Sunday 12 February 2017

बिना धर्म के लोग!!

कश्मीर से हिन्दू निकाले गये उन्हें राजनीति से बड़े आराम से कह दिया कि नहीं-नहीं  साहब वहां से पंडित निकाले गये. सब चुप कि चलो पंडित निकले. मुजफरनगर में दंगा हुआ उसे बड़ी सावधानी से मीडिया और राजनीति ने यह कह दिया कि नहीं साहब ये हिन्दू-मुस्लिम नहीं यह तो जाट-मुस्लिम दंगा था सब चुप कि चलो हिन्दू मुस्लिम होता तो देखते. मालाबार में लाखों हिन्दू मारे गये पर तब कहा गया कि ये वहां के  नम्बूदरी ब्राह्मणों और मुस्लिमों के बीच दंगा था. कैराना से हिन्दू निकाले गये मीडिया ने कहा नहीं- नहीं साहब यह तो मात्र कुछ व्यापारियों का पलायन था. अभी बंगाल के धुलागढ़ में हिन्दुओं पर अत्याचार हुआ तो कहा गया नहीं-नहीं यह तो दलितों और मुस्लिमों के बीच का मामला था. यदि ऐसा है तो फिर क्या भारत की 80 फीसदी बहुसंख्यक आबादी बिना धर्म की है? इन्हें किस एजेंडे के तहत जातिवाद में बांटा जा रहा है बस आज यही सोचने का विषय है  कि जब इनकी राजनीतिक और मीडियाई पहचान जाति से तो क्या यह बिन धर्म के लोग है?

क्या कभी देश में फिर ऐसा चाणक्य आएगा जो एक एक बिखरी हुई आबादी का नेतृत्व करने की काबलियत रखता हो? अनैतिक राजनीतिज्ञों से निपटने और विश्व राजनीति के दाँवपेचों को भी समझने की उनकी क्षमता रखता हो? शायद सबका जवाब होगा कि चाणक्य तो है पर बिखरा जनसमूह साथ नहीं देता. यह एक पीड़ा है जो सब देशवासियों के मन को द्रवित करती है. वैसे राजनीति पर लिखना तो नहीं चाहता पर देश अपना है, समाज अपना है, धर्म अपना है तो कर्तव्यवश लिखना मजबूरी बन जाता है. बहराल अभी देश में पांच राज्यों में चुनाव है. जिनमें जातिगत समीकरण बनाकर देश और समाज को बांटने का काम होता दिखाई दे रहा है.

इस विषय में मुझे रह-रहकर 2014 लोकसभा चुनाव के दौरान पाकिस्तानी न्यूज रूम में बैठे उनके राजनेतिक विचारक जफर हिलाली की बात याद आती कि मोदी को रोकना है तो वहां के अन्य राजनैतिक दलों को हिन्दुओ को जात-पात में बाँट देना चाहिए. हालाँकि मुझे वर्तमान राजनीति से इतना लगाव नहीं है किन्तु में हतप्रभ था कि शत्रु हमारी कमजोरी से कदर वाकिफ है. अभी हाल ही में  उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में हमेशा की तरह मुस्लिम वोटों को लेकर राजनीतिक दलों में जबरदस्त रस्साकशी जारी है. सवाल ये उठ रहा है कि क्या मुसलमानों का वोट किसकी झोली में जाएगा या फिर कई पार्टियों में बंट जाएगा? इसलिए सभी राजनैतिक दल अपनी-अपनी हैसियत से बढ़कर खुद को मुस्लिम हितेषी साबित करने का प्रयास कर रहे है. यदि ऐसे में कोई पार्टी हिन्दू हितेषी होने की बात करें भी तो मीडिया और तथाकथित सेकुलर पार्टियाँ उसका साम्प्रदायिक होने का आरोप जड़कर बहिष्कार करने की कोशिश करती है.

खैर तथाकथित धर्मनिपेक्ष पार्टियाँ खुद जाट-मुस्लिम, दलित-मुस्लिम, यादव-मुस्लिम तो कोई गुज्जर या राजपूत या ब्राहमण मुस्लिम समीकरण बनाने में जुटी है. इन सारे जातीय समीकरणों को देखकर मन में टीस अवश्य उठती है कि क्या देश में हिन्दू खत्म हो गये? या सब सत्ता स्वार्थ में जातियों में बंटकर रह गये? यदि ऐसा है तो नई गुलामी की आदत अभी से डालनी होगी!! इतिहास गवाह रहा है कि कुछ लोगों ने सत्ता के पायों को मजबूत रखने के लिए सदैव राष्ट्रवाद को कमजोर करने के वे सभी तरीके अपनाएं हैं, जो राष्ट्र के हित में नहीं थे. अंग्रेजों के जाने के बाद आजाद भारत में लोकतंत्र प्रारम्भ हुआ. लेकिन राजनेताओ ने अपने व्यक्तिगत सुख और महत्वकांक्षी जीवन के लिए इसे जातितंत्र बना डाला. यदि गौर करें तो देश पर जातियों का ही प्रभुत्व दिखाई देता है न कि धर्म का.


जब देश आजाद हुआ तो भारत के पास अपनी विश्वकल्याणकारी संस्कृति और अपना धर्म था. हमारे पास जो था वह अन्य देशों के पास नहीं था. लेकिन दु:ख की बात यह है कि जातिवाद से निकले नेताओं ने इन चीजों को सहेजने के बजाय उनको नष्ट किया. मामला सिर्फ चुनाव तक सीमित रहता तो भी कोई बड़ी बात नहीं थी लेकिन जिस तरह जातिवाद सामाजिक स्तर पर फैल रहा है वो आने वाले दिनों में एक मीठे स्वर में लिपटे इस राष्ट्र को पीड़ा की कराह में बदल देगा. अक्तूबर, 2014 में आयोग द्वारा जारी आदेश के जवाब में पुलिस मुख्यालय ने स्वीकार किया है कि पटना की न्यू पुलिस लाइन की रसोई और बैरक अलग-अलग जातियों में बंटी हुई है. इससे पहले साल 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी पुलिस लाइन के जातीय चूल्हे बंद कराने का निर्देश दिया था. लेकिन कोई फर्क़ पड़ा नहीं था.

मुगल शासन, अंग्रेजी शासन से मुक्ति के लिए क्या ऐसी ही आजादी के लिए करोड़ों देशभक्तों ने अपने प्राणों की आहुतियां इस लिए दीं थी कि इतनी कुर्बानियां देने के पश्चात भी सत्ताधीश नेता भारतमाता के साथ धोखा करेंगे? देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज को जितना अपमानित इस देश में किया गया उतना शायद ही किसी अन्य देश में किया गया हो. हिन्दू समाज की दर्दनाक उपेक्षा और प्रताड़ना की गई. इसे जाति में इस तरह विभाजित कर दिया कि एक देश एक समाज सर्वसमाज के चीथड़े उड़ा दिए. वोट के लिए राष्ट्रवाद और सामाजिक समरसता को दाव इस तरह खेला कि प्रजातंत्र मात्र भ्रम बनकर रह गया. क्योंकि प्रजा जिस तंत्र को चलाती है, उसे प्रजातंत्र कहते हैं, लेकिन यहां इसके उलट हो रहा है. प्रजा तो सिर्फ एक बार वोट दे देती है, उसके बाद तो पांच साल देश और हमारे लोगों को ये नेता चलाते हैं.
  अजब जूनून है इस दौर के नेताओं का... तू धर्म के लिए मर गया तो तुझे फिर जाति के नाम पर जला कर मारेंगे.राजीव चौधरी 


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