Wednesday 30 August 2017

एक और सामाजिक कुप्रथा का अंत

राजनीति और  कुप्रथा, को मजहब की चाभी से खोलने वालों को सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला जरुर निराश कर देने वाला होगा किन्तु वहीं देश की करीब 9 करोड़ मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक जैसी कुप्रथा से आजाद कराने का फैसला 22 अगस्त जरुर 15 अगस्त से कम नहीं होगा. क्योंकि देश की राजनेतिक आजादी के 70 वर्षो के बाद आज उन्हें एक धार्मिक कुप्रथा से मुक्ति जो मिली है.

22 अगस्त की सुबह देश के इतिहास की एक बहुत बड़ी तारीख बन गयी. एक साथ तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया है. भारत के सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच ने अपने एक फैसले में मुसलमानों में शादी ख़त्म करने की एक साथ तीन तलाक़ की प्रथा को 3-2 से असंवैधानिक करार दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक़ पर फिलहाल छह महीने के लिए रोक लगा दी है और केंद्र सरकार से इस पर संसद में क़ानून लाने के लिए कहा है. दरअसल तीन तलाक़ का ये मामला शायरा बानो की एक अर्जी के बाद सुर्खियों में आया था. शायरा ने अपनी अर्जी में तर्क दिया था कि तीन तलाक़ न इस्लाम का हिस्सा है और न ही आस्था का. इस पर जस्टिस कुरियन ने कहा कि तीन तलाक़ इस्लाम का हिस्सा नहीं है. यह अन्यायपूर्ण है, यह संविधान के ख़िलाफ है इसलिए इस पर रोक लगाई जानी चाहिए.

निसंदेह निकाह की पवित्र रस्म के बाद एक मुस्लिम महिला के मन में जो सबसे बड़ा खोफ होता है वो था तीन तलाक. एक सवेंधानिक भारत पिछले काफी अरसे से इस कुप्रथा को मजहब की आस्था के नाम पर ढो रहा था. सिर्फ ढोना ही नहीं इसमें एक रोना भी था कि मेरे खुद के गाँव की कई वर्ष पुरानी घटना है, गाँव के शमसुद्दीन शेख की दो बेटियों का उसके साले के लड़के यानि के अपने ममेरे भाइयों के साथ निकाहनामा हुआ था. शादी के कई वर्षो के बाद शम्सु की एक बेटी को उसके शौहर ने तीन तलाक दे दिया. इस वाकये से गुस्साये शम्सु ने अपनी बीबी यानि की दामाद बुआ को तलाक दे दिया. जब तक मुझे हलाला जैसी अमानवीय कुप्रथा का पता नहीं था.

निश्चित ही आज सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मुस्लिम महिलाओं के हक में अच्छा फैसला, लैंगिक समानता और न्याय की दिशा में एक और कदम कहा जाना चाहिए. इस निर्णय के बाद मुस्लिम महिलाओं के लिए स्वभिमान पूर्ण एवं समानता के एक नए युग की शुरुआत होगी. में अभी बीबीसी की एक रिपोर्ट पढ़ रहा था जिसमें दिया है कि भले ही इस्लामी क़ानून में तलाक़ शौहर का विशेषाधिकार होता है. मुगल कालीन भारत में मुसलमानों में तलाक़ के बहुत कम वाक़ये हुआ करते थे. लेकिन उस दौर के जाने माने इतिहासकार और अकबर के आलोचक और उनके समकालीन अब्दुल क़ादिर बदायूनी 1595 में कहते हैं- कि तमाम स्वीकृत रिवाजों में तलाक़ ही सबसे बुरा चलन है, इसलिए इसका इस्तेमाल करना इंसानियत के ख़िलाफ है. भारत में मुसलमान लोगों के बीच सबसे अच्छी परम्परा ये है कि वो इस चलन से नफरत करते हैं और इसे सबसे बुरा मानते हैं. यहां तक कि कुछ लोग तो मरने मारने को उतारू हो जाएंगे अगर कोई उन्हें तलाक़शुदा कह दे.
यह बात एक नजरिये से देखी जाये तो सही भी है क्योंकि भारतीय समुदाय में यदि शादी के बाद किसी की बेटी तलाक होकर घर आ जाये तो उस लड़की अपशकुन समझा जाता रहा है. कारण उसका आत्मनिर्भर न होना, दूसरा, लड़की को सम्मान और इज्जत के द्रष्टिकौण से देखा जाना, उसकी अस्मिता के चर्चे इतने बड़े पैमाने पर होते आये है कि यदि वो अपने घर तलाक होकर आ जाये तो वो दर्द जो महिला सहती है उसका अनुमान कोई मौलाना, कोई धर्मगुरु या धर्म-मजहब नहीं समझ सकता. इस वजह से ग्रामीण कहावत भी है कि जिसकी बेटी ससुराल में सुखी उसके माँ-बाप का जन्म सुखी. लेकिन कई बार कुछ धार्मिक कुप्रथाएं एक महिला का सब कुछ छीन लेती है. चाहें इसमें शाहबानो गुजारा भत्ता मामला हो या रूपकुंवर का सती होना.

कानून कोई भी हो मजहब या धर्म की बुनियाद पर हो या संविधान की उसे प्रत्येक नागरिक के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए लेखिका नासिरा शर्मा अपनी पुस्तक औरत के लिए औरत में लिखती है कि शरियत कानून जो अक्सर मुस्लिम महिला से उसका घर परिवार उसका ठिकाना छीन लेता है, चूँकि उस कानून की आड़ में दूसरी तीसरी यहाँ तक की चौथी शादी तक कर लेता है और औरत के पास आंसू बहाने, कोसने, दुआ-तावीज़ में पैसा फूंकने और मेहनत मजदूरी करके बच्चों के पेट पालने के अलावा कुछ नहीं रह जाता, उसका यह दुःख कहाँ से शुरू होता है बस यही से कि वो मर्द पर विश्वास करती है और अपनी अशिक्षा और अज्ञानता के चलते गुस्से, तनाव या किसी अन्य लालसा में कहे तीन तलाक को खुदा का हुक्म या अपना भाग्य समझ लेती है?


आमतौर पर गरीबों में शौहर द्वारा शादी के दौरान सबके सामने किए गए जुबानी वादे ही आम तौर कानून माने जाते है इसका कोई लिखित प्रमाण नहीं रखा जाता, इस कारण भी अनेक गरीब महिलाएं सिर्फ खाली हाथ ससुराल से निकाल दी जाती रही है. लेकिन अब यह कानून निश्चित ही एक क्रांतिकारी कदम होगा. इससे न केवल एक महिला में आत्मविश्वास जगेगा बल्कि इससे औरत के सामाजिक स्तर पर भी स्थिरता आएगी.अभी तक जो वह परिवार में दोयम दर्जे का जीवन जीती थी अब वह एक सम्पूर्ण इकाई महसूस करेगी.   
 राजीव चौधरी 





ये भक्त गुंडे क्यों बनते है?

बाबा राम रहीम को दस-दस साल की सज़ा हो गई। देखा जाए तो पूरे घटनाक्रम में न्याय व्यवस्था पहले, राजनीति दूसरे और भक्ति कहो या अंधश्रद्धा सबसे निचले पायदान पर रही। लेकिन दिक्कत यह नहीं है कि सरकार की इसमें मिलीभगत रही और उसने इतना बड़ा कांड होने दिया, संकट यह है कि कोई दूसरी पार्टी यह कहने को तैयार नहीं है कि डेरा में क्या कांड हुआ करते थे। पूरा देश जानता है, मगर जब तक कोई बोलेगा नहीं, वैकल्पिक आवाज़ नहीं उठेगी तो लोग किसके साथ खड़े होंगे? साधारण इन्सान को तलाश है ऐसी शक्ति की जो धर्म में उसे डुबा सके, सरल माध्यम से उस तक धर्म पहुंचा सके, उसके दुःख हर सके।
हमेशा असली सवालों को, नकली जवाबों से लोग अपनी सोच और सुविधा के अनुरूप ढक देते हैं। जो असली सवाल यहां खड़ा है, वो यह है कि आखिर ये सत्संगी लोग कौन हैं? कहां से आए और क्यों ये किसी बाबा के लिए मरने-मारने पर उतारू हो गए? शुक्रवार की दोपहर तक जो भीड़ भक्त थी, दिन ढलते-ढलते वो हिंसक गुंडों में बदल गई, लेकिन ये गुंडे किसने पैदा किए? मीडिया, बाबा, धर्म या सरकार ने? दरअसल जिन्हें आज गुंडा कहा जा रहा है, कहीं ये सब हमारी धार्मिक व्यवस्था की देन तो नहीं?
जिन्हें लोगों ने कभी मंदिरों से दुत्कारा, कभी धर्मस्थलों में घुसने से रोका। जिन्हें यह समझाया गया कि जीवन में दुःख और परेशानी का इलाज सिर्फ धर्म से ही होता है। इसी स्वर्ग की कामना और मुक्ति की इच्छा ने ऐसे बाबाओं को खड़ा किया। किसी बेटे ने जब दुत्कारा, बहू ने जब खरी खोटी सुनाई, पड़ोस के दरवाज़े जब बंद हुए, तो लोगों ने बाबाओं के द्वार खटखटाए। मुक्ति की आस, परेशानी का निवारण, सुख की इच्छा दुःख का निवारण कौन नहीं चाहता? मैंने कहीं पढ़ा था कि दरअसल इस भीड़ के मूल में दुःख है, अभाव है, गरीबी है और शारीरिक-मानसिक शोषण है। किसी का ज़मीन का झगड़ा चल रहा है तो किसी को कोर्ट-कचहरी के चक्कर में अपनी सारी जायदाद बेचनी पड़ी है। किसी को सन्तान चाहिए तो किसी को नौकरी! शायद ये तमन्नाएं ही जन्म देती हैं धर्मों को, डेरों को, आश्रमों को और बाबाओं को। अब इसे आप धर्म कहें, पाखंड कहें, अंधविश्वास कहें या अशिक्षा, सबकी अपनी-अपनी सोच है।

जब आप खिड़की खोलते हैं तो ताज़ा हवा के साथ कुछ धूल भी अन्दर आ जाती है, ठीक इसी तरह जब आप धर्म का दरवाजा खोलते हैं तो आस्था की हवा के साथ वो चलन भी अंदर घुस आते हैं जिन्होंने लाखों दिमागों पर पहले से ही कब्ज़ा कर रखा होता है। भारत में दुनिया के सबसे स्वस्थ बुद्धिजीवी रहते है, आप सेक्युलर हों या नॉन सेक्युलर, नेता हो या अभिनेता, बिजनेसमैन हो या फटेहाल, गुरुजी की चौखट ज़रूर चाहिए। अमिताभ बच्चन और अम्बानी जब तिरुपती में करोड़ों के गहने चढ़ाते हैं तो आस्था होती है, लेकिन जब एक गरीब झीनी सी बीस-तीस की रूपये की चादर लेकर किसी आशा में मंदिर, पीर पर लगी भीड़ में खड़ा होता है तो अन्धविश्वास बन जाता है।
जब फिल्म अभिनेत्री कैटरीना कैफ फतेहपुर सीकरी में ख्वाजा शेख सलीम चिश्ती की दरगाह में अपनी फिल्म की सफलता के लिए चादर चढ़ाकर मन्नत का धागा बांधती है तो उस समय पूरे देश के लिए वो आस्था का विषय बन जाता है। प्रियंका चोपडा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरफ से अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की प्रसिद्ध दरगाह पर चादर चढ़ाई  जाती है तो वो बड़ी खबर बनती है। इसके सुबह-शाम राशिरत्न, लक्ष्मी दुर्गा यंत्र बेचने वाली मीडिया किस मुंह से अन्धविश्वास पर भाषण देती है?
यदि सिरसा डेरे वाले बाबा को रेप केस में सज़ा ना मिलती तो फिर यह सवाल भी ना उठता कि उनका चरित्र कैसा है। उनकी ताकत वैसी ही बनी रहती और हर रोज लोकतंत्र उनकी चौखट पर माथा टेकता रहता। लोकतंत्र को जनता के बजाय बाबाओं की ही सेवा करनी है तो सत्ता भी उन्हीं के हाथों में सौंप दें और खुद मुक्ति पा लें उनके चरणों में बैठकर। किस नेता और किस अभिनेता का गुरु नहीं है? कोई यथा बाबा पर भरोसा जताए बैठा तो कोई तथा पीर पर और फिर यूं होता है कि जिसके पास जितने भक्त, उतनी ही उसकी वाह-वाह। वोट लेने हैं तो राजा को भी उस चौखट पर माथा रगड़ना ही पड़ेगा।

सरकार के मंत्री दो दिन पहले तक बाबा का गुणगान कर रहे थे, चढ़ावा चढ़ा रहे थे। बात अच्छे या बुरे बाबा या पीर की नहीं है, बात यह है कि क्या लोकतंत्र इसी का नाम है कि आप वोटों के लालच में बेचारे लोकतंत्र को भी किसी गुरु, किसी बाबा या किसी पीर के खूंटे पर बकरे की तरह बांध दें? बाद में जब आप वो खूंटा तोड़े तो लोकतंत्र में भगदड़ ज़रूर होगी, फिर एक बाबा छीन लो या दस।

धर्म की व्यवस्था में कभी बाबाओं की कमी नहीं होगी। कोई चन्द्रास्वामी, कोई नित्यानंद, कोई आसाराम या रामपाल खड़ा होता रहेगा। राजनीति भी उनके कदमों में झुकती रहेगी। जिस दिन लोगों को यह ज्ञान हो जाएगा कि सुख-दुःख परेशानी यह सब जीवन का हिस्सा है और चलता रहेगा, परेशानी सबके जीवन में आती है, भगवान राम ने भी 14 वर्ष इसमें भोगे, अब हम भी तैयार हैं- उस दिन लोग इन सबसे स्वत: मुक्त हो जाएंगे।

तीन तलाक आखिर इसमें बदला क्या हैं?

उर्दू के मशहुर शायर गालिब ने कहा है, “यह कोई न समझे कि मैं अपनी उदासी के गम में मरता हूँ. जो दुख मुझको है उसका बयान तो मालूम है, मगर इशारा उस बयान की तरफ करता हूँ’’ जमात उलेमा ए हिंद के महासचिव मौलाना महमूद मदनी ने तीन तलाक पर कोर्ट के फैसले के बावजूद कहा है कि एक साथ तीन तलाक़ या तलाक़-ए-बिद्दत को वैध मानना जारी रहेगा. मदनी ने कहा कि अगर आप सजा देना चाहें तो दें, लेकिन इस तरह से तलाक़ मान्य होगा. मदनी ने कहा है, हम इस फैसले से सहमत नहीं हैं. हम समझते हैं कि अपना धर्म मानने के मौलिक अधिकार पर भी ये हमला है. निकाह, हलाला और बहुपत्नी प्रथा का बार-बार जिक्र करना इस बात का संकेत है कि अभी और भी हस्तक्षेप के लिए और भी मुद्दे निशाने पर होंगे.

पिछले दिनों तीन तलाक को लेकर राजनितिक, सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में जो स्वतन्त्रता दिवस मनाया जा रहा है वो एक मायने में सही और कई मायनों में गुमराह सा करने वाला है. देश के मीडिया समूह और राजनेताओं ने इस खबर को मुस्लिम महिला की आजादी बताकर जिस तरीके से परोसा उसमें लोगों द्वारा अपनी-अपनी धार्मिक और राजनैतिक हेसियत के अनुसार खूब चटकारे लिए जा रहे है. मुस्लिम महिलाओं को लेकर उपजी इस संवेदना के पीछे कुछ ना कुछ तो जरुर रहा होगा सिवाय एक मदनी के कोई दूसरा स्वर नहीं फूटा?

इस पुरे मामले को समझे तो हुआ यूँ कि बीते साल दो बच्चों की मां 35 वर्षीय मुस्लिम महिला शायरा बानो जब सुप्रीम कोर्ट पहुंचती है तो तीन तलाक़ के ख़िलाफ अभियान एक बार फिर जिंदा हो उठता है.

शायरा बानो ने साल 2016 की फरवरी में अपनी याचिका दायर की थी. उसने कहा था कि जब वह अपना इलाज कराने के लिए उत्तराखंड में अपनी मां के घर गईं तो उन्हें तलाक़नामा मिला. शायरा बानो ने इलाहाबाद में रहने वाले अपने पति और दो बच्चों से मिलने की कई बार गुहार लगाई लेकिन उन्हें हर बार दरकिनार कर दिया गया. और, उन्हें अपने बच्चों से भी मिलने नहीं दिया गया. इसके बाद शायरा बानो ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी याचिका में इस प्रथा को पूरी तरह प्रतिबंधित करने की मांग उठाई. जबकि शायरा ने ये भी कहा है कि हलाला और कई पत्नियां रखने की प्रथा को भी गैर क़ानूनी ठहराया जाए.

सुप्रीम कोर्ट में शायरा बानो की इस अपील के बाद देश के मीडिया से लेकर धार्मिक जगत में इस भयंकर कुप्रथा के किले को भेदने के लिए सबने अपने तमामतर साधन अपनाये, कोई मौखिक रूप से तो किसी ने न्यायिक रूप से इसमें मुस्लिम महिलाओं की आवाज उठाई

तमाम उठापटक और बहस के बाद आखिर २२ अगस्त को फैसला आया जिसमें सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की खंडपीठ ने ३-२ के बहुमत से यह फैसला सुनाया कि एक साथ तीन तलाक असंवैधानिक है. तीन में से दो जजों ने कहा है कि ये असंवैधानिक है. तीसरे जज ने ये कहा है कि चूंकि इस्लाम को मानने वाले इसको खुद गलत मानते हैं और कुरान शरीफ में इसका जिक्र नहीं है इसलिए मैं इसको मान लेता हूं कि ये गलत प्रथा है और इसको ख़त्म किया जाना चाहिए.

मीडिया ने इतना सुनते ही अखबारों की सुर्खियाँ बना डाला कि तीन तलाक खत्म और मुस्लिम महिला आजाद, जबकि इस मजहबी कानून को यदि भावनात्मक लिहाज से ना देखते हुए न्यायिक प्रक्रिया से देखे तो इसमें कोर्ट वही बात दोराही ही जिसे मुल्ला मौलवियों का एक बड़ा धडा टेलीविजन की बहस से लेकर हर एक सामाजिक धार्मिक मंच पर दोराहा रहा था. मुसलमानों में कोई ऐसा तबका नहीं है जिसने ये कहा हो कि ये प्रथा गुनाह नहीं है. मुसलमानों के हर तबके ने सुप्रीम कोर्ट को ये कहा था कि तीन तलाक़ एक वक्त पर देना गुनाह है. जब मुस्लिम समुदाय यह ख़ुद मान रहा है कि यह एक गुनाह है और सुप्रीम कोर्ट ने इसको बुनियाद बना कर फैसला दिया है. तो इसे मुस्लिम महिलाओं की स्वतन्त्रता आदि से जोड़कर क्यों देखा जाये? शायद इसके रणनैतिक कारण हो सकते है. मौखिक रूप तलाक था अब भी है और तब तक रहेगा जब तक देश में समान नागरिक आचारसंहिता लागू नहीं हो जाती.

तलाक़...तलाक़...तलाक़... एक साथ कहने से अब शादी नहीं टूटेगी. अब महिलाओं को क्या नया अधिकार मिला है? दरअसल यह फैसला बहुत ही संतुलित है. इसमें सबसे महत्वपूर्ण ये है मौखिक तलाक देने का हक अभी भी मुस्लिम समाज के पास सुरक्षित है. बस जरा सा अंतर यह आया कि एक साथ एक समय में कहे तीन तलाक अब मान्य नहीं होंगे लेकिन यह सन्देश कितनी मुस्लिम महिलाओं के पास पहुंचेगा? जबकि ऐसे मामले देश की 20 करोड़ मुस्लिम आबादी में गिने चुने ही आते है.

इसे कुछ इस तरीके से भी समझ सकते है कि तीन तलाक़ एक वक्त में देने से तलाक़ नहीं होगा. लेकिन दो और तरीके हैं तलाक़ के. एक है तलाक़-ए-अहसन और दूसरा तलाक़-ए-हसन. तलाक-ए-अहसन में तीन महीने के अंतराल में तलाक़ दिया जाता है. तलाक-ए-हसन में तीन महीनों के दौरान बारी-बारी से तलाक दिया जाता है. इन दोनों के तहत पति-पत्नी के बीच समझोते की गुंजाइश बनी रहती है. हां अब एक वक्त में तीन तलाक़ से तलाक़ नहीं होगा लेकिन ये दो इस्लामी रास्ते अभी भी तलाक़ देने के लिए खुले हैं और इसमें भारतीय न्यायालय कोई दखल नहीं दे सकता. जो लोग आज इस 1400 साल पुरानी तीन तलाक की प्रथा पर सुप्रीम कोर्ट का हथोडा समझ रहे है उन्हें यह भी समझना होगा कि आखिर इसमें बदला क्या?  

 राजीव चौधरी 

तसलीमा तुम डर से डर गयी या भीड़ से?

 लेख- राजीव चौधरी 

सच कहना, आलोचना करना या किसी विषय पर अपनी अलग हटके राय रखना ऐसे हो गया जैसे आपने भूखे भेडियों के झुण्ड में कंकर फेंक दी हो.
कुछ दिन पहले औरंगाबाद  हवाई अड्डे के बाहर कुछ मुसलमान तसलीमा गो बैक के नारे लगा रहे थे. पुलिस ने किसी भी हिंसा की आशंका को देखते हुए तसलीमा को हवाई अड्डे से बाहर निकलने की इजाजत नहीं दी और उन्हें वहीं से मुंबई वापस भेज दिया.
मैंने कहीं पढ़ा था कि जब भीड़ सड़कों पर सामूहिक हिंसा के जरिए आम इंसानों को डराने लगे और देश की संस्थाएं तमाशाई बनी बैठी रहें तो फिर ये लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले लोगों के लिए चिंता का विषय है.

पर तसलीमा तुम डरना मत ये लोग डरा कर ही जीना जानते है. तुम मुझसे उम्र और ज्ञान में बड़ी हो, तुमने  बुद्ध का सन्देश जरुर होगा कि जब तुम किसी की सदियों पुरानी धारणाओं को तोड़ते हो तो लोग तुम्हे आसानी से स्वीकार नहीं करते. पहले तुम्हारा उपहास उड़ायेंगे, फिर हिंसक होंगे, और तुम्हारी उपेक्षा करेंगे. इसके बाद तुम्हे स्वीकार करेंगे. तुम अभी इन लोगों की धारणाओं को खंडित कर रही हो, लेकिन यकीन मानना एक दिन यह लोग तुम्हें जरुर स्वीकार करेंगे.
ये विरोध सिर्फ तुमने ही नहीं बल्कि एक उस आदमी ने झेला जिनके पास नई बात थी, तसलीमा तुमने भी पढ़ा होगा, यही लोग थे जिन्होंने कभी हजरत मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहि वसल्लम) साहब पर कूड़ा फेंका था, उनका उपहास उड़ाया था. लेकिन बाद एक दिन हाथ से पत्थर गिरते गये और सजदे में सर झुकते चले गये.

तसलीमा तुम्हें क्या बताना यही लोग थे जिन्होंने सुकरात को जहर का कटोरा थमा दिया थाजीसस को सूली पर चढ़ा दिया था. ज्यादा दूर ना जाओ यही लोग थे जिन्होंने नारी शिक्षा की आवाज़ बने और धार्मिक आडम्बरों से मुक्त करने वाले स्वामी दयानन्द जैसे समाज सुधारक को जहर तक दिया था. बुद्ध के ऊपर थूकने की घटना और उन महात्मा बुद्ध का मुस्कुराना भी हमने इसी इतिहास में पढ़ा है.

तसलीमा तुम्हें क्या बताना कि धर्म और नेकी अंदर होती है और नफरत और हिंसा बाहर से सिखाई जाती है. जो आज इन विरोध करने को सिखाई गयी है. तुम्हारे सवालों को लेकर बवाल मचाने वालों और इस बवाल का पोछा बना कर आपनी राजनीति का फर्श चमकाने वालों से घबराना नहीं, क्योंकि हर नए पैगाम, हर नई बात, हर नए नजरिए का ऐसे ही विरोध होता है. बड़ी सच्चाई विरोध के पन्ने पर ही तो लिखी जाती है.
मुझे दुःख है जो फैसले लोकतंत्र और सविंधान लेता था आज उसे नफरत की विचारधारा लिए भीड़ और आवारातंत्र ले रहा है. मुझे इस कृत्य पर लज्जा आई पर तसलीमा जो लोग तुम्हारी पुस्तक लज्जा से लज्जित नहीं हुए भला उन्हें कौन शर्म, हया का पाठ पढ़ा सकता है?

जो लोग मजहब और धर्म का शांति पाठ और लोकतंत्र में आजादी  पढ़ा रहे है क्या उनके लिए ये बात शर्म से डूब मरने की नहीं कि है कि 21वीं सदी में किसी इंसान को अपनी धार्मिक या सामाजिक विचारधारा के कारण हिंसक भीड़ के डर से अपनी जिंदगी छुपकर और गुमनामी में गुजारनी पड़े?

तसलीमा तुमने वो कहानी तो जरुर सुनी होगी कि कभी प्राचीन येरुशलम में लोग इबादत और प्रार्थना के जोखिम से बचने के लिए हर कोई अपने अपने पापों की एक-एक छोटी गठरी बकरी के सिंगों से बांधकर और बकरी को ये सोचकर शहर से निकाल दिया जाता था कि हमारे पाप तो बकरी ले गई, अब हम फिर से पवित्र हो गए.
आज भी वही हर जगह लोग बसे है बस आज बकरी उसे बना देते जो सच कह देता है इसमें चाहे पाकिस्तान में तारिक फतेह हो, शायद उसमे बांग्लादेश के कथित ठेकेदारों ने देश से बाहर कर तुम्हें भी वही बकरी बना दिया. ख़ास कर धार्मिक कट्टरपंथी लोगों ने.

एम.एफ हुसैन को धर्मांध लोगों के कारण भागते रहना पड़ा. मगर हुसैन को किनके कारण भारत छोड़ना पड़ा? हुसैन को सताने वाले लोग सलमान रुश्दी की मौत का फतवा जारी करने वालों से किस तरह अलग हैं?  हुसैन को तलने वाले तुम्हें दरबदर करने वालों से किस तरह भिन्न हैं? ये धर्म की आड़ में लोगों का उत्पीड़न करने की कोशिश करते हैं. ये लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में यकीन नहीं रखते हैं.
पर देखना तसलीमा एक दिन यह लोग तुम्हे भी उसी तरह स्वीकार करेंगे जिस तरह तीस वर्ष तक फ्रायड की किताबों को आग में झोकने वाले आज उसका गुणगान करते नहीं थकते है. हर जगह जब ख़ुद पर वश नहीं चले तो सच लिखने, बोलने वालों को सब बुराईयों की जड़ बताकर अपनी जान छुड़ाना कितना आसान सा हो गया है ना तसलीमा?



राम रहीम पर कोई रहम नहीं

शनिवार का अखबार हिंसा, आगजनी और खून से लतपथ खबरों से भरा था. उपद्रव एक कथित धार्मिक बाबा राम रहीम के उसी आश्रम से जुडी एक साध्वी से रेप केस में दोषी करार दिए जाने के बाद उसके भक्तो द्वारा किया गया. इस हिंसा में करीब 38 लोगों की जान गयी, 200 से ज्यादा घायल हुए और हजारों गिरफ्तार भी किये गये. बहराल कोर्ट द्वारा रामरहीम पर कोई रहम नहीं किया गया उसे 10 वर्ष कैद और 65 हजार रूपये जुर्माने की सजा सुनाई गयी.
जलती सरकारी सम्पत्ति से उठते धुए के गुब्बार से ऊँचा यह सवाल भी कि आखिर इन सबका जिम्मेदार कौन? अब सोचिये! किसी महिला का बलात्कार हुआ तो आप किसके लिए सड़क पर उतरेंगे? बलात्कारी के लिए या जिसका बालात्कार हुआ हो उसके लिए? लेकिन यहाँ सब उल्टा दिख रहा है. जैसे ही डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को पंचकुला की विशेष अदालत ने रेप के मामले में दोषी करार दिया. इसके बाद डेरे के समर्थकों ने हिंसक प्रदर्शन शुरू कर दिए. हिंसा सिर्फ हरियाणा तक ही सीमित नहीं है बल्कि पंजाब के कई जिलों अलावा चार राज्यों में हिंसा तोड़फोड़ हुई है.

हम राजनीति में नहीं जाना चाहते न उसके कारण जानना चाहते लेकिन यह तो जान सकते है कि आख़िर क्या वजह है कि बलात्कार जैसे गंभीर अपराध में अदालत द्वारा दोषी करार देने के बाद भी समर्थक यह मानने को तैयार नहीं होते कि उनके गुरु ने कुछ गलत किया है? चंद्रास्वामी, आसाराम बापू, नित्यानंद स्वामी, रामपाल अब रामरहीम गुरमीत इन तथाकथित बाबाओं पर शर्मनाक अपराधो के दोष सिद्ध होने के बाद भी इनके अंधभक्त यह मनाने को तैयार नहीं की दोषी बाबाओं ने कोई अपराध किया है.
इसके कई कारण है एक तो बाबाओं उनके आश्रमों पर लोगों की जो आस्था होती है, वह विचारधारा में बदल जाती है. उन्हें लगता है कि हम जो कर रहे हैं, सच्चाई के लिए कर रहे हैं. दूसरा लोगों को लगता है कि उनके बाबा पर जो आरोप लगे हैं, वे सिर्फ बाबा के ख़िलाफ नहीं बल्कि हमारे समाज पर लगे हैं. और इन आरोपों से अपने समाज, अपने डेरे को बचाना है. दूसरा लोग खुद को धार्मिक और अपने बाबाओं को चमत्कारी, शक्तिशाली दुःख-सुख हरने वाला अपनी सभी परेशानी को जड़ से मिटाने वाला समझ लेते है. ये अंधभक्ति इतनी चरम पर होती है कि लोग अपनी सोचने समझने वाली शक्ति इन बाबाओं के हवाले तक कर देते है.

तीसरा हमारे सामाजिक जीवन में सुख दुःख आदि आते जाते रहते है कई बार जब लोगों की समस्याएं सही ढंग से हल नहीं होतीं या उनकी आशा के अनुरूप हल नहीं होता तो वे धार्मिक या आध्यात्मिक रास्ता अपनाने लगते हैं. हैरानी की बात है कि वे बाबाओं से इन समस्याओं को हल करवाने जाते हैं. उन्हें लगता है कि यही एक रास्ता है और उनका बाबा कोई मसीहा है. आश्रमों और डेरो में मुफ्त भोजन और स्वर्ग जाने के आशीर्वाद की लालसा भी लोगों को इन बाबाओं की ओर खींच लाती है. एक किस्म से भोले-भाले लोगों के बीच चुपचाप अपराधियों तक को शरण देने का कार्य किया जाता है.

चूँकि ऐसे मामलों को लोग धर्म से जुडा महसूस करते है जबकि इनका धर्म से दूर-दूर का कोई वास्ता नहीं होता लेकिन फिर भी एक दुसरे को धर्म से जुडा होना दिखावा या अपने आसपास के समाज को यह दिखाने की होड़ सी लगी रहती है कि देखो में फला बाबा से जुडा या जुडी हूँ हम बड़े धार्मिक है फला जगह के सत्संग कर आये है एक किस्म से कहा जाये इन चर्चाओं से अपनी-अपनी धार्मिक संतोष की भावना को मजबुत करते है. जब कोई कानून या समाज इनकी इस कथित धार्मिक संतोष की भावना पर प्रश्न खड़ा करता है तो यह लोग उग्र होकर इन हिंसक कार्यों को अंजाम देने से नहीं हिचकते. उन्हें लगता है कि वे तो गलती कर ही नहीं सकते.

लेकिन पंचकुला की घटना के बाद एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है कि क्या देश सुरक्षित है? क्या देश को दिशा निर्देश देने वाले कुछ तथाकथित आडंबरी लोग हैं, जो भारत राष्ट्र के सीधे साधे लोगों को कहीं ना कहीं दिग्भ्रमित कर राष्ट्र की आर्थिक वह जनहानि करते जा रहे है? यह घटना भारत में एक विशेष समुदाय में ना होकर हिंदुस्तान में सभी संप्रदाय में हावी होती जा रही है. आज जो लोग देश को आर्थिक दृष्टि से मजबूत करते हैं या वह देश का भविष्य है वह आंखें मूंदकर ऐसे आडंबरी लोगों पर विश्वास कर देशद्रोही हरकतों में उनका साथ दे रहे हैं. आज हम गर्व से कहते है हम सुरक्षित हैं लेकिन जिस तरह की स्थितियां देश में प्रभावी हो रही है क्या कल के दिन इन तथाकथित आडंबरों के अनुयाई होने के बाद हम अपना और अपनी आने वाली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित कर सकते हैं?
 हमारा अंतिम प्रश्न राष्ट्र के सभी लोगों से है जब कोई बाबा एक फतवा या आदेश जारी करता है तो लोग उसका अनुपालन तुरंत करते अपने जीवन की कमाई गई पूरी पूंजी को दांव में लगा देते हैं. क्या उन तथाकथित आडंबरी लोगों द्वारा हमारा भला हो रहा है केवल हिंसा, आगजनी सरकारी व निजी सम्पत्ति और आर्थिक हानि के अलावा कुछ मिला हो तो समीक्षा करें अगर नहीं. तो जरुर सोचे बेवकूफ कौन?
राजीव चौधरी 

Monday 28 August 2017

हिंदी के विरुद्ध हो रहे झूठे अभियान को रोका जाना चाहिए ।



बेंगलुरु में जो हिंदी का विरोध हुआ है उसका कारण अंग्रेजी पंडितो द्वारा किया जारहा झुठा प्रचार है !अंग्रेजी पंडित कहेते है हिन्द राष्ट्र भाषा नहीं है २२ राज भाषाओं में से एक है ,संविधान ने सभी भाषाओं को बराबर का दर्जा दिया है मगर सविधान के विरुद्ध एक भाषा हिंदी को बढ़ावा दिया जारहा है
सच्चाई यह है  कि राजभाषा, राष्ट्रभाषा से कहीं ऊपर का स्थान है । संविधान ने केवल हिंदी को राजभाषा  माना है और उसे अंग्रेजी के स्थान पर लाया गया है !यूरोपीय देशो में राजभाषा है ,अफ्रीका के देशो की भाषाएं राष्ट्रभाषाएँ कहलाती हैं(वे राज भाषाएं नहीं हैं ) !
८वीं अनुसूची की भाषाएँ राजभाषाएं नहीं हैं।   संविधान के अनुच्छेद ३५१ के अनुसार वे केवल राज भाषा हिंदी के विकास केलिए सहयोग देनेवाली भाषाएं हैं !संविधान में सभी जगह Official language शब्द का ही प्रयोग हुआ है, कहीं Official languages (plural) शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है !इसलिए पाठयक्रम में संविधान के १७वे विभाग को बिना कोई बदलाव के जनता के सामने लाने की कोशिश करनी चाहिए और उसके जरिए अंग्रेजी पंडितो के झुठा प्रचार को बंद करवाना चाहिए !
संविधान सभा में सभी चाहते थे  कि सभी राज्यों में (भाषाओं) हिंदी को सम्राट (राष्ट्रभाषा)का दर्जा दिया जाय ! मगर हमारे अंग्रेजी पंडित कहेते हैं सभी राजा है कोई सम्राट नहीं ! मगर संविधान का प्रावधान क्या है ? एक ही राजा और सम्राट (पुरे देश की राजभाषा ) और अन्य भाषाओं को नोकर का दर्जा दिया है!  Parliamentary Committee on Official language में सभी ८वीं अनुसूची के भाषाओं का प्रतिनधित्व है । वे सभी राजभाषा हिंदी के विकास केलिए राष्ट्रपति को सिफारिश (Recommendations) करेंगे ,हाल ही में इस कमिटी ने राष्ट्रपति को सिफारिश की है !
८वि अनुसूची में शामिल होने केलिए होड़ लगा हुवा है ,इस सूचि में शामिल होना किसी भाषा केलिए गर्व की बात नहीं है बल्कि शर्म की बात ही होगी !ये सब भाषाए राज भाषा हिंदी के विकास केलिए सहयोग देंगे !जैसे अंग्रेजी यूरोप की अलग अलग भाषावो का शब्द अपनाकर  विक्सित हुवा है वैसे ही हिंदी को भारत के अलग अलग भाषावो के शब्दों को अपनाकर राष्ट्रीय राज भाषा बनाना सविधान का मकसद रहा है !जब सविधान को लागू ही नहीं कियागया है और अंग्रेजी को ही राज भाषा के रूप में बरकरार रखा है तो ८वीं अनुसूची का क्या ओचित्य है ?
सविधान में संशोधन करके १७वे भाग में अलग सूची बनाकर सब प्रादेशिक राजभाषाओं की एक अलग सूची बनवानी चाहिए  !
हिंदी का विरोध करनेवाले संविधान का सहारा न लें ,तमिलनाडु के १९६० के हिंदी विरोध आन्दोलन में करूणानिधि ने संविधान का १७वे भाग का पन्ना जलाकर विरोध किया था ,अंग्रेजी पंडित भी ऐसा जरुर कर सकते हैं  मगर सविधान का झुठा हवाला देकर हिंदी का विरोध करना बंद करें ! हिंदी के विरोध करनेवालों को यह पता होना चाहिए कि वो संविधान का विरोध कर रहे हैं !
अंग्रेजी पंडित अंग्रेजी को भी भारत का राजभाषा कहेते हैं मगर संविधान ने अंग्रेजी को कहीं राजभाषा नहीं माना है ! Supreme Court और High court में भी राजभाषा हिंदी को लाने का अधिकार Parliamentary Committee on Official language को दिया है वे कभी भी इस बारे में राष्ट्रपति को सिफारिश कर सकती है (Article 344,2,C) ! संविधान के खिलाफ हिंदी को नहीं बल्कि अंग्रेजी को देश पर थोपा जा रहा है !
मैंने बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा सविधान सभा में दिए भाषण पर एक आर्टिकल लिखा है उसका लिंक में यहाँ डाल रहा हूँ जरुर पढ़िए !
धन्यवाद
प्रो.देविदास प्रभु


Monday 21 August 2017

“लव जिहाद” के रास्ते में सुप्रीम कोर्ट का रोड़ा

कई रोज अमेरिका की प्रसिद्ध और ख्यातिप्राप्त लेखक ब्लोगर पामेला गेलर की एक रिपोर्ट ने भारत में घट रही लव जिहाद की घटना पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया हुआ यूँ कि बीते वर्ष मुस्लिम युवक शफीन पर हिंदू लड़की हादिया को फुसलाकर शादी करने और जबरन उसका धर्म परिवर्तन कराने वाले मामले को केरल उच्च न्यायालय ने इसे लव जिहाद करार देते हुए शादी को निरस्त कर दिया था. हालाँकि लड़की कोर्ट में कहती रही कि उसपर कोई दबाव नहीं, उसने अपनी मर्जी से विवाह किया है. लेकिन कोर्ट ने उसकी एक ना सुनी और इस निकाह को निरस्त कर दिया था. इसके बाद आरोपी युवक शफीन इस मामले को उच्चतम न्यायालय लेकर आया था. उच्चतम न्यायलय में लड़के पक्ष के वकील कपिल सिब्बल की लाख अपील के बाद बाद भी उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू महिला के धर्मांतरण और मुस्लिम व्यक्ति से उसकी शादी के मामले की जांच एनआईए से कराने का आदेश दिया है. राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए ने लव जिहाद के कुछ मामलों में जांच के बाद यह कहा है कि धर्मांतरण के बाद महिलाओं को खूंखार आतंकी संगठन आईएस में शामिल होने के लिए कथित तौर पर सीरिया भेजा जा रहा था.

मतलब मामले को कैसे भी समझा जा सकता है जैसे पहले किसी अन्य धर्म की युवती से प्रेम उसके बाद विवाह और विवाह के बाद उसका ब्रेनवाश कर उसे सीरिया में कुख्यात आतंकी संगठन आई एस के लिए भेज दो. वहां उसका इस्तेमाल मानव बम या आतंकी लड़ाकों के लिए यौनदासी के रूप में किया जा सकता. भारत सरकार के एक अधिकारी ने कहा है कि एक हिन्दू महिला के धर्मांतरण और मुस्लिम व्यक्ति से उसकी शादी की एनआईए जांच में केरल में हाल में सामने आए ऐसे अन्य संदिग्ध मामलों को भी शामिल किया जा सकता है. आतंक रोधी जांच एजेंसी ने दावा किया कि केरल में यह कोई इक्का-दुक्का घटना नहीं है, बल्कि एक सिलसिला चल रहा है.

इस कथित लव जिहाद को ज्यादा समझने के लिए थोडा अतीत ने जाना होगा 26 जून 2006 केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमान चांडी द्वारा केरल विधानसभा में दिए एक लिखित जवाब से केरल का हिन्दू समाज स्तब्ध रह गया था जब एक सवाल के जवाब में, चांडी ने बताया था कि 2006 से 2012 तक, राज्य में 7713 लोग इस्लाम में मतांतरित किए गए हैं. इनमें कुल मतांतरित 2688 महिलाओं में से 2196 हिन्दू थीं और 492 ईसाई लेकिन इस रपट के तुरंत बाद मुस्लिम गुटों के दबाव पर राज्य सरकार ने अदालत में प्रतिवेदन दर्ज करके उसका ठीक उलट कहा कि लव जिहाद जैसी कोई चीज नहीं है.

जबकि उसी दौरान केरल से प्रकाशित एक पत्रिका में साफ-साफ छपा था कि लव जिहाद केरल के संभ्रांत हिन्दू परिवारों और रईस ईसाई परिवारों को भी बेखटके निशाना बना रहा है. इसके लिए व्यावसायिक कालेजों और तकनीकी शिक्षण संस्थानों पर नजर रखी जाती है. मुस्लिम गुट मुस्लिम लड़कों को तमाम तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम करने और उनमें गैर मुस्लिम लड़कियों को इनाम देने को उकसाते हैं ताकि उन्हें फांसा जा सके. जो लड़कियां उनकी तरफ आकर्षित होती हैं उन्हें मुस्लिम लड़कियों के साथ घुलने-मिलने का भरपूर मौका दिया जाता है. इन शुरुआती तैयारियों के बाद, लव जिहाद के खाके को क्रियान्वित किया जाता है. जैसे ही प्रतियां छपकर आईं, पूरे केरल में बड़ी संख्या में मुस्लिम कट्टरवादियों ने इन्हें खरीदा और फाड़ कर जला डाला. अगले दिन दुकानों में गिनती की प्रतियां ही रह गईं थी.


राजनैतिक स्तर पर चांडी के बयान की आलोचना के बाद सेकुलर मीडिया ने वहां के मुख्यमंत्री की इस स्पष्ट स्वीकारोक्ति को पूरी तरह अनदेखा कर दिया था. दक्षिण भारत के इस मामले को उत्तर भारत में बड़े स्तर पर हवा तो मिली लेकिन इस लव जिहाद को राजनीतिक एजेंडा बताकर लोग कन्नी काटते नजर आये. लेकिन केरल में इस गुप्त एजेंडे के तहत प्रेम जाल में फांसकर हिन्दू युवतियों से निकाह करके उन्हें धर्मान्तरित करने और गरीबों को लालच देकर मतांतरित करने का षड्यंत्र जारी रहा 2012 में छपी साप्ताहिक पत्रिका के आंकड़े बताते हैं कि केरल में हर महीने 100 से 180 युवतियां धर्मान्तरित की जा रही हैं.

उसी दौरान भारत की एक बड़ी पत्रिका के अनुसार मालाबार की एक इस्लामी काउंसिल के 2012 तक के धर्मांतरण के आंकड़े बताते हैं कि 2007 में 627 लोग मुस्लिम बने, जिसमें से 441 हिन्दू थे और 186 ईसाई. 2008 में 885 में से 727 हिन्दू थे, 158 ईसाई. 2009 में 674 में से 566 हिन्दू थे, 108 ईसाई. 2010 में 664 में से 566 हिन्दू थे, 98 ईसाई. 2011 में 393 में से 305 हिन्दू थे, 88 ईसाई. एक बात यहाँ स्पष्ट कर दूँ धर्मान्तरित होने वालों में बड़ी संख्या युवतियों की रही है.

इन सब आंकड़ों के बीच अजीब बात है कि गैर मुस्लिमों को फुसलाने के साथ ही, अलगाववादी गुट मुस्लिम युवतियों को किसी गैर मुस्लिम लड़के से बात तक नहीं करने देते. ये कट्टरवादी तत्व मुस्लिम महिलाओं को हिन्दुओं के घरों में काम करने से रोकते हैं. साप्ताहिक की रिपोर्ट एक दिलचस्प आंकड़ा देती है कि 2008 से 2012 तक, महज 8 मुस्लिम महिलाओं ने ही गैर मुस्लिम पुरुषों से प्रेम विवाह किया है. मतलब साफ है कि केरल के सभी 14 जिलों में श्लव जिहादश् जोरों पर है.

मामला सिर्फ केरल ही नहीं अब उत्तर भारत में भी अपने पैर पसार चूका है जिसका सबसे बड़ा खुलासा वर्ष 2014 में नेशनल शूटर तारा शाहदेव के मामले में देखा गया था. लेकिन उस समय भी सेकुलरवादी नेताओं और मीडिया ने इसे झूठा बताने का कार्य किया था जो अब सीबीआई जाँच में सच पाया गया है. असल में यह एक सोचा समझा धार्मिक षड्यंत्र है इसे केरल की हदिया वाले मामले में आसानी से समझा जा सकता है कि आरोपी युवक शफीन क्या इतना धन या राजनैतिक हैसियत रखता है कि वो कांग्रेस के बड़े नेता और महंगे वकील कपिल को अपनी पेरवी के लिए खड़ा कर सकता है? इससे भी साफ समझ जा सकता है शफीन के पीछे किन बड़ी राजनैतिक और धार्मिक संस्थाओं का हाथ है?..फोटो साभार गूगल लेख राजीव चौधरी 



Sunday 20 August 2017

मुगल इतिहास में रहने चाहिए लेकिन इस तरह नहीं

टोपी सिलकर गुजारा करता था औरंगजेब. अकबर एक महान उदार राजा था. शेरशाह सूरी ने रोड बनवाई थी, किसी मुग़ल ने ताजमहल तो किसी ने लालकिला बनवाया. कुछ ऐसी ही कहानियाँ हम बचपन से पढतें आ रहे है. यदि यह सब सच है तो फिर लाखों हिन्दुओं और अपने सगे भाई दाराशिकोह की गर्दन धड से अलग करने वाला मुगल बादशाह कौन था? आजकल इसी इतिहास को लेकर राजनैतिक हलको में जो शोर है और ये शोर इतिहास की उन लाखों निर्दोषों की चीख पुकार पर हावी है जिसे जबरन धर्म परिवर्तन कराने वाले मुगल शासक औरंगजेब ने इतिहास की उदार टोपी पहनाकर दबा दिया था.

अगस्त 1947 जब अंग्रेजों की दासता से जकड़े भारत ने आजादी की पहली खुली साँस ली तो हमें मुगलों की धर्मनिरपेक्षता और उदारता के पाठ पढनें को मिले. किन्तु अब महाराष्ट्र राज्य शिक्षा बोर्ड ने इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में से मुगलों को गायब करना शुरू कर दिया है. इस शिक्षण वर्ष में बोर्ड ने सातवीं और नौवीं क्लास के लिए इतिहास की संशोधित टेक्स्टबुक्स प्रकाशित किया है, जिसमें शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित मराठा साम्राज्य पर मुख्य रूप से जोर दिया गया है. सातवीं क्लास की पुस्तकों में से उन चैप्टर्स को हटा दिया गया है जिसमें मुगलों और मुगल शासन से पहले भारत के मुस्लिम शासकों जैसे रजिया सुल्ताना और मुहम्मद बिन तुगलक के बारे में उल्लेख था.

अच्छा जो लोग आज भी औरंगजेब के नाम का गुणगान करते हैं उनसे पूछिए कि दाराशिकोह ने ऐसा कौन सा गुनाह किया कि उसके नाम को आप भुलाना चाहते है और औरंगजेब ने क्या ऐसा काम किया कि उसके नाम का गुणगान करना चाहते हैं?

आखिर जिन पुस्तकों में वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, चांद बीबी और रानी दुर्गावती ने देश की अस्मिता और संस्कृति बचाने के लिए इन लुटेरों के खिलाफ संघर्ष किया. जहाँ उनका संघर्ष उल्लेखनीय होना चाहिए था वहां अकबर को उदार और सहिष्णु शासक के तौर पर दिखाया गया था जो शिक्षा एवं कला का संरक्षक था. अकबर का उल्लेख एक ऐसे व्यक्ति के तौर पर किया गया उनको दीन-ए-इलाही जैसे धर्म का संस्थापक भी बताया गया गया. फिर जोधाबाई से जबरन शादी करने वाला कौन था?

दूसरा सवाल आतंकी संगठन आईएसआईएसआई के बारे में जब हम पढ़ते हैं कि वह अल्पनसंख्यतक यजीदी महिलाओं को यौन गुलाम बना रहा है तो हमें आश्चेर्य होता है. लेकिन आपको जानकर आश्चार्य होगा कि दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों व मुगल बादशाहों ने भी बहुसंख्यजक हिंदू महिलाओं को बड़े पैमाने पर यौन दास यानी सेक्स सेलेव बनाया था. इसमें मुगल बादशाह शाहजहां का हरम सबसे अधिक बदनाम रहा, जिसके कारण दिल्ली  का रेड लाइट एरिया जी.बी.रोड बसा इतिहासकार वी.स्मिथ ने लिखा है, शाहजहाँ के हरम में 8000 रखैलें थीं जो उसे उसके पिता जहाँगीर से विरासत में मिली थी. उसने बाप की सम्पत्ति को और बढ़ाया. उसने हरम की महिलाओं की व्यापक छाँट की तथा बुढ़ियाओं को भगा कर और अन्य हिन्दू परिवारों से बलात लाकर हरम को बढ़ाता ही रहा.

हम भी कहते है इतिहास से मुग़ल नहीं मिटने चाहिए बल्कि इस झूठी उदारता की जगह वो सच लिखा जाना चाहिए जिसके छल-बल से इन्होने यहाँ राज किया. ताकि आने वाली नस्लों को पता चले कि इनकी मजहबी सनक के कारण भारतीय समुदाय हमारे पूर्वजो का कितना मान मर्दन हुआ. हत्याएं बलात धर्मपरिवर्तन का सभी सच लिखा जाना चाहिए ताकि आने वाली नस्लें यदि इतिहास का कोई पन्ना निचोड़े तो उसमें से दर्द,  आंसू और खून निकल आये.

आर.सी. मजूमदार, अपनी पुस्तक हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ दी इण्डियन पीपुल में लिखते है कि कश्मीर से लौटते समय 1632 में शाहजहाँ को बताया गया कि अनेकों मुस्लिम बनायी गयी महिलायें फिर से हिन्दू हो गईं हैं और उन्होंने हिन्दू परिवारों में शादी कर ली है. शहंशाह के आदेश पर इन सभी हिन्दुओं को बन्दी बना लिया गया. उन सभी पर इतना आर्थिक दण्ड थोपा गया कि उनमें से कोई भुगतान नहीं कर सका. तब इस्लाम स्वीकार कर लेने और मृत्यु में से एक को चुन लेने का विकल्प दिया गया. जिन्होनें धर्मान्तरण स्वीकार नहीं किया, उन सभी पुरूषों का सर काट दिया गया. लगभग चार हजार पाँच सौं महिलाओं को बलात मुसलमान बना लिया गया और उन्हें सिपहसालारों, अफसरों और शहंशाह के नजदीकी लोगों और रिश्तेदारों के हरम में भेज दिया गया.

साल 1526 से लेकर 1857 तक हिन्दुस्तान की सरजमीन पर मुगलों की हुकूमत रही है. शाहजहाँ को प्रेम की मिसाल के रूप पेश किया जाता रहा है और किया भी क्यों न जाए , आठ हजार औरतों को अपने हरम में रखने वाला अगर किसी एक में ज्यादा रुचि दिखाए तो वो उसका प्यार ही कहा जाएगा. आप यह जानकर हैरान हो जायेंगे कि मुमताज का नाम मुमताज महल था ही नहीं बल्कि उसका असली नाम अर्जुमंद-बानो-बेगम था. और तो और जिस शाहजहाँ और मुमताज के प्यार की इतनी डींगे हांकी जाती है वो शाहजहाँ की ना तो पहली पत्नी थी ना ही आखिरी शाहजहाँ से शादी करते समय मुमताज कोई कुंवारी लड़की नहीं थी बल्कि वो भी शादीशुदा थी और उसका पति शाहजहाँ की सेना में सूबेदार था जिसका नाम शेर अफगान खान था. शाहजहाँ ने शेर अफगान खान की हत्या कर मुमताज से शादी की थी.
दरअसल इरफान हबीब जैसे इतिहासकारों का मुगल उदारता का इतिहास लेखन इस भारतीय चेतना में एक रत्ती भर परिवर्तन इसलिए नहीं कर पायी है कि पीढ़ी दर पीढ़ी उसके अत्याचारों को हिन्दुस्तान की जनता न भुला पायी है और ना भुला पायेगी. मुगल मौखिख इतिहास में रहेंगेमुगलों को इतिहास में रहना भी चाहिए ताकि हमें पता रहे कि महाराणा प्रताप से लेकर वीर शिवाजी तक कैसे इन धोखेबाज लोगों से लड़े! लेकिन इस तरह नहीं जिस तरह उसे परोसा जा रहा है बल्कि उस सच के साथ जो कुकृत्य उन्होंने भारतीय जनमानस के साथ किये ताकि आने वाली पीढ़ियों को पता चले कि क्रूरता की क्या सीमा होती है, क्रूरता का क्या रूप होता है, क्रूरता का क्या रंग होता है?


इन धर्माध लोगों ने किस तरह हिन्दू समाज का पतन किया, औरंगजेब ने अपने शासनकाल में बहुत लोगों की हत्याऐं की, बहुत लोगों को निर्ममता से प्रताड़ित किया, बहुत सारे मंदिरों को तोड़ा. इतिहास गवाह है कि मुगल किस तरह के शासक थे, किस तरह यहाँ खून की होली खेलकर अपना राज्य स्थापित किया. एक कम्युनल शासक थे, मजहबी शासक थे, और आज के समय में जो आइएसआइएस या तालिबान जो कर रही है, वो उस समय में करते थे सत्रहवीं शताब्दी में, तो इसीलिए वो विलेन थे. ना कि भारतीय जन समुदाय के हीरो...फोटो आभार गूगल लेख राजीव चौधरी 

क्या इसे जिहाद कहें?

स्पेन के बार्सिलोना शहर में ताजा आतंकी हमले में 13 लोगों की मौत हो गयी और करीब 100 लोग घायल है. स्पेन के प्रधानमंत्री मारियानो रख़ॉय ने कहा है कि ये एक जिहादी हमला है. जो एक वेन द्वारा किया गया है. इस हमले की जिम्मेदारी कथित इस्लामिक स्टेट ने ली है. पिछले एक साल में यूरोप में कई शहरों में आतंकियों ने बम और बन्दुक की बजाय भीड़-भाड़ वाले इलाकों में गाड़ी चढ़ाने या दौड़ाने की घटनाएं हुई हैं. इस घटना में करीब 300 मीटर के दायरे में दर्जनों लोग घायल पड़े थे और कई लोग पहले ही मर चुके थे. मंजर इतना वीभत्स था कि देखकर रूह कांप उठे. घटना के प्रत्यक्षदर्शी बता रहे थे कि जब ऐसी घटनाओं में मदद के लिए जाने वाले लोग सारी ताकत लगा देते हैं. लेकिन मंजर देखकर भावुक होने लगते हैं और वहां रह पाना मुश्किल होने लगता है.

धार्मिक कोण से जिहाद के कई अर्थ लगाए जाते हैं जो कि इस्लाम की मान्य पुस्तक द्वारा वर्णित हैं. इसका एक अर्थ अच्छा मुसलमान बनने के लिए आन्तरिक तथा बाहरी संघर्ष से भी जोड़ा जाता है! जिस तरह पिछले गत वर्षो में इस शब्द की आड़ में हमले किये गये, मानवता को रोंदा गया, उसे देखकर लगता है कि जिहाद शब्द इस्लाम में भले ही पवित्र माना जाता हो लेकिन बाहरी दुनिया के लिए यह एक खोफ और दहशत का शब्द बनकर रह गया हैं.

यदि यहाँ भारतीय मुस्लिम को अलग रख प्रश्न करे कि आखिर अरबी शब्द जिहादका अर्थ क्या है? इसका एक उत्तर डेनियल पाइप्स देते हुए लिखते है कि सद्दाम हुसैन ने स्वयं अमेरिका के विरुद्ध जिहाद की धमकी दी थी. इससे ध्वनित होता है कि जिहाद एक पवित्र युद्धहै. इससे भी अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो इसका अर्थ है गैरदृमुसलमानों द्वारा शासित राज्य क्षेत्र की कीमत पर मुसलिम राज्य क्षेत्र का विस्तार करने का कानूनी, अनिवार्य और सांप्रदायिक प्रयास.

दूसरे शब्दों में जिहाद का उद्देश्य आज इस्लामिक आस्था का विस्तार नहीं वरन संप्रभु मुस्लिम सत्ता का विस्तार बन गया है. चूँकि हम भारत में रहते है तो जिहाद जैसे शब्दों की व्याख्या अपने ढंग या सोचने के ढंग से नहीं कर सकते क्योंकि यहाँ शब्द धर्मनिरपेक्षता की कसोटी के अनुरूप ही फिट बैठने चाहिए. लेकिन डेनियल पाइप्स शायद इन सब पर मुखर होकर लिखते है कि शताब्दियों से जिहाद के दो विविध अर्थ रहे हैं एक कट्टरपंथी और दूसरा नरमपंथी. पहले अर्थ के अनुसार जो मुसलमान अपने मत की व्याख्या कुछ दूसरे ढंग से करते हैं वे काफिर हैं और उनके विरुद्द भी जिहाद छेड़ देना चाहिए. यही कारण है कि सीरिया, मिस्र और अफगानिस्तान और पाकिस्तान के मुसलमान भी जिहादी आक्रमण का शिकार हो रहे हैं. जिहाद का दूसरा अर्थ कुछ रहस्यवादी है जो जिहाद की युद्ध परक कानूनी व्याख्या को अस्वीकार करता है और मुसलमानों से कहता है कि वे भौतिक विषयों से स्वयं को हटाकर आध्यात्मिक गहराई प्राप्त करने का प्रयास करें.

विश्व के आतंकी घटनाक्रम पर देखे तो आज जिहाद विश्व में आतंकवाद का सबसे बडा स्रोत बन चुका है. इसके विविध नाम से संगठन बन चुके है. आधुनिक हथियारों से और विभिन्न तरीको से जिहाद के सैनिक बर्बरता मचाये हुए है. मतलब जहाँ जैसे बस चले. पिछले वर्ष ही फ्रांस के नीस में जुलाई 2016 में ट्यूनीशियाई मूल के मोहम्मद लावेइज बूहलल ने आतिशबाजी देखने के लिए पहुंची भीड़ पर एक लॉरी से हमला किया जिसमें 86 लोगों की मौत हो गई थी. उसी दौरान जर्मनी के बर्लिन में ट्यूनीशिया के अनीस अम्री ने क्रिसमस मार्केट में एक ट्रक दौड़ा दिया था, इस हमले में 12 लोगों की मौत हो गई थी. थोडा आगे बढे तो इस वर्ष ही लंदन में तीन जिहादियों ने लंदन ब्रिज पर लोगों पर वैन दौड़ा दी और कई लोगों पर चाकू से हमला किया, वेस्टमिनस्टर ब्रिज की घटना हो या स्टॉकहोम, स्वीडन, में एक आतंकी ने एक डिपार्टमेन्ट स्टोर में लॉरी घुसाकर चार लोगों को मरना उपरोक्त सभी घटनाएँ जिहाद के नाम पर की गयी है.

डेनियल लिखते है कि सन् 632 में मोहम्मद की मृत्यु के समय तक मुसलमान अरब प्रायद्वीप के बहुत बड़े क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित कर सके थे. इसी भाव के कारण मोहम्मद की मृत्यु की एक शताब्दी के पश्चात् उन्होंने अफगानिस्तान से स्पेन तक का क्षेत्र जीत लिया था. इसके बाद जिहाद ने मुसलमानों को भारत, सूडान, अनातोलिया और बाल्कन जैसे क्षेत्रों को जीतने के लिए प्रेरित किया. इससे प्रेरणा लेकर कुछ स्वयंभू जिहादी संगठनों ने संपूर्ण विश्व में आतंकवाद का अभियान चला रखा है पिछले 1400 वर्षों के जिहाद के टकराव और मानवीय यातना के इतिहास के बाद भी अनेक इस्लामी दावा करते हैं कि जिहाद केवल रक्षात्मक युद्ध की आज्ञा देता है या फिर ये पूरी तरह अहिंसक है .

जिहाद को परिभाषित करते हुए कुछ मुसलमान कहते है कि एक बेहतर छात्र बनना, एक बेहतर साथी बनना, एक बेहतर व्यावसायी सहयोगी बनना और इन सबसे ऊपर अपने क्रोध को काबू में रखना. किन्तु इस परिभाषा को एक काल्पनिक सच्चाई के रुप में अनुभव करने मात्र से ऐसा नहीं हो जाएगा .इसके विपरीत जिहाद के वास्तविक स्वरुप से आँखें मूंद लेना आत्मचिंतन और पुनर्व्याख्या के किसी भी गंभीर प्रयास को बाधित करने जैसा है.

जिहाद की ऐतिहासिक भूमिका को स्वीकार करते हुए आतंकवाद, विजय और गुलामी से परे भी एक रास्ता है और वह है जिहाद से पीड़ित लोगों से माफी माँग कर जिहाद के अहिंसक इस्लामी आधार को विकसित कर हिंसक जिहाद पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया जाए दुर्भाग्यवश इस माहौल से बाहर आने की कोई प्रक्रिया नहीं चल रही है. हिंसक जिहाद तबतक चलता रहेगा जबतक इसे किसी उच्च स्तरीय सैन्य शक्ति से दबा नहीं दिया जाता. जिहाद को पराजित करने के बाद ही उदारवादी मुसलमानों की आवाज सामने आएगी और तभी इस्लाम को आधुनिक बनाने का दुरुह कार्य आरंभ हो सकेगा... राजीव चैधरी