Thursday 30 November 2017

संकल्प शक्ति की महिमा

हमारे जीवन में संकल्प शक्ति का बहुत ही बड़ा महत्व है । इसी से व्यक्ति के जीवन का निर्माण होता है, व्यक्ति अपने जीवन को ही परिवर्तन करके नया रंग भर सकता है, निम्न स्तर से व्यक्ति महान बन जाता है। हम जो भी इच्छा करते हैं वह दो प्रकार की होती है , एक सामान्य इच्छा और एक विशेष इच्छा, यह विशेष इच्छा ही जब उत्कृष्ट, दृढ़ व प्रबल बन जाती है उसी को ही संकल्प कहते हैं । हम जो कुछ भी क्रिया करते हैं उसके तीन ही साधन हैं शरीर, वाणी और मन । वाणी और शरीर में क्रिया आने से पहले मन में ही होती है अर्थात् कर्म का प्रारम्भिक रूप मानसिक ही होता है । मन में हम बार-बार आवृत्ति करते हैं कि :- “मैं उसको ऐसा बोलूँगा...”, “मैं इस कार्य को करूँगा....” उसके पश्चात् ही वाणी से बोलते अथवा शरीर से करते हैं । मन में यह जो दोहराना होता है, यही संकल्प होता है।

व्यक्ति का जीवन उत्कृष्ट, आदर्शमय होगा या निकृष्ट होगा यह उसकी इच्छा, संकल्प अथवा विचार से ही निर्धारित होता है । किसी शास्त्रकार ने कहा भी है कि :- “यन्मनसा चिन्तयति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति, यत् कर्मणा करोति तदभिसंपद्यते” अर्थात् जिस प्रकार का विचार व्यक्ति करता है उसका जीवन भी उस प्रकार का बन जाता है । योग शास्त्र के इस वाक्य -“चित्तं ही प्रख्या-प्रवृत्ति-स्थितिशीलत्वात् त्रिगुणम्” के अनुसार चित्त वा मन तीन-तत्वों से बना है, सत्व-गुण, रजोगुण और तमोगुण। कभी किसी गुण की अधिकता होती है तो कभी किसी की न्यूनता होती रहती है । जिसकी अधिकता वा प्रबलता होती है उसका प्रभाव अधिक मन में, क्रिया में अथवा जीवन-व्यवहार में देखा जाता है । अतः मन में उठने वाले विचार वा संकल्प भी तीन ही प्रकार के होते हैं, सात्त्विक संकल्प, राजसिक संकल्प तथा तामसिक संकल्प, परन्तु यहाँ व्यक्ति स्वतन्त्र होता है कि किस प्रकार के संकल्प को मन में स्थान दे, क्योंकि मन में दो प्रकार से परिवर्तन होता है, एक है वृत्ति रूप में और दूसरा है पदार्थ रूप में । वृत्ति अर्थात् विचारों की भिन्नता होने से परिवर्तन देखा जाता है जिसको कि निरन्तर अभ्यास करने से व्यक्ति नियन्त्रण करने में समर्थ हो सकता है और जिस प्रकार की इच्छा करेगा उस प्रकार का विचार उठा सकता है परन्तु पदार्थ रूप में जो परिवर्तन आता है उसको नियन्त्रण नहीं किया जा सकता । 
  
किसी भी कार्य के प्रारंभ करने से पहले संकल्प करना हमारी प्राचीन परम्परा रही है। हमारी वैदिक परम्परानुगत यज्ञ आदि जो भी शुभ कार्य करते हैं सर्वप्रथम  हम संकल्प पाठ से ही आरंभ करते हैं। संकल्प के माध्यम से व्यक्ति मजबूत बनता है, अन्दर से दृढ़, बलवान् होता जाता है। प्रत्येक क्षेत्र में हर प्रकार से उन्नति करने के लिए व्यक्ति को स्वयं को संकल्पवान बनाना चाहिए। जिसको मन में संकल्प कर लिया उसको व्यवहार में क्रियान्वयन करना ही है । जिसका संकल्प जितना मजबूत होता है उसको उतनी ही सफलता मिलती जाती है ।

संकल्प शक्ति को बढाने के लिए सबसे पहले हमें छोटे छोटे संकल्प लेने चाहिए जो कि हमारे लिये लाभदायक हों, हमारे जीवन के साथ-साथ अन्यों के लिए भी उपयोगी हों और उसको पूरा बल लगा कर तन-मन-धन से निष्ठा पूर्वक पूर्ण करना चाहिए। जैसे कि हम संकल्प ले सकते हैं प्रातः काल जल्दी उठने का और रात्रि को जल्दी सोने का और जिस समय का निश्चय किया हो उसी समय ही उठना और सोना चाहिए। इस प्रकार संकल्प लेकर पूरा करने से मन भी दृढ़ होता है और आत्मविश्वास भी बढ़ता है। धीरे-धीरे बड़े-बड़े कार्यों का संकल्प लेना चाहिये जैसे कि “मुझे किसी भी परिस्थिति में सत्य ही बोलना है”, “मुझे कभी भी आलस्य नहीं करना है” “मैं कभी चोरी नहीं करूँगा, सदा पुरुषार्थ ही करूँगा” “मैं किसी के लिए भी कभी अपशब्द का प्रयोग नहीं करूँगा”, “कभी क्रोध नहीं करूँगा”, “ किसी से इर्ष्या-द्वेष नहीं करूँगा” “ मैं सदा गरीब,निर्धन,असहाय, जरुरतमन्द व्यक्तिओं की सहायता करूँगा” । इस प्रकार एक-एक संकल्प को लेकर जीवन भर निभाना चाहिए जिससे अपना जीवन भी सुधरता है, विकसित होता है,  स्वयं का विश्वास भी बढ़ता है साथ-साथ अन्य लोग भी उस व्यक्ति के ऊपर विश्वास करने लग जाते हैं कि- “यह व्यक्ति जो भी संकल्प लेता है, मन में जो ठान लेता है उसको करके ही छोड़ता है” और ऐसा विचार कर अनेक प्रकार से सहयोग भी करते हैं, इस प्रकार धीरे धीरे हम इसी संकल्प शक्ति के माध्यम से बड़े से बड़ा कार्य भी करने में समर्थ हो जाते हैं। शास्त्रों में भी शारीरिक शक्ति की अपेक्षा मानसिक शक्ति के महत्व को अधिक स्वीकार किया है। योग दर्शन के भाष्यकार लिखते हैं कि – “मानसिक-बल-व्यतिरेकेण कः दंडकारण्यं शून्यं कर्तुम् उत्सहेत्” अर्थात् केवल शारीरिक कर्म के द्वारा कौन भला मानसिक बल के बिना दंडकारण्य को शून्य करने में समर्थ हो सकता है । 

संसार की सफलताओं का मूल मन्त्र है उत्कृष्ट मानसिक शक्ति, दृढ़ संकल्प शक्ति, इसी की प्रबलता से संसार में व्यक्ति को कोई भी वस्तु अप्राप्य नहीं रह जाता । अपार धन- संपत्ति हो, चाहे उत्कृष्ट विद्या हो, समाज में प्रतिष्ठा हो वा मान-सम्मान हो सब कुछ इसी साधन के माध्यम से व्यक्ति प्राप्त कर लेता है । लौकिक सफलताओं के साथ-साथ यह एक ऐसा आधार- स्तम्भ है जिसके द्वारा एक आध्यात्मिक व्यक्ति भी अपनी साधना क्षेत्र में सफल हो जाता है । यह एक ऐसी दिव्य विभूति है जिससे मनुष्य ऐश्वर्यवान् बन जाता और अकल्पनीय, अविश्वसनीय कार्यों को करते हुए सबको हतप्रभ कर देता है। संकल्प एक ऐसा कवच है जो कि धारण करने वाले को माता के समान सभी प्रकार के विपरीत अथवा विकट-परिस्थितिओं से निरन्तर रक्षा करता रहता है । किसी भी लौकिक अथवा आध्यात्मिक कामनाओं की पूर्ति का मूल मन्त्र संकल्प ही है । किसी भी सफल व्यक्ति के जीवन का यदि हम निरीक्षण करें तो ज्ञात होगा कि उसकी सफलता के पीछे अवश्य ही संकल्प का हाथ होगा ।

जब हम कोई लक्ष्य निर्धारित कर लेते हैं तो उसकी सिद्धि के लिए सर्व प्रथम दृढ़ संकल्प और उसके पश्चात् अत्यन्त उद्योग, कठोर पुरुषार्थ, एकाग्रता व तत्परता भी आवश्यक होता है । यह सत्य है कि संकल्प और पुरुषार्थ के बिना सफलता की सिद्धि नहीं होती। संकल्प से हमारी बुद्धि लक्ष्य के प्रति स्थिर रहती है और हम अन्तिम क्षण तक सक्रिय बने रहते हैं तथा बड़े से बड़ा अवरोधक तत्व भी हमारी सफलता को रोक नहीं सकते । कभी तमोगुण से प्रभावित होकर, तामसिक संकल्पों से युक्त होकर असत्य, अन्याय, अधर्म, अत्याचार, भ्रष्टाचार, चोरी, डकैती, व्यभिचार आदि कर्मों के द्वारा अपना तथा दूसरों के जीवन को नष्ट न कर दें इसीलिए वेद में ईश्वर ने निर्देश दिया कि “तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु” अर्थात् मेरा मन सदा कल्याणकारी संकल्पों से युक्त हो, अपना तथा अन्यों की उन्नति के लिए प्रयत्नशील हो । जब भी हम कोई संकल्प लेते हैं और लक्ष्य कि ओर चल पड़ते हैं तो संकल्प की सिद्धि और हमारे बीच में अनेक प्रकार की परिस्थितियाँ व्यवधान बनकर खड़ी हो जाती हैं तो हमें यहाँ अत्यन्त संघर्ष करना होता है । कोई व्यक्ति जब यह कहता है कि – “मैं तो इस कार्य को किसी भी प्रकार से करूँगा ही” तो वह कभी ना कभी सफल हो ही जाता है और ठीक इसके विपरीत जो व्यक्ति संकल्प ही नहीं लेता और कहता है कि मैं तो इस कार्य को नहीं कर पाऊंगा तो वह कभी भी सफल नहीं हो सकता । जब भी हमें किसी कार्य में असफलता मिलती है तब कभी भी हताश-निराश होकर संकल्प को छोड़ नहीं देना चाहिए । विचार करना चाहिए कि - हमारे सामर्थ्य में कहीं कुछ कमी हो, हमारी क्रिया करने की शैली में कमी हो, उस विषयक हमारा अनुभव न हो, अथवा साधनों में कोई न्यूनता हो, क्योंकि असफलता के पीछे यही मुख्य कारण होता है । न्याय शास्त्रकार ने भी कहा है कि – “कर्म-कर्त्रृ-साधन वैगुण्यात्” अर्थात् कर्म में कोई दोष हो, कर्ता में कोई दोष हो अथवा साधनों में कोई दोष हो तो सफलता नहीं मिलती । अतः दोषों को पहचानें और उनको दूर करने का प्रयत्न करें तभी हमारा संकल्प सफल हो पायेगा ।
सबसे बड़ा हमारा लक्ष्य है आनन्द की प्राप्ति, ईश्वर-प्राप्ति अथवा मोक्ष-प्राप्ति । इस महान् लक्ष्य के लिए हमें संकल्प भी उतनी ही महानता से, दृढ़ता के साथ  लेना होगा तथा उतना महान् घोर-पुरुषार्थ भी करना होगा । तो आइये हम सब संकल्पवान बनें और जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करके अपने जीवन को सार्थक-सफल बनायें ।    
आचार्य नवीन केवली  


क्या आर्यों ने भारतीय उपमहाद्वीप पर हमला किया और जाति व्यवस्था को लागू किया?

उत्तर: आर्यों ने कभी भारतीय उपमहाद्वीप या दक्षिण एशिया पर हमला नहीं किया। न ही यहां जाति व्यवस्था को किसी ने भी लागू किया था तो सवाल का सरल उत्तर नहीं है।
शब्द आर्यों का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो प्रोटो-इंडो-यूरोपीय (पीआईई) भाषा बोलते थे जो दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैलती थी, जिसमें संस्कृत और लैटिन जैसे भाषाओं के इंडो-यूरोपियन परिवार को जन्म दिया गया था, जिसमें से विभिन्न भारतीय और यूरोपीय क्षेत्रीय भाषाओं में उभरी
इन लोगों ने घोड़े, गोदामों का पालन किया, और प्रवक्ता और कृषि के साथ पहिया से परिचित थे। वहां एक महान बहस हुई है, जहां से वे उत्पन्न हुए हैं: यूरोप, तुर्की (एनाटोलिया), भारत या यूरेशिया
1 9वीं शताब्दी के नस्लीय सिद्धांत ने मान लिया कि घुड़सवार रथों पर गोरा नीली आंखों वाले योद्धाओं ने अपने लोगों को गुलाम बनाते हुए, सिंधु घाटी के शहरों पर बल देकर भारत में अपना रास्ता तोड़ दिया। इस सिद्धांत ने सिंधु घाटी शहरों और भारत की सर्वव्यापी जाति व्यवस्था के पतन की व्याख्या की। यह सिद्धांत यूरोपीय प्रचार मशीनरी का हिस्सा था। जर्मनों ने इसका इस्तेमाल राष्ट्रवादी पौराणिक कथाओं के हिस्से के रूप में किया, जो कि उनकी पूर्व सेमेटिक नाजी विरासत का जश्न मनाते थे। अंग्रेजों ने इसे हिंदुओं को व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल किया और दावा किया कि 'ऊंची जाति' हिंदू मुसलमानों और यूरोपियों के रूप में भारत के बहुत आक्रमणकारियों और विजेता थे, और इसलिए उन्हें भारत के रूप में मातृभूमि का दावा करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है।
स्वाभाविक रूप से, इसे हर स्वाभिमानी हिंदू राष्ट्रवादी मिल गया। लेकिन इस सिद्धांत में वैज्ञानिक प्रमाणों की कमी थी अनुसंधान ने दिखाया है कि सिंधु घाटी के शहरों में जलवायु परिवर्तन की वजह से ढह गई, आक्रमण नहीं, वैदिक भजनों को संकलित या बनाये जाने से पहले
आनुवंशिक आंकड़ों से पता चला है कि आनुवंशिक मिश्रण 4,000 साल पहले भारत में आम था। जाति के आधार पर कठोर विवाह नियम जो अद्वितीय आनुवंशिक समूहों को बनाया था, केवल लगभग 2000 साल पहले ही पता लगा सकते हैं। गलत साबित होने के बावजूद, लोकप्रिय कल्पना में, यह सादगी इसकी सादगी के चलते अभी भी इस प्रचार को रोकती है।

एनाटोलियन सिद्धांत बताता है कि भारत-यूरोप का मूल देश, हम अब इस क्षेत्र में तुर्की के साथ सहयोग करते हैं और प्रवास 8000 साल पहले हुआ था। यह सिद्धांत अस्वीकार कर दिया गया है क्योंकि भाषा ही 7,000 साल पहले उभरी है और आनुवांशिक अध्ययन लगभग 5000 सालों पहले बड़े पैमाने पर प्रवास दिखाते हैं।


1 9 80 के दशक में भारत के बाहर का सिद्धांत उभरा। इस के अनुसार, भारत आर्यों का देश है। आर्यों ने वेदों को बना लिया और सिंधु घाटी के शहरों का निर्माण किया। वे ईरान से बाहर चले गए, और उसके बाद यूरोप। यह तर्क ध्वनि तर्क पर आधारित है, हालांकि हाल के आनुवंशिक अध्ययनों में आर्यन प्रवासन के पक्ष में सबूत स्पष्ट रूप से झुका गया है। बाद में शोध अन्यथा साबित हो सकता है।
भाषाई, पुरातत्व, और सबसे महत्वपूर्ण बात से वर्तमान डेटा, आनुवंशिक अध्ययन आर्यों के यूरेशियन मूल के पक्ष में हैं। भाषा लगभग 7,000 साल पहले विकसित हुई थी, जो कि घोड़े के पालेदार समय के आसपास थी। 5,000 साल पहले जलवायु परिवर्तन, मजबूर प्रवासन एक समूह ने पश्चिम की ओर यूरोप की ओर ले जाया और अन्य समूह लगभग 5000 सालों पहले पूर्व में चले गए।
पश्चिम की ओर ब्रांड 3,500 साल पहले के मेसोपोटामिया में मितानी शिलालेख में वेदों-इंद्र, मित्रा और वरुना में वर्णित देवताओं के उपलब्ध एकमात्र एपिग्राफिक रिकॉर्ड को छोड़ दिया था। पूर्व की ओर शाखा अद्वितीय थी क्योंकि वे दोनों एक मादक पदार्थ होम / सोमा के बारे में बात करते थे। यह लगभग 4,500 साल पहले दो समूहों में विभाजित है। एक ईरानियाई हाथ था, जिसने अंततः अवेस्ता की पूजा की थी जहां 'देवास' राक्षस थे जो फिर पारसी धर्म को जन्म देते थे। और वहां एक भारतीय हाथ था जो अंततः वेदों की पूजा करते थे जहां 'देवास' देवता थे, जिसने अंततः हिंदुत्व को हम जो कहते हैं, उसे जन्म दिया।

ये आर्य भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग 4000 साल पहले प्रवेश करते थे, एक समय था जब सिंधु-सरस्वती घाटियों के शहर पहले ही अस्वीकार कर दिए थे। इन शहरों की स्थापना 8,000 साल पहले की थी, वर्तमान साक्ष्य के अनुसार, लेकिन करीब 3,000 वर्षों के लिए संपन्न होने के बाद, जलवायु परिवर्तन और गरीब कृषि पैटर्नों के बाद गिर गया था। आर्यों ने घोड़ों और पीआईई भाषा उनके साथ लायी थी, लेकिन वेदों को नहीं।
सिंधु घाटी में और सरस्वती के सूखे नदी के बेड में, सड़ने वाले ईंट शहरों में, जो स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिलते थे, जिन्होंने इस क्षेत्र में एक बार महान सरस्वती नदी की यादें रखी थीं। आर्यों ने पुरानी भजनों को परिष्कृत किया, नए भजनों को अंततः रिग वेद बनाने के लिए संकलित किया गया, एक भाषा में अब हम वैदिक या पूर्व-पाणिनी या पूर्व शास्त्रीय, संस्कृत के रूप में जानते हैं। इस भाषा में लगभग 300 शब्द मुंडा भाषा से उधार लिए गए हैं, जिन्हें पूर्व वैदिक भारतीय भाषा माना जाता है, जो स्थानीय प्रभाव का संकेत देता है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि भजन कोई यूरेशियन देश नहीं हैं, लेकिन सरस्वती नदी नदी के बारे में स्पष्ट जानकारी है। कोई अनुमान लगा सकता है कि वास्तविक भजन के बाद पीढ़ियों उत्तर भारत में भजन थे।

देवदत्त पटनायक

ये मासूम बच्चें जा कहाँ रहे है ?

विषय हैरान कर देने वाला है. तो जाहिर सी बात है प्रतिक्रिया भी हैरान कर देने वाली आपकों सुनने को मिलेंगी. पर क्या दलीलों के डर से सवाल उठाना बंद कर देना चाहिए? 23 नवम्बर का अखबार सभ्य समाज के लोगों ने जरुर अपने बच्चों से छिपाया होगा क्योंकि उसकी प्रमुख खबर ऐसी थी कि दिल्ली साढ़े चार साल के बच्चे पर साथ पढ़ने वाली बच्ची के बलात्कार का आरोप, पुलिस ने दर्ज किया केस. मेरे ख्याल से जितना दुःख हमें किसी बम विस्फोट या ट्रेन की किसी दुर्घटना पर होता हैं उतना ही दुःख इस खबर को पढ़कर भी हुआ होगा कि हमारे देश का मासूम सा बचपन किधर जा रहा है.

महाभारत में एक प्रसंग है जब महात्मा विदुर भीष्म से उनके कक्ष में कहते है कि तातश्री जब हस्तिनापुर के पाप की नदी बहेगी तो मैं और आप जरुर उस नदी के किनारे पर खड़ें होंगे. क्योंकि हस्तिनापुर में होने वाली अप्रिय घटनाओं पर कम से कम हम चर्चा तो कर लेते है वरना अन्य लोग तो चर्चा भी करना जरूरी नहीं समझते. ठीक इसी तरह यदि आज इन घटनाओं पर हम चर्चा नहीं करेंगे तो क्या भविष्य हमसे भी सवाल नहीं करेगा कि उस वक्त इस पर चर्चा करने की जिम्मेदारी किसकी थी? समाज बदल रहा है. हमारे रहन-सहन का ढंग बदल रहा है. खर्च चलाने के लिए माता-पिता का काम करना जरूरी है ही. फिर क्या किया जाए? बस परिवर्तन कहकर नकार दिया जाये या जिम्मेदारी से सरकार और नागरिकों को समय रहते इस पर बहस करनी नहीं चाहिए क्योंकि हमारी धरोहर आने वाली पीढ़ी है यदि यह नस्ल ही खराब हो गयी तो हम किस मुंह से अपनी संस्कृति, अपने देश अपने आध्यात्म पर गर्वीले गीत गा सकेंगे?

हमारे बच्चे समय से पहले जवान हो रहे हैं. आखिर क्यों? जो भी तस्वीर हमारे सामने उभर रही है वह समाज को सवालों के कटघरे में खड़ा कर रही है. हाल ही में पश्चिमी दिल्ली के एक नामी स्कूल में साढ़े चार साल के एक लड़के द्वारा अपनी क्लास में पढ़ने वाली छात्रा के साथ क्लास और वॉशरूम में बलात्कार करने का मामला सामने आया है. तो कुछ दिन पहले ही 15 साल की एक लड़की दिल्ली हाई कोर्ट में चीख-चीखकर कह रही थी कि उसे अपने पति के साथ रहना है. सितम्बर माह की हिमाचल प्रदेश की उस घटना को कौन भूला होगा जिसने हमारी संस्कृति से लेकर हमारे मन के भी चिथडें-चिथडें कर दिए थे. जब चंडीगढ़ के सरकारी अस्पताल में 10 वर्ष की एक बच्ची ने बच्चें को जन्म दिया था. मई 2017 में 12 साल की एक गर्भवती बच्ची को कोलकाता के एक स्कूल से बेदखल करने का आदेश दिया गया था. इससे पहले भी अप्रैल 2017 में केरल से एक शर्मशार करने वाला मामला सामने आया था जहाँ पर एक 15 साल की लड़की अपनी ही  14 साल के चचेरे भाई के बच्चे की माँ बनी थी.

उपरोक्त घटनाओं के कारण कुछ भी रहे हो लेकिन इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि बच्चा हमेशा वो चीज ग्रहण करता है जो समाज और घर में बंट रही होती है. आज समाज में बंट क्या रहा है हर कोई जानता है लेकिन विरोध कौन करेगा? जब 2015 में भारत सरकार द्वारा कुछ पोर्न साइट पर बैन लगाए जाने का आदेश दिया गया तो इसी देश में इसके खिलाफ अनेक लोग विरोध पर  खड़े हो गए थे. उस समय मीडिया में बैठे कुछ तथाकथित बुद्धिजीविओं ने इसे स्वतन्त्रता से मौलिक अधिकारों का हनन भी बताया था. जबकि सब जानते है कि इंटरनेट पर ओपन सेक्स मार्केट को मानसिकता में विकृति एक बड़ा कारण बनती जा रही हैं. समाज सिर्फ विज्ञान के सहारे नहीं  चलता इनमे भावनाओं का एक अहम् खेल होता है. उम्र, सपने, समझ और ऐसे कई सारे शब्द मिलकर एक ऐसा जाल बुनते हैं कि जिसमें आज हमारा मासूम बचपन फंसता चला जा रहा है.

यदि गंभीरता का आवरण चढ़ा कर देखे तो हमारे शहरों में हाल के वर्षों में यौन संबंधो को लेकर किशोरों के मन में कैसे बदलाव हो रहे हैं, इसकी तश्वीर एक ई-हेल्थकेयर कंपनी मेडीएंजल्स डॉट कॉम के सर्वे से देखने को मिलती है. यह सर्वे पिछले दिनों देश के 20 बड़े शहरों में 13 से 19 साल के 15,000 लड़के-लड़कियों के बीच किया गया. सर्वे के अनुसार देश में लड़कों के लिए पहली बार यौन सम्पर्क बनाने की औसत उम्र 13  साल है. जबकि लड़कियां 14 साल  की उम्र में इसका अनुभव हासिल कर लेती हैं. मामला यहीं नहीं रूकता. कम उम्र में यौन सम्बन्धों के प्रति आकर्षण और इससे जुड़े प्रयोग करने की चाहत में कई किशोर यौन संक्रामक रोगों से भी ग्रसित हो रहे हैं.


कहने को हम भारतीय बड़ी तेजी से तरक्की कर रहे है लेकिन बच्चों की उम्र और इस तरह के बढ़ते मामलों को करीब से देखें तो हम लगभग 12 वर्ष का चारित्रिक पतन कर बैठे. आज अधिकांश बच्चों की पहुँच में इंटरनेट हैं, मोबाइल है सस्ते डाटा प्लान है. एक किस्म से कहाँ जाये तो उसकी मासूमियत को उसके चरित्र को उड़ाने का अद्रश्य बारूद उसके अन्दर हैं जो उसकी मनोवृति को जकड़ रहा है. शहरों में अधिकांश माता-पिता दोनों कामकाजी हैं. अकेलेपन के बीच जब आपका बच्चा दोस्तों और अनजान लोगों के बीच ज्यादातर वक्त गुजारने लगे तो इसके लिए क्या हम जिम्मेदार नहीं हैं? हर कोई बच्चों के लिए सब कुछ करते हैं, अच्छे से अच्छी शिक्षा का प्रबंध, घर में अच्छी व्यवस्था, उनकी इच्छाओं का ख्याल लेकिन अगर आप उनके साथ समय नहीं बिता पाते तो ये सारी कोशिशों पर पानी फेरने के लिए काफी है. क्योंकि आज उनके मनों में इतने सारे  शारीरिक, सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक बदलाव हो रहे होते हैं की आपके बच्चे के मन में सैकड़ों बातें चल रही होती हैं. अगर इन बातों को सुना न जाए, समझा न जाए तो धीरे-धीरे ये विकार के रूप में मन के किसी कोने में घर कर लेती हैं और जब तक हम ऐसी घटना अफ़सोस जाहिर कर रहे होते है एक-एक और घटना चोरी छिपे हमारे पीछे खड़ी होती जा रही है ...लेख-राजीव चौधरी चित्र साभार गूगल 

आखिर क्या हैं मनुस्मृति अब स्वयं पढ़िए और जानिए

मनुस्मृति के विषय में भ्रांतियों निवारण के लिए आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित एवं डॉ सुरेंद्र कुमार द्वारा लिखित मनुस्मृति भाष्य उपलब्ध है।
आखिर क्या हैं मनुस्मृति अब स्वयं पढ़िए और जानिए
एक शेर जंगल में घास खा रहा हो और दूसरा मांसाहारी हो, क्या यह हो सकता है? या एक खरगोश वनस्पति और दूसरा कीड़े मकोड़े खाता हो? शेर हो खरगोश क्या इनके अलग-अलग धर्म हो सकते है? सब कहेंगे नहीं, बिलकुल नहीं तो सोचिये मनुष्य का धर्म अलग-अलग कैसे हो सकता है? आज के संसार में सबसे बड़ा प्रश्न हैं वास्तविक धर्म क्या है और धर्म कैसा होना चाहिए?
आप आये दिन नेताओं और बुद्धिजीविओं की बहस देखते होंगे महीने दो महीने में मनुस्मृति को लेकर भी बहस दिखाई देती है. तब सब लोग सोचते है आखिर मनुस्मृति में ऐसा क्या है जो ये बहस का विषय बनी है.? दरअसल समाज के सामाजिक सविधान मनुस्मृति को लेकर लोगों के मन में बहुत जिज्ञाषायें खड़ी रहती है.
सब जानते हैं प्राणीमात्र के लिए एक-सा होने से संसार भर के मनुष्यों का धर्म वेद है.
मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण कहे हैं और मनु सृष्टि के प्रथम शासक चक्रवर्ती (विश्व) भर के राजा हुए हैं उनका रचा स्मृति ग्रन्थ सब विद्वानों ने हर प्रकार से उच्च और श्रेष्ठ माना है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य और शुद्र क्या हैं क्यों आये दिन इन्हें लेकर बयानों के तीर चल रहे है? हम अक्सर सुनी सुनाई बातों पर विश्वास कर लेते है लेकिन असल ज्ञान पढ़कर होता हैं. जब हम चर्चा में होते हैं तो हमारे पास साक्ष्य मजबूत हो तो कोई हमें हरा नहीं सकता.
परमात्मा के बनाये हुए सूर्य,चन्द्र,तारे,जल,हवा,जमीन आदि का उपयोग सबके लिए है,किसी से ईश्वर ने भेदभाव नहीं किया,और कर्मों का फल भी सबको भोगना पड़ता है चाहे मुसलमान हो या हिन्दू।इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि दोनों जातियों में सुख-दुःख देखे जाते हैं।इसी प्रकार वेद का ज्ञान ईश्वर ने सबके लिए दिया है,कोई उससे आचरण में लाकर लाभ न उठाये तो इसमें ईश्वर क्या करे।....
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Monday 27 November 2017

राजनीति की तराजू में आदर्श महापुरुष

अगला लोकसभा चुनाव किसके पक्ष में होगा अभी इसकी महज परिकल्पना ही की जा सकती है किन्तु राजनेताओं की तिकड़मबाजी अभी से शुरू होकर आदर्श महापुरुषों के चरित्र और सम्मान पर आन टिकी है। यह दुखद घड़ी है कि अखिलेश यादव की ओर से सैफई में योगिराज श्रीकृष्ण की 50 फुट ऊंची प्रतिमा लगवाने के बाद अब मुलायम सिंह ने कृष्ण को पूरे देश का आराध्य बताया है। उसने आस्था की तराजू पर रखकर राम और कृष्ण के आदर्श तोलकर बताया कि श्रीकृष्ण ने समाज के हर तबके को समान माना और यही कारण है कि कृष्ण को पूरा देश समान रूप से पूजता है, जबकि राम सिर्फ उत्तर भारत में पूजे जाते हैं। दरअसल मुलायम सिंह यादव राम और कृष्ण की तुलना कर अपनी धार्मिक राजनीति चमका रहे हैं शायद वे यह बताना चाह रहे थे कि मर्यादा पुरषोत्तम राम क्षेत्रीय भगवान है और श्रीकृष्ण राष्ट्रीय? पर वह भूल गये कि हमारा पूरा देश जन्माष्टमी हो या रामनवमी समान आस्था और विश्वास के साथ मनाता आया है। 


सब जानते हैं कि यह भारत की राजनीति है जब यहाँ सत्ता पाने का कोई चारा दिखाई न दे तो धर्म का ढ़ोल बजा दिया जाये। यदि धर्म का ढ़ोल कमजोर पड़े तो जाति और क्षेत्रवाद में लोगों को बाँट दिया जाये यदि इनसे भी काम ना चले तो भारतीय संस्कृति जिसमें उसके महापुरुष जन्में हां, उनका एक मर्यादित इतिहास रहा हो तो क्यों न उनका इतिहास उधेड़कर अपने तरीके से बुना जाये? चाहे वह युगों-युगान्तरों पूर्व का ही क्यों न हो?

मुलायम सिंह यादव खुद को समाजवाद के अग्रणी नेता बताते रहे हैं। समाजवाद का अर्थ यही होता होगा कि समाज में सब में समान हो। कोई छोटा-बड़ा नहीं हो, इसमें चाहे आम समाज हो या महापुरुष। खुद मुलायम सिंह के गुरु लोहिया भी राम, कृष्ण और राजा शिव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे  उन्होंने कहा था कि हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म और वचन और मर्यादा दो। लेकिन अब अब राम भाजपा का हो गया और श्रीकृष्ण समाजवादियों के। अब भला समाजवादियों का कृष्ण राम से कम कैसे आँका जाये? लगता है अब धार्मिक आस्थाओं का मूल्य वोट और नोट से ही चुका-चुकाकर जीना पड़ेगा। कारण धर्म पर बाजार और राजनीति जो हावी है। आपको अपने भगवान के बारे में जानना है तो राजनेता बता रहे हैं और यदि इसके बाद उनके दर्शन करने है पैसे चुकाने पड़ेंगे ये आपको तय करना है कि कितने रुपये वाला दर्शन करना है और आपका भगवान राजनितिक तौर पर कितना मजबूत यह जानने के नेता बता रहे हैं।

महात्मा गांधी ने गीता को तो स्वीकार किया उसे माता भी कहा लेकिन गीता को आत्मसात करते उनके अन्दर हिचक दिखाई दी इससे गाँधी की अहिंसा के मूल्य खतरें में पड़ जाते थे। उन्होंने कहा यह लड़ाई कभी हुई ही नहीं यह मनुष्य के भीतर अच्छाई और बुराई की लड़ाई है। यह जो कुरुक्षेत्र है वह अन्दर का मैदान है। कोई बाहर का मैदान नहीं है। अब सवाल यह भी है कि  कला से लेकर संस्कृति तक क्या अब भगवान भी राजनीति के कटघरे में खड़े से नजर नहीं आ रहे हैं? यह स्थिति क्यों बनी और क्या ऐसी ही स्थिति बनी रहेगी? अब हमारे सामने आगे की राह क्या है? अभी किसी ने सुझाई नहीं है। अलग-अलग काल में धर्म और राजनीति की अलग-अलग भूमिका रही है। लेकिन वर्तमान समय इन दोनों को एक जगह मिलाकर व्याख्या कर रहा है। जिसे अभिव्यक्ति की आजादी का नाम दिया जा रहा है। ये नेता महापुरुषों को चरित्र बिगड़कर क्या साबित करना चाह रहे है अभी किसी को पता नहीं!


आधुनिक जीवनशैली के चलते महापुरुषों से लेकर धर्म को अपने अनुसार बदलने पर तुले हैं, इतिहास से लेकर अपने नायकों अधिनायकों पर सवाल उठा रहे हैं पर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि यह बदलाव हमारे लिए भविष्य में सकारात्मक होगा या नकारात्मक? क्योंकि यहाँ सबसे बड़ा सवाल यह है कि बिगाड़ तो रहे हैं लेकिन बना क्या रहे हैं? निश्चित रूप से अब तक जो भी जवाब या स्वरूप सामने आये हैं वह नकारात्मक हैं।  इस कारण अब हमें धर्म की व्याख्या करते समय इस बात का ध्यान आवश्यक रूप से रखना होगा कि हम राजनीति को धर्म से अलग रखें तभी धर्म के संस्कारों का बीजारोपण आगे आने वाली पीढ़ी में कर पाएँगे। इसलिए आवश्यक है कि धर्म और राजनीति के मूल तत्त्व समझ में आ जाए। धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन दोनों को भ्रष्ट कर देता है, फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।
संकीर्ण भावनाओं का इस्तेमाल पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति का हिस्सा बना हुआ है, जिससे देश और समाज को बहुत बड़ा नुकसान हुआ है। नेताओं को अपने राजनितिक युद्ध में अपने महापुरुषों को नहीं घसीटना चाहिए हो सकता है एक नेता का दुसरे नेता से कोई वैचारिक विरोध हो पर राम का कृष्ण से कैसा विरोध? हर कोई अपने-अपने समय पर इस पावन भारत भूमि पर आया, अपने विचारों से अपनी शिक्षाओं से समाज को दिशा दी है, सामाजिक, नैतिक मूल्य मजबूत किये, आचरण सिखाया, आगे चले और बिना किसी जातिगत भेदभाव के आगे चले। अब हमें अपने व्यवहार व आचरण को लेकर सोचना होगा और इस बात को ध्यान में लाना होगा कि यदि हमने महापुरुषों को क्षेत्र या जातिवाद या फिर दलीय राजनीति में विभाजित किया तो क्या हम भी विभाजित हुए बिना रह पाएंगे?


पर खिलजी तो अभी भी जिन्दा है

                              
महारानी पद्मावती को लेकर पिछले काफी दिनों से देश के नेता, पत्रकार और इतिहासकार अतीत के काल खण्ड पर बहस किये बैठे हैं। मुद्दा है फिल्म निर्माता संजय लीला भंसाली की आगामी फिल्म पद्मावती। कहा जा रहा है कि इस फिल्म में कुछ आपत्तिजनक जनक सीन है जिसे कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। इस कारण राजनीति और फिल्म का बाजार गर्म है। साथ ही सवाल भी उठ रहे कि भारत का इतिहास अब फिल्म निर्माता लिखेंगे या राष्ट्रवादी कलमकार? इसमें पहली बात तो यह है कि हमारे भारत का मध्यकाल का इतिहास बहुत ही पीड़ादायक रहा है जिसके कारण यहाँ अनेक कुरूतियों का जन्म हुआ, सतियों ने अपने सम्मान की खातिर अपनों प्राणों को अग्नि की दहकती भट्टियों में स्वाह किया। अनेक राजाओं, वीरों और गुरुतेगबहादुर जैसे भारत माँ के सपूतोंं ने अपने सिर मुस्लिम हमलावरों के सामने झुकाने के बजाय कटा दिए ताकि इस देश का अस्तित्व, इसका धर्म और संस्कृति बची रहे।

महाराणा प्रताप और अकबर को लेकर पिछले दिनों नेतागण भिड़ते दिखाई दिए, टीपू सुल्तान को लेकर जुबानी जंग चली, ताजमहल पर बयानों के ताज नेताओं के सर पर खूब सजे, इस बार भी पद्मावती को लेकर एतिहासिक संघर्ष जारी है। हरियाणा के एक नेता ने तो फिल्म निर्माता के सिर काटने की धमकी के साथ आवेश में आकर 10 करोड़ का इनाम भी बोल दिया। लेकिन यदि इस पूरे मामले पर गौर करें तो देखेंगे कि एक भी बयान खिलजी के ऊपर आया हो? तत्कालीन सल्तनत के शासक अलाउद्दीन खिलजी द्वारा भारत के बहुसंख्यकों हिन्दुओं पर किए गए अत्याचारों के खिलाफ किसी ने कोई बयान दिया हो? इतिहास का मध्यकाल भारत के तन-मन को तोड़ने की  दुःख भरी कहानी है। इस कथा के तथ्य विदेशी हमलावरों के खूनी चरित्र का जिन्दा दस्तावेज भी हैं। लेकिन आज उसे धर्मनिरपेक्षता के धागों में पिरोकर पहनाया जा रहा है।

सूरज के उदय और अस्त होने के साथ-साथ काल गुजरता गया, देश को आजादी मिली हम आधुनिकता और स्वतंत्रता के रथ पर एक संविधान लेकर सवार हुए लेकिन 70 वर्ष के बाद एक बार फिर हम 721 वर्ष पूर्व हुए हजारों सतियों के बलिदान के इतिहास को लेकर खड़े हैं। लेकिन इस बात को कौन भूल सकता है कि बर्बर सुल्तान ने चित्तौड़ को घेर लिया था। जिस कारण राणा रतन सिंह की पत्नी रानी पद्मावती को आग में कूदना पड़ा था। यह सब इसी इतिहास का आदर्श सत्य है पर फिल्म और राजनीति का बाजार इतिहास नहीं अपना फायदा देख रहा है। सात सौ साल पहला खिलजी भी गलत था जो रानी पद्मावती को जबरन पाने की कोशिश में लगा था पर सवाल ये भी है कि आज के आधुनिक खिलजी कहाँ तक सही हैं जो आये दिन बहन-बेटियों को हड़पने की कोशिश में लगे हैं?

इसी वर्ष की कुछ बड़ी घटनाओं पर नज़र डालें तो जुलाई माह में दिल्ली में यमुनापार के मानसरोवर पार्क इलाके में आदिल उर्फ मुन्ने खान ने रिया गौतम पर ताबड़तोड़ चाकू से वार किर दिया था। खिलजी की तरह एकतरफा प्यार में सनकी आशिक ने रिया गौतम की हत्या कर दी थी। सड़क पर पब्लिक देखती रही और आरोपी दिन दहाड़े एक लड़की को हमेशा के लिए इस दुनिया से विदा कर गया था। इसके बाद उसी माह उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में एक और खिलजी अदनान खान ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर हिना तलरेजा की रेप के बाद हत्या कर दी थी। इसी माह जमशेदपुर के मेडीट्रीना हास्पिटल में मैनेजर के पद पर कार्यरत चयनिका कुमारी की हत्या डॉ. मिर्जा रफीक ने इस वजह से कर दी क्योंकि वह उसका मजहब स्वीकार नहीं कर रही थी। दो दिन पहले मुजफ्फनगर में एक अन्य खिलजी उबैद उर रहमान उर्फ कबीर ने एक लड़की को अपने परिवार के साथ मिलकर जबरन जहर दे दिया। ऐसी दो चार नहीं हर दूसरे तीसरे दिन किसी न किसी रूप में कोई न कोई पद्मावती इन आधुनिक खिलजियों का शिकार हो रही हैं।

हृदय नारायण दीक्षित ने जागरण सम्पादकीय में सही लिखा है कि इतिहास बोध राष्ट्र निर्माण का मुख्य सूत्र है। अलाउद्दीन खिलजी हुकूमत का समय सिर्फ सात सौ साल पुराना है। विवादित फिल्म की कथा इसी हुकूमत का एक अंश है। खिलजी हुकूमत की शुरुआत जलालुद्दीन खिलजी से हुई। उनके पूर्वज तुर्किस्तान से भारत आए थे। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव ने भारत का इतिहासमें लिखा है, ‘हिन्दुओं का दमन करने की उसकी नीति क्षणिक आवेश का परिणाम नहीं, अपितु निश्चित विचारधारा का अंग थी।सर वूज्ले हेग ने लिखा है हिन्दू संपूर्ण राज्य में दुख और दरिद्रता में डूब गए.इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि समाज के प्रतिष्ठित लोग अच्छे कपड़े नहीं पहन सकते थे।इतिहासकार वी.ए. स्मिथ ने लिखा अलाउद्दीन वास्तव में बर्बर अत्याचारी था। उसके हृदय में न्याय के लिए कोई जगह नहीं थी।भंसाली ने इन तथ्यों को जरूर पढ़ा होगा। इतिहास का आदर्श सत्य है और बाजार का सत्य मुनाफा। तो रानी पद्मावती के चरित्र को कोई कैसे अपने मुनाफे का सौदा बना सकता हैं?

खिलजी का उद्देश्य राणा रतन सिंह की पत्नी रानी पद्मिनी को पाना था। इस पर इतिहासकारों में मतभेद हैं। डॉ. के.एस. लाल व हीरा चंद्र ओझा आदि ने इसे सही नहीं माना। सुल्तान को कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। अमीर खुसरो ने पूरा युद्ध देखा था। उसने लिखा है कि केवल एक दिन में तीस हजार राजपूत मारे गए थे। सुल्तान ने भयंकर रक्तपात किया। विजय के बाद उसने चित्तौड़ का नाम अपने पुत्र के नाम पर खिजराबाद रखा। रानी पद्मावती भी युद्ध में शामिल थीं। उन्होंने हजारों राजपूत स्त्रियों के साथ जौहरबलिदान किया। यह बात अलग है कि रानी पद्मावती इतिहास की पात्र हैं या नहीं, लेकिन भारत में वह श्रद्धा  की पात्र जरूर हैं वह इतिहास की एक आदर्श नारी है वह कोई राजनीति की गाय या बकरी का मुद्दा नहीं जिस पर इन कथित बुद्धिजीवियों द्वारा बहस की जाए!

राजीव चौधरी