Monday 26 June 2017

ऋषि दयानन्द का भक्तिवाद -डॉ. भवानीलाल भारतीय

ऋषि दयानन्द के धार्मिक तथा सामाजिक सुधार के कार्य में अधिक सक्रिय रहने तथा उनके राष्ट्रीय जागरण के प्रथम पुरोधा होने के कारण अनेक लोगों में यही धारणा बन गई है कि भारत की आध्यात्मिक चेतना को जगाने तथा भगवद् भक्ति के प्रसार में उनका योगदान अल्प है। ऐसा विचार उन लोगों का है जिन्होंने दयानन्द का सूक्षम अध्ययन नहीं किया। गहराई से देखें ते पता चलता है कि दयानन्द का गृहत्याग और संन्यास ग्रहण जिस विशिष्ट लक्ष्य को ध्यान में रखकर हुआ था, उसके पीछे अध्ययात्म ज्ञान को प्राप्त करने की उनकी तीव्र ललक ही थी।शिवरात्रि-प्रसंग से उन्होंने सीखा कि निखिल विश्व ब्रह्माण्ड का नियंत्रण करने वाली सत्ता जड़ नहीं हो सकती। वह कल्याणकारी शिव कौन है तथा कैसा है जिसकी वंदना वेदों में अनेकत्र मिलती है? अपने घर में घटित हुए मृत्यु-प्रसंगों ने उन्हें जिन्दगी और मौत के रहस्य को जानने की प्रेरणा दी। संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् उन्होंने अपने योग गुरुओं से उस राजयोगका प्रशिक्षण प्राप्त किया जो समाधि सि( पूर्वक परमात्मा का साक्षात्कार कराता है। भावी जीवन में परम देव परमात्मा के प्रति उनका प्रणतः भाव सदा रहा। अपने महान् कार्यो की पूर्ति में उन्होंने परमात्म देव की सहायता की याचना की और आजीवन एक आस्तिक भक्त का जीवन बिताकर अपने आराध्य के प्रति स्वयंको अर्पण कर दिया। स्वामी जी की धारणा थी कि धर्म, समाज और राष्ट्र को समुन्नत करने का जो महद् अभियान उन्होंने चलाया है, उसमें परमात्मा की प्रेरणा तथा सहायता ही सर्वोपरि रही है। वे परमात्मा के अनन्य उपासक थे। समर्पण भाव को लेकर जगन्नाटक के सूत्रधार के सम्मुख आने वाले वे एक ऐसे विनम्र सेवक थे जिन्होंने अत्यन्त भाव प्रवण होकर अपने आराध्य देव से कहा था-आपका तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते।शास्त्रार्थ समर में उतरने से पहले दयानन्द दीर्घकाल तक परमात्मा की उपासना करते थे मानो अपने आराध्य से सत्य पक्ष की विजय दिलाने की प्रार्थना करते हों। लोकहित के अपने सभी कार्यों और अनुष्ठानों में वे परमात्मा को अपना परम सहायक मानते थे। 
भक्तिवाद का उदय और भक्ति सूत्रों की रचना
छह दर्शन शास्त्रों की तर्ज पर कालान्तर में नारद और शाण्डिल्य के नाम से भक्तिसूत्र रचे गए। इनमें सूत्र शैली में भक्ति तथा उसके आनुषंगिक प्रसंगों की विस्तृत मीमांसा प्रस्तुत की गई है। आचार्य शाण्डिल्य ने भक्ति को इस प्रकार परिभाषित किया है या परा अनुरक्ति : ईश्वरे सा भक्तिः। अर्थात् परमात्मा के प्रति पराकोटि की अनुरक्ति ;प्रेमद्ध ही भक्ति है। इन ग्रन्थों में नवधा भक्ति का जो उल्लेख मिलता है उससे अनुमान होता है कि भक्तिसूत्रों की रचना उस युग में हुई थी जब पौराणिक मत का प्रचलन हो चुका था तथा जनता में प्रतिमा-पूजन, अवतारवाद आदि की धारणाएं चल पड़ी थीं। इन ग्रन्थों में ब्रज गोपिकाओं आदि के सन्दर्भ दिये गए हैं, वे इन्हें पुराणों के परवर्ती काल का होना बताते हैं।
)षि दयानन्द ने परमात्मा की भक्ति की और व्यक्ति का मनोनिवेश करने वाला एक ग्रन्थ लिखा था-आर्याभिविनयउनका विचार था चारों वेद संहिताओं में प्रत्येक से न्यून से न्यून पचास मंत्रों को लेकर उनकी भगवद्भक्ति से ओतप्रोत भावपूर्ण व्याख्या की जाये। इस ग्रंथ के प्रथम तथा द्वितीय प्रकाश ;)ग्वेद के 53 तथा यजुर्वेद के 55 मंत्र युक्तद्ध लिखे गए तथा छपे। अवशिष्ठ साम तथा अथर्ववेद के विनय प्रधान मंत्रों की व्याख्या वे नहीं लिख सके। यहां व्याख्यात मंत्रों की परमात्मा की स्तुति है या प्रार्थना, इसका संकेत वे मन्त्रारम्भ में कर देते हैं। ग्रन्थारम्भ के स्वरचित श्लोकों में दयानन्द ने परमात्मा की भावपूर्ण स्तुति की है-
सर्वात्मा सच्चिदानन्दोऽनन्तो यो न्यायकृच्छुचिः। भूयात्तमा सहायो नो दयालुः सर्वशक्तिमान्।।
अर्थात् जो परमात्मा सबका आत्मा, सत्, चित, आनन्दस्वरूप, अनन्त, अज, न्याय करने वाला, निर्मल, सदा पवित्र, दयालु सब सामर्थ्य वाला, हमारा इष्टदेव है, वह हमको सहाय नित्य होवे। 
साथ ही इन श्लोकों मे वे यह संकेत देते हैं कि समस्त लोगों के हित तथा परमात्मा के ज्ञान के लिए वे मूल मंत्रों के साथ-साथ उनका लोक-भाषा मेंं व्याख्यान जन साधारण को बोध कराने के लिए दे रहे हैं। दयानन्द की सम्मति में जो ब्रह्म विमल, सुखकारक, पूर्णकाम, तृप्त, जगत् में व्याप्त है वही वेदों से प्राप्य है। जिसके मन में इस ब्रह्म की प्रकटता ;यथार्थ ज्ञानद्ध है, वही मनुष्य ईश्वर के आनन्द का भागी है और वही सदैव सबसे अधिक सुखी है। ऐसे मनुष्य को धन्य मानना चाहिए। इन प्रास्ताविक श्लोकों से हमें दयानन्द के भक्तिवाद को समझने में सहायता मिलती है।
आर्याभिविनयम् की रचना केवल ईश्वर-भक्ति में लोगों को नियोजन करने के लिए ही की गई हो, ऐसी बात नहीं है। दयान्नद मध्यकाल के अनके भक्तों की भांति लोगों को भाग्यवाद तथा पुरुषार्थहीनताका पाठ पढ़ाने वाले नहीं थे। वे आर्य जनों में पुरुषार्थ स्वदेश प्रेम तथा स्वातन्त्रय लिप्सा के भावों को देखने के इच्छुक थे। यही कारण है कि आर्याभिविनय में एक और प्रभुभक्ति तथा अपने आराध्य के प्रति समर्पण की भावना दिखाई पड़ती है तो साथ ही उस राजाधिराज परमात्मासे स्वराज्य तथा आर्यों ;सत्पुरुषोंद्ध के अखण्ड चक्रवर्ती साम्राज्य की याचना भी की गई है। परमात्मा के प्रति दयानन्द की आनन्द प्रीति को दखना चाहें तो इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम व्याख्यात )ग्वेद के मन्त्र-शं नो मित्रःशं वरुणःकी व्याख्या के आरम्भ में परमात्मा के प्रति किये गए सम्बोधनों की छटा को देखें। यहां न्यनातिन्यून सत्ताईस सम्बोधनों से दयानन्द ने अपने आराध्य परमात्म-देव को सम्बोधित किया है। इनमें से अनेक सम्बोधनों में अनुप्रास प्रधान शब्दों का सौन्दर्य दर्शनीय है। तथा-विश्वविनोदक, विनयविधिप्रद, विश्वसविलासक तथा निर्मल, निरीह, निरामय, निरुपद्रव आदि। एक ओर यदि परमात्मा को सज्जन सुखदकहा तो साथ ही उसे दुष्टसुताड़नकहना भी वे नहीं भूले। दयानन्द की दृष्टि में परमात्मा चतुर्विध पुरुषार्थ के प्रदाता हैं-वे यदि धर्म सुप्रापक हैं तो अर्थ-सुसाधक तथा सुकामव(र्क भी हैं। मोक्षप्रदाता तो वह हैं ही-यदि वे राज्य विधायकहैं तो शत्रु विनाशकभी हैं। वस्तुतः इस ग्रन्थ को लिखकर दयानन्द ने भारत के भक्तिसि(ान्तों में एक नूतन क्रांति की थी, अतः दयानन्द के भक्तिवाद का तात्त्विक अध्ययन अपेक्षित है।
इस ग्रन्थ के अन्य मंत्रों के व्याख्यानों में उन्होंने परमात्मा के लिए जो सम्बोधन सूचक शब्द लिखे हैं, वे भी व्यंजनापूर्ण हैं। जब वे परमात्मा को महाराजाधिराज परमेश्वरकहकर सम्बोधित करते हैं तो उनकी प्रार्थना होती है-हमको साम्राज्यधिकारी सद्यः कीजिए।उनकी विनय है कि हम सुनीतियुक्त हों जिससे कि हमारा स्वराज्य अत्यन्त बढ़े। ;प्रार्थना सं. 17द्ध वयंजयेम त्वया युजा’ ;) 1/102/4द्ध मन्त्र की व्याख्या के आरम्भ में उन्होंने परमात्मा को महाधनेश्वर’ ;मघवन्द्ध तथा महाराजाधिराजेश्वरद्धकहकर पुकारा तथा उनसे चक्रवर्ती राज्य और साम्राज्य ;रूपीद्ध धन को प्राप्त कराने की प्रार्थना की। यह ईश्वरभक्त दयानन्द ही है जो परमात्मा से आर्यों के अखण्ड भी विनय करता है कि अन्य देशवासीराज हमारे देश में कभी न हों तथा हम लोग पराधीन कभी न हों।’ ;यजुर्वेद के मंत्र 37/14 ‘इष्र पिन्वस्त की व्याख्या मेंद्ध सामान्यतया भक्त अपने आराध्य से सुख, सौभाग्य, आरोग्य, धन-धान्य, कीर्ति ऐश्वर्य आदि की याचना करता है। दयानन्द अपने परमात्मा से देश के लिए स्वराज्य तथा शिष्टजनों ;आर्योंद्ध के साम्राज्य की याचना के प्रति जो सम्बोधन शब्द प्रयुक्त किये हैं वे भी विशिष्ट अर्थवत् लिये हैं। शतक्रतो ;अन्न्त कार्येश्वरद्ध, महाराजाधिराज परमेश्वर, सौख्य-सौख्य-प्रदेश्वर, सर्वविद्यामय आदि। वस्तुतः अनन्त गुणों वाले परमात्मा के सम्बोधन भी अनन्त ही होंगे।
परमात्मा की भक्ति दिखाने की वस्तु नहीं है। मध्यकाल में मूर्तिपूजा, नाम जप, तिलक, कण्ठी-छाप आदि साम्प्रदायिक प्रतीकों के धारण को भक्ति का साधन माना गया था। दयानन्द की सम्मति में परमात्मा के विविध गुणों के वाचक शब्दों के उल्लेखपूर्वक उस परम सत्ता को नमन करना ही उसकी भक्ति का उत्कृष्ट रूप है। यदि हम उनके द्वारा रचित ग्रन्थों के आरम्भ के मंगल सूचक वाक्यों के देखें तो ज्ञात होगा कि स्वामी जी के लिए परमात्मा क्या है और कैसा है? यहां कुछ ऐसे ही ग्रन्थारम्भ में लिखे गये नमस्कार विधायक वाक्य दिये जा रहे हैं जो दयानन्द की दृष्टि में परमात्मा के स्वरूप तथा गुणों के ज्ञापक हैंः-
1. ओ३म् सच्चिदानन्देश्वरायम नमः। -सत्यार्थ प्रकाश
2. ओ३म् तत्सत्परब्रह्माणे नमः। -आर्याभिविनय
3. ओ३म् ब्रह्मात्मने नमः। -वर्णोच्चारण शिक्षा
4. ओ३म् खम्ब्रह्मा। -काशी शास्त्रार्थ
5. ओ३म् खम्ब्रह्मा। -सत्यधर्म विचार
6. गोकरुणानिधि में परमात्मा का स्मरण इस प्रकार किया गया है-
ओ३म् नमो विश्वम्भराय जदीश्वराय। इसमें दयान्नद का भाव यह है कि जो विश्वभर है वही तो गो आदि उपयोगी प्राणियों का भरण-पोषण करने की भी सामर्थ्य रखता है। जो ईश्वर सर्वशक्तिमान है उसमें गौ आदि की रक्षा करने का भी सामर्थ्य है।
7. ओ३म् नमो निर्भ्रमाय जगदीश्वराय।’ -अनुभ्रमोच्छेदन
वेद के निर्भ्रान्त ज्ञान को देने वाला परमात्मा स्वयं निर्भ्रम है। ऐसे सार्थक नमस्कार वाक्य लेखक की परमात्मा के प्रति सच्ची भक्ति दर्शाते हैं। 


Was Mahatma Gandhi a failed “Bania”?

Dr. Vivek Arya
Recently Amit Shah talked about the Bania title of Mahatma Gandhi.  This created lot of furor and upheavel.  My aim here is to draw attention of readers about the right connotation of the term 'Bania' -  which means a wise man.  In this sense did Mahatma Gandhi qualify the aforesaid term or not is left to the judgement of readers
.
It was Kolkata congress special session in 1920 presided over by Lala Lajpat Rai. Swami Shraddhananda visited this session. Those were Khilafat movement days. Mahatma Gandhi unnecessarily tagged Indian freedom struggle with the Khilafat Movement of Turkey. The delegates of Congress especially the Muslims were interested more in discussing about Khilafat rather than Indian freedom struggle. Swami Shraddhananda witnessed in the above session,a group meeting being held by Maulana Shaukat Ali, one among famous Ali brothers.  In the presence of more than 50 persons (all Muslims), while the merits of non-violence were being discussed, Shaukat Ali said "Mahatma Gandhi is shrewd Bania. You do not understand his real object. By putting you under discipline, he is preparing you for guerilla warfare. He is not such an out-and-out non-violent as you all suppose".
Swami Shraddhanda was shocked to listen to the views of Shaukat Ali and he wanted such views should draw the attention of Mahatma Gandhi.   However,  he was unable to communicate to him directly due to his illness. He sent his message through Mahadeva Desai that Gandhiji's objectives were being misrepresented by his trusted colleagues. In between there was another episode.  In Khilafat Conference at Nagpur,  the Ayats (verses) of Quran were recited by Maulanas. These verses referred to Jihad and suggested the killing of infidels or non-Muslims. Swami Shraddhanda drew the attention of Mahatma Gandhi to study and analyse such verses of Quran. Gandhiji smiled and said, "They are alluding to the British bureaucracy".  On this, Swamiji replied that it was all about propagation of non-violence and when an opportunate movement comes, Mohammeden Maulanas would not desist from using these verses against the Hindus.
 Swami Shraddhanand also observed that Ali brothers had no scholastic achievements in the study of Quran. They were also not able to communicate either  in Arabic or Persian language. They were given Honorary Maulana title by Firangi Mahal Lucknow for their extraordinary duties of Tabligh (Conversion of Non-Muslims to Islam). On the question of untouchability,  Ali brothers' ill advice  in Cocanada(Kakinada)  session of congress regarding division of Dalits into two parts, one for Hindus and another parts for Muslims speaks volumes about the evil intention of Maulanas.  However, this move of Maulanas had no impact on Mahatma Gandhi who as usual remained sympathetic towards them. Once he only smiled when same Maulana said
“However pure Mr. Gandhi’s character may be, he must appear to me from the point of view of my religion inferior to any Musalman, even though he be without character… Yes, according to my religion and creed, I do hold an adulterous and a fallen Musalman to be better than Mahatma Gandhi.”
Mahatma Gandhi was simply living in a fools paradise as he  dreamt of Swarajya with the support of such radical preachers of Islam. Swami Shraddhanda alarmed him that he must not have blind faith in the fundamentalists. At long last  Hindus had to pay a heavy price for the silly mistake of Gandhi. Khilafat movement raised the aspirations  of Muslim leaders. They started dreaming of  Muslim Rule over India and started considering the country under British rule as Darul-Harb. Dozens of riots broke out all over the country. During the Moplah rebellion in Kerala in 1921, thousands of Hindu men, women and children were killed by the Muslims. Hundreds of women were raped. And yet Gandhi supported the Moplahs and not the Hindu victims of the riots. On the other hand Mahatma Gandhi wrote in his “Young India”, “It’s wrong to say that Islam has employed force. No religion in this world has spread through the use of force. No Musalman, to my knowledge, has ever approved of compulsion.”
Does this not show that Gandhi practiced political deception? According to Gandhi, the Moplah Muslims were guilty of no crime. Post Moplah, Multan, Kohat, Saharanpur, Kanpur, Delhi burned with Hindu-Muslim riots. It will not be wrong to say that this massacre of helpless Hindus lead to the 1947 partition of the country. Had  Mahatma Gandhi listened to sane advice of Swami Shraddhanda,  the situation would not have gone out of his control. Further, had Mahatma Gandhi  not tagged Khilafat Movement with the poles apart Indian freedom struggle, the Islamic fundamentalists would not have talked about Darul-Aman (the land of Islam). Had Mahatma Gandhi visited Moplah and witnessed the inhuman acts done in the name of Islam and criticized them, the ugly approach  of the radical preachers could have been easily neutralized. Had Mahatma Gandhi learned from his mistakes,  Hindus would not have faced such a  humiliation in their own motherland.

The term 'Bania' stands for a wise person. In the light of above,  I once again leave it to the judgement of readers to decide whether Mahatma Gandhi is fit to be called a “Bania”?

रमजान माह, शान्ति का या जिहाद का!

श्रीनगर की जामा मस्जिद के बाहर सुरक्षा में तैनात पुलिस अधिकारी मोहम्मद अयूब पंडित की भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या कर दी थी। यह इस्लाम में पवित्र मानी गई रात शब-ए-कद्र का मौका था। इसके बाद पाकिस्तान में करांची, क्वेटा और मकरान में एक बाद एक बम धमाके होना मासूमों की हत्या यहीं नहीं रुकती। 22 जून को अफगानिस्तान के हेलमंड प्रांत के लश्करगाह में एक बैंक में हुए धमाके में लगभग 29 लोगों की मौत हो गई और अनेक घायल हुए। 27 मई से इस्लाम धर्म को मानने वालों के लिए रमजान का पहला दिन था। एक महीने चलने वाले रमजान के दौरान प्रार्थना और उपवास किया जाता है। लेकिन अफगानिस्तान के पूर्वी हिस्से में हुए एक आत्मघाती कार बम धमाके में कम से कम 13 लोगों की मौत हो गई। तब से लेकर अभी तक मजहबी हत्याओं का यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। बल्कि यह आंकड़ा प्रतिवर्ष की तरह ही सेंकड़ों के पार पहुँच गया है। ऐसा नहीं कि रमजान में भीषण रक्तपात की यह कोई नई शुरुआत है बल्कि दिन के उजाले में इतिहास उठाकर देखें तो पिछले या उससे पिछले वर्ष, हर वर्ष और ज्यादा पीछे जायें तो करीब 1400 वर्षो से ये सिलसिला लगातार जारी है।


हालांकि इस्लामिक कैलेंडर में रमजान को सबसे मुबारक और आध्यात्मिक महीना माना जाता है। तीस दिन के लिए मुसलमान दिन के वक्त खाना नहीं खाते और पानी नहीं पीते। उनका मानना है कि इस दौरान अल्लाह उन्हें हर भूल के लिए क्षमा कर देता है। मस्जिद में नमाजियों की भीड़ होती है, जो ऊपर वाले से क्षमा और दुआ मांगने आते हैं। लेकिन उसके उलट इस्लाम के रक्षक के रूप में दुनिया में अपनी छवि गढ़ने वाले कट्टरपंथी ऐसा भी मानते हैं कि इस महीने में जीत दर्ज करनी और लूट मचानी चाहिए। वह मानते हैं कि ये सही मौका है जब लड़ाई को दोगुना तेज कर देना चाहिए। इसलिए इस दौरान वह सामान्य से ज्यादा हमले करते हैं।

खबर है मक्का में काबा की मस्जिद को निशाना बनाने की एक चरमपंथी योजना को नाकाम कर दिया गया है। वैसे देखा जाये तो रमजान को युद्ध का महीना मानने की प्रथा इस्लामिक इतिहास से ही आती है। पैगंबर मोहम्मद ने अपनी पहली जिहाद, जिसे बद्र की लड़ाई के नाम से जाना जाता है, वर्ष 624 में रमजान के महीने में ही लड़ी थी। इसके आठ साल बाद उन्होंने रमजान के ही महीने में मक्का पर जीत हासिल की थी। शायद इस कारण भी पिछले वर्ष सीरिया में अलकायदा के आधिकारिक संगठन नुस्रा फ्रंट ने रमजान को विजय अभियान का महीना बताया था और रमजान के नजदीक आते ही आईएस के प्रवक्ता अबु मोहम्मद अल-अदनानी ने दुनियाभर के अपने समर्थकों से कहा था, तैयार हो जाओ. काफिरों के लिए इसे आपदा का महीना बनाने के लिए तैयार हो जाओ, शायद यही वह अपील थी जिसने उमर मतीन, जैसे अकेले आतंकी को फ्लोरिडा के ऑरलैंडो में एक क्लब में 49 लोगों की हत्या के लिए प्रोत्साहित किया था।

अभी ताजा घटनाक्रम पर नजर डालें तो खुद को इस्लाम का सबसे बड़ा रखवाला कहने वाले इस्लामिक स्टेट ने मूसल में सबसे पुरानी अल-नूरी मस्जिद को उड़ा दिया है। यह वही मस्जिद है जहाँ से आईएस के नेता अबू बक्र अल-बगदादी ने 2014 में खिलाफत की घोषणा की थी। दरअसल आईएस जिस कट्टरवादी इस्लाम में यकीन रखता है, उसमें उन्हें लगता है कि इस दरगाह के होने की वजह से लोगों का ध्यान अल्लाह से परे हट रहा है, इसलिए इसे ढ़हा देना चाहिए. ‘‘आधुनिक  जिहाद के जनक’’ माने जाने वाले अब्दुल्ला अजाम ने 1980 के दशक में अफगानिस्तान में अरब विदेशी लड़ाकों का नेतृत्व किया था। वह तर्क देते हैं कि जिहाद की उपेक्षा करना एक किस्म से उपवास और नमाज छोड़ने के बराबर है। बाद में उन्होंने लिखा, जिहाद, इबादत करने का सबसे बेहतरीन तरीका है। इस रास्ते से ही मुसलमान को जन्नत हासिल हो सकती है।
जिहाद और रमजान से उसके सम्बन्ध की इन व्याख्याओं को लेकर आम मुसलमान निराश हो सकता है। उनके लिए ये महीना है संयम और खुद के अंदर झांकने का है, लेकिन इस्लाम में संकट कुछ ऐसा है कि चरमपंथियों की व्याख्या, प्रामाणिकता और हिंसा समझ से परे है कट्टरपंथी तो ये भी मानते हैं कि रमजान के महीने में अगर ज्यादा नमाज पढ़ने और दान देने को प्रोत्साहन दिया जाता है तो ज्यादा रक्तपात को क्यों नहीं? यदि इसको इस तरीके से देखेंगे तो समझ में आएगा कि आखिर क्यों हर वर्ष रमजान के महीने में इतनी भयानक घटनाएँ, हत्याएं रक्तपात होता हैं।

हाल की घटनाओं ने दुनिया के मुसलमानों में ये एहसास ताजा कर दिया है कि इस्लाम का डर बाकी शेष दुनिया में बढ़ चुका है। ये मसला महज नस्लपरस्तों और अल्पसंख्यकों का ही नहीं बल्कि समाज की एक असली सच्चाई भी है। इन सबके बाद यदि अपनी नजर विश्व के अन्य कोनों में दौड़ायें तो 11 सितंबर, 2001 के हमलों को 15 साल से अधिक हो गए हैं, लेकिन सही मायने में पश्चिमी समाज में इस्लाम का असली डर अब फलफूल रहा है। पिछले दो साल की राजनीतिक घटनाओं ने इन सबमें बड़ी भूमिका निभाई है। ब्रिटेन में जून से पहले तीन चरमपंथी हमलों में शामिल सारे लोग मुसलमान थे। जिन्होंने जिहादी इस्लाम का हवाला देकर लोगों का मजहब के नाम पर कत्ल किया।

11 सितंबर के बाद की अवधि में यह सोच तो बढ़ रही थी कि मुसलमान पश्चिमी समाज के लिए एक समस्या है और उनकी सोच और धर्म का पश्चिमी समाज के मूल्यों से कोई तालमेल नहीं है। लेकिन हाल ही के हमलों और खूनी खेल की आहट अपनी देहलीज पर देख यूरोप वासी भी खुद को असहज महसूस करने लगे हैं। वेस्टमिंस्टर, मैनचेस्टर एरीना और लंदन ब्रिज के पास होने वाले हमलों के बाद लोगों ने खुलेआम मुसलमानों को कसूरवार ठहराना शुरू कर दिया। मुसलमानों को केवल या तो असहिष्णु या रूढ़िवादी या फिर अति आधुनिक और धर्म से दूर रहने वालों के रूप में देखा जाता है और इन दोनों विरोधी विचारों के बीच सोच रखने वाले ब्रिटिश मुसलमानों को जान-बूझकर नजरअंदाज किया जाने लगा है। आलम यह कि लोग मुसलमान होने पर शर्मिंदगी तक महसूस करने लगे हैं और लोगों को समझाने की उनकी वह हर कोशिश बेकार जा रही कि इस्लामिक चरमपंथी उनके धर्म का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं लेकिन उनकी यह कोशिश उस समय और बेकार हो जाती है जब रमजान के महीने में ही अंधाधुंध फायरिंग या फिर बम धमाकों के बीच मासूम लोगों की चीख पुकार सुनाई देती है।
राजीव चौधरी 


अत्याचारी व्यक्ति जीवन में दुःख का ही भागी बनता है

डॉ विवेक आर्य
बाबर और औरंगजेब ने अपने जीवन में हिन्दू जनता पर अनेक अत्याचार किये थे। हमारे मुस्लिम भाई उनकी धर्मान्ध नीति का बड़े उत्साह से गुण गान करते हैं। पर सत्य यह है कि अपनी मृत्यु से पहले दोनों को अपने जीवन में किये गए गुनाहों का पश्चाताप था। अपने पुत्रों को लिखे पत्रों में उन्होंने अपनी व्यथा लिखी हैं।
बाबर ने जीवन भर मतान्धता में हिन्दुओं पर अनेक अत्याचार किये। एक समय तो ऐसा आया की हिन्दू जनता बाबर के कहर से त्राहि माम कर उठी।

बाबर की मतान्धता को गुरु नानक जी की जुबानी हम भली प्रकार से जान सकते है। भारत पर किये गये बाबर के आक्रमणों का नानक ने गंभीर आकलन किया और उसके अत्याचारों से गुरु नानक मर्माहत भी हुए। उनके द्वारा लिखित बाबरगाथा नामक काव्यकृति इस बात का सबूत है कि मुग़ल आक्रान्ता ने किस तरह हमारे हरे-भरे देश को बर्बाद किया था।
बाबरगाथा के पहले चरण में लालो बढ़ई नामक अपने पहले आतिथेय को संबोधित करते हुए नानकदेव ने लिखा है:-
हे लालो,बाबर अपने पापों की बरात लेकर हमारे देश पर चढ़ आया है और ज़बर्दस्ती हमारी बेटियों के हाथ माँगने पर आमादा है। धर्म और शर्म दोनों कहीं छिप गये लगते हैं और झूठ अपना सिर उठा कर चलने लगा है। हमलावर लोग हर रोज़ हमारी बहू-बेटियों को उठाने में लगे हैं, फिर जबर्दस्ती उनके साथ निकाह कर लेते हैं। काज़ियों या पण्डितों को विवाह की रस्म अदा करने का मौका ही नहीं मिल पाता। हे लालो, हमारी धरती पर खून के गीत गाये जा रहे हैं और उनमे लहू का केसर पड़ रहा है। लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि बहुत जल्दी ही मुग़लों को यहाँ से विदा लेनी पड़ेगी, और तब एक और मर्द का चेला जन्म लेगा।
कविता के दूसरे चरण में नानक ने लिखा:
हे ईश्वर, बाबर के शासित खुरासान प्रदेश को तूने अपना समझ कर बचा रक्खा है और हिन्दुस्तान को बाबर द्वारा पैदा की गयी आग में झोंक दिया है। मुगलों को यम का रूप प्रदान कर उनसे हिन्दुस्तान पर हमला करवाया, और उसके परिणामस्वरूप यहाँ इतनी मारकाट हुई कि हर आदमी उससे कराहने लगा। तेरे दिल में क्या कुछ भी दर्द नहीं है?
तीसरे चरण का सारांश है:
जिन महिलाओं के मस्तक पर उनके बालों की लटें लहराया करती थीं और उन लटों के बीच जिनका सिन्दूर प्रज्ज्वलित और प्रकाशमान रहता था, उनके सिरों को उस्तरों से मूंड डाला गया है और चारों ओर से धूल उड़ उड़ कर उनके ऊपर पड़ रही है। जो औरतें किसी ज़माने में महलों में निवास करती थीं उनको आज सड़क पर भी कहीं ठौर नहीं मिल पा रही है। कभी उन स्त्रियों को विवाहिता होने का गर्व था और पतियों के साथ वह प्रसन्नता के साथ अपना जीवन-यापन करती थीं। ऐसी पालकियों में बैठ कर वह नगर का भ्रमण करती थीं जिन पर हाथी दाँत का काम हुआ होता था। आज उनके गलों में फांसी का फन्दा पड़ा हुआ है और उनके मोतियों की लड़ियाँ टूट चुकी हैं।
चौथे चरण में एक बार फिर सर्वशक्तिमान का स्मरण करते हुए नानक ने कहा है:
यह जगत निश्चित ही मेरा है और तू ही इसका अकेला मालिक है। एक घड़ी में तू इसे बनाता है और दूसरी घड़ी में उसे नष्ट कर देता है। जब देश के लोगों ने बाबर के हमले के बारे में सुना तो उसे यहाँ से भगाने के लिये पीर-फकीरों ने लाखों टोने-टोटके किये, लेकिन किसी से भी कोई फ़ायदा नहीं हो पाया। बड़े बड़े राजमहल आग की भेंट चढ़ा दिये गये, राजपुरूषों के टुकड़े-टुकड़े कर उन्हें मिट्टी में मिला दिया गया। पीरों के टोटकों से एक भी मुग़ल अंधा नहीं हो पाया। मुगलों ने तोपें चलायीं और पठानों ने हाथी आगे बढ़ाये। जिनकी अर्ज़ियाँ भगवान के दरबार में फाड़ दी गयी हों, उनको बचा भी कौन सकता है? जिन स्त्रियों की दुर्दशा हुई उनमें सभी जाति और वर्ग की औरतें थीं। कुछ के कपड़े सिर से पैर तक फाड़ डाले गये,कुछ को श्मशान में रहने की जगह मिली। जिनके पति लम्बे इन्तज़ार के बाद भी अपने घर नहीं वापस लौट पाये, उन्होंने आखिर अपनी रातें कैसे काटी होंगी?
ईश्वर को पुनः संबोधित करते हुए गुरू नानकदेव ने कहा था:
तू ही सब कुछ करता है और तू ही सब कुछ कराता है। सारे सुख-दुख तेरे ही हुक्म से आते और जाते हैं, इससे किसके पास जाकर रोया जाये, किसके आगे अपनी फ़रियाद पेश की जाये? जो कुछ तूने लोगों की किस्मत में लिख दिया है, उसके अतिरिक्त कोई दूसरी चीज़ हो ही नहीं सकती। इससे अब पूरी तरह तेरी ही शरण में जाना पड़ेगा। उसके अलावा अन्य कोई पर्याय नहीं।
(सन्दर्भ- स्टॉर्म इन पंजाब क्षितिज वेदालंकार)
बाबर मतान्धता में जीवन भर अत्याचार करता रहा। जब अंत समय निकट आया तब उसे समझ आया की मतान्धता जीवन का उद्देश्य नहीं हैं अपितु शांति, न्याय, दयालुता, प्राणी मात्र की सेवा करना जीवन का उद्देश्य हैं।
अपनी मृत्यु से पहले बाबर की आँखें खुली ,उसे अपने किये हुए अत्याचार समझ मैं आये। अपनी गलतियों को समझते हुए उसने अपने बेटे हुमायूँ को एक पत्र लिखा जिसे यहाँ उद्धृत किया जा रहा हैं।
जहीर उद्दीन मोहम्मद बादशाह गाज़ी का गुप्त मृत्यु पत्र राजपुत्र नसीरुद्दीन मुहम्मद हुमायूँ के नाम जिसे खुद जिंदगी बक्शे सल्तनत की मजबूती के लिए लिखा हुआ। ए बेटे हिंदुस्तान की सल्तनत मुखत लीफ़ मज़हबों से भरी हुई हैं। खुद का शुक्र हैं की उसने तुझे उसकी बादशाही बक्शी है। तुझ पर फर्ज है कि अपने दिल के परदे से सब तरह का मज़हबी तअस्सुब धो दाल। हर मज़हब के कानून से इंसाफ कर। खास कर गौ की कुरबानी से बाज आ जिससे तू लोगों के दिल पर काबिज़ हो सकता है और इस मुल्क की रियाया तुझसे वफादारी से बंध जाएगी। किसी फिरके के मंदिर को मत तोड़ जोकि हुकूमत के कानून का पायबंद हो।इन्साफ इस तरह कर की बादशाह से रियाया और रियाया से बादशाह खुश रहे। उपकार की तलवार से इस्लाम का काम ज्यादा फतेयाब होगा बनिस्पत जुल्म की तलवार के। शिया और सुन्नी के फरक को नजरंदाज कर वरना इस्लाम की कमजोरी जाहिर हो जाएगी।और मुख्तलिफ विश्वासों की रियाया को चार तत्वों के अनुसार (जिनसे एक इन्सानी जिस्म बना हुआ है) एक रस कर दे, जिससे बादशाहत का जिस्म तमाम बिमारियों से महफूज रहेगा।खुश किस्मत तैमुर का याददाश्त सदा तेरी आँखों के सामने रहे जिससे तू हुकूमत के काम में अनुभवी बन सके।
इस मृत्यु पत्र पर तारीख 1 जमादिल अव्वल सन 395  हिज्री लिखा है।
(सन्दर्भ- अलंकार मासिक पत्रिका, 1924 मई अंक )
हुमायूँ ने अपने पिता बाबर की बात को कई मायने में अनुसरण किया। उसके बाद अकबर ने भी इस बात को नजरअंदाज नहीं किया।
इसी से अकबर का राज्य बढ़ कर पूरे हिंदुस्तान में फैल सका था। बाद के मुग़ल शराब, शबाब के ज्यादा मुरीद बन गए थे। जब औरंगजेब का काल आया तो उसने ठीक इसके विपरीत धर्मान्ध नीति अपनाई। पहले गद्दी पाने के लिए अपने सगे भाइयों को मारा।  फिर अपने बाप को जेल में डालकार प्यासा और भूखा मार डाला। मद में चूर औरंगजेब ने हिन्दुओं पर बाबर से भी बढ़कर अत्याचार किये। जिससे उसी के जीवन में अपनी चरम सीमा तक पहुँचा मुग़ल साम्राज्य का पतन आरंभ हो गया।
औरंगजेब के अत्याचार से हिन्दू वीर उठ खड़े हुए। महाराष्ट्र में वीर शिवाजी,पंजाब में गुरु गोविन्द सिंह , राजपूताने में वीर दुर्गा प्रसाद राठोड़, बुंदेलखंड में वीर छत्रसाल, भरतपुर और मथुरा में जाट सरदार, असम में लचित बोर्फुकान। चारों ओर से औरंगजेब के विरुद्ध उठ रहे विद्रोह को दबाने में औरंगजेब की संगठित सारी शक्ति खत्म हो गयी। न वह जिहादी उन्माद में हिन्दुओं पर अत्याचार करता, न उसके विरोध में हिन्दू संगठित होकर उसका प्रतिरोध करती। उसका मज़हबी उन्माद ही मुगलिया सल्तनत के पतन का कारण बना।
अपनी मृत्यु से कुछ काल पहले औरंगजेब को अक्ल आई तो उसने अपने मृत्यु पत्र में अपने बेटों से उसका बखान इस प्रकार किया हैं।
शहजादे आज़म को औरंगजेब लिखता है-
बुढ़ापा आ गया, निर्बलता ने अधिकार जमा लिया और अंगों में शक्ति नहीं रही। मैं अकेला ही आया, और अकेला ही जा रहा हूँ। मुझे मालूम नहीं की मैं कौन हूँ और क्या करता रहा हूँ। जितने दिन मैंने इबादत में गुजारे हैं, उन्हें छोड़कर शेष सब दिनों के लिए मैं दुखी हूँ। मैंने अच्छी हुकूमत नहीं की और किसानों का कुछ नहीं बना सका। ऐसा कीमती जीवन व्यर्थ ही चला गया। मालिक मेरे घर में था पर मेरी अन्धकार से आवृत आँखें उसे न देख सकी।
छोटे बेटे कामबख्श को बादशाह ने लिखा था -मैं जा रहा हूँ और अपने साथ गुनाहों और उनकी सजा के भोझ को लिये जा रहा हूँ। मुझे आश्चर्य यही है कि मैं अकेला आया था, परन्तु अब इन गुनाहों के काफिले के साथ जा रहा हूँ। मुझे इस काफिले का खुदा के सिवाय कोई रहनुमा नहीं दिखाई देता। सेना और बारबरदारीकी चिंता मेरे दिल को खाये जा रही हैं।
(सन्दर्भ मुग़ल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण- इन्द्र विद्या वाचस्पति )

अलमगीर यानि खुदा के बन्दे के नाम से औरंगजेब को मशहूर कर दिया गया जिसका मुख्य कारण उसकी धर्मान्धता थी। पर सत्य यह है कि हिन्दुओं पर अत्याचार करने के कारण अपराध बोध उसे अपनी मृत्यु के समय हो गया था।
इस लेख को लिखने का मेरा उद्देश्य बाबर या औरंगजेब के विषय में अपने विचार रखना नहीं हैं अपितु यह सन्देश देना है कि
अत्याचारी व्यक्ति जीवन में दुःख का ही भागी बनता है