Friday 28 April 2017

धर्म के नाम पर अधर्म क्यों?

भारत एक प्रजातन्त्रीय देश है जिसके नागरिकों को अनेक प्रकार की स्वतन्त्रता और अधिकार संविधान के अन्तर्गत दिए गए हैं। प्राप्त अधिकारों व स्वतन्त्रता के साथ ही संवैधानिक रूप से कुछ कर्त्तव्यों और अवश्य पालनीय सामाजिक नियमों के मानने का निर्देश में संविधान में निहित है। अधिकार और कर्त्तव्य का जब तब ईमानदारी से पालन होता है, किसी की उपेक्षा या स्वतन्त्रता के नाम पर शोषण अतिक्रमण नहीं होता है तब तक ही किसी राष्ट्र की व्यवस्था व्यवस्थित रह सकती है।

व्यक्ति व किसी भी संगठन से बड़ा राष्ट्र होता है। ‘‘राष्ट्र प्राणों से बड़ा होता है, हम मिटते हैं तो राष्ट्र खड़ा होता है।’’ शास्त्रों ने, विद्वानों ने धर्म की 5 प्रकार से व्याख्या की है। व्यक्तिगत धर्म, पारिवारिक धर्म, सामाजिक धर्म, राष्ट्रीय धर्म, वैश्विक धर्म। इसलिए व्यक्तिगत धर्म से बड़ा राष्ट्रीय धर्म होता है। यही राष्ट्रीय धर्म प्रत्येक नागरिक के लिए सर्वोपरि है और होना भी चाहिए। 
किन्तु अतीत साक्षी है प्रजातन्त्र के इस देश में महत्त्वाकांक्षी विचारों वाली राजनीति ने संविधान  के  आदर्शों,  उसकी  मान्यताओं को, मानवीय, राष्ट्रीय  अधिकारों की अवहेलना करने वाले व्यक्तियों का पोषण, और राष्ट्रीयता का शोषण किया है। अपने स्वार्थ में मजहबी विचारधाराओं को आश्रय देकर उनकी अनुचित मांगों व कर्त्तव्यों को मात्र अपना समर्थन जुटाने में वे उचित, अनुचित सब मान्य करते रहे। इसका लाभ उठाते हुए जब किसी को कोई बात मनवानी हो तो उसके पक्ष में धर्म रूपी शस्त्र काम आता है। किसी बात को मानने या किसी को न मानने मेंं दलील देकर, धर्म की दुहाई देकर सबको चुप करवा दिया जाता है। 

इस प्रकार स्वार्थ जहां आता है, वहां अपनी बात को धर्म के नाम पर भुनाने का हथकण्डा वर्षों से चल रहा है। इसी साम्प्रदायिकता का और तुष्टिकरण का ही परिणाम पाकिस्तान का जन्म है। 
जिस माटी में पले-बड़े हुए उस माटी से अपने मजहब या धर्म को राष्ट्र से बड़ा बताकर कोई भी कार्य को महत्त्व देना सरासर गलत है। 
आज देश की जनसंख्या बेहिसाब बढ़ती जा रही है, देश का एक तबका सन्तान वृ( की उपेक्षा कर तेजी से देश की व्यवस्था को बिगाड़ रहा है। देश की आर्थिक स्थिति, बेरोजगारी, आवास व्यवस्था, खाद्यान्न व्यवस्था सबको प्रभावित कर राष्ट्र हित के विरु( कार्य कर रहा है। जबकि शासन छोटे परिवार के नाम पर अनेक प्रकार के प्रयत्न करता है। किन्तु वही सबकुछ हो धर्म के नाम पर कुछ विचारधारा द्वारा राष्ट्र की उपेक्षा की जा रही है। क्या यह मजहबी धर्म की आड़ में राष्ट्रीय धर्म की उपेक्षा और असहयोग नहीं हो रहा है ? क्या अपनी भावनाओं के कारण राष्ट्र की करोड़ों जनता की समस्याओं को कुचलते हुए राष्ट्र को क्षति पहुंचाना क्या धर्म है

हाल ही में सोनू निगम ने मस्जिद से माईक पर आने वाली  आवाज  के सम्बन्ध में आपत्ति उठाई। इस पर तरह-तरह की चर्चा और विवाद खड़ा हो गया।  उसकी पीड़ा जो करोड़ों-करोड़ों भारतीयों की है, कोई उस सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहता है। अन्यान्य कारणों से इस प्रकार से होने वाले उस सामाजिक कष्ट को अनदेखा कर कोई सही कहना नहीं चाहता। 
यह सरासर धर्म के नाम पर अधर्म है, इस्लाम परमात्मा को साकार नहीं मानता है। फिर वह अजान से आवाज देकर किसको सुनाना चाहते हैं ? वैसे भी धर्म प्रदर्शन का विषय नहीं, मात्र बोलचाल का नहीं है, वह तो आन्तरिक विषय व मौन कर्म है।  धर्म आचरण का विषय है  धारणात्धर्म इत्याहुःजो  धारण किया जावे, वह धर्म है। प्रदर्शन या मात्र बाहरी चर्चा धर्म का विषय नहीं, वह तो आत्मा का आन्तरिक और शान्त प्रयास है। परमात्मा की उपासना, प्रार्थना, शान्त चित्त से, एकाग्र मन से की जाती है। भारत में प्रत्येक को अपनी धार्मिक मान्यता को करने की स्वतन्त्रता है। परन्तु धर्म यह नहीं कहता कि अपनी मान्यता के लिए किसी दूसरे को परेशान करना चाहिए। यह धर्म नहीं अधर्म है। धर्म कहता है आत्मानः प्रतिकूलानी परेषां न समाचरेत्।अर्थात् हम दूसरे से अपनी आत्मा के समान व्यवहार करें। जो अपनी आत्मा को अच्छा लगता है वैसा व्यवहार दूसरों से करें। जो व्यवहार अपने को अच्छा नहीं लगता वह व्यवहार हम दूसरों से न करें। 

अजान देना है तो देवें इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किन्तु यह नहीं होना चाहिए कि बड़ी ऊॅंची आवाज में कानों को कष्ट देती आवाज में अजान जो औरों के लिए उपयोगी नहीं है कष्टदायी है, वह करना ही धर्म है। 
विशेषकर सुबह 5 बजे, 4.30 बजे होने वाली अजान से अनेक व्यक्ति प्रभावित होते हैं। कई व्यक्ति बीमारी से जूझ रहे हैं, उन्हें डॉक्टर ने आराम की सलाह दी होती है। रात में नींद नहीं आती, नींद की दवा, गोली लेकर सोते हैं जब सुबह-सुबह नींद आती है, तो अजान से बीच में नींद खुल जाती है। यह उनके लिए कष्ट का कारण है। बीमार व्यक्ति को पूर्ण आराम की आवश्यकता होती है, उसके अभाव में वह कभी स्वस्थ हो ही नहीं पायेगा, ऐसा विघ्नकारी कर्म धर्म नहीं है। 
कोई व्यक्ति मेहनत, मजदूरी करके काम से लौटकर देर रात में सोता है, सुबह फिर काम करने जाता है, शरीर को आराम जरूरी है अन्यथा उस पर बुरा असर होगा पर अजान की आवाज उसे समय से पहले उठा देती है। कोई विद्यार्थी दिन के अशान्त चिल्ला-पुकार के वातावरण के स्थान पर शान्ति से देर रात को पढ़ाई करके सोता है, किन्तु अजान से उसे बीच में उठना पड़ता है, नींद पूरी नहीं होती है। इसका स्वास्थ्य व मस्तिष्क पर गलत प्रभाव होता है, यह सब क्या है
पहले बिना माईक के भी अजान होती थी। सुबह की अजान एक साथ व कुछ समय के लिए होती थी। अब एक शहर में जहांॅं कई मस्जिदें हैं अब वहॉं से लम्बे समय तक और अलग अलग समय में होती हैं। यह क्यों है? यह जानबूझकर अपनी साम्प्रदायिक विचारधारा का प्रभाव बढ़ाने की योजना है। क्या इस प्रकार की शारीरिक व मानसिक प्रताड़ना धर्म है
जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण और वैसे ही ध्वनि प्रदूषण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, सामाजिक अव्यवस्था है, शासकीय नियम उपनियमों की सरेआम उपेक्षा है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस प्रकार के प्रदूषण को अनुचित बताया है। इस प्रकार इन समस्त बातों को ध्यान में रखकर इस प्रवृत्ति पर चिन्तन करना चाहिए। 
बुराई किसी धर्म, सम्प्रदाय तक सीमित नहीं, बुराई तो बुराई है। यहां एक बात और इसी सन्दर्भ में जोड़ना चाहता हूं यह केवल अजान तक ही ध्वनि प्रदूषण नहीं है, देर रात तक अन्य धार्मिक कार्यक्रमों में, विवाह आदि के अवसर पर बड़े बड़े डी. जे., तेज आवाज में स्पीकर बजाना भी अनुचित है। इस पर भी नियन्त्रण होना चाहिए, डी. जे. की भारी भरकम आवाज हृदय रोग से पीड़ित व्यक्तियों को या किसी भी बीमारी से जूझ रहे व्यक्ति के लिए बहुत कष्टदायक होता है। ऐसे भजन, गीत, सूचनाएं मनोरंजन के स्थान पर कष्ट पहुंचाते हैं और पीड़ित व्यक्ति उनको कोसते हैं। 

अजान का विरोध नहीं है, किन्तु अपनी विचारधारा के लिए दूसरों को प्रताड़ित नहीं करना चाहिए। कम से कम सुबह की अजान का समय व ध्वनि पर नियन्त्रण करना नितान्त आवश्यक है। इस प्रकार एक ही देश में सिक्के के दोनों पहलू पर अपनी ही जीत वाली स्थिति ठीक नहीं है। एक ओर दूसरी विचारधारा को तो हम नहीं मानेगें किन्तु हमारी विचारधारा को हम जबरन दूसरों पर थोपें। यह कितना अव्यावहारिक व तथ्यहीन व्यवहार है। गाय को हिन्दू समाज पूज्य मानता है किन्तु अन्य मजहबी विचारधाराएं हिन्दुओं की इस पवित्र भावना की सरासर उपेक्षा कर रही हैं। क्या एक राष्ट्र में ऐसा व्यवहार उचित है? अजान कितनी भी जोर से देवें या धीमी आवाज में करें क्या अन्तर पड़ता है? किन्तु अपनी हठधर्मी, दिखावे से उसे महत्त्व देना एक साम्प्रदायिकता का प्रतीक है। एक अच्छे व्यक्ति, अच्छे समाज और अच्छे राष्ट्र की कल्पना का आधार धर्म है, साम्प्रदायिकता नहीं। 

 प्रकाश आर्य, महामंत्री सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा 

जोखिम भरा है हलाला

बात किसी धर्म-मजहब या सम्प्रदाय की नहीं है. बात है इंसानी संवेदनाओं की जो हमें एक दुसरे से जोड़कर एक परिवार, समाज, देश और दुनिया बनाती है. तीन तलाक और हलाला के खिलाफ भारत में नहीं पुरे विश्व में मुस्लिम महिलाएं मुखर हो चली है. हाल ही में एक मुस्लिम महिला ने अपना वीडियो अपलोड कर तलाक और हलाला के खिलाफ जमकर मोर्चा खोला. जिसमें तलाक से दुखी उस महिला ने मुस्लिम महिलाओं को हिन्दू अपनाने की भी प्रेरणा दे डाली. दरअसल मौखिक तलाक और उसके बाद हलाला अब सिर्फ धर्म विशेष के धार्मिक कानून की आड़ में शारारिक शोषण और व्यापार का हिस्सा बनता जा रहा है. बीबीसी की एक पड़ताल में पता चला है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को इस्लामिक विवाह श्हलालाश् का हिस्सा बनाने के लिए कई ऑनलाइन सेवाएं उनसे हजारों पाउंड की कीमत वसूल रही हैं. इन मुस्लिम महिलाओं हलाला का हिस्सा बनने के लिए पहले पैसे देकर एक अजनबी से शादी करनी होती है, उसके साथ शारारिक संबध बनाने होते है, फिर उस अजनबी को तलाक़ देना होता है ताकि वे अपने पहले पति के पास लौट सकें.

फराह जब 20 साल की थीं तब परिवारिक दोस्त के माध्यम से उनकी शादी हुई. दोनों के बच्चे भी हुए, लेकिन फराह का कहना है कि आगे चलकर उनकी प्रताड़ना शुरू हो गई. फराह बताती हैं, “मैं घर में अपने बच्चों के साथ थी और वो काम पर थे. एक गर्मागर्म बहस के दौरान उन्होंने मुझे एक टेक्स्ट मैसेज भेजा- तलाक़, तलाक़, तलाक. यह तीन तलाक है जिसमें पति अपनी पत्नी को तीन बार तलाक़ कहता है. मुस्लिमों के बीच यह प्रचलन में है और ऐसा कहने से इस्लामिक विवाह ख़त्म हो जाता है. फराह का कहना है कि वह बुरी तरह से घबरा गई थीं, लेकिन वह अपने पूर्व पति के पास लौटना चाहती थीं. लेकिन हलाला एकमात्र उपाय है जिसके सहारे तलाक़शुदा जिंदगी ख़त्म हो सकती है और विवाह को फिर से बहाल किया जा सकता है. लेकिन कई मामलों में जो महिलाएं हलाला चाहती हैं, उनके लिए यह जोखिम भरा रहता है. मुस्लिमों के एक बड़े वर्ग का मानना है कि आर्थिक रूप से इनका दोहन किया जाता है, ब्लैकमेल किया जाता है और यहां तक की यौन प्रताड़ना का भी सामना करना पड़ता है

फराह हताशा के कारण अपने पति से जुड़ना चाहती थीं. फराह ने हलाला को अंजाम देने वाले लोगों की तलाश शुरू की. जिसमें कई लोग तो ऑनलाइन इस हलाला के जिस्मानी और आर्थिक कारोबार से जुड़े है जो एक रात के दो से ढाई लाख रूपये वसूलते है. फराह  बताती है श्श्मैं जानती थी कि जो लड़कियां परिवार से पीछे छूट गई थीं, उन्होंने वापसी के लिए ऐसा किया. वे मस्जिद गईं. वहां पर एक ख़ास कमरा होता है जिसे बंद कर दिया जाता है. यहां इमाम या कोई और इसे अंजाम देता है. वह महिला के साथ सोता है और वह अन्य लोगों को भी उस महिला के साथ सोने की इजाजत देता है.श्श् फराह ने आख़िर में तय किया कि वो अपने पूर्व पति के साथ नहीं जाएंगी और न ही हलाला का रास्ता अपनाएंगीं. वो कहती हैं, श्श्आप एक तलाकशुदा औरत की हालत नहीं समझ सकते. उस दर्द को एकाकीपन को नहीं समझ सकते. कुछ औरतें जैसा महसूस करती हैं आपको अंदाजा भी नहीं होता."

यह सिर्फ एक मुस्लिम महिला की कहानी नहीं है अमूमन हर जगह किसी न किसी के साथ यह घटना घट रही है. विवाह जैसी पवित्र रस्म की मौखिक रूप तीन बार तलाक कहकर धज्जियां उड़ा दी जाती और एक महिला को उसके हालात पर छोड़ दिया जाता यदि किसी कारण उसे अपनाना भी चाहें तो एक इस्लामिक कानून के तहत उसे हलाला जैसे अमानवीय कुप्रथा से गुजरना पड़ता है. आज इस्लामिक सुधार को लेकर दुनिया भर में के मुस्लिम विद्वान इस्लाम के जानकर इसमें सुधार करने की बात को दबे स्वर ही सही लेकिन उठा रहे है. लेखक, विचारक तुफैल अहमद लिखते है कि इस्लामी सुधार के बारे में एक महत्वपूर्ण सवाल ये है कि- क्या मुसलमान युवा पीढ़ी अपने माता-पिता और इस्लामी मौलवियों से विरासत में मिले विचारों का त्याग कर सकती है? सौभाग्य से, इतिहास से हमें आशावादी सबक मिलते हैं- युवा पीढ़ी ने इटली और जर्मनी में नाजीवाद और फासीवाद को लेकर अपने माता-पिता की मान्यताओं को त्याग दिया था. भारत में भी, हिंदू युवाओं ने जाति और सती प्रथा का त्याग किया. ईसाई धर्म और यहूदीवाद ने आंतरिक संघर्ष झेले, बाइबल और टोरा आम लोगों की जिंदगी से हट गया. चूंकि मध्य पूर्वी धर्मों में इस्लाम सबसे कम उम्र का है, तो उम्मीद की जा सकती है. कि तीन तलाक आदि कुप्रथाओं पर सही फैसला हो. कुरान की भूमिका मस्जिदों तक सीमित होनी चाहिए. न की उसका हस्तक्षेप सामान्य जीवन में.

मेरा मकसद किसी एक कौम को निशाना बना कर उसके मजहब का मजाक उड़ाना नहीं है. हम अगर किसी बात को नहीं मानते तो जरूरी नहीं कि सब न मानें, लेकिन ये सोचना जरूरी है कि क्या मुसलमान ये समझते हैं कि भारत में उनको एक आने वाले बेहतर कल के लिए किस किस्म की सोच से छुटकारा पाना जरूरी है? मैं टीवी आदि पर या न्यूज प्रोग्राम की बहस देखता हूँ कि हिंदुस्तानी मुसलमानों का एक धडा पर्सनल लॉ बोर्ड को बचाने में लगे हुए हैंपिछले माह ही केरल हाई कोर्ट के एक यह कहते हुए ही जज ने सवाल उठाया कि अगर एक मुसलमान मर्द चार बीवियां रख सकता है, तो एक मुस्लिम महिला चार पति क्यों नहीं रख सकती? कोझिकोड में महिलाओं के एक सेमिनार में जस्टिस बी कमाल पाशा ने कहा था मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में महिलाओं से जुड़े कई मुद्दों को लेकर भेदभाव है.ख़ासकर दहेज, तलाक़ और उत्तराधिकार के मामले पर भेदभाव होता है और जिन धार्मिक नेताओं ने ये हालात पैदा किए हैं, वे इससे पीछा छुड़ाकर नहीं भाग सकते.चूंकि कुरान और हदीस में बदलाव नहीं हो सकते, तो क्या भारतीय मुस्लिमों के बीच परिवर्तन लाने का कोई रास्ता है?
लेखक राजीव चौधरी 

हम कब तक शहीद गिनते रहेंगे ?

कभी दंतेवाडा कभी बस्तर, कभी उडी तो कभी सुकमा जवान शहीद होते रहेंगे हम लोग बस शहीद गिनते रहेंगे और राजनेता निंदा के साथ मुंहतोड़ जवाब देने की बात करते रहेंगे. हुर्रियत हो या नक्सलवाद ये विचारधारा दिन पर दिन हावी होती जा रही है. कुछ लोग नक्सलियों को आतंकी नहीं मानते तो तो कुछ पत्थरबाजों को मासूम कहने से नहीं हिचकते. या फिर भ्रमित विचारधारा के शिकार कहकर इनका बचाव किया जाता है. एक छोटा सा देश श्रीलंका, लिट्ठे का नामोनिशान मिटा देता है, यहाँ स्वयं को महाशक्ति समझने वाला भारत नक्सलियों से पचासों साल से जूझ रहा है. हर हमले के बाद राजनेता ट्वीट कर निंदा कर देते है. मीडिया एक दिन बहस कराकर अगले दिन मानवता के पाठ के मासूम बताने लगती है.

इन 26 जवानों की शाहदत से देश के किस नौजवान का खून नहीं खोला होगा. किस माँ की आँखे नम नहीं हुई होगी, 26 घरों के चिराग बुझ गये क्या अब भी वे नक्सलियों को सही ठहराएंगे? यदि नहीं तो कब तक हम श्रद्धांजलि देते रहेंगे? आज का नक्सल आंदोलन 1967 वाला आदर्शवादी आंदोलन नहीं रहा है. बल्कि यह साम्यवादियों द्वारा रंगदारी वसूलनेवाले आपराधिक गिरोह में बदल चुका है. इन पथभ्रष्ट लोगों का साम्यवाद और गरीबों से अब कुछ भी लेना-देना नहीं है. हाँ, इनका धंधा गरीबों के गरीब बने रहने पर ही टिका जरूर है इसलिए ये लोग अपने इलाकों में कोई भी सरकारी योजना लागू नहीं होने देते हैं और यहाँ तक कि स्कूलों में पढ़ाई भी नहीं होने देते. आप ही बताईए कि जो लोग देश के 20 प्रतिशत क्षेत्रफल पर एकछत्र शासन करते हैं वे भला समझाने से क्यों मानने लगे?

हर दिन, हर सप्ताह, हर महीना, हर साल भारतीय जवान मरते रहते है, राजनेता आरोप प्रत्यारोप लगाकर इस खून सनी जमीन पर मिटटी डालते रहते है. लगता है वोट के इस बड़े धंधे में जवानों को झोंका जा रहा है आज हमारी वर्तमान केंद्र सरकार नक्सली समस्या को जितने हल्के में ले रही है यह समस्या उतनी हल्की है नहीं है. यह समस्या हमारी संप्रभुता को खुली चुनौती है, हमारी एकता और अखंडता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है. हमेशा से नक्सलवादी इलाकों में सरकार योजना लेकर जाती है. लेकिन लाशे लेकर आती है. भला क्या कोई ऐसी समस्या स्थानीय हो सकती है? क्या यह सच नहीं है कि हमारे संविधान और कानून का शासन छत्तीसगढ़ राज्य के सिर्फ शहरी क्षेत्रों में ही चलता है? क्या यह सच नहीं है कि वहाँ के नक्सली क्षेत्रों में जाने से हमारे सुरक्षा-बल भी डरते हैं तो योजनाएँ क्या जाएंगी?

आज इन सवालों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि भारत के मध्य हिस्से में नक्सल बाहुल इलाकों में इन लोगों के पास धन और हथियार कहाँ से आता है? कौन लोग इन्हें लाल क्रांति के नाम पर उकसा रहे है? यदि सरकार विश्व के सामने अपनी उदार छवि पेश करना चाहती तो उसे सुरक्षित भारत की छवि भी पेश करनी होगी. जम्मू-कश्मीर और मिजोरम के बाद कई राज्य संघर्ष के तीसरें केंद्र के रूप में उभरे हैं जहाँ पर माओवादियों के विरूद्ध सुरक्षा बलों की व्यापक तैनाती हुई हैं पिछले लगभग साढ़े चार दशकों से चल रहा माओवाद जैसा कोई भी भूमिगत आंदोलन बिना व्यापक जन सर्मथन और राजनेताओं के संभव है? लंबे अरसे से नक्सल अभियान पर नजर रखे सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि बिना तैयारी के सुरक्षा बलों को नक्सल विरोधी अभियान में झोंक देना भूखे भेडि़यों को न्योता देने के बराबर है. 

नक्सल अकसर ही गुरिल्ला लड़ाई का तरीका अपनाते हैं और उनकी हमला कर गायब होने जाने की रणनीति सुरक्षा बलों के लिये खासा खतरनाक साबित हुआ है. नक्सली जिन इलाकों में अपना प्रभाव रखते हैं वहाँ पहुंचने के साधन नहीं हैं. पिछले दस सालों से इन इलाकों में न ही सरकार और न ही सुरक्षा एजेंसियों ने प्रवेश करने का जोखिम लिया है. जिस कारण यह लोग मजबूत होते गये. एक समय देश की सड़कों पर जाते समय छायादार वृक्ष दिखाई देते थे आज किसी पर सडक पर निकल जाओं शहीद सिपाहियों के स्मारक दिखाई देते हैं. जब मौत केवल आंकड़ा बन जाए. जवाब केवल ईंट और पत्थर में तोला जाए. जब दर्द, हमदर्द देने लगें. तो सुकमा बार बार होगा. जबकि इस देश का इतिहास देखे तो युद्ध के दौरान कई बार कृष्ण ने अर्जुन से परंपरागत नियमों को तोड़ने के लिए कहा था जिससे धर्म की रक्षा हो सके. कर्ण की हत्या इसका सबसे बड़ा उद्धरण हैं, युद्ध के दौरान कर्ण निःशस्त्र थे तब कृष्ण ने अर्जुन से कहा हे पार्थ धर्म की जीत के लिए कर्ण का वध जरूरी है.....विनय आर्य 


Lesson from the History of Assam

Dr Vivek Arya

Assam rulers in 13th century


Assam the state of Brahmaputra and beautiful forests was ruled by Hindu Kings for centuries. It was only in 13 century when Bakhtiyar Khilji attacked Assam. He was helped in his conquest by a converted Hindu. He crossed the River Testa stone bridge and entered Assam. He asked the King of Kamrup for troops and supplies. The Assamese king delayed, so an impatient Bakhtiyar decided to carry on by himself. The Turks raped and looted their way through the mountains of Darjeeling and Sikkim before entering Tibet. Here he faced stiff resistance. With supply lines stretched, Bakhtiyar decided to retreat but his army was harassed by guerrilla attacks as it made its way back through the mountain passes. Supplies were so short that the Turks were forced to eat some of their horses.
[Ref. Nitish Sengupta, Land of two rivers, Penguin, 2011]

When the retreating armies finally reached the Testa, they found that the Assamese had destroyed the bridge and laid a trap. In the end most of the Turks were killed by the Assamese or drowned in a desperate attempt to cross the fast-flowing river. Bakhtiyar was trapped like a mice in cage. Finally he killed bulls to make their boat and somehow crossed Testa sitting on them. Bakhtiyar reached Devkot with only hundred of his soldiers.He was assassinated by his own companion Ali Mardan.
The wise rulers in 13th Century saved Assam from Islamic rule. This defeat of Bakhtiyar was remembered for long time. For the next 500 years no one dared to enter the difficult terrain of Assam.


Assam rulers in 17th Century


In 17th century Ajan Fakir, born Shah Miran, a Sufi of Chistiya clan came from Baghdad to settle in the Sibisagar area of Assam. His main aim was to reform, reinforce and stabilize Islam in the region of Assam. He acquired the nickname Azan came from his habit of calling Azan. He married an Ahom woman of high social stature and settled at Gorgaon, near Sibisagar town. His all attempts in earlier life failed to convert Hindus to Islam. In the end he used an old Sufi trick. He authored two forms of devotional songs Zikir and Zari. These songs were composed of teaching of Quran as well as they have striking similarities with the teachings of Srimanta Sankardeva , the 16th-century saint-scholar from Assam.Hindus considered these songs as teachings of Sankardeva while Azan Sufi was preaching Islam in disguise. This tricked worked. Azan Fakir gained many Hindus disciples. He later converted them to Islam. The news of his success reached the ears of the King. The king was reported that Azan was a secret agent of Mughal rulers of Delhi. King ordered to pluck the eyes of Azan. He was punished by removing his eyes. His disciples went one step ahead.A story of miracle was propagated that the Pir had two earthen pots brought into which he let his “two eyes drop”. This was again an old trick of Sufis to convert any mishap into a miracle to gain disciples.

Soon, an accident happened with the King. Some fellow adviser said to King that this accident was caused due to curse by the innocent fakir. King apologized and made land grants to Ajan fakir at Sovaguri Chapari, near Sibsagar and had a matha built for him. The king patronage made Azan fakir a local hero. He gained thousands of disciples to convert to Islam. After his death his place became a majar on the bank of Brahmaputra . Now every year on Ajan Pir’s Dargah an annual urs is held.Thousands of Hindus as well as Muslims throng the place to pay respect to the faqir.

Take Home Message

What an Islamic sword was unable to do in 13th century was accomplished by a Sufi. Islam was deeply rooted on the heart of Assam by treachery and trickery. Whose fault was this? In my opinion the fault was of advisers to the King. They misguided the King. They made the King ignorant about the Truth. They must have taught that all such tales of miracles are superstitions. The Vedic Philosophy of Hinduism is not even superior but also self sufficient to guide us. We do not need to import any foreign thought or idea to satisfy 

Contribution of Swami Dayanand towards the understanding of the Vedas.

Dr Vivek Arya

Swami Dayanand, the founder of Aryasamaj dedicated his whole life towards the propagation of the message of the Vedas. Swami Dayanand completed the commentary on Yajurveda and up-to the 7th mandala of the Rigveda. He also published Rigvedadibhashya-bhumika [preface to the four Vedas] as introduction to the Vedas. Before Swami Dayanand advent, Vedas were considered as a book of cumbersome rituals confined to the priest class.Swami ji not even made the Vedas accessible to the common man but also made their interpretation useful and worthy for everyone. He established certain landmarks for the understanding of the Vedas. This article is dedicated towards the understanding of contribution of Swami Dayanand to the Vedas.

Rigveda-10 mandalas, 1028 sukatas and 10552 mantras.

Yajurveda-40 Chapters and 1975 mantras.


Samaveda- 3 Archikas and 1873 mantras.


Atharveda- 20 kandas, 731 Suktas and 5977 mantras.


There are total 20,377 mantras in all four Vedas.

Landmarks established by Swami Dayanand


The authenticity of the Vedas

Swami Dayanand says that the Vedas are self sufficiently authoritative being the creation of the God. The Vedas being the perfect knowledge of God is not dependent on other man made texts. The texts other than the Vedas are considered true only if they are in accordance with the Vedas. Swami Dayanand in Satyarth Prakash writes that

“Of these [books other than the Vedas] too, those which appear to be contradictory to the Vedas, should be rejected; for the Vedas being created by the God, are infallible and self-sufficiently authoritative, that is to say, the Vedas are their own authority.”

Thus, Swami Dayanand established the landmark of supreme and self testified authority of the Vedas.

Revelation and the Rishis

Swami ji said that God is all knowing. So, he revealed his supreme knowledge of Vedas for the benefit of whole mankind. Swami ji said that the four Vedas Rigveda, Yajurveda, Samaveda and Atharveda were revealed in the conscience of the four Rishis Agni, Vayu, Aditya and Angira respectively by God.  God is all powerful and all pervading. So, he does not need mouth or vocal organs to reveal his knowledge. The four seers were not composer of the Vedas. They only realized and expounded the meaning of the Vedic verse. Thus, the Vedas are self authoritative true knowledge of God revealed to the four Rishis.

The Nirukta by Yaskacharya defines Rishi as one who sees or understands the meaning of the mantra.  Rishi is not one who created mantra but who realized the meaning of the mantra.

Thus, Swami Dayanand established the landmark that the Vedas were not composed by the four Rishis but realized by the four Rishis. God is the ultimate composer of the Vedas.

No History in the Vedas

One of the biggest achievement of Swami Dayanand was to establish this fact that Vedas are not History books just like Bible or Quran. Swami ji first established this fact that the four Vedas were revealed with the beginning of Human life. So, no question of inclusion of history appears in front of the Vedas. They were not created after passing of certain passage of time just like the Abrahamic beliefs. This confusion regarding History in Vedas arises due to misunderstanding of the Vedic words. There are certain words like Visvamitra, Vasistha, Urvashi etc. in the Vedas. There is an obsession among the Indian Acharyas like Sayana, Mahidhara and other Western indologists to impose history in Vedas using these words. To interpolate history using Vedic words lead to lot of confusions. Certain mantra seems to be promoting animal sacrifice, black magic, obscenity, polygamy etc. due to historical misinterpretation of the Vedas. Thus, this misinterpretation brought a bad name to the Vedas. Swami Dayanand established that there are three classes of meaning in the embellishment of language. They are Yaugika, Yogrurhi and Rurhi. Yaugika signifies the meaning of its root. Rurhi is the common name of definite concrete object. Yogrurhi is a combination of the both. Rishis in Vedic times regards Vedic terms to be Yaugika and Yogrurhi only. While the later age Acharyas regards them as Rurhi only. Swami Dayanand followed the way of ancient Rishis. He proved that the real sense of Vedas could only be reached by considering their root meaning.

Thus, Swami Dayanand established the landmark that there is no history in the Vedas.

The source of all True Knowledge and Sciences

Swami Dayanand is regarded as first scholar in modern times who welcomed the modern sciences. Before him it was believed that Science and Religion are enemies. Swami Dayanand established that they are allies not enemies. Swami ji in his work Rigvedadibhashya-bhumika proved that Vedas are the source of all true knowledge. He said that there is no self contradiction in the Vedas. Swami Dayanand quoted different mantras teaching us science of Astronomy, Medicine, Telegraphy etc. He considered that Vedas possess all seeds of knowledge embedded in them.

Maxmuller commented on Swami Dayanand's observation of science in Vedas as, “To him (Swami Dayanand) not only was everything contained in the Vedas perfect truth, but he went a step further, and by the most incredible interpretations succeeded in persuading himself and others that everything worth knowing, even the most recent inventions of modern science, were alluded in the Vedas.”

[Ref. F. Maxmuller,1884, Biographical Essays,Longman Green and Company, London,P.31]

Thus, Swami Dayanand established the landmark that the Vedas bear all true knowledge and Sciences.

Vedas and Monotheism

One of the most revolutionary landmark established by Swami Dayanand was that the Vedas preach Monotheism. It means only one God. Swami Ji proved that in Vedas God is one and he has countless qualities. He is called by different names .These names also apply on different material entities.

Take an example from first mantra of Rigveda.

ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्तिजम् । होतारं रत्नधातरम् ॥१॥

God is mentioned in this mantra by word ‘Agni’. Most of Acharyas and western indologists interpret Agni as materialistic fire. Swami Dayanand interprets using ancient method as the source of illumination of all noble activity.

In similar way Swami Dayanand interprets different words like Agni, Vayu , Aditya, Savita, Indra, Varna etc. as different names of one God as well as materialistic names. This interpretation was based on the method adopted by Ancient Rishis using Nirukta (Vedic Philology). This helps not even in establishing the fact that Vedas preach Monotheism but also there is no History in the Vedas. There is again a misconception that Swami Dayanand adopted the monotheistic concept in Vedas from the ideology of Islam and Christianity. It is again a myth because there are multiple mantras in Vedas supporting Monotheism.

Few Vedic Mantras supporting Monotheism in Vedas

Yajurveda 40.1:


This entire world is embedded within and managed by the One and Only One Ishwar. Never dare do any injustice or desire riches through unjust means. Instead follow the righteous path and enjoy His bliss. After all He alone is source of all bliss!

Rigveda 10.48.1:


Ishwar alone is omnipresent and manager of entire universe. He alone provides victory and eternal cause of world. All souls should look up only to Him in same manner as children look up to their Father. He alone provides for our sustenance and bliss.

Rigveda 10.49.1


Ishwar alone provides true knowledge to truth seekers. He alone is promoter of knowledge and motivates virtuous people into noble actions to seek bliss. He alone is the creator and manager of the world. Hence never worship anyone else except one and only Ishwar.

Atharvaveda 13.4.16-21


He is neither two, nor three, nor four, nor five, nor six, nor seven, nor eight, nor nine, nor ten. He is, on contrary, One and Only One. There is no Ishwar except Him. All devtas reside within Him and are controlled by him. So He alone should be worshiped, none else.

Thus, Swami Dayanand established this landmark that Vedas preach Monotheism.

Vedas and Devta

Swami Dayanand solved one of the biggest riddle regarding Vedas. It was assumed that the Vedas preach bahudevtavad or multiple Gods. After establishing the fact that Vedas preach Monotheism Swami ji solved the mystery of multiple devtas in Vedas. Vedas speak about multiple devtas like Indra, Vayu, Agni, Varuna etc. The earlier Acharyas and western indologists established the concept of Polytheism on basis of multiple devtas in Vedas. Swami dayanand interpreted the true meaning of the word ‘Devta

He writes that devta word can be used for any entity who provides us with knowledge, wisdom, peace, happiness and light. This interpretation was based on Nirukta 7/15. Now the following entities qualify to be called as devta as per Vedic philosophy.

1. The one and only almighty God who provides us everything.

2. King or Ruler who provides security and welfare.

3. Parents or Caretaker who provide all means of help and guidance.

4. Guru or Teacher who provides all sorts of knowledge and wisdom.

5. Traders who bring prosperity to the kingdom.

6. Five elements of nature who provide us all comforts like Sun, Water, Air, Earth and Sky.

Overall any entity which help us, benefit us in our life is Devta. So, all are respectable for us but the only one who is to be worshiped is the one almighty God.

Thus, Swami Dayanand established this landmark that Vedas speak of worship of only one God and respect to all Devtas.

Vedas and Idol worship

Swami Dayanand was the only scholar in modern times who established this fact that the Vedas do not support idol worship. Swami ji established that God is formless and omnipresent according to the Vedas. He could not be confined to small idols and an idol cannot represent him. Swami ji advocated worship of formless God through Stuti,Prarthna and Upasana.

Swami Dayanand provided with different mantras from Vedas like Yajurveda 32/3 : "Na tasya Pratima asti" means "There is no image of Him."

Swami Dayanand faced stiff resistance on his stand against idolatry especially from the Hindu society. Ironically he was not the only one to raise voice against idolatry. Before him Adi Shankracharya, Kabir, Nanak, Dadu, Basava etc. raised voice against idolatry analysing its demerits.

Thus, Swami Dayanand established this landmark that Vedas do not support idol worship.

The Vedas and the Yajna


Swami Dayanand revolutionary teachings related to Vedas was to dispel the myth that the Vedas support animal sacrifice in Yajnas. The middle age Acharyas like Sayana, Mahidhara and the western indologists were very keen to prove that the Vedas support animal sacrifice. This led to lot of confusion among the readers of the Vedas. Swami Dayanand revolutionized this belief that Vedas support non violence. Due to the vested interests or the erroneous understandings, these writers made baseless pronouncements regarding animal killing in the Vedas.

 Swami Dayanand established that the Cow is considered as adhvara (never to be killed) and aghanya (never to be hurt) in the Vedas. He also clarified the true meaning of Ashvamedha is not to kill horse but to serve the nation. Gomedha is not to kill Cow but to sanctify grain, body parts, rays and the earth. Narmedha is not to kill human being but to do ritualistic last rites after death.

I will like to quote Mahabharta shantiparva 26/59 which says that

"It is only the villains who have brought in the corruption of liquor and non-vegetarianism in Yajna. The Vedas have no where indicated it."

Thus, Swami Dayanand established this landmark teaching that the Vedas no where endorse meat eating and animal sacrifice in the Yajnas.

Right to Vedic Learning

Swami Dayanand biggest gift to the whole humanity is the right to learn Vedas irrespective of caste, creed or religion. During his days it was widely prevalent on our country that the shudras and women were forbidden to study or to even hear the Vedas. After centuries of discrimination Swami Dayanand opened the door of Vedas for everyone. Swami Ji paved the way for the emancipation of women and upliftment of the dalits . He clearly said that every human being has the right to study the Vedas.

The self testimony of the Vedas will prove his stand.

Yajurveda 26 /2 God says O! Humans i gift you with this blissful knowledge of Vedas for all Brahman, Kshatriya, Vaishya as well as Shudra. This knowledge is for benefit of everyone.

[God do not deny the knowledge of Vedas for Shudras. Shudras enjoys equal right to read Vedas as a Brahman. ]

Atharveda 19/62/1 I pray to God that O God! Let all Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras glorify me.

[Vedas do not discriminate between different classes.They consider everyone as equal.]

Yajurveda 18/46 says that O God make me so gentle that all Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras have affection for me.

[Vedas speak of good relations with all four classes]

Rigveda 5/60/5 says There is no one superior or inferior in the Vedas. All are equal just like brothers.All should help each other to attain the pleasures of this as well as the other world.

[This mantra considers all humans as equal irrespective of their duties.]

Swami Dayanand was the first person to publish the translation of the Vedas in Hindi and the credit of making the Vedas accessible to one and all, goes to him.

Thus, Swami ji established the landmark of

                                                    “Vedas for everyone”.

I will like to conclude this article by the comments of Sadhu T.L.Vasvani

“Swami Dayanand was in the first place, India's eye opener to the wisdom of the Vedas. I know none in modern India who was a so great a scholar as a Swami ”



Inputs from

Rigvedadibhashyabhumika by Swami Dayananad.

Satyarth Prakash by Swami Dayanand.


The Vedas by Dr Ramprakash


Aryasamaj and the Vedic worldview.


Vedon ka Yatarth Swarup by Dharamdev vidyamartnand


Arsh jyoti by Ramnath vedalankar


Pashu Yagya Mimansa by Vishvan

ईसाई धर्मान्तरण: एक विश्लेषण

डॉ विवेक आर्य

मेरे एक मित्र ने ईसाई मत की प्रचारनीति के विषय में मुझसे पूछा। ईसाई समाज शिक्षित समाज रहा है। इसलिए वह कोई भी कार्य रणनीति के बिना नहीं करता। बड़ी सोच एवं अनुभव के आधार पर ईसाईयों ने अपनी प्रचार नीति अपनाई है। ईसाईयों के धर्मान्तरण करने की प्रक्रिया तीन चरणों में होती हैं।

प्रथम चरण Inculturation अर्थात संस्कृतीकरण
दूसरा चरण expansion अर्थात विस्तार
तृतीय चरण domination अर्थात प्रभुत्व

अंग्रेजी भाषा का एक शब्द है Inculturation अर्थात संस्कृतीकरण।  इस शब्द का प्रयोग ईसाई समाज में अनेक शताब्दियों से होता आया है। सदियों पहले ईसाई पादरियों ने ईसाइयत को बढ़ावा देने के लिए "संस्कृतीकरण" रूपी योजना का प्रयोग करना आरम्भ किया था। इसे हम साधारण भाषा में समझने का प्रयास करते है।

1. प्रथम चरण में एक बाग में पहले एक बरगद का छोटा पौधा लगाया जाता है। वह अपने अस्तित्व के  संघर्ष करता हुआ किसी प्रकार से अपनी रक्षा कर वृद्धि करने का प्रयास करता है। उस समय वह छोटा होने के कारण अन्य पोधों के मध्य अलग थलग सा नहीं दीखता।

2. अगले चरण में वह पौधा एक छोटा वृक्ष बन जाता है। अब वह न केवल अन्य पौधों से अधिक मजबूत दीखता है अपितु अपने हक से अपना स्थान घेरने की क्षमता भी अर्जित कर लेता है। अन्य पौधों से खाद,सूर्य का प्रकाश, पानी और स्थान का संघर्ष करते हुए वह उन पर विजय पाने की चेष्टा करता हुआ प्रतीत होता हैं।
3. अंतिम चरण में वह एक विशाल वृक्ष बन जाता है। उसकी छांव के नीचे आने वाले सभी पौधे संसाधनों की कमी के चलते या तो उभर नहीं पाते अथवा मृत हो जाते हैं।  उसका एक छत्र राज कायम हो जाता हैं। अब वह उस बाग़ का बेताज बादशाह होता है।    

ईसाई समाज में धर्मान्तरण भी इन्हीं तीन चरणों में होता है।

पहले चरण संस्कृतिकरण में एक गैर ईसाई देश में ईसाइयत के वृक्ष का बीजारोपण किया जाता है। ईसाई मत की मान्यताएं, प्रतीक, सिद्धांत, पूजा विधि आदि को छुपा कर उसके स्थान पर स्थानीय धर्म की मान्यताओं को ग्रहण कर उनके जैसा स्वरुप धारण किया जाता है। जैसे भारत के उदहारण से इसे समझने का प्रयास करते है।

1. वेशभूषा परिवर्तन- ईसाई पादरी पंजाब क्षेत्र में सिख वेश पगड़ी बांध कर, गले में क्रोस लटका कर प्रचार करते है। हिंदी भाषी क्षेत्र में हिन्दू साधु का रूप धारण कर, गले में रुदाक्ष माला में क्रोस डालकर प्रचार करते है। दक्षिण भाषी क्षेत्र में दक्षिण भारत जैसे परिधान पहनकर प्रचार करते है।

2. प्रार्थना के स्वरुप में परिवर्तन- पहले ॐ नम क्रिस्टाय नम। ॐ नम माता मरियमय नम। जैसे मनघड़त मन्त्रों का अविष्कार किया जाता है। फिर प्रार्थना गीत आदि लिखे जाते है जिनमें संस्कृत, हिंदी अथवा स्थानीय भाषा का उपयोग कर ईसा मसीह की स्तुति की जाती हैं। जिससे गाने पर यह केवल एक धार्मिक विधि लगे।

3. त्योहार विधि में परिवर्तन- स्थानीय त्योहार के समान ईसाई त्योहारों जैसे गुड फ्राइडे, क्रिसमस आदि का स्वरुप बदल दिया जाता है। जिसे वह स्थानीय त्योहारों के समान दिखे। कोई गैर ईसाई इन त्योहारों में शामिल हो तो उसे अपनापन लगे।

4. चर्च की संरचना में परिवर्तन- पंजाब में अगर चर्च बनाया जाता है  गुरुद्वारा जैसा दिखे, हिंदी भाषी क्षेत्र में किसी हिन्दू मंदिर के समान दिखे, दक्षिण भारत में किसी दक्षिण भारतीय शैली जैसा दिखे। चर्च के बाहरी रूप को देखकर हर कोई यह समझे की यह कोई स्थानीय मंदिर है। ऐसा प्रयास किया जाता है।  

5. साहित्य निर्माण- क्रिस्चियन योग, ईसाई ध्यान पद्यति, ईसाई पूजा विधि, ईसाई संस्कार आदि साहित्य के शीर्षकों को प्रथम चरण में प्रकाशित करता हैं। यह  स्थानीय मान्यताओं के साथ अपने आपको मिलाने का प्रयास  होता है। अगले चरण में चर्च स्थानीय भाषा में दया, करुणा,एकता, समानता, ईसा मसीह के चमत्कार, प्रार्थना का फल, दीन दुखियों की सेवा करने वाला साहित्य प्रकाशित करता हैं। इस चरण का प्रयास अपनी मान्यताओं को पिछले दरवाजे से स्वीकृत करवाना होता है। यीशु मसीह को किसी हिन्दू देवता एवं मरियम को किसी हिन्दू देवी के रूप में चित्रित करना चर्च के लिए आम बात है। भोले भाले लोगों को भ्रमित करने की यह कला चर्च के संचालकों से अच्छा कोई नहीं जानता।

 इस चरण में गैर ईसाई क्षेत्रों में पादरियों की बकायदा मासिक वेतन देकर नियुक्ति होती है। उनका काम दिन-दुखियों की सेवा करना, बीमारों के लिए प्रार्थना करना, चंगाई सभा करना, रविवार को प्रार्थना सभा में शामिल होने के लिए स्थानीय लोगों को प्रेरित करना होता हैं। इस समय बेहद मीठी भाषा में ईसा मसीह के लिए भेड़ों को एकत्र करना एकमात्र लक्ष्य होता है। यह कार्य स्थानीय लोगों के माध्यम घुलमिलकर किया जाता है। जिससे किसी को आपके पर शक न हो। जितने अधिक धर्म परिवर्तन का लक्ष्य पूर्ण होता है उतना अधिक अनुदान ऊपर से मिलता है। यह कार्य शांतिपूर्वक, चुपचाप, बिना शोर मचाये किया जाता हैं।इस प्रकार से प्रथम चरण में स्थानीय संस्कृति के समान अपने को ढालना होता है। इसीलिए इसे संस्कृतिकरण कहते है। हमारे देश में दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात, जम्मू कश्मीर, बंगाल आदि राज्य इस चरण के अंतर्गत आते हैं। जहाँ पर चर्च बिना शोर मचाये गरीब बस्तियों में विशेष रूप से दलितों को प्रलोभन आदि देकर उनका धर्म परिवर्तन करने में लगा हुआ है। 

द्वितीय चरण में विस्तार होता है। छोटा चर्च अब एक बड़ा बन जाता है। उसका विस्तार हो जाता है। अब वह छुप-छुप कर नहीं अपितु आत्म विश्वास से अपनी उपस्थिती दर्ज करवाता है।

1. स्थानीय सभा के स्वरुप में परिवर्तन- अब वह हर रविवार को आम सभा में लाउड स्पीकर लगाकर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। अनेक लोग सालाना ईसाई बनने लगते है। अब उसके पादरी ईसाई मत की क्यों श्रेष्ठ है और पगान स्थानीय देवी देवता क्यों असफल हैं। ऐसी बातें चर्च की दीवारों के भीतर खुलेआम बिना रूकावट के बोलने लगते है। न केवल उनका आत्मविश्वास बढ़ जाता है। अपितु वह धीरे धीरे आक्रामक भी होने लगते है। कुछ अंतराल में बड़ी बड़ी चंगाई सभाओं का आयोजन चर्च करता है। पूरे शहर में पोस्टर लगाए जाते है। स्थानीय टीवी पर उसका विज्ञापन दिया जाता है। दूर दूर से ईसाईयों को बुलाया जाता है। विदेशी मिशनरी भी अनेक बार अपनी गोरी चमड़ी का प्रभाव दिखाने के लिए आते है।

2. चर्च के साथ मिशनरी स्कूल//कॉलेज का खुलना- अब चर्च के साथ ईसाई मिशनरी स्कूल खुल जाता है।  उस  स्कूल में हिन्दुओं के बच्चे मोटी मोटी फीस देकर अंग्रेज बनने आते हैं। उन बच्चों को रोज अंग्रेजी में बाइबिल की प्रार्थना करवाई जाती है।  ईसा मसीह के चमत्कार की कहानियां सुनाई जाती हैं। देश में ईसाई समाज की गतिविधियों के लिए दान कहकर धन एकत्र किया जाता है।  जो हिन्दू बच्चा सबसे अधिक धन अपने माँ-बाप से खोस कर लाता है। उसे प्रेरित किया जाता है। जो नहीं लाता उसे नजरअंदाज अथवा तिरस्कृत किया जाता हैं। कुल मिलाकर इन ईसाई कान्वेंट स्कूल से निकले बच्चे या तो नास्तिक अथवा ईसाई अथवा हिन्दू धर्म की मान्यताओं से घृणा करने वाले अवश्य बन जाते हैं। इसे आप का जूता आप ही के सर बोले तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।

3. बिज़नेस मॉडल- चर्च अब धर्म परिवर्तित हिन्दुओं को अपने यहाँ रोजगार देने लगता है। चर्च शिक्षा, स्वास्थ्य,अनाथालय, NGO आदि के नाम पर विभिन्न उपक्रम आरम्भ करता है। चपरासी, वाहन चालक से लेकर अध्यापक , नर्स से लेकर अस्पताल कर्मचारी, प्रचारक से लेकर पादरी की नौकरियों में उनकी नियुक्ति होती हैं।  कुल मिलाकर यह एक बिज़नेस मॉडल के जैसा खेल होता हैं। धर्म परिवर्तित व्यक्ति  को इस प्रकार से चर्च पर निर्भर कर दिया जाता है कि अब उसे न चाहते हुए भी चर्च की नौकरी करनी पड़ती हैं। अन्यथा वह भूखे मरेगा। जिससे धर्म परिवर्तित वापिस जाने का न सोचे। यह मॉडल विश्व में अनेक स्थानों पर आजमाया जा चूका हैं।

4. बाइबिल कॉलेज- चर्च अपने यहाँ पर धर्म परिवर्तित ईसाईयों के बच्चों को चर्च द्वारा स्थापित Theology अर्थात धार्मिक शिक्षा देने वाले विद्यालयों में भर्ती करवाने के लिए प्रेरित करता हैं। इस उद्देश्य दूसरी पीढ़ी को अपने पूर्वजों की जड़ों से पूरी प्रकार से अलग करना होता हैं। इन विद्यालयों में वे बच्चे पढ़ने जाते है जिनके माता-पिता में हिन्दू धर्म के संस्कार होते है। उनके बच्चें एक सच्चे ईसाई के समान सोचे और वर्ते। हिन्दू देवी-देवताओं और मान्यताओं पर कठोर प्रहार करे और ईसाई मत का सदा गुणगान करे। ऐसा उनकी मानसिक अवस्था को तैयार किया जाता है। इन  Theology कॉलेजों से निकले बच्चे ईसाइयत का प्रचाररात-दिन करते हैं।

5. पारिवारिक कलह - ईसाई चर्च इस कला में माहिर है। जिस परिवार का कोई सदस्य ईसाई बन जाता है तथा अन्य सदस्य हिन्दू बने रहते है। वह घर झगड़ों का घर बन जाता हैं। शुरू में वह ईसाई सदस्य सभी सदस्यों को ईसाई बनने का दबाव बनता हैं। घर के कार्यों में सहयोग न करना। हिन्दू त्योहारों को बनाने का विरोध करना। हिन्दू देवी देवताओं की निंदा करना। अपनी क्षमता से अधिक दान चर्च को देना। अपनी पत्नी और बच्चों को ईसाई न बनने पर संसाधनों से वंचित करना। अपने माँ-बाप को ईसाई न बनने के विरोध में सुख सुविधा जैसे भोजन,कपड़े,चिकित्सा सुविधा आदि न देना। यह कुछ उदहारण है। अपना एक अनुभव साँझा कर रहा हूँ। बात 2003 की है। मैं कोयम्बटूर तमिल नाडु में MBBS का छात्र था। मेरे समक्ष  एक परिवार जो ईसाईयों के पेंटाकोस्टल सम्प्रदाय से था। अपने मरीज का ईलाज करवाने आया। इस ईसाई सम्प्रदाय में दवा के स्थान पर रोगी का ईसा मसीह की प्रार्थना से चंगा होने को अधिक मान्यता दी जाती है। उस परिवार का मुखिया अन्य सदस्यों के न चाहते हुए भी अस्पताल से एक गंभीर रोगी की छुट्टी करवाकर चंगाई प्रार्थना करवाने के लिए चर्च ले गया। रोगी का क्या हुआ होगा सभी समझ सकते है। जो ईसाई यह लेख पढ़ रहे है। वे कृपया आत्मचिंतन करे क्या परिवारों को उजाड़ना यीशु मसीह का कार्य है?

 इस दूसरे चरण में तमिलनाडु, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखण्ड, पंजाब आदि राज्य आते है।  इन राज्यों में सरकारें चर्च की गतिविधियों  की अनदेखी करती है। क्यूंकि वह चर्च के कार्यों में फालतू हस्तक्षेप करने से बचती है। सरकार की नाक के नीचे यह सब होता है मगर वह कुम्भकर्णी नींद में सोती रहती हैं। 

तीसरे चरण में चर्च एक विशाल बरगद बन जाता है। इस चरण को "प्रभुत्व" का चरण कहते है। इस चरण में ईसाई मत का गैर ईसाईयों के प्रति वास्तविक सोच के दर्शन होते है। चर्च के लिए इस चरण में जायज और नाजायज के मध्य कोई अंतर नहीं रहता। वह उसका साम-दाम दंड भेद से अपने उद्देश्य को लागु करने के लिए किसी भी हद तक जाता है।

1.  हिंसा का प्रयोग -हिंसा पूर्व में उड़ीसा में ईसाई धर्म परिवर्तन का विरोध करने वाले स्वामी लक्ष्मणानंद जी की हत्या करना भी इसी नीति के अंदर आता हैं। उत्तर पूर्वी राज्य त्रिपुरा में रियांग जनजाति बस्ती थी। उस जनजाति ने ईसाई बनने से इंकार कर दिया। उनके गावों पर आतंकवादियों द्वारा हमला किया गया।  उन्हें हर प्रकार से आतंकित किया गया। ताकि वह ईसाई बन जाये। मगर रियांग स्वाभिमानी थे। वे अपने पूर्वजों की धरती छोड़कर आसाम में आकर अप्रवासी के समान रहने लगे। मगर धर्म परिवर्तन करने से इंकार कर दिया। खेद है कि कोई भी मानवाधिकार संगठन ईसाईयों के इस अत्याचार की सार्वजानिक मंच से कभी निंदा नहीं करता। 

2. सरकार पर दबाव- अपने संख्या बढ़ने पर ईसाई समाज एकमुश्त वोट बैंक बन जाता है। चुनाव के दौर में राजनीतिक पार्टियों के नेता ईसाई बिशप के चक्कर लगाते है। बहुत कम लोग यह जानते है कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने तो मिजोरम में भारतीय संविधान के स्थान पर बाइबिल के अनुसार राज्य चलाने की सहमति प्रदान की थी। पंजाब जैसे राज्य में सरकार द्वारा धर्म परिवर्तित ईसाईयों के लिए सरकारी नौकरियों में एक प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है। मदर टेरेसा दलित ईसाइयों के आरक्षण के समर्थन में दिल्ली पर धरने में बैठ चुकी है। (कमाल है धर्म परिवर्तन करने के पश्चात भी दलित दलित ही रहते हैं। ) केरल और उत्तर पूर्व में राजनीतिक पार्टियों के टिकट वितरण में ईसाई बहुल इलाकों में चर्च की भूमिका सार्वजानिक हैं। गोवा जैसे राज्य में कैथोलिक चर्च के समक्ष बीजेपी जैसी पार्टियां भी बीफ जैसे मुद्दों पर चुप्पी धारण कर लेती हैं। तमिलनाडु में तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता द्वारा पहले धर्म परिवर्तन के विरोध में कानून बनाने फिर ईसाई चर्च के दबाव में हटाने की कहानी अभी ज्यादा दिन पुरानी बात नहीं हैं। नियोगी कमेटी द्वारा प्रलोभन देकर जनजातियों और आदिवासियों को ईसाई बनाने के विरोध में सरकार को जागरूक करने का कार्य किया गया था। उस रिपोर्ट पर सभी सरकारें बिना किसी कार्यवाही के चुप रहना अधिक श्रेयकर समझती हैं। मोरारजी देसाई के कार्यकाल में धर्म परिवर्तन के विरोध में विधेयक पेश होना था। उस विधेयक के विरोध में मदर टेरेसा ने हमारे देश के प्रधानमंत्री को यह धमकी दी कि अगर ईसाई संस्थाओं पर प्रतिबन्ध लगाया गया, तो वे अपने सभी सेवा कार्य स्थगित कर देंगे। इस पर देसाई जी ने प्रतिउत्तर दिया कि इसका अर्थ तो यह हुआ कि ईसाई समाज सेवा की आड़ में धर्मान्तरण करने का अधिक इच्छुक है।  सेवा तो केवल एक बहाना मात्र है। खेद है कि मोरारजी जी की सरकार जल्दी ही गिर गई और यह विधेयक पास नहीं हुआ। इस प्रकार से ईसाई चर्च अनेक प्रकार से सरकार पर दबाव बनाता है।

3. गैर ईसाईयों के घरों में प्रभुत्व के लिए संघर्ष- ईसाई समाज से सम्बंधित नौजवान लड़के-लड़कियों को ईसाइयत के प्रति समर्पण भाव बचपन से सिखाया जाता हैं। पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित होने के कारण उनका आपस में वार्तालाप चर्च के परिसर में, युथ प्रोग्राम में, बाइबिल की कक्षाओं में, गर्मियों के कैंप में, गिटार/संगीत सिखाने की कक्षाओं में आरम्भ हो जाता हैं। इस कारण से अनेक युवक युवती आपस में विवाह भी बहुधा कर लेते है। इसके साथ साथ वे अपने कॉलेज में पढ़ने वाले गैर हिन्दू युवक-युवतीयों से भी विवाह कर लेते हैं। इस अंतर धार्मिक विवाह को कुछ लोग सेक्युलर सामाज का अभिनव प्रयोग चाहे कहना चाहे। मगर इस सम्बन्ध का एक अन्य पहलू भी है। वह है प्रभुत्व। ईसाई युवती अगर किसी हिन्दू युवक से विवाह करती है तो वह ईसाई रीति-रिवाजों, चर्च जाने, बाइबिल आदि पढ़ने का कभी त्याग नहीं करती। उस विवाह से उत्पन्न हुई संतान को भी वह यही संस्कार देने का पूरा प्रयत्न करती है। वही अगर ईसाई युवक किसी हिन्दू लड़की से विवाह करता हैतो वह अपनी धार्मिक मान्यताओं को उस पर लागु करने के लिए पूरा जोर लगाता है। जबकि गैर ईसाई युवक- युवतियां अपनी धार्मिक मान्यताओं को लेकर न इतने प्रबल होते और न ही कट्टर होते है। इस प्रभुत्व की लड़ाई में गैर ईसाई सदस्य बहुधा आत्मसमर्पण कर देते हैं। अन्यथा उनका घर कुरुक्षेत्र न बन जाये। धीरे धीरे वे खुद ही ईसाई बनने की ओर चल पड़ते है। ईसाई समाज के लड़के-लड़कियां हिन्दू समाज के प्रबुद्ध वर्ग जैसे डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत युवक-युवतियों से ऐसा सम्बन्ध अधिकतर बनाते हैं। इस प्रक्रिया के दूरगामी परिणाम  पर बहुत कम लोगों की दृष्टि जाती हैं। कम शब्दों में हिन्दू समाज की आर्थिक, सामाजिक, नैतिक प्रतिरोधक क्षमता धीरे धीरे उसी के विरुद्ध कार्य करने लगती हैं। पाठक स्वयं विचार करे।  यह कितना चिंतनीय विषय है।

4. व्यापार नीति- बहुत कम लोग जानते है कि संसार के प्रमुख ईसाई देशों के चर्च व्यापार में भारी भरकम धन का निवेश करते हैं। चर्च ऑफ़ इंग्लैंड ने बहुत बड़ी धनराशि इंग्लैंड की बहुराष्ट्रीय कंपनियों में लगाई हुई है। यह विशुद्ध व्यापार है। यह एक प्रकार का चर्च और व्यापारियों का गठजोड़ है। इन कंपनियों से हुए लाभ को चर्च धर्मान्तरण के कार्यों में व्यय करता है। जबकि व्यापारी वर्ग के लिए चर्च धर्मान्तरित नये उपभोक्ता तैयार करता है। एक उदहारण लीजिये चर्च के प्रभाव से एक हिन्दू धोती-कुर्ता छोड़कर पैंट-शर्ट-कोट-टाई पहनने लगता है। व्यापारी कंपनी यह सब उत्पाद बनाती है। चर्च नये उपभोक्ता तैयार करता है। उसे बेचकर मिले लाभ को दोनों मिलकर प्रयोग करते हैं। यह प्रयोग अनेक शताब्दियों से संसार के अनेक देशों में होता आया हैं। प्रभुत्व के इस चरण में अनेक छोटे देशों की आर्थिक व्यवस्था प्रत्यक्ष रूप में इस प्रकार से बहुराष्ट्रीय कंपनियों और परोक्ष रूप से चर्च के हाथों में आ चुकी हैं। यह प्रक्रिया हमारे देश में भी शुरू हो चुकी हैं। इसका एकमात्र समाधान स्वदेशी उत्पादों का अधिक से अधिक प्रयोग हैं।

5. सांस्कृतिक अतिक्रमण- विस्तार चरण में चर्च सांस्कृतिक अतिक्रमण करने से भी पीछे नहीं हटता। वह उस देश की सभी प्रचीन संस्कृतियों को समूल से नष्ट करने का संकल्प लेकर यह कार्य करता हैं। आपको कुछ उदहारण देकर समझाते है। केरल में कथकली नृत्य के माध्यम से रामायण के प्रसंगों का नाटक रूपी नृत्य किया जाता था। ईसाई चर्च ने कथकली को अपना लिया मगर रामायण के स्थान पर ईसा मसीह के जीवन को प्रदर्शित किया जाने लगा। तमिलनाडु में भरतनाट्यम नृत्य के माध्यम से नटराज/ शिव की पूजा करने का प्रचलन है। चर्च ने भरतनाट्यम के माध्यम से माता मरियम को सम्मान देना आरम्भ कर दिया। हिन्दू त्योहारों जैसे होली,दीवाली को प्रदुषण बताया और 14 फरवरी जैसे फूहड़ दिन को प्रेम का प्रतीक बताकर मानसिक प्रदुषण फैलाया। हर ईसाई स्कूल में 25 दिसंबर को सांता के लाल कपड़े पहन कर केक काटा जाने लगा। देखा देखी सभी हिन्दुओं द्वारा संचालित विद्यालय भी ऐसा ही करने लगे। किसी ने ध्यान नहीं दिया कि वे लोग किसका अँधा अनुसरण कर रहे है। इसे ही तो सांस्कृतिक अतिक्रमण कहते है।

तृतीय चरण में हमारे देश के केरल, उत्तर पूर्वी राज्य नागालैंड, गोवा आदि आते है। जहाँ की सरकार तक ईसाई चर्च की कृपा के बिना नहीं चल सकती। हिन्दुओं की इन राज्यों में कैसी दुर्गति है। समीप जाकर देखने से ही आपको मालूम चलेगा। अगर तीसरा प्रभुत्व का चरण भारत के अन्य राज्यों में भी आरम्भ हो गया तो भविष्य में क्या होगायह प्रश्न पाठकों के लिए है। हिन्दू समाज को अपनी रक्षा एवं बिछुड़ चुके अपने भाइयों को वापिस लाने के लिए दूरगामी वृहद् नीति बनाने की अत्यंत आवश्यकता है। अन्यथा बहुत देर न हो जाये!

(यह लेख मैंने अपने जीवन के पिछले 15 वर्षों के अनुभव के आधार पर लिखा है। दक्षिण, मध्य और उत्तर भारत में रहते हुए मैंने पर्याप्त समय ईसाई समाज के विभिन्न सदस्यों के साथ संवाद किया। यह लेख उसी अनुभव के आधार पर आधारित है। - डॉ विवेक आर्य)

(सलंग्न चित्र में आप संस्कृतिकरण की छाप स्पष्ट देख सकते है। ईसा मसीह को जबरदस्ती श्री कृष्ण के साथ नत्थी करने का प्रयास किया जा रहा है। विस्तार चरण में इन्हीं श्री कृष्ण के चित्र की ईसाई पादरी निंदा करेंगे और प्रभुत्व चरण में जो कोई ईसाई बहुल इलाके में श्री कृष्ण की पूजा करेगा।  उसका पूरा विरोध चर्च  सदस्य करते हैं।)