Thursday 28 September 2017

आज दोगले, मानवता का पाठ पढ़ा रहे है?


वर्ष 1971 यूगांडा में ईदी अमीन ने राष्ट्रपति मिल्टन ओबोटे का तख़्ता पलट दिया था. फिर उन्होंने यूगांडा में अपनी तानाशाही का दौर शुरु किया और इसके बाद उन्होंने एशियाई मूल के हजारों लोगों को जो इस्लाम से भिन्न मत रखते थे जिनमे भारत का एक बहुत बड़ा हिन्दू समुदाय भी था देश से निकाल दिया, उनकी संपत्ति जब्त कर ली और अपने दोस्तों में बाँट दी जब विश्व समुदाय ने इस घटना को उठाया तो समस्त मुस्लिम देशों ने एक स्वर में कहा था कि इस्लाम के बीच सिर्फ इस्लाम को मानने वाले ही रह सकते है. आज वो सब और यह दोगले म्यांमार को मानवता का पाठ पढ़ा रहे है.
जिस समय भारत सरकार बांग्लादेश में रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों के आपरेशन इंसानियत चला रही हैं ठीक उसी समय रखाइन में म्यांमार की सेना को एक कब्रगाह मिली. जिसमें से 45 हिंदुओं के शव निकाले गए हैं. इस पूरे इलाके से करीब 1 हजार से ज्यादा हिंदुओं के गायब होने की ख़बर है. म्यांमार की सेना का भी आरोप है कि इन हिंदुओं की हत्या रोहिंग्या मुसलमानों ने की है. और इनकी हत्या में आतंकवादी संगठन अराकान का भी हाथ है. मरने वालों में बहुत से बच्चे और महिलाएं भी शामिल हैं. जो रोहिंग्या हिंदू. हमले के बाद भागने में कामयाब हुए, उन्हें शरणार्थी शिविरों में रखा गया है. रखाइन में बहुत से ऐसे इलाके हैं, जहां से हिंदुओं की पूरी आबादी को खत्म कर दिया गया है. इन इलाकों से हजारों की संख्या में हिंदुओं का पलायन जारी है, लेकिन दुनिया को सिर्फ रोहिंग्या मुसलमानों का दर्द दिखाया जा रहा है.

खबर से साफ होता है कि म्यांमार में रोहिंग्या आतंकियों ने सिर्फ बौद्धों को ही निशाना नहीं बनाया था, बल्कि उनके निशाने पर हिन्दू समुदाय के लोग भी थे. कुछ उसी मानसिकता के साथ की इस्लाम में अन्य मतो के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन दुखद बात यह कि एक ही इलाके में. इंसानों पर हो रहे अत्याचार की चिन्हित रिपोर्टिंग हो रही है और पूरे मुद्दे का धर्मिक विभाजन किया गया है. डेली मेल की इस रिपोर्ट  के अनुसार तो तो हिन्दुओं पर म्यांमार के रखाइन में शुरू हुए अत्याचार का यह सिलसिला थमा नहीं है, बल्कि दुर्भाग्य उनका पीछा करते हुए बांग्लादेश के शरणार्थी शिविर तक पहुंच गया है. शरणार्थी शिविर में पहुंची हिन्दू महिलाओं का दावा है कि उनके सिन्दूर पोंछ दिए गए, चूड़ियां तोड़ दी गई. यहां तक कि उनका धर्म परिवर्तन कर दिया गया और मुसलमानों से शादी कर दी गई. इस सबके बावजूद भी पिछले दिनों जन्तर-मंतर पर मानवता की दुहाई देने वाले धर्मनिरपेक्ष लोग और रोहिंग्या मुस्लिमों का दर्द देखने वाले चश्मे इस खबर पर कोई भी अपनी नजर उठाने को तैयार नहीं है.
बांग्लादेश के कॉक्स बाजार में स्थित शरणार्थी शिविर में शरण लेने वाली पूजा का इसी महीने धर्म परिवर्तन कर राबिया बना दिया गया. अगस्त के आखिरी सप्ताह में म्यांमार में भड़की हिंसा में पूजा के पति की मौत हो गई थी. उसके पति व परिजनों को म्यांमार की सेना ने नहीं, बल्कि कुछ नकाबपोशों ने धर्म के नाम पर हत्या कर दी. हत्यारों ने उसे जिन्दा छोड़ दिया और बंदी लिया.
भारत के न्यूज चैनलों पर बैठे रोहिंग्या मुसलमान खुद को असहाय बता रहे हैं. जबकि उनकी बर्बरता कम नहीं हो रही है. बौद्धों के अलावा वह हिन्दुओं को भी निशाने पर ले रहे हैं. आतंकी संगठनो से रोहिंग्या मुस्लिमों की मिलीभगत साफ साफ नजर आ रही है तो भारत के ये स्वघोषित उदारवादी लोग और कुपढ़ धर्मनिरपेक्ष लोग इन्हें भारत में बसाने के पक्ष में क्यों लगे हुए हैं? जो मरते-मरते भी अपने मजहब के विस्तार के लिए अमानवीय तरीके अपना रहे हो. जिस समुदाय के बारे में इंटेलिजेंस की रिपोर्ट में भी आतंकी संगठनों से मिले होने की बात कही गयी हो उसको भारत में शरण देने के लिए भारत के मीडिया और अन्य संस्थानों में बैठे लोग मुखर हो कर सामने आ रहें हैं ? जिस कश्मीर में आज रोहिंग्या मुसलमानों को शरण देने के लिए बड़े बड़े लेख लिखे जा रहें हैं, दलीले दी जा रही है,  याचिका डाली जा रही हैं,  उस कश्मीर में कभी कश्मीरी पंडितों को बसाने के लिए क्यों सभी चुप हैं ? जम्मू कश्मीर में जो दोमुँहे लोग रोहिंग्या की पैरवी कर रहें हैं वो जम्मू कश्मीर में 35। से हो रहे शोषण पर चुप क्यों हैं ? ये सिर्फ और सिर्फ इनका दोहरा चरित्र है. भारत को अस्थिर करने में ये सबसे ज्यादा मेहनत करते हैं. वैचारिक विरोध की आड़ में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में, संविधान की आड़ में ये लोग सिर्फ अपना एजेंडा चलाने में लगे रहते हैं.
जबरदस्ती मुसलमान बनाई गई रिका उर्फ सादिया किस तरह रोते हुए बता रही थी  उन्होंने हमारे घरों में घुसपैठ की और हमले किए. हमारे आदमियों के मोबाइल फोन छीन लिए गए और बांधकर बुरी तरह पीटा गया मेरे पति लोहार थे. मेरे सारे गहने ले लिए मुझे पीटने लगे सभी हिन्दुओं को पकड़कर एक पहाड़ी पर ले जाया गया और लाइन में लगाकर मार डाला गया. सिर्फ 8 महिलाओं को जिंदा रखा गया उन्होंने कहा तुम अब हमारे साथ रहोगी हमसे शादी हमारे पास उनके सामने सरेंडर करने के अलावा कोई उपाय नहीं था. धर्म परिवर्तन की बात मानने के अलावा हमारे पास कोई चारा नहीं बचा थी. वहीं से हमें बांग्लादेश के एक कैंप में ले जाया गया और धर्म परिवर्तन के नाम पर मीट खिलाया गया. अब सोचकर देखिये इन लोगों की मजहबी कट्टर मानसिकता क्या यह लोग भारत में बसाने लायक है? विराथू जैसे बोद्ध भिक्षु जो कभी हिंसा मन में नहीं लाते शायद इनके इन्ही कृत्यों की वजह से समझ गये होंगे कि अपना भिक्षु धर्म तभी निभा पाएंगे जब उनका धर्म रहेगा, वह रहेंगे, म्यांमार रहेगा और उनकी संस्कृति रहेगी. ...राजीव चौधरी



Monday 25 September 2017

कोई गरीब या विधवा ही डायन क्यों?

ये है 21वीं सदी का डिजिटल इंडिया. अग्नि-5 और खुद का नेवीगेशन सिस्टम स्थापित करने वाला भारत कौन कहता है यहाँ ज्ञान की कमी है. अनपढ़ से अनपढ़ और पढ़े लिखे जब एक कतार में खड़े में हो तो समझ लेना या तो मतदान है या फिर अन्धविश्वास. हमने सुना था समृद्धि अंधविश्वास भी लेकर आती है. लेकिन गरीबी अन्धविश्वास छोड़ना नही चाहती हम सब की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कुछ न कुछ सुख दुःख जरुर होता है. हम इसके बारे में सोचना छोड़ दें तो शायद ही कुछ बदले किसी भी अन्धविश्वास से अच्छी किस्मत हमेशा नहीं आती. . इन सबके बाद भी यदि हम कभी न खत्म होने वाले सुख और शांति की तलाश में किसी भोपे या बाबा की शरण में जा रहे हैं तो ध्यान रखना वहां मौत भी मिल सकती है.

आस्था और अंधविश्वास के बीच की बारीक लकीर पार करनी हो तो राजस्थान के भोपे (बाबाओं) के डेरे में आकर देखे. में खुद दैनिक भास्कर की यह रिपोर्ट देखकर सन्न रह गया कि आधुनिक भारत में आज भी रोग दूर करने के मध्य कालीन हिंसात्मक तरीके और अन्धविश्वास का साम्राज्य कई जगह ज्यों का त्यों खड़ा है. निश्चित ही यह खबर समाज को पीछे धकेलने वाले, न जाने कितनी महिलाओं का जीवन बर्बाद कर देने वाले भोपों अर्थात बाबाओं के सच पर आधारित है. ये भोपे दावा करते हैं कि उनके पास हर दुख-दर्द की दवा है. चाहे बीमारी हो या डायन का साया. हैरानी तो यह है डायन कौन है, यह भी ये खुद तय कर देते हैं. इन्हीं के सुनाए फरमानों ने भीलवाड़ा, चित्तौड़गढ़ व राजसमंद जिलों में पिछले कुछ सालों में 105 महिलाओं को डायन बना दिया. 22 महिलाओं को गांव से बाहर निकाल दिया गया. आठ को पीट-पीटकर मार डाला गया.

जहाँ सारा देश नारी सशक्तिकरण और महिला आरक्षण विधेयक की बात कर रहा वही आज ये भोपे महिलाओं को देखते ही कह रहे है इनै तो डायन खा री है. अख़बार लिखता है कि चित्तौड़ के पास पुठोली गांव में बाकायदा वार्ड बनाकर दुख-दर्द के मरीजों का इलाज करने वाला सिराजुद्दीन भोपा तो इलाज के नाम पर महिलाओं के शरीर पर हाथ घुमाता है तो भीलवाड़ा के भुणास में देवकिशन भोपा ने तो डायन भगाने के नाम पर डंडे बरसाता है. मामला यही नहीं कुछ भोपे तो महिलाओं के बाल तक उखाड़ लेते है. भीलवाड़ा जिला मुख्यालय से 40 किलोमीटर दूर चलानिया गांव में खड़ी पहाड़ी पर भैरूजी का मंदिर है, जिसे चलानिया भैरूजी के नाम से जाना जाता है. बंक्यारानी में भोपों का कारोबार बंद होने के बाद अब उनका नया ठिकाना चलानियां गांव बना है. यहां घर-घर भोपे हैं, बारी-बारी से मंदिर में इनकी ड्यूटी लगती है. हर शनिवार को यहां रातभर जागरण चलता है, शराब के नशे में चूर अनपढ़ भोपे डायन निकालने का दंभ भरते हुए महिलाओं को जमकर प्रताड़ित करते हैं.

मामला सिर्फ प्रताड़ना तक ही सिमित नही है कई बार अन्धविश्वास का यह कारोबार महिलाओं की जान तक लेने से नहीं हिचकता. 3 अगस्त को अजमेर के कादेड़ा में कान्यादेवी को डायन बताकर मार डाला गया. तो भीलवाड़ा के भौली में डायन बताकर रामकन्या को बीस दिनों तक अंधेरी कोठरी में कैद रखा. पुलिस ने आरोपियों को तो पकड़ लिया. लेकिन मामले के असली आरोपी उन भोपों तक नहीं पहुंची, जिन्होंने महिलाओं को डायन करार दिया था. 23 अप्रैल 2015 को डायन प्रताड़ना निवारण अधिनियम कानून बनने के बावजूद राजस्थान के 12 जिलों में डायन प्रताड़ना के 50 केस सामने आ चुके हैं. ये वो मामले हैं, जो दर्ज हैं. जो दर्ज नहीं हो पाए उनका क्या वो मामले नही थे.?

अख़बार लिखता है कि राजस्थान में 90 फीसदी मामलों में उन्हीं महिलाओं को डायन बनाया गया है जो दलित और गरीब हैं तथा जिनके पति की मौत हो चुकी है. मात्र तीन जिलों में डायन प्रताड़ना का शिकार हुई 46 महिलाओं में से 42 महिलाएं ऐसी थी जो दलित, गरीब और विधवा थी. एक भी ऐसा उदाहरण नहीं मिला जिसमें किसी सवर्ण अथवा अमीर वर्ग की महिला को डायन बताया गया हो. अब इस बात से भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि अशिक्षा और गरीबी का इससे विकृत रूप क्या होगा भला? हालाँकि डायन प्रताड़ना के अधिकांश मामलों में संपत्ति और जमीन हड़पने के लिए नाते-रिश्तेदार साजिश रचते हैं. कई जगह पड़ोसियों ने ही अपनी दुश्मनी निकालने के लिए इन पर डायन का तमगा लगा दिया. गांव में किसी की बकरी मर गई या भैंस बीमार हो गई, किसी के बच्चा नहीं हुआ या फिर किसी की स्वभाविक मौत हो गई. देखने में चाहे ये बातें अलग-अलग हो, लेकिन आज भी इन चीजों के लिए गांव की किसी कमजोर महिला को शिकार बनना पड़ता है

प्रदेश में सख्त कानून बनने के बावजूद हर साल दर्जनों महिलाओं को अंधविश्वास भरी ज्यादती डायन प्रथा का शिकार होना पड़ रहा है. डायन के नाम पर नंगा करके गांव में घूमाने, मुंडन कर देने, गर्म अंगारों में हाथ-पैर जला देने और पीट-पीटकर मार डालने जैसी भयावह यातनाएं दी जाती हैं. यह कुप्रथा हर साल कई महिलाओं की जिंदगी लील रही है. स्मरण रहे यह सब घटनाएँ उस देश में घटित हो रही है जिसमें कुछ दिन बाद बुलेट ट्रेन चलने वाली है. और सोचना  मिटटी की देवी को  नौ दिन पूजने वाले आखिर इन जिन्दा देह पर हो रहे अत्याचार पर मौन क्यों?

- राजीव चौधरी 

केरल के बाद लद्दाख निशाने पर

किसी समुदाय को जब अपना अस्तित्व बचाना होता है तो तो वह उसके लिए शांत रहने का समय नहीं होता कुछ इसी वजह से आज बुद्ध के अहिंसा-शांति के उपदेशों के रास्ते को छोड़कर आक्रमण की नीति अपनाने को मजबूर हो रहा बोद्ध समुदाय. मोक्ष की साधना आखिर शांतिमय वातावरण चाहती है. किन्तु अपनी परम्परा अपनी संस्कृति और समुदाय को बचाने के कई बार अन्य रास्ते भी तलाश करने पड़ते है. शायद इसी कारण पुरे बर्मा के बाद आज लद्दाख के बौद्ध उग्र हो रहे है. उन्होंने साफ कहा कि अब यदि हमें इंसाफ नहीं मिला तो देश से बौद्धों का सफाया हो जाएगा और लद्दाख मुस्लिम देश हो जायेगा.

इन दिनों जब भारत रोहिंग्या मुस्लिमों को टकराव का मैदान बना है इसी बीच कुछ घटना ऐसी भी घट रही है जिनपर सोचना और आवाज उठाना जरूरी बन गया है. हाल ही में लद्दाख में बौद्ध लड़कियां लव जिहाद का शिकार बनायी जा रही हैं ताकि लद्दाख को भी मुस्लिम बहुल क्षेत्र बनाया जा सके. खबर के मुताबिक इस मामले को लेकर लद्दाख बुद्धिस्ट एसोशिएशन अब प्रधानमंत्री मोदी से मिलने की सोच रहा है ताकि लद्दाख में बौद्ध महिलाओं और लड़कियों को बचाया जा सके. बुद्धिस्ट एसोसिएशन का कहना है मुस्लिम नौजवान खुद को बौद्ध बताकर लड़कियों से जान पहचान बढ़ाते हैं और शादी कर लेते हैं. बाद में पता चलता है कि वो बौद्ध नहीं मुस्लिम हैं.

लद्दाख में लेह और करगिल दो जिले हैं और यहां की कुल आबादी 2,74,000 है. यहां मुस्लिमों की आबादी 49 फीसदी है. जबकि लद्दाख में बौद्धों की आबादी 51 फीसदी है एलबीए की आपत्ति इस बात पर है कि राज्य प्रशासन कथित तौर पर बौद्ध लड़की के धर्म परिवर्तन के मामले की अनदेखी कर रहा है. . 1989 में, यहां बौद्धों और मुस्लिमों के बीच हिंसा हुई थी. इसके बाद एलबीए ने मुस्लिमों का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार किया, जो 1992 में हटा था.

दरअसल जम्मू-कश्मीर के भारत में शामिल होने के फैसले के ठीक बाद लद्दाख के बौद्ध राज्य में शेख अब्दुल्ला और कश्मीर के प्रभुत्व का विरोध करने लगे. 1947 के बाद कश्मीर के पहले बजट में लद्दाख के लिए कोई फंड निर्धारित नहीं किया गया. और तो और, 1961 तक इस क्षेत्र के लिए अलग से कोई योजना नहीं बनाई गई थी. मई 1949 में एलबीए के अध्यक्ष चेवांग रिग्जिन ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को एक प्रस्ताव भेजकर अपील की कि कश्मीर में मतदान संग्रह में यदि बहुमत का फैसला पाकिस्तान के साथ विलय के पक्ष में जाता है तो यह फैसला लद्दाख पर नहीं थोपा जाना चाहिए. उन्होंने सुझाव दिया कि लद्दाख का प्रशासन सीधे भारत सरकार के हाथों में हो या फिर जम्मू के हिंदू बहुल इलाकों के साथ मिलाकर इसे अलग राज्य बना दिया जाना चाहिए अथवा इसे पूर्वी पंजाब के साथ मिला दिया जाना चाहिए. उन्होंने दबी जुबान में यह चेतावनी भी दे डाली कि ऐसा न होने पर लद्दाख तिब्बत के साथ अपने विलय पर विचार करने को मजबूर हो सकता है.

आजादी के 70 वर्ष बाद एक बार फिर बोद्ध उसी प्रार्थना की ओर दिख रहे है. हो सकता लद्दाख का लव जिहाद पाकिस्तान की ही एक नीति का हिस्सा हो क्योंकि पाकिस्तान चाहता है कि जब कभी कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र की नजरो तले जनमत संग्रह हो तब तक कश्मीर का धार्मिक संतुलन इस्लाम के पक्ष में हो ताकि इससे लोगो को इस्लाम की दुहाई देकर वो आसानी से उसे अपने हिस्से में मिला सके. उसकी इसी योजना का शिकार 90 के दशक में कश्मीरी हिन्दू बन चुके है.

फिलहाल जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने प्रशासन से इस जोड़े को परेशान न करने को कहा है. जबकि बुद्धिस्ट एसोसिएशन का कहना कि जम्मू सरकार बौद्धों को खत्म करना चाहती है लेकिन हम अपने खून की आखिरी बूंद तक लड़ेंगे. यहाँ मुस्लिम लड़कों ने खुद को बौद्ध बताकर उन्हें अपने झांसे में लिया. शादी के बाद लड़कियों को पता चलता है की वे मुस्लिम हैं. इसके बाद समझोते और पछतावे के अलावा क्या बचता है, 2003 से अब तक यहां पर 45 से ज्यादा लड़कियों को लव जिहाद का शिकार बनाया गया और हमेशा की तरह दावा यही किया गया कि उन्होंने ऐसा अपनी इच्छा से किया है. जब केरल, बंगाल और उत्तर प्रदेश से  लव जिहाद की खबरें आ रही हैं कि पापुलर फ्रंट आफ इंडिया के लोग हिन्दू और ईसाई व मतो की लड़कियों को लव जिहाद का शिकार बना रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद अब इस मामले की जांच एनआईए को सौंपी गयी है. एनआईए ने अपनी शुरुआती जांच में इन आरोपों को सही पाया है और अब केन्द्र सरकार पापुलर फ्रंट आफ इंडिया और उससे जुड़े संगठनों को बैन करने की तैयारी कर रहा है.
हलांकि इन घटनाओं पर पूर्व की भांति राजनीति होगी और राजनीति का एक धडा इस कथित अल्पसंख्यक समुदाय की ढाल बनकर खड़ा दिखाई देगा. लेकिन शायद अल्पसंख्यक कौन होते है कैसे होते है यह बात इराक का यजीदी समुदाय और पाकिस्तान के हिन्दू समुदाय से बेहतर कौन जान सकता है. लेकिन प्रकृति पूजक, बौद्ध तंत्र तथा बौद्ध मत को मानने वाला यह समुदाय ह न तो घृणा फैलाने में विश्वास रखते हैं और न हिंसा के समर्थक हैं, लेकिन कब तक मौन रहकर सारी हिंसा और अत्याचार को झेलते रह सकते हैं?

Rajeev choudhary 



एक छोटी सी लड़की अरब की हो सकती है

हैदराबाद में पुलिस ने एक बड़े अरबी विवाह रैकेट का खुलासा करते हुए ओमान और कतर के आठ नागरिकों और तीन काजियों को गिरफ्तार किया है. रैकेट के शिकारों में नाबालिग लड़कियां भी शामिल थीं. गिरफ्तार किए गए काजियों में मुंबई के मुख्य काजी फरीद अहमद खान शामिल हैं. वहीं हैदराबाद के चार लॉज मालिकों और पांच दलालों को भी गिरफ्तार किया गया है. बताया जा रहा है कि ये सब इस्लामी एक विवाह प्रथा (मुताह निकाह) के नाम पर भारत में नाबालिग बच्चियों का यौन शोषण करने आये थे.

दरअसल अरबी शब्द मुताह का अर्थ है (आनंद, मज़ा) मसलन आनंद के लिए शादी. जबकि भारतीय परिवेश में विवाह एक पारिवारिक सामाजिक जिम्मेदारी का हिस्सा माना गया है. लेकिन अरबी शेख इसे आनंद का विषय समझकर दक्षिण भारत में आते रहते है. पिछले दिनों एक महिला ने पुलिस से शिकायत की थी कि कुछ दलालों की मदद से उनके पति ने अपनी नाबालिग बेटी को 70 वर्षीय ओमानी नागरिक अहमद अब्दुल्ला को बेच दिया था. लड़की ओमान में फंस गई है. शायद ऐसी शिकायते भारत के शहर हैदराबाद में खाड़ी के अरबवासियों के गलत आचरण की लगातार पोल खोल रहे हैं.

मामला आज से नही है बल्कि  आज से लगभग 12 साल पहले टाइम्स ऑफ इंडिया समाचार पत्र में मोहम्मद वाजिहुद्दीन ने एक छोटी सी लड़की अरब की हो सकती हैशीर्षक से और आर. अखिलेश्वरी ने डेक्कन हेराल्ड में Fly by night bridegroom” शीर्षक से लेख लिखा था. वाहिजुद्दीन ने इस चर्चा को आरंभ करते हुए लिखा था कि नई उर्जा वाले ये पुराने शिकारी हैं. प्राय: दाढ़ी रखने वाले और लहराते चोंगे के साथ पगड़ी पहनने वाले ये अरब. हैदराबाद की गलियों में मध्यकाल के हरम में चलने वाले राजाओं की याद दिलाते हैं. जिसे हम इतिहास का हिस्सा मान बैठे हैं. वियाग्रा का सेवन करने वाले ये अरब इस्लामी विवाह के नियम मुताह निकाहकी आड़ में शर्मनाक अपराध को अंजाम देते हैं..वाजिहुद्दीन ने इस समस्या को और स्पष्ट करते हुए लिखा था कि ये लोग उस परिपाटी का दुरुपयोग करते हैं जिसके द्वारा एक मुस्लिम एक साथ चार पत्नियां रख सकता है. अनेक बूढ़े अरबवासी न केवल अधिकांश नाबालिग हैदराबादी लड़कियों से विवाह करते हैं. वरन् एक बार में ही एक से अधिक नाबालिग लड़कियों से विवाह कर डालते हैं. इस घटिया काम ये अरबवासी टीन एज की कुंवारी लड़कियों को प्राथमिकता देते हैं.

ये अरबवासी सामान्यत: इन लड़कियों से थोड़े समय के लिए विवाह करते हैं और कभी कभी तो केवल एक रात के लिए. वाजिहुद्दीन की रिपोर्ट के अनुसार विवाह और तलाक की औपचारिकता एक साथ पूरी कर ली जाती है .और अखिलेश्वरी के अनुसार इन बुजुर्ग अरबवासियों की वासना की आग को बुझाने के लिए ये लड़कियां केवल पांच सात हजार रु में भी उपलब्ध हैं.
उसी समय भारत के एक टेलीविजन कार्यक्रम में आठ संभावित दुल्हनों को दिखाया गया था जो अरबवासियों को प्रस्तुत की जानीं थीं. यह एक वेश्याग्रह जैसा प्रतीत होता था. इन लड़कियों को अरबियों के समक्ष लाया गया और उन्होंने इनका बुर्का उठाकर उनके बालों में अपनी अंगुलियां फेरी और उनकी अंगुलियों को भली प्रकार जांच कर द्विभाषिय की मदद से उनसे बात की 

वाजिहुद्दीन एक विशेष मामले का उदाहरण देते उस वर्ष लिखा था कि हैं. एक अगस्त 2005 को संयुक्त अरब अमीरात् के 45 वर्षीय शेख़ रहमान इस्माइल मिर्जा अब्दुल जब्बार ने हैदराबाद के ऐतिहासिक चार मीनार इलाके में 70 वर्षीय दलाल जैनाब को इस सौदे के लिए पकड़ा. इस दलाल ने 13 और 14 साल की फरहीन सुल्ताना और हिना सुल्ताना को 25 हजार रु पर राजी किया. उसके बाद उसने काजी को तैयार कर इस्लामिक प्रावधान के अनुरुप इन लड़कियों की शादी अरबवासी से कर दी. रात की शादी के बाद सुबह अरबवासी ने उन्हें छोड़ दिया. उस शादी के लिए इतना समय पर्याप्त था .
इन शादियों को जायज बताते हुए उस समय हैदराबाद के मुसलमानों की प्रमुख पार्टी मजलिसे इत्तिहादुल मुस्लमिन के पार्टी अध्यक्ष सुल्तान सलाहुद्दीन ओवैसी ने तो तब यहां तक कहा था कि आप इस बात से इंकार नहीं कर सकते कि ऐसी शादियों से अनेक परिवारों का भाग्य बदल गया है. इस व्यवसाय का आडंबर इसका सबसे बुरा पक्ष है. स्पष्ट रुप से वेश्यावृत्ति करना और उसे स्वीकार करना ठीक है. बजाय इसके कि धार्मिक प्रावधान का सहारा लेकर नकली शादी करना और इसे धर्म का अंग मानना. वाजिहुद्दीन इन अरबवासियों की तुलना मध्यकालीन राजाओं से करते हैं तो समानता भी स्पष्ट है .

स्थानीय लोग नाबालिग लड़कियों को सेक्स पर्यटन के लिए प्रसन्नता पूर्वक उपलब्ध कराते हैं. अरबवासियों का यह सेक्स पर्यटन भारत तक ही सीमित नहीं है दूसरे गरीब़ देशों में भी फैला है.
यह व्यवसाय समस्या का एक पहलू है जो सउदी अरब और खाड़ी देशों में फैली है. खाड़ी देशों की समस्यायें जैसे रखैल रखना, जबरन मजदूरी, अनुबंध के आधार पर घर में बंधुआ मजदूर रखना. ऐसी समस्यायें हैं जिनपर ध्यान नहीं दिया गया है और न ही इनका समाधान किया गया है. एक सउदी धर्मशास्त्री ने तो उस समय आगे बढ़कर दासता को तो इस्लाम का अंग बताते हुए कहा कि जो भी इसे समाप्त करने की बात करता है वह काफिर है. जब तक बिना प्रतिबंध के ऐसे विचार सामने आते रहेंगे इनका दुरुपयोग भी हमें देखने को मिलेगा .
इस्लामिक कानून की आड़ में मुस्लिम नाबालिगों का सौदा मुस्लिम विश्व में पूर्व आधुनिक तरीकों के वर्चस्व की ओर संकेत करता है. जबकि हर एक बात किसी धर्म के खिलाफ नहीं होती दुनिया में बहुत सारी बाते मानवता की नजर से भी देखी जानी चाहिए शायद इसके बाद धर्म छोटा और मानवता बड़ी दिखाई देगी......Rajeev choudhary 


आर्य समाज के वो जिन्दा बलिदानी

राजनीतिक टकराव और मजहबी विस्तार की भेट चढ़े केरल प्रान्त में आज जो कुछ भी घट रहा है दरअसल इसकी पटकथा लगभग एक सदी पहले लिखनी शुरू हो गयी थी. लाशे गिरती गयी. धर्म खंडित होता गया. 1947 में देश के लोगों ने राजनैतिक स्वतंत्रता का सूरज तो देखा पर धार्मिक स्वतंत्रता के माहौल में खुली साँस ना ला पाए जिस कारण आज भारत के दक्षिण स्थित केरल आज किस तरह जेहादी विषबेल की जकड़ में फंस चुका है, वह हाल ही की एक घटना से पुन: रेखांकित हो गया. यहां के कासरगोड़ जिले में कट्टरपंथी विचारधारा के प्रभाव में एक सड़क का नाम ‘‘गाजा स्ट्रीट’’ रखा गया है. भारत के जिस भू-भाग को उसकी प्राचीन सांस्कृतिक विरासत के लिए ‘‘भगवान की धरती’’ की संज्ञा दी गई, आज वहां मजहबी हिंसा अपने उत्कर्ष पर है. हमेशा से एक दुसरे के राजनितिक धुर विरोधी दल और मीडिया सच से दूर ले जाती रही जिसका नतीजा आज हम सबके सामने है और ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर सच क्या है और क्या इसका अतीत से कुछ लेना है?

दरअसल अतीत की घटनाएँ इतना ह्रदय विदारक रही कि सुनकर खुशनुमा माहौल में भी आँखे गीली कर जाये. तो चलते एक सदी पीछे जब अगस्त 1921 में केरल के मालाबार में मालाबार में मोपला मुस्लिमों ने स्थानीय हिन्दुओं पर हमला कर दिया. मजहबी उन्माद में सैंकड़ों हिन्दुओं की नृशंस हत्या कर दी गई. उन्हें इस्लाम अपनाने या मौत चुनने का विकल्प दिया गया. हजारों का मतांतरण किया गया, गैर-मुस्लिम महिलाओं का अपहरण कर बलात्कार किया गया, संपत्ति लूटी और नष्ट कर दी गई.

हिन्दुओ पर जो अत्याचार हो रहा था काफी समय तक उसकी खबरें पंजाब में प्रकाशित नहीं हुई. हाँ बम्बई के समाचार पत्रों में कुछ खबर छापी जा रही थी लेकिन उस समय का तथाकथित सेकुलिरज्म लोगों को यह कहकर गुमराह कर रहा था कि यह काम हिन्दू और मुस्लिमों के बीच परस्पर मेलजोल की खाई खोदने के लिए किया जा रहा है. इस मजहबी तांडव खबर बम्बई से दीवान राधाकृष्ण जी ने समाचारपत्रों को इकट्ठा कर पंजाब रवाना की तो यहाँ लोगों के ह्रदय हिल उठे.

16 अक्तूबर 1921 शिमला में आर्य समाज का अधिवेशन हुआ और अधिवेशन में सभी के द्वारा नम आँखों से एक प्रस्ताव पास किया गया जिसका उद्देश्य था कि केरल के इलाके मालाबार में मुसलमानों द्वारा जो अत्याचार करके हिन्दुओं को जबरन मुस्लिम बनाया गया उन्हें फिर शुद्धी करके उनके मूल धर्म में वापिस लाया जाये. प्रस्ताव के अनुसार यह अपील भी प्रकाशित की गयी कि जितना शीघ्र हो सके कि पीड़ितों का उचित खर्च भी उठाया जाये ताकि कोई हिन्दू जबरन अपने धर्म से पतित न किया जाये. इसका दूसरा उद्देश्य यह था कि गृहविहीन, दीनहीन, असहाय बनाये गये लोगों को सहायता देकर जीवित रखा जाये और भविष्य में ऐसे कारण न उपजे इसके लिए मालाबार की हिन्दू सोसाइटी को स्थिर किया जाये.
हाय रे भारत के भाग्य तुझे अपने ही देश अपनी संतान की दुर्दशा पर इस कदर भी रोना पड़ेगा यह सोचकर तत्कालीन आर्य समाज के पदाधिकारियों ने कार्य करना आरम्भ किया पंडित ऋषिराम जी को 1 नवम्बर को मालाबार भेजा गया अक्तूबर मास में 371 रूपये दान प्राप्त हुआ अत: उन रुपयों और अपने बुलंद होसलो के बल पर आर्य समाज के वीर सिपाही मोपला विचाधारा से लड़ने निकल चले.

नवम्बर मास तक वहां हिन्दुओं को एकत्र करने का कार्य जारी रहा. लेकिन इसमें एक अच्छी खबर यह थी कि आर्य समाज से जुड़े सभी लोगों ने केरल के पीड़ित समाज के लिए अपने खर्चो में कटोती कर 1731 रूपये ओर भेज दिए. उस समय लाहौर से प्रकाशित अख़बार प्रताप ने लोगों के मन को हिला डाला और आर्य समाज के इस कार्य के लिए प्रताप अख़बार ने जो अलख पुरे पंजाब प्रान्त में जगाई वो अपने में भारतीय पत्रकारिता की सुन्दर मिशाल है. 29 नवम्बर को आर्य समाज ने पुरे तिर्व वेग से लोगों को जोड़ना आरम्भ कर दिया. लेकिन लोग मोपला विद्रोहियों से इस कदर डरे हुए थे कि राहत केम्पों में आने से कतरा रहे थे तब ऋषिराज जी ने वहां की स्थानीय भाषा में पम्पलेट प्रकाशित कराए. अनेक जातीय संगठनो की सभाओं में जाकर व्याख्यान दिए लोगों को समझाया गया कि शुद्धी द्वारा उनका वापिस अपने मूल धर्म में आने का द्वार खुला है.

फरवरी 1922 में आर्यगजट में संपादक लाला खुशहालचंद जी, पंडित मस्ताना जी, पंजाब से मालाबार रवाना हुए आर्य महानुभावों के इस कार्य से उत्साहित आर्यजन लाहौर, बलूचिस्तान समेत अनेक इलाकों में केरल के हालात पर सभाए आयोजित कर रहे थे. मालाबार की दशा यह थी कि घरों से भागे हिन्दुओं के खेत खाली पड़े थे, कुछ घर जले थे और कुछ जले घरों का शमशान बना था. 12 अक्तूबर 1922 तक आर्य समाज से जुडा बच्चा-बच्चा तन-मन-धन से इस पावन कार्य में सहयोग करने लगा. जिस कारण वहां 70 हजार 911 रूपये खर्च किये जा चुके थे. लगभग तीन हजार से ज्यादा लोगों की शुद्धी कर उन्हें वापिस अपने धर्म में लाने का कार्य हो चूका था. मालाबार से कालीकट भागे हिन्दुओं को वापिस बसाया जाने लगा.

शेषांश अगले अंक में- विनय आर्य 

Wednesday 20 September 2017

रोहिंग्या मुस्लिम पर पूरी दुनिया ख़ामोश क्यों है?

भारत के कई शहरों जैसे कोलकाता, लुधियाना, अलीगढ़ वगैरह में रोहिंग्या मुसलमानों के समर्थन में प्रदर्शन हो रहे हैं। रोते बिलखते बच्चों-महिलाओं के फोटो लगी तख्तियां लेकर कहा जा रहा है पूरी नस्ल को ख़त्म किया जा रहा है। बच्चों तक को भाले-बर्छियां भोंककर टांग दिया जा रहा है। औरतों की आबरू लूटी जा रही है। सवाल पूछा जा रहा है कि पूरी दुनिया ख़ामोश क्यों है?

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्ला खुमेनी ने म्यांमार की घटनाओं पर अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और मानवाधिकार के दावेदारों की चुप्पी व निष्क्रियता की निंदा करते हुए कहा है कि इस समस्या को हल करने का मार्ग, मुस्लिम देशों की व्यवहारिक कार्यवाही और म्यांमार की निर्दयी सरकार पर राजनैतिक व आर्थिक दबाव डालना है। इन सब मामलों में अक्सर मानवाधिकार संगठन निशाने पर जरूर होते हैं। लगता है वक्त के साथ अपनी दोगुली नीतियों के चलते आज मानवाधिकार संगठन भी अपनी प्रासंगिता खो बैठे हैं। 
शरणार्थी मामलों के सभी पुराने कड़वे मीठे मामलों को देखते हुए रोहिंग्या शरणार्थी संकट ताजा हैं और म्यंमार के संदर्भ में दोनां सभ्यतायों और संस्कृतियों के संघर्ष को ध्यानपूर्वक देखें तो इसकी शुरुआत आज से नहीं बल्कि 16 वर्ष पहले उस समय हुईई जब तालिबान ने 2001 में अफगानिस्तान के बामियान में बुद्ध की 2 सबसे बड़ी प्रतिमा को इस्लाम विरोधी करार देते हुए डायनामाइट लगाकर उड़ा दिया था। इसके बाद बौद्ध भिक्षु अशीन विराथू अपना 969 संगठन लेकर आए। बुद्ध  की प्रतिमा टूटना इसके बाद इस्लामिक मुल्कों की चुप्पी विराथू को जन्म दे गयी। जिसकी बेचेनी आज इस्लामिक मुल्कों में साफ देखी जा सकती है। लेकिन इस पूरे मामले में चीन, जापान, रूस से लेकर अमेरिका और यूरोप के शक्तिशाली देश तक मौन है क्यों?
 
       
दरअसल दुनिया की पहली प्राथमिकताओं में आज व्यापार सबसे ऊपर है। दूसरा डेनियल पाइप्स कहते हैं कि इस्लाम चौदह सौ वर्ष पुराना डेढ़ अरब से अधिक आस्थावानों का मजहब है जिसमें कि हिंसक जिहादी से शांत सूफी तक सभी आते हैं। मुसलमानों ने 600 से 1200 शताब्दी के मध्य उल्लेखनीय सैन्य, आर्थिक और मजहबी सफलता प्राप्त की। उस काल में मुस्लिम होने का अर्थ था एक विजयी टीम का सदस्य होना यह ऐसा तथ्य था जिसने कि मुसलमानों को इस बात के लिये प्रेरित किया कि वे अपनी आस्था को भौतिक सफलता के साथ जोडे़ं। मध्य काल के उस गौरव की स्मृतियाँ न केवल जीवित हैं बल्कि उनको आधार बनाकर पुनः आज भी उसी स्वर्णिम काल को पाने की चाहत लिए बैठे हैं। 
पिछले कुछ सालों के आंकड़े अतीत से उठाकर देखें तो इस्लाम के मानने वालों को जिस देश व सभ्यता ने शरण दी या तो उन सभ्यताओं को मिटाने का कार्य हुआ या आज इस्लाम का उन सभ्यताओं से सीधा टकराव है। एशिया यूरोप समेत अनेकों देश जिनमें फ्रांस से लेकर जर्मनी, अमेरिका आदि तक में यह जख्म देखे जा सकते हैं। ज्यादा पीछे ना जाकर यदि 2010 के बाद के ही आंकड़े उठाकर देखें तो इस वर्ष रूस की एक मेट्रो को निशाना बनाया गया जिसमें 40 लोग मरे और 100 से ज्यादा जख्मी हुए, भारत में पुणे के 17 लोगों समेत विश्व भर में इस्लाम के नाम पर हुए हमलों में उस वर्ष करीब 673 लोग मारे गये। 2011 चीन में एक उइगर आतंकी द्वारा सड़क पर चलते करीब 15 लोगों को गाड़ी से कुचल कर मार डाला और 42 घायल हुए। दिल्ली में बम विस्फोट से 17 लोगों की जान समेत विश्व भर में 717 लोगों को आतंक के कारण जान से हाथ धोना पड़ा। 2012 में 799 तो 2013 में 768 लोगों को मजहबी सनक का शिकार बनाया गया। 2014 में रूस, फ्रांस, अमेरिका, केमरून, इजराइल समेत इस वर्ष 2120 लोग मारे गये। 2015 में देखे तो डेनमार्क, ट्यूनीशिया, केन्या, अमेरिका, भारत, आस्ट्रेलिया, जर्मनी समेत विश्व के करीब 45 देशों में अलग-अलग 110 से ज्यादा हमले हुए जिनमें 3 हजार से ज्यादा लोगों को मौत की नींद सोना पड़ा। 2016-17 में जिहाद के नाम पर फ्रांस, जर्मनी, इंडोनेशिया, बेल्जियम ब्रिटेन समेत करीब 100 से ज्यादा हिंसक घटनाओं को अंजाम दिया गया जिनमें 2 हजार से ज्यादा लोग मरे। अमेरिका स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हजारों और मुम्बई हमले को भला कौन भुला सकता है जिनमें लगभग विश्व के सभी देशों के लोगों ने बड़ी संख्या में जान गंवाई थी। 

आज इस्लाम में आस्था रखने वाले अनेकों लोग म्यंमार में हो रही हिंसा को बोद्ध आतंक के रूप में प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं। लेकिन जब इराक में यजीदी लोगों से लेकर बहुसंख्यक इस्लाम के द्वारा अन्य अल्पसंख्यक समुदाय पर हिंसक हमले होते हैं तो इसे इस्लामिक आतंकवाद का नाम नहीं दिया जाता क्यों? मुम्बई हमले के वक्त अल जजीरा की वेबसाइट ऐसी टिप्पणियों से भरी पड़ी थी कि मुसलमानों के लिये अल्लाह की शानदार विजय, मुम्बई में यहूदी केन्द्र में यहूदी रबाई और उसकी पत्नी की मृत्यु हृदय को सुख देने वाला समाचार इस्लामी मीडिया में बतलाया गया। हर किसी को याद होगा डेनमार्क के एक समाचार पत्र में प्रकाशित पैगंबर मोहम्मद के कार्टूनों पर हुई प्रतिक्रिया का आवेश जब अनेक देशों के झंड़ों और दूतावासों को आग लगायी गई थी लंदन में प्रदर्शनकारियों की तख्तियों पर यहां तक लिखा था ‘‘इस्लाम का अपमान करने वालों का सिर कलम कर दो।’’ 
लगभग विश्व का हर एक कोना जिसमें स्कूल से अस्पताल तक, परिवहन से लेकर सड़क पर चलते और धार्मिक यात्राओं तक, सभा से लेकर संसद तक मसलन दुनिया इस्लाम के नाम पर दर्द झेल चुकी है। हर बार जानबूझकर पीड़ा पहुँचाने के लिये नये तरीके सामने आये, राजनीतिक नाटक बनाया गया, कलाकार अपनी भूमिका पूर्ण करते गये और मंच से बिदा होते ही उन्हें शहीद बताया गया। मैं कोई ज्यादा बड़े हिंसक कृकृत्य यहाँ नहीं दे रहा हूँ, न रोहिंग्या लोगों के साथ हूं बल्कि उस सच तक ले जा रहा हूँ जहाँ प्रदर्शनकारी पूछ रहे हैं कि पूरी दुनिया खामोश क्यों है?
-राजीव चौधरी