Saturday 8 April 2017

मुसलमान कैसे बन सकेंगे पुरोहित?

मध्य प्रदेश में अब कोई भी पुरोहित का कोर्स कर पूजा-पाठ करा सकेगा. प्रदेश सरकार एक साल के इस कोर्स की शुरुआत जुलाई से करने जा रही है. इस कोर्स में किसी जाति या धर्म की बाध्यता नहीं होगी. कोर्स का संचालन स्कूल शिक्षा विभाग के महर्षि पतंजलि संस्कृत संस्थान के जरिए किया जाएगा. शायद मध्यप्रदेश सरकार का यह फैसला देश में धर्मनिपेक्षता की टपकती छत पर कुछ देर ही सही मिटटी डालने का कार्य करें. पर इस पूरी खबर से सवालों के अंकुर फूटते जरुर दिखाई दे रहे है. सरकार के इस कदम का ब्राहमण समाज एक बार विरोध करने जा रहा है. ज्ञात हो पिछले साल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अनुसूचित जाति विभाग को एक योजना पर काम करने को कहा था, जिसके जरिए दलित समुदाय के युवाओं को पंडिताई और पुरोहित बनने का प्रशिक्षण दिया जाना था. सरकार की मंशा दलित समुदाय के युवाओं से ब्राहमणों की तरह पूजा, पाठ, यज्ञ हवन और अन्य मांगलिक कार्य करवाने की थी. सरकार की इस योजना के ख़िलाफ प्रदेश ब्राहमण लामबंद हो गए थे और पूरे प्रदेश में प्रदर्शन हुए थे. इसके बाद सरकार को अपने कदम पीछे ख़ींचने पड़े थे. एक बार स्थिति वैसी ही बनती जा रही है. हालाँकि मीडिया इस पुरे मामले को मुस्लिम समुदाय से जोड़कर दिखा रहा है जबकि सरकार के फैसले में जाति धर्म की स्पष्ट रूप से कोई बाध्यता नही है. इसमें सिख, इसाई, बोद्ध या अन्य मजहब के लोग भी आ सकते है.

ब्राहमण समुदाय द्वारा इस फैसले का विरोध किया जाना कितना जायज है या नहीं इस पर टिप्पणी करने के बजाय यहाँ उठ रहे सवाल जरुर जायज है. इसमें एक बात तो यह कि समाज परिवर्तित और विकसित होते हुए आज ऐसे दौर में आ गया है कि अब पुराने सामाजिक ढांचे कायम रखना कठिन है. इस कारण आज जिन्हें पिछड़ी जाति कहा जाता रहा है वह पुरोहितवाद और राजनीतिक, सामाजिक शोषण को खुलकर चुनोती देने के मूढ़ में है. और सही भी है जहाँ तक हमारा मानना है धर्म, देश या समाज पर किसी एक जाति वर्ण का स्वमित्व्य कैसे हो सकता है? दूसरा यह भले ही सरकार का राजनैतिक फैसला हो लेकिन धर्म राजनीति की बजाय आस्था का विषय है और आस्था सीधे-सीधे उपासना पद्धति के साथ उस धर्म के मूल सिद्धांतों से जुडी होती है. आखिर कैसे एक मजहब से जुडा व्यक्ति दुसरे धर्म के मूल सिद्धांत उसके कर्मकांड आदि का आस्था लग्न के साथ पालन करेगा? और यदि व्यापारिक द्रष्टि से या जीवकोपार्जन के लिए वह एक मुखोटा लगाकर इस कार्य को करें भी तो हम समझते है कि यह धार्मिक रीति-नीति का सिर्फ उपहास होगा.

दरअसल पुरोहित दो शब्दों से बना है परतथा हितअर्थात ऐसा व्यक्ति जो दुसरो के कल्याण की चिंता करे. प्राचीन काल में आश्रम प्रमुख को पुरोहित कहते थे जहां शिक्षा दी जाती थी. हालांकि यज्ञ कर्म करने वाले मुख्य  व्यक्ति को भी पुरोहित कहा जाता था. यह पुरोहित सभी तरह के संस्कार कराने के लिए भी नियुक्त होता था. इसमें गौरतलब यह कि वैदिक काल में पुरोहित का कार्य किसी जाति विशेष से जुडा हुआ नहीं था. लेकिन धीरे-धीरे समय के साथ पुरोहितों ने मनमाने ढंग से ऋग्वेद पर अधिकार कर यह प्रचार कर दिया कि यह ब्राह्मणों द्वारा बनाया गया है और वेद पढ़ने-पढ़ाने का अधिकार केवल ब्राह्मण को है. धीरे-धीरे यह सामन्ती व्यवस्था बन गयी जिस कारण पुरोहित शब्द  परहितकी बजाय स्वहित में निहित हो गया और यही से समाज में अशिक्षा और जातिवाद, छुआछूत आदि की विसंगति ने जन्म ले लिया जो अब तक इसकी जकड में गिरफ्त है.
 इस ताजा प्रकरण को ही देखे तो नए सिरे से इस कोर्स पर विवाद बढ़ने की उम्मीद है. ब्राहमण समाज के युवा सरकार की इस कोशिश से ख़ासे नाराज हैं. इन्हीं में से एक अमिताभ पाण्डेय कहते हैं, पुरोहिताई ऐसा काम नहीं है कि कोई भी कर ले. प्राचीन काल से हिंदू धर्म में ब्राह्मण इसे करते चले आ रहे हैं. अब जहां तक सवाल है किसी भी धर्म के लोगों को इसमें प्रवेश देने का तो उसे किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता.

हालाँकि इनका यह कहना की इस कार्य को सिर्फ ब्राह्मण ही करा सकते है तो इसका कोई वैदिक प्रमाण नहीं है. इसे सिर्फ एक मनघडंत प्रथा के सिवाय कुछ नहीं कहा जा सकता. क्योंकि सृष्टि का नियम है कि सभी जातियाँ ईश्वर निर्मित है ना कि मानव निर्मित है. सभी मानवों कि उत्पत्ति, शारीरिक रचना, संतान उत्पत्ति आदि एक समान होने के कारण उनकी एक ही जाति हैं और वह है मनुष्य. हाँ यह उसके धार्मिक आचरण पर निर्भर करता है यदि कोई वेद पढना चाहें वेद पाठन करें और यदि कोई युद्ध कोशल में निपुण है तो वह युद्ध करें किसी भी कार्य पर एकाधिकार करना हमारी वैदिक सभ्यता के विरुद्ध है. सामाजिक वर्चस्व कायम रखने को इस तरह की भ्रांतियां फैलाना सिर्फ और सिर्फ अपना निहित स्वार्थ प्रकट करता है. इस कारण ब्राहमण समुदाय द्वारा इसका विरोध किसी भी रूप में जायज नहीं माना जा सकता.
मनुष्य और उसके समुदाय की पहचान जन्म के आधार पर करना समुदाय के रंग या बनावट को जन्म से जोड़े रखना अमानवीय, असामाजिक और मनुष्य की प्रगति का विरोधी कदम है. कुछ समय पहले की ही खबर थी कि राजस्थान में दलितों के एक बड़े हिस्से ने अपने सामाजिक, पारिवारिक और धार्मिक कार्यों के लिए खुद के बीच से ही पंडित तैयार कर लिए हैं. राजस्थान में दलित समुदाय के ये पुरोहित अपने समाज में कर्मकाण्ड और धार्मिक अनुष्ठान कराते हैं. ये दलित पुरोहित वैसे ही कर्मकाण्ड सम्पन्न करते हैं जैसे ऊँची जाति के ब्राह्मण. दलितों का कहना है इससे छुआछूत पर रोक लगेगी.
हालाँकि सरकार की यह एक प्रायोगिक शिक्षा नीति है लेकिन इसमें सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या यह सब आस्था की नीति के अंतर्ग्रत आएगा? क्योंकि उदहारण के तौर पर चले यदि कोई हमें कहे कि मस्जिद में अजान करने के लिए मासिक वेतन मिलेगा यदि जीविकापार्जन के लिए हम ऐसा कर भी दे भी तो क्या हमारें अन्दर उस मत के लिए उसी स्वरूप में आस्था उत्पन्न होगी? शायद नहीं! इस कारण अन्य सम्प्रदाय के व्यक्तिओं को कैसे किस आधार पर माना जाये कि वह यह कर्मकांड उसी धार्मिक मनोवृति, आस्था और पुरे मन से करेगा? मेरा मानना है जाति की दीवार अवश्य गिरनी चाहिए पर इसमें कहीं भी धार्मिक नीति या आचरण का उपहास न हो!!
विनय आर्य


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