Tuesday 11 April 2017

केरल एक सपना जमीन पर उतरा


नागालैंड, बामनिया के बाद अब केरल सचमुच यह सपना ही था कि क्या कभी इन जगहों पर भी अपने प्राचीन स्वरूप में वैदिक मन्त्रों की गूंज सुनाई देगी। अतीत भले ही इस बात का गवाह रहा हो कि दक्षिण भारत कभी वेदों की भूमि था लेकिन वर्तमान परिदृश्य में वामपंथी इतिहासकारों के द्वारा उत्तर और दक्षिण को आर्य और द्रविड़ के नाम पर बाँट दिया गया। जिसका लाभ अन्य मतमतान्तरां की मिशनरियों ने एक बड़े स्तर पर धर्मांतरण कर उठाया। लेकिन वहां आज जो भी बचा आर्य समाज अपनी पूरी शक्ति से उसे समेटने में मन, वचन और कर्म से जुटा है। यदि इस कड़ी में बात दक्षिण पश्चिम भारत के एक राज्य केरल की करें तो जहाँ आज से पहले एक हवन कुंड रखने की सुरक्षित जमीन आर्य समाज कहो या सनातन धर्म के पास नहीं थी। वहां आज एक बड़े भूभाग पर महाशय धर्मपाल जी ने वेद प्रचार के लिए संस्कृति की रक्षा हेतु एक वेद रिसर्च संस्थान दान स्वरूप भेंट कर दिया। 

दूर-दूर तक फैली हरी-भरी घाटियां, सुहाना मौसम, ऊंची-ऊंची चोटियां, प्राकृतिक खुशबू से भरी हवा जैसे कि यह धरती का स्वर्ग हो। इस धरा पर 2 अप्रैल 2017 का दिन आर्य समाज के नेतृत्त्व में केरल के हिन्दू समुदाय के लिए एक एतिहासिक दिन बन गया। पतली गलियों से जब हजारों की संख्या में एक जुट हिन्दू समुदाय पुरुष स्त्री और बच्चे डक्भ् वेद रिसर्च संस्थान की ओर आते दिखाई दिए तो मन में खुशी की लहर दौड़ गयी। हर किसी के हाथ में एक थैला था। जिसके अन्दर अपना हवनकुंड, समिधा, घृत का पात्र, जल पात्र, चम्मच, दीपक, और सामग्री थी। लोगों की इतनी बड़ी संख्या हम सब उत्तर भारतीयों के एक कोतुहल का विषय थी। हमारे मन में अथाह हर्ष के साथ एक चिंता भी बार-बार उभर रही थी कि इतनी बड़ी संख्या में आये लोगों को आयोजक किस तरह व्यवस्थित करेंगे, पर देखते ही देखते 2 से 3 मिनट के अन्दर हर कोई एक दिशा एक पंक्ति में बिना किसी बहस और बोलचाल के, बिना जाति रंग आदि के भेदभाव के सभी यज्ञ आसन मुद्रा में समान दूरी पर हवन कुंड सामने रखकर यज्ञ के लिए तैयार थे। इसमें देखने वाली बात यह थी कि इस विशाल यज्ञ की व्यवस्था को सुव्यवस्थित ढंग से संचालित करने हेतु कोई व्यवस्थापकों की तैनाती भीं नहीं की गयी थी। हर कोई स्वयं में ही व्यवस्थापक दिखाई नज़र आ रहा था।

मंच पर वेद मन्त्रों का पाठ करने वाले आचार्य थे और मंच से नीचे महाशय जी समेत विभिन्न प्रान्तों से आये आर्य महानुभाव। यज्ञ स्थल के चारों ओर का स्थान अपने नैसर्गिक सौंदर्य से चमक रहा था। हर किसी के चेहरे पर एक अनूठी आस्था, आभा सत्य सनातन धर्म के प्रति दमक रही थी। संस्थान के एक ओर समुद्र की लहरें हिलोरें ले रही थीं तो दूसरी ओर हमारे मन में हर्ष, गर्व और श्रद्धा की लहरें उठ रही थी। हजारों लोगों की उपस्थिति में वातावरण शांत था फिर आचार्य एम. आर. राजेश के कंठ से ओ३म की ध्वनि का उच्चारण हुआ। इसके बाद हजारों लोगों के मुख से एक साथ एक स्वर में ओ३म् की ध्वनि उच्चारित हुई। आचमन मन्त्रों के बाद अथर्वस्तुति, प्रार्थना-उपासना के मन्त्रों से पूरा वातावरण वैदिक मय हो गया। स्त्री-पुरुष या बच्चे और बुजुर्ग शु( वैदिक मंत्रां को उनकी यथार्थता एवं पवित्रता के साथ बिना किसी (शब्द) व स्वर  की त्रुटि के पारम्परिक रूप से पूरी आस्था के साथ एक स्वर में लयब( बोल रहे थे। पुरुष समान रंग के कटीवस्त्र तो महिलाएं पारम्परिक वस्त्र साड़ी धारण किये थीं। दूर-दूर तक जहाँ तक नजर जाती हर किसी की शारारिक हलचल हाथ से लेकर होठ तक सामान रूप से गति रहे थे। यह हवन यज्ञ सुबह 7  बजे से शुरू होकर 8.30 बजे सम्पन्न हुआ जिसके उपरांत मलयालम भाषा में यज्ञरूप प्रभु हमारे प्रार्थना का सामूहिक रूप से गान हुआ एक स्वर में प्रार्थना कर हजारों लोगों ने माहौल को भक्तिमय बना दिया। शांति पाठ के बाद यज्ञ कार्यक्रम का समापन हुआ।
कुछ लोग सोच रहे होंगे कि केरल के अन्दर इस सपने का औचित्य क्या था। पर केरल के वर्तमान हालात को देखे तो यह सब नितांत जरूरी था क्योंकि केरल हिन्दुओं के लिए धार्मिक शमशानघाट भी बनता जा रहा है। बड़े स्तर पर केरल में धर्म-परिवर्तन भी हो रहा है और साथ ही साथ केरल में हिन्दुओं पर अत्याचार भी हो रहे हैं। शेष भारत की तरह वहां का हिन्दू भी जाति और छुआछूत में विभाजित है। वहां वेद कौन पढ़े? स्त्री या पुरुष इसे लेकर भी संशय के बादल छाये थे। इस कारण वहां आर्य समाज का जाना बेहद जरूरी था पर आज लिखते हुए खुशी हो रही कि जिस तरह वहां सामूहिक रूप से बिना भेदभाव के यज्ञ हुआ उसे देखकर लग रहा है कि महर्षि देव दयानन्द जी का नारा था वेद की ज्योति जलती रहे। जिसको लेकर वर्तमान आर्य समाज पूरी निष्ठा से वहां आगे बढ़ा रहा है।      विनय आर्य

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