Thursday 20 April 2017

बात सिर्फ लाउडस्पीकर की है.

आज कुछ लोग सोनू निगम के साथ हैं और कुछ उनके खिलाफ, लेकिन कोई इस बात को नहीं समझ रहा कि सोनू निगम कि दिक्कत अजान से नहीं लाउडस्पीकर से है. इसके बाद भी लोग इसे विवादित बयान मान रहे है और इसे धर्म से जोड़कर देखा जा रहा है. जबकि यह विषय धर्म से ज्यादा परेशानी का विषय है. इस धार्मिक परम्परा को अब आधुनिक परेशानी के रूप में देखा जाना चाहिए. यधपि सोनू निगम कोई पहला व्यक्ति नहीं है जो इतना बवाल हो इससे पहले तो कबीरदास भी कह चूका है कि जाने तेरा साहिब कैसा है. मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारै, क्या साहिब तेरा बहिरा है?

सोनू निगम ने जो कहा हो सकता है उस पर मचा शोर एक दो दिन में थम जाए, लेकिन इस बात पर एक बार शांति से बहस की जरूरत है. बात अजान की नहीं है बात लाउडस्पीकर की है. उसका यह कहना भी सही है कि जब पहली बार अजान पढ़ी गई थी तब वाकई किस लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं किया गया था. लाउडस्पीकर का इस्तेमाल 1900 के दशक में शुरू हुआ था और मस्जिदों में इसका इस्तेमाल 1930 से किया जाने लगा. आज जो लोग इस तार्किक बहस को धर्म के चश्मे से देखकर विवादित बयान बता रहे है शायद वो लोग किसी पूर्वाग्रह का शिकार होकर इस सामाजिक परेशानी से ध्यान भटकाना चाह रहे है.
यदि आंकड़े देखे तो पिछले कुछ सालों में देश के अन्दर जितनी भी सांप्रदायिक हिंसा हुई, उसमें हर पांचवी हिंसा की घटना लाउडस्पीकर से निकली नफरत की आवाज से हुयी है. कश्मीर में पत्थरबाजों को उकसाने से लेकर अनगिनत अफवाहनुमा किस्सों से गुजरिये तो पता चलेगा कि कई  दंगों  की जड़ों में लाउडस्पीकर का इस्तेमाल हुआ है. बात सिर्फ दंगो तक ही सिमित नहीं है कई बार धार्मिक कार्यक्रमों या जागरण जैसे आयोजनों में दिन-रात इतनी ऊंची आवाज में भक्ति गीत-संगीत बजाया जाता है कि आसपास के घरों में लोगों के लिए सो पाना और बच्चों के लिए पढ़ाई-लिखाई करना मुश्किल हो जाता है. मैं खुद अपने अनुभव के तौर पर कहता हूँ पिछले दिनों मेरे मोहल्ले में भागवत कथा के नाम पर कई दिनों तक जो शोर रहा वो वाकिये में बर्दास्त के बाहर था. पता नहीं क्यों लोग इस शोर को धर्म से जोड़कर देखते है.

कई बार जागरण के नाम पर पूरी रात शोर मचाया जाता है आप सोचिये कितनी परेशानी होती होगी. रमजान के माह में तो एक माह तक हजरात दो बजकर 30 मिनट हो चुके हैं. जल्दी उठिए सेहरी का समय हो गया है. तभी दूसरे लाउडस्पीकर से आवाज आती है. हजरात दो बजकर 35  मिनट हो चुके हैं. तीसरा लाउडस्पीकर कहता है. नींद से बेदार हो जाइए और सेहरी खा लीजिए. ये सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक सेहरी का टाइम खत्म न हो जाए. जिस तरह से माइक की गूंज होती है उससे तो मुर्दे भी उठकर सेहरी करने लगें. आखिर यह सब क्यों और किसके लिए किया जा रहा है जबकि विश्व के कई देशों में इस प्रकार से लाउडस्पीकर का प्रयोग करना मना है. जर्मन की कोलोन शहर में जब कोलोन सेंट्रल मस्जिद बनने की बात छिड़ी थी तो आस-पास रहने वालों ने इसका जमकर विरोध किया था. अंतत: मस्जिद बनाने वाले लोगों को इस बात को मानना पड़ा कि मस्जिद में लाउडस्पीकर नहीं लगाए जाएंगे.

इसके अलावा, 2008 में ऑक्सफोर्ड इंग्लैंड में मस्जिद से आने वाली आवाज का विरोध किया गया था. इलेक्ट्रॉनिक उपकरण का इस्तेमाल पूजा के लिए करना सही नहीं है और इससे पड़ोसियों को काफी दिक्कत होती है. 2004 में मिशिगन के अल इस्लाह मस्जिद रातोंरात चर्चा में आ गया था जब मस्जिद के लोगों ने लाउडस्पीकर इस्तेमाल करने की परमीशन मांगी. कहा गया कि यहां चर्च की घंटियां बजती हैं और इसे भी ध्वनि प्रदूषण में क्यों नहीं गिना जाता. नाइजीरिया के लागोस शहर, नीदर्लेंड्स, जर्मनी, स्वित्जरलैंड, नॉर्वे, बेल्जियम, फ्रांस, यूके और ऑस्ट्रिया सहित मुंबई में भी लाउडस्पीकर के इस्तेमाल सीमित है. यहां रात 10 बजे से सुबह 6 बजे के बीच लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. 2016 में ये बैन इजराइल में भी लगा दिया गया. इजराइल के धर्म गुरुओं ने भी इस फैसले को सही माना. बेशक इसमें सिर्फ अजान का नाम नहीं आना चाहिए, मंदिरों के जगराते भी वही काम करते हैं और चर्च के बड़े घंटे भी. गणपति और नवरात्री के दौरान भी यही होता है जब फिल्मी गानों के राग पर भजन के बोल किस तरह की पूजा में काम आते हैं इसका तो मुझे नहीं पता, लेकिन आम लोगों को इससे कितनी परेशानी होती है ये जरूर पता है. मौन, ध्यान, योग, प्रार्थना आदि कोई भी शोर को स्वीकृति नहीं देता. यही नही कोई मत-पंथ या मजहब भी लाउडस्पीकर बजाकर दूसरों की शान्ति में विघ्न डालने की इजाजत नही देता है
जरा कल्पना कीजिये कि जब 19 वीं सदी के अन्त  मे लाउडस्पीकर का ईजाद करने वाले जॉन फिलिप रेइस ने क्या ये सोचा होगा कि 140 साल बाद जब समाज विकसित हो कर नई-नई तकनीक खोज लेगा और मंगल ग्रह पर जीवन की तलाश करेगा, तब यही लाउडस्पीकर बेगुनाहों की मौत की वजह बनेगा. बीबीसी के पत्रकार सुहेल हलीम लिखते है कि सालों पहले मेरे एक बुजुर्ग कहा करते थे कि,  मैंने भारतीय मुसलमान को कभी कोई युनिवर्सिटी, स्कूल या कॉलेज माँगते हुए नहीं देखा, कभी न ही वो अपने इलाके में अस्पताल के लिए आंदोलन चलाते हैं और न ही बिजली पानी के लिए,.उन्हें चाहिए तो बस एक चीज. लाउडस्पीकर और मस्जिद से अजान देने की इजाजत..
राजीव चौधरी

No comments:

Post a Comment