Saturday 11 March 2017

इस्लामिक स्टेट पर सवाल!!

 आखिरकार एटीएस ने बड़े ही धैर्य का परिचय देते लखनऊ मुठभेड़ में इस्लामिक स्टेट के आतंकी सैफुल्लाह को मार गिराया. इसमें गर्व करने की बात यह है कि आतंकी सैफुल्लाह के पिता मो. सरफराज ने बेटे को देशद्रोही मानते हुए लाश लेने से यह कहकर मना कर दिया जो देश का न हुआ वो मेरा क्या था! लेकिन कुछ लोग इसमें आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट का नाम जोड़ने से सवाल उठा रहे है. यह सवाल पिछले साल उस समय भी उठा था, जब केरल से मुस्लिम युवाओं का एक गुट अचानक गायब हो गया था. अटकलें लगीं थी कि वे सीरिया जा कर इस्लामिक स्टेट से जुड़ गए हैं. यही सवाल केरल, महाराष्ट्र, हैदराबाद और कर्नाटक में कई मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारियों के बाद भी उठा था.

आज जो नेता लोग आतंकी सैफुल्लाह के तार इस्लामिक स्टेट से जोड़ने पर सबूत मांग रहे क्या उन्हें नहीं पता कि मई 2016 में आईएस ने एक वीडियो जारी किया था जिसमें भारतीय रंगरूटों को सीरिया में ट्रेनिंग लेते हुए दिखाया गया था और समर्थकों से अपने इलाके में आने की अपील की गई थी. इसके बाद 19 मई को जारी एक वीडियो में कई हिंदी भाषी सदस्यों को दिखाया गया था जिनमें दो का दावा था कि वो भारत छोड़ने के बाद आईएस में शामिल हुए और अफगानिस्तान के पाकिस्तान से सटे इलाके में जिहाद में सक्रिय हैं. 29 अक्टूबर 2016 में एक अन्य रेडियो प्रसारण में कहा गया था, अगर अरब नायकों के घोड़े दजला और फरात का पानी पी रहे हैं, तो जल्द ही खुरासान नायकों के घोड़े भी गंगा और यमुना का पानी पियेंगे. खुरासान इस्लामिक स्टेट की दक्षिण एशिया की शाखा का नाम है, जो अफगानिस्तान में काफी सक्रिय है. क्या ऐसे लोगों को यह सब सबूत काफी नहीं है?

अक्तूबर 2008 में पानीपत में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा था कि जो लोग आतंकवाद के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकने का प्रयास कर रहे हैं, वे देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं और उनसे बच कर रहना चाहिए. ऐसे लोग देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं. लेकिन इसके बाद कई बार खुद कांग्रेस ही आतंक पर राजनीति कर चुकी है. हालाँकि आतंक पर संवेदना और सेना की कारवाही पर सवाल उठाना इस देश की राजनीति का हिस्सा बन चूका है. चाहे इसमें पूर्व में बाटला हॉउस मुठभेड़ हो या गुजरात का इशरत जहाँ एनकाऊंटर या फिर वर्तमान में भारतीय सेना द्वारा गुलाम कश्मीर में आतंक पर सर्जिकल स्ट्राइक इन सबमें कहीं राजनैतिक शक्तियाँ जमा होकर बयानबाजी करती नजर आई तो कहीं मानवाधिकार आयोग के नाम पर इनके प्रति सवेंदना का भरपूर दिखावा हुआ. जबकि आतंकवादियों को राजनीतिक समर्थन मिलना देश की सहिष्णु व शांतिप्रिय जनता के लिए नितांत दुखद है.

कई जगह राज्य सरकारें जहां संघीय स्वायत्तता का अनुचित लाभ उठा रही हैं.जिस कारण वोट के स्वार्थ ने राष्ट्रीय दायित्वबोध को हाशिए पर डाल दिया है. क्या राजनीति और मजहब को एक लोकतंत्र में अलग-अलग नहीं किया जा सकता है? क्या अतिवादी विचारधारा का तुष्टीकरण करना गणतंत्र की भावना के विरुद्ध नहीं है? राजनीति और मजहब में एक दूरी आवश्यक है. राजनीति और मजहब के संबंध में तथ्यों से छेड़छाड़ करने और तुष्टीकरण की नीति अपनाने के दूरगामी परिणाम देश की आंतरिक सुरक्षा की कब्र खोदने जैसे होंगे. मुंबई में हुए सिलसिलेवार धमाको के दोषी याकूब मेमन के जनाजे में शामिल होकर यह कहना यह की याकूब की हत्या राजनेतिक हत्या है जबकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर याकूब को फांसी हुई थी. यह कैसी राजनीति है? आखिर क्या धर्म विशेष से जुड़े लोगों की राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से ही वोट लेने का कार्य होता है? जबकि इस देश के लिए ब्रिगेर्डियर उस्मान समेत वीर अब्दुल हमीद ने सहादत दी थी लेकिन उनके और उनके परिवार के लिए कोई खड़ा नहीं होता. क्या राजनीति की दुकान मात्र राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहने वाले लोगों को क्लीन चिट देने के लिए रह गयी?

पंजाब के मुख्यमंत्री रहे बेअंत सिंह, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर आतंकवाद को नेस्तनाबूद किया और उनके हत्यारे बलवंत राजोआना ने खुद अपना जुर्म कबूल लिया था. लेकिन विडंबना देखिए, निचली अदालत में फांसी की सजा मिलने के बाद उसने ऊपरी अदालत में अपील भी नहीं की थी. बावजूद इसके सिख अस्मिता की राजनीति के चलते माफी की मुहिम को पंजाब में जमकर तूल दिया गया था. इस दौरान सिख और गैर सिखों के बीच सांप्रदायिक वैमनस्यता फैलाने की कोशिशें हुई थी. 1998 में भाजपा गठबंधन के केंद्रीय सत्ता में आने के बाद से पिछले दो दशकों में दो प्रमुख राष्ट्रीय दलों कांग्रेस और भाजपा में इस पर मतभेद बने रहे कि आतंक को मजहब से जोड़े जाने की चुनौती से कैसे पार पाई जाए. अफसोस कि दोनों दलों के मतभेद और उनके द्वारा अख्तियार किए गए रुख का निष्कर्ष शून्य ही रहा, बल्कि इसने आतंक की चुनौती से निपटने के राष्ट्रीय संकल्प को कुछ कमजोर ही किया.
अक्सर कहा जाता है कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता. निरूसंदेह वह रंग देखकर हमला नहीं करता, लेकिन जब कोई आतंक फैलता है तो सरकार को निष्पक्ष और प्रभावी रूप से इस चुनौती से निपटना चाहिए या इसमें मजहब का नाम लेकर या वोट बटोरने के लिए स्वेत पत्र दिए जाये? क्या आपको नहीं लगता कि इन बयानों की प्रतिछाया में आतंक और कट्टरता मजबूत होती है. आतंक के प्रति संवेदना से देश के कथित मानवाधिकारवादी तो खुश हो सकते हैं लेकिन आम नागरिक नहीं! आम नागरिक आतंक पर राजनीति नहीं चाहता कारवाही चाहता जिससे संविधान की भावना के अनुरूप धार्मिक सौहा‌र्द्र और बंधुत्व की भावना न सिर्फ बनी रहे, बल्कि सुरक्षित भी रहे. वो संविधान भी सुरक्षित रहे जिसकी वीं वर्षगांठ हमने पिछली 26 जनवरी को मनाई थी.
 राजीव चौधरी 


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