस्ट की तरफ देखना होगा। मजहबी तंजीमो के कारण ही आज सीरिया, सूडान, इराक तबाह हुए तो सोमालिया, नाइजीरिया आदि देश भुखमरी की जिन्दगी जीने को विवश हैं। इस्लामाबाद को अजहर मसूद, हाफिज सईद, सयैद सलाहुदीन जैसे मानवता के खून के प्यासे दरिंदों से बचना होगा। आतंक के भेद में गुड- बेड तालिबान के फेर से बाहर आना होगा। अपना दर्द किसी को समझाने से पहले दिल्ली और काबुल का दर्द भी समझना होगा। इसके बाद ही लोग पाकिस्तान का दर्द समझ पाएंगे।
-राजीव चौधरी