Monday 11 September 2017

ना मौत रुकेगी ना राजनीति

तमिलनाडु के अरियलूर जिले में 17 साल की लड़की एस अनीता की आत्महत्या ने राजनीतिक शक्ल लेना शुरू ही किया था कि कन्नड़ भाषा की (लंकेश पत्रिका) की सम्पादक और लेखक गौरी लंकेश की हत्या ने उसे भुला दिया. नेताओं को अनीता जाति टटोलनी पड़ती इस कारण बिना मेहनत के ही जानी पहचानी गौरी लंकेश को ही मुद्दा बनाना उचित समझा, मुझे पहली बार जानकर आश्चर्य हुआ कि पत्रकार भी पार्टी, धर्म, मजहब और जातियों में बंधे होते है. जहाँ पुरे देश के बुद्धिजीवियों को गौरी की हत्या ने हिलाया वही मुझे इस खबर ने हिला दिया कि बीजेपी विरोधी लेखक गौरी लंकेश की हत्या! 

ऐसा नहीं है कि मेरे अन्दर गौरी के लिए कोई सहानुभूति या संवेदना नहीं है, मानवता के नाते मुझे भी दुःख हुआ लेकिन मेरा दुःख उस समय अनाथ सा हो गया जब मेने प्रेस ट्रस्ट में वो पत्रकार और नेता देखे जो सिर्फ अखलाक, पहलु खान और याकूब मेनन की मौत पर मातम मनाते दिखे थे. गौरी लिख रही थीं मुसलमानों की ओर से, भारत से भी खदेड़े जा रहे बर्मा के रोहिंग्या मुसलमानों की ओर से, नक्सलवादियों की ओर से और कश्मीरी की आजादी के दीवानों की तरफ से.
गौरी की मौत पर दिल्ली के बड़े शिक्षण संस्थान जेएनयू में शोक सभा आयोजित की गयी उसी जेएनयू में जहाँ सेना के जवानों की शाहदत का जश्न मनाने की पिछले दिनों खबर सबने सुनी थी. गौरी कन्हैया को अपना बेटा मानती थी. उमर खालिद का हाल पूछती थी. वो कर्नाटक की राजनीति में अपनी पत्रिका से एक अलख जगाना चाह रही थी. मुझे नहीं पता उसकी मौत किसके काम आएगी शायद उनके ही काम आये जिनके काम दाभोलकर, गोविन्द पानसरे, एमएम कलबुर्गी, अकलाख, इशरत जहाँ की आई थी. कोई इसे भाषा पर तो कोई संस्कृति पर गोली बता रहा है, विपक्ष के बड़े नेता और दुसरे पाले के भावी प्रधानमंत्री ने तो यहाँ तक कहा कि जो मोदी के खिलाफ बोलेगा वो मारा जायेगा. पता नहीं ये दुआ है या बद्दुआ या कोई चेतावनी?

 
ऐसा नहीं है देश में ये सिर्फ तीन या चार पत्रकार या लेखक मारे गये नहीं, अकेले बिहार ही में हिन्दी दैनिक के पत्रकार ब्रजकिशोर ब्रजेश की बदमाशों ने गोली मार कर हत्या कर दी. इससे पूर्व भी सीवान में दैनिक हिंदुस्तान के पत्रकार राजदेव रंजन और सासाराम में धर्मेंद्र सिंह की हत्या की जा चुकी है. पिछली सरकार में उत्तर प्रदेश में एक पत्रकार को कथित रूप से जलाकर मार डालने के आरोप में पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री के खिलाफ मामला दर्ज हुआ था. कहा जाता है कि कथित रूप से फेसबुक पर मंत्री के खिलाफ लिखने के कारण पत्रकार जगेंद्र सिंह को जान गवानी पड़ी थी. लेकिन इन सबका दुर्भाग्य रहा कि इनके लिए प्रेस ट्रस्ट में कोई शोक सभा आयोजित नहीं की गयी ना इनका गौरी की तरह राजकीय सम्मान के साथ अंत्येष्टि. 1992 के बाद से भारत में 27 ऐसे मामले दर्ज हुए हैं जब पत्रकारों का उनके काम के सिलसिले में कत्ल किया गया. लेकिन किसी एक भी मामले में आरोपियों को सजा नहीं हो सकी है.
आज गौरी के अज्ञात हत्यारों का धर्म राजनेताओं को पहले ही पता चल गया कहा जा रहा कि गौरी हिन्दूओं के विरोध में लिखती थी तो उसकी हत्या हिन्दुओं ने ही की है दुःख का विषय है नबी के कार्टून बनाने के आरोप में फ्रांस में मारे गये दर्जनों पत्रकारों का मजहब अभी तक पता नहीं चला, हम जिसे स्वास्थ्य राजनीति समझ रहे है, वह दरअसल एक मजहबी सूजन का शिकार शरीर है.

मैंने सुना था दुःख सुख सबका साझा होता है लेकिन भारत में ऐसा नहीं है जब पत्रकार राजनितिक दलों से, लेखक मजहबों से, कानून संवेदना से और नेता वोटों के लालच बंधे हो तो वहां आम इन्सान को सुख दुःख भी बंटा सा नजर आता है. मसलन अरुण आनंद कहते है कि नक्सलवादियों के काम करने की विशिष्ट शैली का यह हिस्सा है कि तेजी से प्रॉपेगैंडा करो और छोटे-छोटे आयोजन ज्यादा से ज्यादा जगह पर करो. खासकर मीडिया में एक वर्ग उनका घोर समर्थक है. इस बार भी गौरी लंकेश की हत्या के बाद कमोबेश सभी जगह वामपंथियों और नक्सलवाद के समर्थकों ने विरोध प्रदर्शनों की अगुआई की. दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में जेएनयू में भारत विरोधी नारे लगाने वाले कन्हैया कुमार पहुंच गए. बताइए! पत्रकार संगठनों के कार्यक्रम में भारत तेरे टुकड़े होंगेका नारा देने वाले कन्हैया कुमार का क्या काम! फिर डी. राजा, सीताराम येचुरी भी पहुंचे. इन सभी ने माइक पकड़कर भाषण भी दिए. कुछ अवसरवादी तत्वों के कारण पत्रकार संगठनों द्वारा एक पत्रकार की हत्या के विरोध में आयोजित शोक सभा राजनीति का अखाड़ा बन गई और सीधे-सीधे केंद्र सरकार, भाजपा व आरएसएस पर निशाना साधा गया. देश भर में यही हुआ और अब इस आंदोलन को फिर असहिष्णुता के पुराने पड़ चुके मुद्दे से फिर से जोड़ने की कोशिश जारी है.

इस पूरे प्रकरण में जो सबसे शर्मनाक सच सामने आया है वह यही है कि शहरी नक्सलवादी गौरी लंकेश की हत्या की आड़ में राष्ट्रवादियों पर निराधार आरोप लगाकर निशाना साध रहे हैं. उन्हें गौरी लंकेश की हत्या से कोई दुख नहीं हुआ. उनके लिए यह हत्या एक सुअवसर बन गया है, अपने वैचारिक विरोधियों से हिसाब-किताब बराबर करने का. मीडिया व राजनीतिज्ञों का एक वर्ग भी भाजपा व आरएसएस से अपनी चिढ़ के कारण इस कुप्रचार में शामिल हो गया है. यह दुखद है लेकिन लगता है कि सत्ता से बाहर रहने का दंश इतना तीखा है कि लाशों की राजनीति होती रहेगी,,,राजीव चौधरी 



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