Tuesday 28 March 2017

हम अंग्रेजी नववर्ष क्यों मनाये ?

  • किसी राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता वहां के मूल निवासियों के हाथ में होती है. वो खुद तय करते है किस संस्कृति का हिस्सा बने या अपनी संस्कृति का कितना फैलाव करे ? आमतौर पर नववर्ष का नाम आते ही १ जनवरी हमारे दिमाग में आता है यह जानते हुए भी की वो तारीख अंग्रेजी कलेंडर के हिसाब से हम पर थोप दी गयी है. वरना हमारे हिंदी कलेंडर के हिसाब से उसमें कुछ भी नया नहीं है. लेकिन एक बहाव में हम बह जाते है. किसी भी राष्ट्र्र को उन्नति का उतुन्ग शिखर अवश्य स्पर्श करना चाहिए यह वहां के निवासियों का मूल अधिकार भी है. लेकिन अपनी संस्कृति और सभ्यता से समझोता करके नहीं. इससे हम आने वाली पीढ़ी के साथ एक छलावा कर जाते है क्योंकि जो  कुछ विरासत के  तौर पर हमें मिला वो हम अगली पीढ़ी को दे न पायें तो किस्म से हम संस्कृति के उपहास के कारक कहलायें जायेंगे. कल जब हम  बच्चों को  अगर माघ, पौष, फाल्गुन इत्यादि हिंदी महीनों के नाम बोले तो वो आपकी और अचरज भरी नजरों से देखेंगे जैसे आप किसी और ग्रह के प्राणी हो!

  • पिछले वर्ष मुझे अक्टूबर में नेपाल अंतरराष्ट्रीय महासम्मेलन का हिस्सा बनने का गौरव प्राप्त हुआ था. एक चीज जो हम खुद को हिन्दू राष्ट्र बनाने का दावा ठोकते है यहाँ के बजाय वहां नजर आयी. वो थी हमारी संस्कृति. वहां गाड़ियों की नम्बर प्लेट पर आपको हिंदी भाषा के अंक और शब्द शुद्ध देवनागरी लिपि में लिखे मिलेंगे. भले ही उस राष्ट्र को गरीब मुल्क समझा जाता हो किन्तु वो राष्ट्र संस्कृति के मामले में हमसे बहुत अधिक समर्ध है वहां सरकारी छुट्टी रविवार की बजाय शनिवार को होती है रविवार उनके यहाँ सप्ताह के शुरुवात का दिन है न की अंत का. भले ही हम अपनी राजनैतिक आजादी पाने में तो सफल रहे किन्तु सांस्कृतिक गुलामी में अभी भी हमे जकड़े हुए है.
  • आप सभी सोच रहे होंगे की यह सब तो अब हमारे प्रचलन का हिस्सा हैं इससे दूर कैसे जाया सकता है पढने सुनने तक तो यह बात अच्छी लगती है लेकिन इसे असल जीवन शैली में कैसे उतारे. लोग रूढ़िवादी विचारधारा का समझेंगे या कहेंगे कि ये चला संस्कृति बचाने. नहीं ऐसा नहीं है! जब हम गर्व के साथ अपनी संस्कृति को ऊपर उठाएंगे तो निश्चित ही हजार लोग आपके साथ खड़े होंगे. अभी हाल ही में होली के दो दिन बाद पढ़ रहा था कि पूरे यूरोप के साथ अमेरिका में इस वर्ष जगह-जगह आयोजन कर लोगों ने होली खेली. वहां कि मीडिया ने भी इस त्यौहार को हाथों हाथ लिया कारण वहां गये भारतीयों ने अपने इस त्यौहार को गर्व के साथ उन लोगों के सामने रखा, न की अपनी सोसायटी में इसे फालतू का त्यौहार कहा. जरा सोचिये अपनी संस्कृति और उसके वैज्ञानिक कारणों को अन्य के सामने रखेंगे तो निश्चित ही दूसरा प्रभाव में आयेगा.
  • एक जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है. इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया. भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अंग्रेजी शासकों ने 1752 में किया. अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अग्रेजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया. 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से शुरू होता था किन्तु 18वीं सदी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी. भारत गुलाम था अंगेजों के मातहत कार्य करने वाले भारतीयों की मजबूरी थी कि इस नववर्ष का पालन करें. मातहतों अधिकारीयों के आदेश का पालन करने वाली भारतीय जनता धीरे धीरे इसे ही नववर्ष समझने लगी. जो आज ३१ दिसम्बर की रात को शराब और शबाब का एक त्यौहार बनकर रह गया है. आज का युवा इस कदर इसकी चपेट में है कि दिसम्बर माह में ही कार्यक्रम तैयार होने लगते है कि कैसे और कहाँ ३१ की रात धन और समय की बर्बादी करें
  • दो चीज होती है जिसका मैं बार-बार जिकर कर रहा हूँ एक संस्कृति और दूसरी सभ्य्यता इनमे थोडा भेद होता है संस्कृति का अर्थ होता है हमारे रीती-रिवाज, हमारी सामाजिक व पारिवारिक परम्पराएँ हमारे त्यौहार उन्हें मनाने का ढंग हमारी पूजा उपासना पद्धति. दूसरा हमारी सभ्यता इसके अंतर्ग्रत आता है हमारा रहन-सहन हमारा भवन निर्माण हमारा खान-पान हमारा पहनावा हमारी भाषा. अब जरा दो मिनट गौर से सोचिये क्या ये दोनों चींजे आज हमारे पास उसी असल रूप में जैसी हम चर्चा करते है? चलो मान लिया समय के साथ परिवर्तन होता हैं. सभ्यता में थोडा बहुत परिवर्तन आता है लेकिन इतना नहीं कि हम अपना सब कुछ एक बहाव में चौपट कर दे. इतिहास साक्षी है वो राष्ट्र कभी नहीं मरते जो अपनी मूल संस्कृति और सभ्यता बचा कर अगली पीढ़ी तक पहुंचाते है. आज इस विषय में एक बात और सोचनीय है कि हम हजारों साल की गुलामी के बाद भी आज अपने मूल धर्म में कैसे जिन्दा है? जो चीज हमारे पुरखों ने तलवार और बन्दुक के साये में नहीं गवाईं वो चीज हमने मात्र कुछ सालों में खुद को आधुनिक दिखाने में गवां दी.
  • इकत्तीस दिसम्बर के नजदीक आते ही जगह-जगह जश्न मनाने की तैयारियां प्रारम्भ हो जाती हैं. होटल, रेस्तरॉ, पब इत्यादि अपने-अपने ढंग से इसके आगमन की तैयारियां करने लगते हैं. ‘हैप्पी न्यू ईयर’ के बैनर, होर्डिंग, पोस्टर व कार्डों के साथ दारू की दुकानों की भी चांदी कटने लगती है. कहीं कहीं तो जाम से जाम इतने टकराते हैं कि घटनाऐं दुर्घटनाओं में बदल जाती हैं और मनुष्य मनुष्यों से तथा गाड़ियां गाडियों से भिडने लगते हैं.
  • हम भारतीय भी पश्चिमी अंधानुकरण में इतने सराबोर हो जाते हैं कि उचित अनुचित का बोध त्याग अपनी सभी सांस्क्रतिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे बैठते हैं . जिसका न कोई धार्मिक और न ही वैज्ञानिक आधार है. किन्तु विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिध्दांत व ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है. इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है. इतना ही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है. इसी वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारम्भ करने की बात हो, सभी में हम एक कुशल पंडित के पास जाकर शुभ लग्न व मुहूर्त पूछते हैं. और तो और, देश के बडे से बडे राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इंतजार करते हैं जो कि विशुध्द रूप से विक्रमी संवत् के पंचांग पर आधारित होता है. राष्ट्र के स्वाभिमान व देश प्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुडे हुए हैं. यह वह दिन है जिस दिन से भारतीय नव वर्ष प्रारम्भ होता है जब यह नववर्ष प्रारम्भ होता है तो शरीर में रक्त बदलता है, बर्फ से जमी झील पिघलने लगती है नदियों में नया पानी, वृक्षों की शाखाओं पर नये पत्ते, पेड़ों पर नये फूल, यानि के सब कुछ नया होने लगता है बसंत का सुहावना मौसम होता है ! किसानों के चेहरे पर उल्लास होता है. भारत के सारे त्योहार का प्रकृति साथ देती है एक जनवरी वाले नव वर्ष में ऐसा कोई भी प्राकृतिक संदेश नहीं होता जिससे समाज को खुशी का अहसास होता हों या फिर प्रकृति में कोई बदलाव या नयापन हो
  • विनय आर्य 

Friday 24 March 2017

शहीद भगत सिंह के जीवन के आखिरी 12 घंटे

लाहौर सेंट्रल जेल में 23 मार्च, 1931 की शुरुआत किसी और दिन की तरह ही हुई थी. फ़र्क सिर्फ़ इतना सा था कि सुबह-सुबह ज़ोर की आँधी आई थी.

लेकिन जेल के क़ैदियों को थोड़ा अजीब सा लगा जब चार बजे ही वॉर्डेन चरत सिंह ने उनसे आकर कहा कि वो अपनी-अपनी कोठरियों में चले जाएं. उन्होंने कारण नहीं बताया.
उनके मुंह से सिर्फ़ ये निकला कि आदेश ऊपर से है. अभी क़ैदी सोच ही रहे थे कि माजरा क्या है, जेल का नाई बरकत हर कमरे के सामने से फुसफुसाते हुए गुज़रा कि आज रात भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दी जाने वाली है.
उस क्षण की निश्चिंतता ने उनको झकझोर कर रख दिया. क़ैदियों ने बरकत से मनुहार की कि वो फांसी के बाद भगत सिंह की कोई भी चीज़ जैसे पेन, कंघा या घड़ी उन्हें लाकर दें ताकि वो अपने पोते-पोतियों को बता सकें कि कभी वो भी भगत सिंह के साथ जेल में बंद थे.

बरकत भगत सिंह की कोठरी में गया और वहाँ से उनका पेन और कंघा ले आया. सारे क़ैदियों में होड़ लग गई कि किसका उस पर अधिकार हो. आखिर में ड्रॉ निकाला गया.
अब सब क़ैदी चुप हो चले थे. उनकी निगाहें उनकी कोठरी से गुज़रने वाले रास्ते पर लगी हुई थी. भगत सिंह और उनके साथी फाँसी पर लटकाए जाने के लिए उसी रास्ते से गुज़रने वाले थे.

एक बार पहले जब भगत सिंह उसी रास्ते से ले जाए जा रहे थे तो पंजाब कांग्रेस के नेता भीमसेन सच्चर ने आवाज़ ऊँची कर उनसे पूछा था, "आप और आपके साथियों ने लाहौर कॉन्सपिरेसी केस में अपना बचाव क्यों नहीं किया."
भगत सिंह का जवाब था, "इन्कलाबियों को मरना ही होता है, क्योंकि उनके मरने से ही उनका अभियान मज़बूत होता है, अदालत में अपील से नहीं."

वॉर्डेन चरत सिंह भगत सिंह के ख़ैरख़्वाह थे और अपनी तरफ़ से जो कुछ बन पड़ता था उनके लिए करते थे. उनकी वजह से ही लाहौर की द्वारकादास लाइब्रेरी से भगत सिंह के लिए किताबें निकल कर जेल के अंदर आ पाती थीं. भगत सिंह को किताबें पढ़ने का इतना शौक था कि एक बार उन्होंने अपने स्कूल के साथी जयदेव कपूर को लिखा था कि वो उनके लिए कार्ल लीबनेख़ की 'मिलिट्रिज़म', लेनिन की 'लेफ़्ट विंग कम्युनिज़म' और अपटन सिनक्लेयर का उपन्यास 'द स्पाई' कुलबीर के ज़रिए भिजवा दें.

भगत सिंह जेल की कठिन ज़िंदगी के आदी हो चले थे. उनकी कोठरी नंबर 14 का फ़र्श पक्का नहीं था. उस पर घास उगी हुई थी. कोठरी में बस इतनी ही जगह थी कि उनका पाँच फिट, दस इंच का शरीर बमुश्किल उसमें लेट पाए.

भगत सिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने पहुंचे. मेहता ने बाद में लिखा कि भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे.
उन्होंने मुस्करा कर मेहता को स्वागत किया और पूछा कि आप मेरी किताब 'रिवॉल्युशनरी लेनिन' लाए या नहीं? जब मेहता ने उन्हे किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे मानो उनके पास अब ज़्यादा समय न बचा हो.
मेहता ने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बग़ैर कहा, "सिर्फ़ दो संदेश... साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और 'इंक़लाब ज़िदाबाद!"

इसके बाद भगत सिंह ने मेहता से कहा कि वो पंडित नेहरू और सुभाष बोस को मेरा धन्यवाद पहुंचा दें, जिन्होंने मेरे केस में गहरी रुचि ली थी. भगत सिंह से मिलने के बाद मेहता राजगुरु से मिलने उनकी कोठरी पहुंचे.
राजगुरु के अंतिम शब्द थे, "हम लोग जल्द मिलेंगे." सुखदेव ने मेहता को याद दिलाया कि वो उनकी मौत के बाद जेलर से वो कैरम बोर्ड ले लें जो उन्होंने उन्हें कुछ महीने पहले दिया था.

मेहता के जाने के थोड़ी देर बाद जेल अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों को बता दिया कि उनको वक़्त से 12 घंटे पहले ही फांसी दी जा रही है. अगले दिन सुबह छह बजे की बजाय उन्हें उसी शाम सात बजे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा.
भगत सिंह मेहता द्वारा दी गई किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाए थे. उनके मुंह से निकला, "क्या आप मुझे इस किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे?"

भगत सिंह ने जेल के मुस्लिम सफ़ाई कर्मचारी बेबे से अनुरोध किया था कि वो उनके लिए उनको फांसी दिए जाने से एक दिन पहले शाम को अपने घर से खाना लाएं.
लेकिन बेबे भगत सिंह की ये इच्छा पूरी नहीं कर सके, क्योंकि भगत सिंह को बारह घंटे पहले फांसी देने का फ़ैसला ले लिया गया और बेबे जेल के गेट के अंदर ही नहीं घुस पाया.

थोड़ी देर बाद तीनों क्रांतिकारियों को फांसी की तैयारी के लिए उनकी कोठरियों से बाहर निकाला गया. भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने अपने हाथ जोड़े और अपना प्रिय आज़ादी गीत गाने लगे-
कभी वो दिन भी आएगा
कि जब आज़ाद हम होंगें
ये अपनी ही ज़मीं होगी
ये अपना आसमाँ होगा.
फिर इन तीनों का एक-एक करके वज़न लिया गया. सब के वज़न बढ़ गए थे. इन सबसे कहा गया कि अपना आखिरी स्नान करें. फिर उनको काले कपड़े पहनाए गए. लेकिन उनके चेहरे खुले रहने दिए गए.
जैसे ही जेल की घड़ी ने 6 बजाय, क़ैदियों ने दूर से आती कुछ पदचापें सुनीं. उनके साथ भारी बूटों के ज़मीन पर पड़ने की आवाज़े भी आ रही थीं. साथ में एक गाने का भी दबा स्वर सुनाई दे रहा था, "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है..."
सभी को अचानक ज़ोर-ज़ोर से 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' और 'हिंदुस्तान आज़ाद हो' के नारे सुनाई देने लगे. फांसी का तख़्ता पुराना था लेकिन फांसी देने वाला काफ़ी तंदुरुस्त. फांसी देने के लिए मसीह जल्लाद को लाहौर के पास शाहदरा से बुलवाया गया था.
भगत सिंह इन तीनों के बीच में खड़े थे. भगत सिंह अपनी माँ को दिया गया वो वचन पूरा करना चाहते थे कि वो फाँसी के तख़्ते से 'इंक़लाब ज़िदाबाद' का नारा लगाएंगे.

लाहौर ज़िला कांग्रेस के सचिव पिंडी दास सोंधी का घर लाहौर सेंट्रल जेल से बिल्कुल लगा हुआ था. भगत सिंह ने इतनी ज़ोर से 'इंकलाब ज़िंदाबाद' का नारा लगाया कि उनकी आवाज़ सोंधी के घर तक सुनाई दी.
उनकी आवाज़ सुनते ही जेल के दूसरे क़ैदी भी नारे लगाने लगे. तीनों युवा क्रांतिकारियों के गले में फांसी की रस्सी डाल दी गई. उनके हाथ और पैर बांध दिए गए. तभी जल्लाद ने पूछा, सबसे पहले कौन जाएगा?
सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर लटकने की हामी भरी. जल्लाद ने एक-एक कर रस्सी खींची और उनके पैरों के नीचे लगे तख़्तों को पैर मार कर हटा दिया. काफी देर तक उनके शव तख़्तों से लटकते रहे.
अंत में उन्हें नीचे उतारा गया और वहाँ मौजूद डॉक्टरों लेफ़्टिनेंट कर्नल जेजे नेल्सन और लेफ़्टिनेंट कर्नल एनएस सोधी ने उन्हें मृत घोषित किया.
एक जेल अधिकारी पर इस फांसी का इतना असर हुआ कि जब उससे कहा गया कि वो मृतकों की पहचान करें तो उसने ऐसा करने से इनकार कर दिया. उसे उसी जगह पर निलंबित कर दिया गया. एक जूनियर अफ़सर ने ये काम अंजाम दिया.
पहले योजना थी कि इन सबका अंतिम संस्कार जेल के अंदर ही किया जाएगा, लेकिन फिर ये विचार त्यागना पड़ा जब अधिकारियों को आभास हुआ कि जेल से धुआँ उठते देख बाहर खड़ी भीड़ जेल पर हमला कर सकती है.
इसलिए जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई. उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और उस पर बहुत अपमानजनक तरीके से उन शवों को एक सामान की तरह डाल दिया गया.
पहले तय हुआ था कि उनका अंतिम संस्कार रावी के तट पर किया जाएगा, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फैसला लिया गया.
उनके पार्थिव शरीर को फ़िरोज़पुर के पास सतलज के किनारे लाया गया. तब तक रात के 10 बज चुके थे. इस बीच उप पुलिस अधीक्षक कसूर सुदर्शन सिंह कसूर गाँव से एक पुजारी जगदीश अचरज को बुला लाए.
अभी उनमें आग लगाई ही गई थी कि लोगों को इसके बारे में पता चल गया. जैसे ही ब्रितानी सैनिकों ने लोगों को अपनी तरफ़ आते देखा, वो शवों को वहीं छोड़ कर अपने वाहनों की तरफ़ भागे. सारी रात गाँव के लोगों ने उन शवों के चारों ओर पहरा दिया.
अगले दिन दोपहर के आसपास ज़िला मैजिस्ट्रेट के दस्तख़त के साथ लाहौर के कई इलाकों में नोटिस चिपकाए गए जिसमें बताया गया कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का सतलज के किनारे हिंदू और सिख रीति से अंतिम संस्कार कर दिया गया.

इस ख़बर पर लोगों की कड़ी प्रतिक्रिया आई और लोगों ने कहा कि इनका अंतिम संस्कार करना तो दूर, उन्हें पूरी तरह जलाया भी नहीं गया. ज़िला मैजिस्ट्रेट ने इसका खंडन किया लेकिन किसी ने उस पर विश्वास नहीं किया.
इस तीनों के सम्मान में तीन मील लंबा शोक जुलूस नीला गुंबद से शुरू हुआ. पुरुषों ने विरोधस्वरूप अपनी बाहों पर काली पट्टियाँ बांध रखी थीं और महिलाओं ने काली साड़ियाँ पहन रखी थीं.
लगभग सब लोगों के हाथ में काले झंडे थे. लाहौर के मॉल से गुज़रता हुआ जुलूस अनारकली बाज़ार के बीचोबीच रूका.
अचानक पूरी भीड़ में उस समय सन्नाटा छा गया जब घोषणा की गई कि भगत सिंह का परिवार तीनों शहीदों के बचे हुए अवशेषों के साथ फिरोज़पुर से वहाँ पहुंच गया है.

जैसे ही तीन फूलों से ढ़के ताबूतों में उनके शव वहाँ पहुंचे, भीड़ भावुक हो गई. लोग अपने आँसू नहीं रोक पाए.
वहीं पर एक मशहूर अख़बार के संपादक मौलाना ज़फ़र अली ने एक नज़्म पढ़ी जिसका लब्बोलुआब था, 'किस तरह इन शहीदों के अधजले शवों को खुले आसमान के नीचे ज़मीन पर छोड़ दिया गया.'
उधर, वॉर्डेन चरत सिंह सुस्त क़दमों से अपने कमरे में पहुंचे और फूट-फूट कर रोने लगे. अपने 30 साल के करियर में उन्होंने सैकड़ों फांसियां देखी थीं, लेकिन किसी ने मौत को इतनी बहादुरी से गले नहीं लगाया था जितना भगत सिंह और उनके दो कॉमरेडों ने.
किसी को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि 16 साल बाद उनकी शहादत भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के अंत का एक कारण साबित होगी और भारत की ज़मीन से सभी ब्रिटिश सैनिक हमेशा के लिए चले जाएंगे.
 -राजीव चौधरी साभार बीबीसी  (ये लेख मालविंदर सिंह वड़ाइच की किताब 'इटर्नल रेबल', चमनलाल की 'भगत सिंह डॉक्यूमेंट्स' और कुलदीप नैयर की किताब 'विदाउट फियर' में प्रकाशित सामाग्री पर आधारित है.)