Sunday 30 December 2018

इस आग में जलने वाली अगली संजलि कौन होगी?


संजलि वो लड़की है जिसे 18 दिसंबर को आगरा के पास मलपुरा मार्ग पर जिंदा आग के हवाले कर दिया गया. ये वाकया भरी दोपहर में हुआ जब संजलि स्कूल की छुट्टी के बाद साइकिल से घर लौट रही थीं उसी समय कुछ लोगों ने उस पर हमला कर उसे आग के हवाले कर दिया। आज संजली हमारे बीच नहीं है वो एक दुखद घटना का हिस्सा बन चुकी है, कुछ दिनों बाद उसकी हत्या की फाइल अदालत में जा चुकी होगी, जहाँ वकील होंगे, गवाह होंगे। उनके बीच बहस होगी, हत्यारों को ढूंढा जायेगा. किन्तु उस कारण को खोजने की कोशिश कोई नहीं करेगा जिस कारण आये दिन कोई न कोई संजली मौत का निवाला बनकर अखबारों की खबर बनती है।

संजली का हत्यारा कोई और नहीं बल्कि खुद उसके ताऊ का बेटा योगेश था। यानि उसका भाई जिसने संजली की मौत की अगली ही सुबह जहर खाकर आत्महत्या कर ली। कहा जा रहा है वो संजलि की ओर आकर्षित था और उसके इनकार करने की वजह से उसने ये कदम उठाया पुलिस ने हत्या के इस मामले में योगेश के अलावा उसके ममेरे भाई आकाश और योगेश के ही एक और रिश्तेदार विजय को गिरफ्तार किया है।

कुछ सालों पहले तक ऐसी घटनाएँ अखबारों के पन्नों के साथ दम तोड़ दिया करती थी। विरला ही कोई खबर दूबारा रद्दी अखबार के बने लिफाफों पर दिख जाये वरना कुछेक लोगों के जेहन को छोड़कर कहीं नहीं दिखती थी। पर अब ऐसा नहीं है जब से सोशल मीडिया आया इन्सान चले जाते हैं लेकिन घटनाएँ जीवित रहती है, घटनाओं में धर्म और जाति तलाश की जाती है उन पर राजनीति होती हैं। संजली की हत्या को भी यही जातीय रंग देने की कोशिश जारी है, ताकि सच का गला झूठ के पंजो से दबाया जा सके।

आखिर क्या कारण रहा कि अस्सी के दशक से पहले रिश्ते कुछ और थे, किन्तु इस दशक के बाद रिश्तों के पैर फिसलने शुरू हुए और फिसलते-फिसलते यहाँ तक आ पहुंचे कि रिश्तों की सारी मर्यादा को किशोर युवा युवतियां तार-तार कर बैठे। यदि हम अब भी संभलना चाहते हैं तो हमें सच को सुनना होगा, उसका अनुसरण करना होगा क्योंकि रिसर्च करने वालों का मानना है कि टीवी, मोबाइल की स्क्रीन पर दिखाई गई हिंसा, प्रेम के द्रश्य किशोरों के दिमाग पर बुरा असर डालकर उन्हें संवेदनहीन बना रहे है। दिमाग का वो हिस्सा जो भावनाओं को नियंत्रित करता है और बाहरी घटनाओं पर प्रतिक्रिया जताता है, रिश्तों-नातों की गरिमा को समझना सिखाता है, जो बचपन के दौर में विकसित होता है वो हिस्सा हिंसक दृश्यों के देखने के कारण लगातार कुंद होता जा रहा है। यानि जो कुछ स्क्रीन पर घट रहा है, वह दिमाग में घर कर रहा है। जिसकी चपेट में युवा और किशोर आ रहा है।

कुछ समय पहले अमेरिका की नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यरोलॉजिकल डिसॉर्डर एंड स्ट्रोक ने अपनी एक टीम के साथ फिल्मों के हिंसक दृश्यों का असर देखने के लिए कुछ बच्चों पर प्रयोग किए। इन सबकी उम्र 14 से 17 साल के बीच थी। इन बच्चों को 60 फिल्मों में से चुने गए हिंसक दृश्यों के चार-चार सेकेंड के क्लिप दिखाए गए। इन विडियो को देखने के दौरान एमआरआई के जरिये उनकी दिमागी हरकतों की जानकारी जुटाई जा रही थी। बच्चों की उंगलियों में सेंसर भी लगाए गए थे जो उनकी त्वचा में हो रही संवेदनाओं की जानकारी हासिल कर रहे थे। प्रयोग के बाद जो नतीजे मिले. हिंसा वाले दृश्यों को देखने के दौरान समय बीतने के साथ बच्चों के दिमाग की सक्रियता कम होती चली गई। ये कमी दिमाग के उस हिस्से में हुई जो भावनाओं को नियंत्रित करता है और उन पर प्रतिक्रिया जताता है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि यदि पर्दे पर देश-विदेश के मनोहारी दृश्य, हैरतअंगेज कार्य, रोमांस का वातावरण देखकर सभी व्यक्ति पुलकित और आनन्दित हो उठते हैं तो अश्लीलता, हिंसा देखते वक्त कोई प्रभाव नहीं पड़ता हो? असल में ऐसे दृश्यों का ही किशोर मन पर बड़ा बुरा प्रभाव पडता है, वे छोटी उम्र से ही अपने आवेगों पर से नियंत्रण खो बैठते है। नतीजा ये भी होता है पर्दे पर देखा गया प्रेम किशोरों को इस कद्र प्रभावित करता है कि स्कूल जैसी संस्थाओं में कुछ किशोर और किशोरियां अपने प्यार के किस्से को बढ़ा-चढ़ाकर सुनाते है। ऐसे में उनके प्यार की प्रतिस्पर्धा होती भी देखी गई है। जो किशोर कुछ समय पहले स्कूल के विषयों पर चर्चा करता था वह आज प्यार, जुदाई बदला और बेवफाई जैसी बातें कर रहा हैं।

मीडिया भी किशोर और किशोरियों को इस राह पर पहुंचाने के लिए काफी हद तक उत्तरदायी है। विभिन्न चैनल समूहों पर शिक्षा की अपेक्षा प्रेम, बेवफाई उसमें नायक-नायिकाओं से बदले की भावना जैसी चीजों पर अधिक बल दिया जा रहा है, इनमें उत्तेजक दृश्यों की भरमार रहती है। उत्तेजक दृश्यों से उत्पन्न वासना भी इन्हें गुमराह कर रही है। यही कारण है कि दिमाग से कुंद संजली के हत्यारे योगेश ने वही किया जो एक नायक पर्दे पर दूर जाती नायिका को देखकर कहता है कि काजल यदि तुम मेरी नहीं हो सकती तो मैं तुम्हें किसी और की नहीं होने दूंगा। 
  
संजली की घटना कोई अंतिम घटना नहीं है, बल्कि अभी अगली किसी और ऐसी ही घटना का इंतजार कीजिए, क्योंकि किशोरों के मन पर फिल्मों, सीरियलों का बढ़ता प्रभाव योगेश जैसे न जाने कितने लोगों के दिमाग में घर किये बैठा है। यदि हम अब भी नहीं संभले तो संजली आखिरी लड़की नहीं है जिसे जिन्दा जलाया गया और न उसका हत्यारा योगेश आखिरी दरिंदा है जो ऐसे कदम उठाएगा. घटनाये होती रहेंगी, खबरें छपती रहेंगी लोग पढ़कर दुःख और अफसोस मनाते रहेंगे।..राजीव चौधरी 

दलित, मंदिर और भगवान बस एक समाधान


जिस देश में भगवान की जातियों को लेकर राजनीतिक हलकों में खींचतान जारी हो वहां एकाएक इन्सान की जाति से संबधित कोई खबर आ जाये तो इसमें हैरत में पड़ने की कोई बड़ी बात नहीं हैं। अब एक खबर है कि देश के कुछ प्रतिष्ठित मंदिरों में आज भी दलितों से भेदभाव जारी है। कहा जा रहा है, भक्तों की जाति से जुड़ी शुद्धता और अपवित्रता की पुरातन पंथी सोच अभी भी देश के कुछ प्रमुख मंदिरों में अंदर तक घर की हुई है, जहां देवी-देवताओं की पवित्रता को बचाए रखने के लिए दलितों का प्रवेश वर्जित है। इनमें एक मंदिर आस्था की नगरी वाराणसी का काल भैरव मंदिर है, यहां दलितों के भगवान के छूने पर रोक है. दूसरा ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में 11वीं सदी के प्रतिष्ठित लिंगराज मंदिर में भी दलित भक्त ऐसी ही पाबंदियों का सामना कर रहे हैं। तीसरा उत्तराखंड में जागेश्वर मंदिर, शिव के इस मंदिर में भी दलितों का प्रवेश वर्जित है। इसके बाद ऐसे ही एक दो मंदिर और भी हैं, जहाँ दलितों के प्रवेश पर रोक मानी जा रही है।

अक्सर ऐसी खबरें हमें निराशा प्रदान करती हैं ऐसे मंदिरों के कथित ठेकेदारों की बीमार सोच पर तरस खाने के साथ-साथ 21 वीं सदी में ऐसे भेदभाव मन में दुःख भी पैदा करता हैं, हालाँकि इसी बीच कुछ स्वस्थ खबरें भी आती रहती हैं जैसे इसी वर्ष केरल में सदियों पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए छह दलितों को आधिकारिक तौर पर त्रावणकोर देवस्वम बोर्ड का पुजारी नियुक्त किया गया है। वैसे तो मंदिरों में ब्राह्मणों को ही पुजारी बनाने की परंपरा रही है, लेकिन यह पहला मौका था जब दलित समुदाय के लोगों को पुजारी बनाया गया है।

परन्तु यह कोई तुलना का सवाल नहीं कि आखिर इन्सान को जातियों में बांटकर उनके साथ भेदभाव कर रहे पुजारीगण उस भगवान को कैसे मुंह दिखाते होंगे जिसने इन्सान को बनाने में कोई भेद नहीं किया। यह सही है कि देश में किसी भी मंदिर में दलितों के प्रवेश पर घोषित तौर पर कोई पाबंदी नहीं है, लेकिन रह-रहकर दलितों के मंदिर प्रवेश पर आपत्तियां उठती भी रहती हैं, ऐसी खबरें भी आती रहती है,  ये आपत्तियां कभी परंपरा के नाम पर सामने आती हैं, तो कभी मान्यताओं के नाम पर। जहाँ ऐसी कथित परंपराओं-मान्यताओं को खत्म करने में धर्माचार्यों की विशेष भूमिका होनी चाहिए थी, लेकिन उनमें से बहुत कम ऐसे रहे, जो सामाजिक समरसता के लिए सक्रिय हुए, अब तो आम हिंदू के लिए यह जानना मुश्किल है कि आखिर ये बड़े-बड़े धर्माचार्य करते क्या हैं?

मुझें नहीं पता इन लोगों के धार्मिक ज्ञान की सीमा कितनी है, इनकी सोच का दायरा कितना बड़ा है, ये लोग धर्म को कितनी गति देने की इच्छा रखतें है किन्तु इतना जरुर पता है कि ऐसे कथित धर्माचार्यों को अपने इतिहास का ज्ञान जरुर न्यून है। यदि एक भी दिन ये लोग अपना इतिहास उठाकर पढ़ लेंगें तो शायद जान पाएंगे कि इस जातिवाद और छुआछूत के कारण ही हम अफगानिस्तान से सिमटते-सिमटते दिल्ली तक रह गये। इस सब के बाद भी हम नहीं समझ रहे हैं। आज भी देश के कोने-कोने से आ रही धर्मांतरण की खबरों के बीच जहाँ धर्माचार्यों, शंकराचार्यों पुजारियों महंतों को हिंदू समाज को दिशा दिखानी चाहिए, लेकिन लगता है कि खुद उन्हें दिशा दिखाने की जरूरत है। क्योंकि घटनाओं या खबरों पर ये लोग मौन रहकर अपनी मूक स्वीकृति सी प्रदान जो कर रहे हैं?

2016 की वो खबर सबको याद होगी जब उत्तरांखंड के चकराता के पोखरी गांव के शिल्गुर देवता मंदिर में दलितों को मंदिर में प्रवेश दिलाने गए सांसद को ही लोगों ने पीट दिया था, तो सोचिए, साधारण आदमियों की क्या दशा होगी। बात सिर्फ दलित मंदिर प्रवेश के अधिकार की नहीं है ये अधिकार तो हमारा कानून भी हमें देता है। बात है सामाजिक चेतना की, अपने इतिहास से सीखने की और इसमें ज्यादा पन्ने पलटने की भी जरूरत नहीं स्वामी श्रद्धानन्द के विचारों को उनके द्वारा लिखित पुस्तकों को पढने से ही ज्ञात हो जायेगा कि अतीत के कालखंड में हमने जातिवाद के कारण धार्मिक रूप से कितना नुकसान उठाया है। किस तरह स्वामी श्रद्धानन्द ने मन के कपाट खोलकर समरसता का दीप जलाया था।
आज एक ओर तो हिंदू समाज के धर्माचार्य दलितों के धर्मांतरण पर चिंता जताते दिखते हैं। दूसरी ओर वे ऐसी अप्रिय घटनाओं की अनदेखी करते हैं। जबकि हिंदुओं के बड़े धर्माचार्यों को स्वयं सामने आकर यह दिवार गिरानी होगी, एक वैचारिक आधुनिकता लानी होगी, इसके आये बिना तो इस समस्या का निर्णायक हल होने से रहा। जब वो स्वयं सामने आयेंगे तब अंध परम्पराओं और झूठी मान्यताओं के नाम पर इस दीवार को सजाने वाले छोटे-मोटे पुजारी खुद पीछे हट जायेंगे। इस समस्या में सबसे पहला समाधान मन में प्रवेश करने से आरम्भ करना होगा, मंदिर में प्रवेश तो स्वयं अपने आप हो जायेगा वरना इस तरह की खबरें बनती रहेगी और पढ़कर दुःख व्यक्त होते रहेंगे।...राजीव चौधरी 

क्या वाकई में देश में डर का माहौल है.?


जब हम टीवी ऑन करते है तब टीवी पर एंकर चीख रही होती है कि क्या देश में डर का माहौल है? फिर वह कहती है कि यह मैं नहीं कह रही, यह तो फलां नेता, अभिनेता या बुद्धिजीवी कह रहा है। इसके बाद स्टुडियों में कुछ लोग बैठे होते है, जो अखलाक, पहलु खान या गौरक्षकों की दनदनाहट का हवाला देकर कहते है कि जी हाँ देश में डर का माहौल है?

फिर अचानक दूसरा पक्ष पूछ उठता है कि आज एक घटना पर डरने वाले ये लोग 1984 के दंगों पर क्यों नहीं डरे? 90 के दशक में कश्मीर में पंडितों के साथ हुई भयानक साम्प्रदायिक त्रासदी के वक्त इनका डर कहाँ था? ताज होटल पर हमले के वक्त या दिल्ली-मुम्बई में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों के समय इन लोगों को डर क्यों नहीं लगा?  सवालों और जवाबों से स्टुडियों का माहौल गर्मा जाता है। अंत में हमेशा की तरह शो खत्म हो जाता है।

असल में सच यही है कि देश में कुछ लोग डरे हुए है और कुछ लोग डरा रहे है।  डरे हुए ये कुछ लोग वो है जिनके पास करोड़ों अरबो की संपत्ति, नाम और पहचान है या जो सत्ता की कुर्सी से बाहर है।
 अब इन्हें डरा कौन रहा है बस कुछ ऐसे ही लोग है जो इन्हें डरा रहे है। ऐसे माहौल को लेकर कुछ लोग चिंतित भी जरुर हैं। इनमें चिंता करते हुए कुछ पत्रकार है, कुछ नेता है और कुछ अभिनेता भी शामिल हैं।  देश का आम आदमी अपनी रोजी रोटी के लिए दिन रात मेहनत कर रहा है, वह अभी इस डर से बाहर हैं पर कोशिश जारी है कि वह भी कुछ इसी तरह का अपना डर व्यक्त करे।

यह डर का माहौल कुछ इस तरह खड़ा किया जाता है जब एक अतिउत्साहित नेता ताव में आकर बयान देता है, तब अचानक डर के कई बयान सामने आते हैं। मीडिया डर की इस व्यवस्था का हिस्सा बनी हुई है।  बहुत पहले मीडिया का जुनून सार्वजनिक हित के मुद्दे होते थे पर आज उसका जुनून इस डर का माहौल खड़ा करने का रह गया है।
जब नेता डरे हुए बयान नहीं देते तब यह लोग चोटी कटने की घटनाओं को लेकर खौफनाक साउंड के साथ लोगों को डराते है। कभी बुराड़ी में एक परिवार की आत्महत्या को लेकर डरावने एपिसोड बना डालते है। यकीन न हो देखिये सुबह-सुबह सभी चैनलों पर बैठे बाबा किस तरह राहु-केतु से लेकर शनि मंगल, अमंगल, और राशियों से डरा रहे होते हैं।
हिंसा और  हत्या हर एक शासक के काल में होते रहे है इससे कोई भी युग अछूता नहीं रहा है, बड़े-बड़े सम्राटों से लेकर आज की वर्तमान लोकतान्त्रिक प्रणाली तक, कोई एक वर्ष ऐसा नहीं रहा होगा, जब काल के चेहरे पर रक्त के छींटे न पड़े हों।

परन्तु  उस इतिहास के एक भी पन्ने पर हमने अपनी एकता, समरसता से कभी डर को निकट नहीं आने दिया, लेकिन आज स्वतंत्र रूप से बड़े-बड़े आलीशान बंगलों में सुरक्षाकर्मियों के बीच रहते हुए यदि हम भय महसूस करें तो इसमें राजनीति कितनी है और डर कितना आप स्वयं अंदाजा लगा सकते हैं?
मुझे नहीं पता अचानक सुप्रीम कोर्ट के बड़े जज क्यों डर जाते है।  अचानक नसीरुद्दीन शाह क्यों डर जाते है।  डर कुछ ऐसा है कि कभी अचानक से राहुल गाँधी डर कर कहते है कि देश में डर का माहौल है और पाकिस्तान जैसी स्थिति हैं।  कभी आमिर खान, इसी डर के बारे में सुरक्षित देश खोजने की बात करते है तो कभी अरुण शौरी बात करते हुए कहते है कि देश में डर और बेबसी का माहौल है।

हालाँकि यह डर सबको नहीं डराता सिर्फ उन्हें डराता है, जिनको इससे डर लगता है। ऐसे ही लोगों के आस-पास डर का माहौल रचा जाता है। यही वह माहौल है जहां से एक बुद्धिजीवी दूसरे बुद्धिजीवी को, एक नेता दूसरे नेता को, एक अभिनेता दूसरे अभिनेता को डरा रहा है, इसके बाद इस डर को मीडिया परदे पर लेकर आती है ताकि देश के लोग भी इस डर को महसूस करें।

इन लोगों के मुताबिक देश का आम आदमी कुछ बोल नही पा रहा हैं, वह डरा हुआ है लेकिन क्या सच में ऐसा हो रहा है? या फिर डर का एक माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है, क्योंकि मुझे बाजारों में, सड़कों पर, मेट्रो या किसी सार्वजनिक स्थान पर डरे हुए लोग नहीं मिल रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि लोग बिलकुल निडर हैं, कभी डरते नहीं है। लोग डरते हैं पर तब डरते है, जब एक मासूम बच्ची को उठाकर कुछ दरिन्दे रेप कर देते है।  लोग तब डर जाते है, जब सरकारी अस्पताल में डॉक्टर नहीं मिलता। हम तब तक डरे रहते है जब तक शाम को बेटी सकुशल घर वापिस नहीं आ जाती।  हम तब तक डरे हुए रहते है, जब तक बिना रिश्वत दिए बेटे की नौकरी नहीं लग जाती और बिना दहेज के बेटी की शादी नहीं हो जाती।  बिना रिश्वत और चक्कर काटे थाने से एक इन्क्वारी तक पूरी नहीं हो जाती या बिना पैसे और विनती के बिजली का बिल ठीक नहीं हो जाता।
हमारे तो बस ये डर है बाकी हमारे डर नहीं है। ये जो हर रोज जो बयानों के डर खड़े किये जाते है ये आम आदमी के डर नहीं है।  ऐसे डर देश को आर्थिक, राजनीतिक और विदेशी ताकतों से कैसे निकाल पाएंगे फिलहाल ये सोचने का समय किसी के पास नहीं हैं।  बस कोई एक डरा रहा है और दूसरा डर रहा है, मुझे नहीं पता इससे देश के आम नागरिक को क्या मिल रहा है।



हमें कैसे धर्म की जरूरत हैं


पिछले लगभग तीन हजार वर्षों में मनुष्य ने मनुष्य के लिए न जाने कितनी जातियां बनाई, कितने पंथ मजहब सम्प्रदाय बनाए।  नये-नये भगवानों के अविष्कार हुए, उपासना के ढंग और उसके केंद्र बनाए गये। स्वर्ग-नरक से लेकर पाप-पुण्य की हर किसी ने अपने-अपने तरीकों से परिभाषाएं गढ़ी। मनुष्य को मुक्ति, मोक्ष और शांति के मार्ग सुझाये पर अंत में सवाल यह उठता क्या मनुष्य को इन सबसे शांति मिली? शायद हर कोई यही कहेगा नहीं! क्योंकि जितने पंथ और मजहब बढे उतनी ही ज्यादा हिंसा हुई नवीन पंथ और धर्मों ने अपनी श्रेष्ठता को लेकर उतना ही रक्तपात मचाया।

असल में पिछले तीन हजार वर्षों में नये-नये धर्म स्थापित करने वाले लोगों ने मनुष्य को धर्म और शांति को समझने ही नहीं दिया। विचार धाराएँ खड़ी की गयी, अपने इच्छित लक्ष्य के लिए लोगों को धर्म के नाम पर नफरत की भट्टी में झोक दिया। कितने लोग बता सकते है कि धर्म का मूल आधार क्या है, दया, करुणा सेवा है या नफरत और हिंसा?
धर्म का तत्व क्या है? धर्म का अंतिम बिंदु क्या है? हमें करना क्या है? मार्ग कहाँ है? असल में दो चीजें जब मिलती है तब धर्म का परिचय होता एक है एक संस्कृति, जिसका संबंध बाहर से है दूसरा है अध्यात्म,  जिसका संबंध आत्मा से है। धर्म के तत्व का अंकुर आत्मा के अंदर है, धर्म का एक अर्थ है स्वभाव जैसा स्वभाव होगा उसका वैसा ही धर्म होगा। इसलिए जब संस्कृति और स्वभाव यानि आंतरिक तत्व और बाहरी दोनों का जोड़ होता है, दोनों सामान होते है तब धर्म का परिचय होता हैं।
किन्तु संसार में सभी नवीन कथित धर्मों ने जिस तरह से कार्य किया उन्होंने धर्म का पूरा गुणधर्म, उसकी पूरी संरचना और व्याख्या ही बदल डाली। दुनिया के इन सारे कथित धर्मों की वजह से इन्सान धर्म शब्द का अर्थ तक भूल गया है। उनसे धर्म छीन लिया गया उन्हें बदले परम्पराएँ थमा दी गयी, उनके परिधान बदले उन्हें अपने स्वनिर्मित उपासना के तरीके सीखा दिए गये और कहा ये ही धर्म इसका फैलाव करो यही धर्म इसको चलाओ।
धर्म के फैलाव के तरीके बताये गये, उन्हें जबरन हिंसा द्वारा, रक्तपात द्वारा, झूठ मक्कारी बेईमानी से फैलाने सिखाया गया और इसे धर्म का चलाना कहा गया। क्या कोई बता सकता है कि धर्म बनाए या चलाये जा सकते है? धर्म का गठन नहीं हो सकता, धर्म कोई गाड़ी नही है कि उसे बनाकर चलाया जाये। धर्म विज्ञान है आत्मा का जहाँ प्रकाशमान हो जहाँ उसे मनुष्यता के प्रति बोध हो, जहाँ प्रकृति से लेकर समस्त प्राणी मात्र की चिंता हो, जो समस्त जीव जंतु के प्रति अपनत्व का भाव प्रकट हो जो समस्त वसुंधरा को अपना परिवार समझे वहां धर्म होगा वही धर्म का दर्शन होगा।
अब मूल प्रश्न की ओर लौटते है कि क्या हमे धर्म की आवश्यकता है और क्यों है?
तो इसका आसान जवाब यही है कि मानव मन की सबसे बड़ी जरूरतों में से एक जरूरत है-दूसरों के लिए स्वयं के जरूरी होने का अहसास। स्वयं का आत्मनिरिक्षण, एक दूसरे के प्रति व्यवहार और जिम्मेदारियों का अहसास इसलिए यजुर्वेद में कहा गया है कि  मनुष्य कभी किसी प्राणी से वैर भाव न रखे और एक- दूसरे के साथ प्रेमभाव से रहेमनुष्य सभी प्राणियों को अपना मित्र समझे और प्रत्येक की सुख़-समृद्धि के लिए कार्य करे ऐसे सन्देश मनुष्य को विखंडित होने से बचाते है। ऋगवेद कहता है तुम्हारा सत्य और असत्य का विवेचन पक्षपात रहित हो, किसी एक ही समुदाय के लिए न हो. तुम संगठित होकर स्वास्थ्य, विद्या और समृद्धि को बढ़ाने में सभी की मदद करो। तुम्हारे मन विरोध रहित हों और सभी की प्रसन्नता और उन्नति में तुम अपनी स्वयं की प्रसन्नता और उन्नति समझो। सच्चे सुख़ की बढती के लिए तुम पुरुषार्थ करो। तुम सब मिलकर सत्य की खोज करो और असत्य को मिटाओ।
धर्म व्यक्तिवाद से परे हैं मनुष्य संगठन खड़ें कर सकता है पर धर्म नहीं। क्योंकि धर्म आत्मा के संचालन का विषय है, संगठन से व्यक्ति हांके जा सकते है लेकिन धर्म साथ लेकर आगे बढ़ता है. इसलिए मैं बिना पूर्वाग्रह के कह सकता है जो सिर्फ मानवता के कल्याण की बात करें वही धर्म हो सकता है। और मानवता का संदेश वैदिक धर्म के अलावा दूसरे अन्य धर्म से कभी नहीं मिला क्योंकि सभी मत सम्प्रदाय किसी न किसी व्यक्ति विशेष द्वारा चलाये गए। धर्म चलाते समय उन्होने अपने को ईश्वर का दूत व ईश्वर पुत्र बताया, ताकि लोग उनका अनुसरण करें।
धर्म अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है धर्म मन की समस्याओं से जूझने का रास्ता बनाता है, धर्म आजादी देता है, धर्म बंधन नहीं है यदि बंधन है तो वहां धर्म नहीं है। किन्तु इसके उलट अपने-अपने धर्म चलाते समय इन सभी लोगों ने अपने समाज को कल्पनाएं दी हैं, ताकि यह लोग कोरी कल्पनाओं में उलझे रहे, ऐसी सुविधा और ढांचे खड़ें किये भय और हिंसा के ऐसे तत्व लोगों के जेहन में खड़ें किये कि उन्हें अपने सम्प्रदाय के खूंटे से बांध लिया। उन्हें पशु बना दिया गया। पैदा होते ही नकेल डाल दी गयी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली गयी कहा जो हमें कहे वही सच है यदि तर्क किया या प्रश्न तो उसका उत्तर सिर्फ तलवार देगी। आप स्वयं सोच सकते है क्या ऐसे माहौल में धर्म बचता है या फिर क्या हमें ऐसे धर्म की जरूरत हैं?…राजीव चौधरी


अंधविश्वास, अंधश्रद्धा पर कानून जरुरी क्यों..?


अंधविश्वास और अंधश्रद्धा पर क़ानूनी लगाम बहुत जरुरी है। कुछ लोगों को यह मांग बड़ी बेतुकी सी लगेगी और सीधा मन में यह विचार जाएगा कि यह लोग तो हमारे धर्म-कर्म और पूजा पाठ पर पाबंदी लगवाना चाह रहे हैं। लेकिन ऐसा नहीं है, हमारी यह मांग किसी एक धर्म के लिए नहीं बल्कि अंधविश्वास और अंधश्रद्धा जहाँ भी है जिस रूप में है उन सबके लिए हैं। हालाँकि महाराष्ट्र और कर्नाटक भारत के दो राज्य ऐसे है जिनमें अंधविश्वास निरोधक कानून लागू है पर यह पर्याप्त नहीं हैं, इसी तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी इस कानून की जरूरत है। आखिर जरूरत क्यों है, इसे समझना बड़ा जरुरी है। यदि यह कानून पूरे देश में लागू नहीं किया गया तो 21 वीं सदी का विज्ञान हवा में रह जायेगा और यह अंधविश्वास रूपी दीमक अन्दर ही अन्दर समाज के विवेक को चट कर जाएगी। क्योंकि विश्वास और अंधविश्वास, श्रद्धा और अंधश्रद्धा में अंतर है। श्रद्धा विवेकवान बनाती है, तर्कबुद्धि को धार देती है, जबकि अंधश्रद्धा विवेक को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। श्रद्धा कब अंधश्रद्धा का रूप ले लेती है, मालूम नहीं चल पाता। यही कारण है कि लोग जागरूकता के अभाव में अंधश्रद्धा को ही धर्म और यहां तक जीवन का कर्तव्य मान बैठते हैं।

अंधविश्वास वह बीमारी है जिससे हमनें अतीत में इतना कुछ गवांया। इसकी पूर्ति करने में पता नहीं हमें कितने वर्ष और लगेंगे। हम जब इतिहास उठाते है भारत की अनेकों हार का कारण जानना चाहते तो उसमें सबसे बड़ा कारण हमेशा अंधविश्वास के रूप में सामने पाते हैं। याद कीजिए सोमनाथ के मंदिर का इतिहास जब सोमनाथ मंदिर का ध्वंस करने महमूद गजनवी पहुंचा था। तब सोमनाथ मंदिर के पुजारी इस विश्वास में आनन्द मना रहे थे कि गजनवी की सेना का सफाया करने के लिए भगवान सोमनाथ जी काफी है। लोग किले की दीवारों पर बैठे इस विचार से प्रसन्न हो रहे थे कि ये दुस्साहसी लुटेरों की फौज अभी चंद मिनटों में नष्ट हो जाएगी। वे गजनवी की सेना को बता रहे थे कि हमारा देवता तुम्हारे एक-एक आदमी को नष्टि कर देगा, किन्तु जब महमूद की सेना ने नरसंहार शुरू किया कोई 50 हजार हिंदू मंदिर के द्वार पर मारे गए और मंदिर तोड़कर महमूद ने करोड़ों की सम्पत्ति लूट ली। यदि उस समय 50 हजार हिन्दू इस अंधविश्वास में ना रहे होते और एक-एक पत्थर भी उठाकर गजनवी के सेना पर फेंकते तो सोमनाथ का मंदिर बच जाता और भारतीय धराधाम का सम्मान भी।

यह कोई इकलौती कहानी नहीं हैं जब धर्म की सच्ची शिक्षा देने वाले ऋषि-मुनियों के अभाव में अज्ञान व अन्धविश्वास, पाखण्ड एवं कुरीतियां वा मिथ्या परम्परायें आरम्भ हो गईं उनके स्थान पर ढोंगी, पाखंडियों के डेरे सजने लगे तब इसका परिणाम देश की गुलामी था। इनके कारण देश को अनेक विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ा और आज भी देश की धार्मिक व सामाजिक स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। इस स्थिति को दूर कर विजय पाने के लिए देश से अज्ञान व अन्धविश्वासों का समूल नाश करना जरुरी हैं वरना धार्मिक तबाही पिछली सदी से कई गुना बड़ी होगी।
सोमनाथ की भयंकर त्रासदी के बाद भी तथाकथित स्वयंभू लोगों ने जागरूकता फैलाना उचित नहीं समझा और इस एक मन्त्र के सहारे लोगों को प्रतीक्षा में बैठाकर कायर बना दिया कि जब-जब धर्म की हानि होगी तब मैं अवतार बनकर आऊंगाइसी अंधविश्वास में वीर जातियां धोखा खाती रही।

दुर्भाग्य आज सूचना क्रांति और तमाम तरक्की के इस दौर में भी यह संघर्ष जारी है, पाखंड जारी है, अंधविश्वास जारी हैं और आज ये लुटेरे अपने नये रूप धारण कर नये हमले कर रहे है। कोई बंगाली बाबा बनकर, भूत-प्रेत वशीकरण के नाम पर, कोई नौकरी दिलाने के बहाने मसलन आज भी ये गजनवी आशु महाराज के खोल से निकल रहे हैं।

काल बदले कलेंडर बदले, लेकिन अंधश्रद्धा अपनी जगह खड़ी रही। हाँ आर्य समाज और स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने आकर इस अंधविश्वास को हिलाया, लोगों को जगाया, किन्तु इन लोगों ने नये अंधविश्वास खड़ें कर लिए। आज यह लोग झाड़-फूंक के जरिये गर्भ में पल रहे शिशु के लिंग का पता लगाने और उसे बदलने के दावें कर महिलाओं को आसानी से शिकार बना रहे है, धर्म-मजहब  के नाम पर महिलाओं और लड़कियों के यौन शोषण को अंजाम दे रहे हैं।

बात यही तक सिमित नहीं है इसी वर्ष हैदराबाद में एक शख़्स ने एक बच्चे की बलि दे दी थी। शख़्स ने एक तांत्रिक के कहने पर चंद्र ग्रहण के दिन पूजा की और बच्चे को छत से फेंक दिया। तांत्रिक ने उसे कहा था कि ऐसा करने से उसकी पत्नी की लंबे समय से चली आ रही बीमारी ठीक हो जाएगी। ऐसी ना जाने कितनी घटना हर रोज सुनने को मिलती हैं।
यदि देखा जाये तो आज समाज में अंधविश्वास का बाजार इतना बड़ा और बढ़ चूका है कि जिसकी चपेट में पढ़े लिखें भी उसी तरह आते दिख रहे है जिस तरह अशिक्षित लोग। जबकि यह लंबे संघर्ष के बाद मानव सभ्यता द्वारा अर्जित किए गए आधुनिक विचारों और खुली सोच का गला घोंटने की कोशिश है। यदि सरकार राष्ट्रीय स्तर पर कानून बनाकर अंधविश्वास फैलाने वाले तत्वों के खिलाफ, उसका प्रचार-प्रसार कर रहे लोगो के खिलाफ एक्शन लेने का प्रावधान बना दे आज भी काफी कुछ समेटा जा सकता है। ये सच है कि कानून तो अमल के बाद ही समाज के लिए उपयोगी बन पाता हैं, किन्तु फिर भी उम्मीद है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में पहुंच चुके हमारे समाज को ऐसे ऐतिहासिक कानून की आंच में विश्वास और अंधविश्वास के बीच अंतर समझने में कुछ तो मदद मिलेगी। हमारा अतीत भले ही कैसा रहा हो पर आने वाली नस्लों का भविष्य तो सुधर ही जायेगा।



Thursday 27 December 2018

भारतीय समाज का एक मुक्तिदाता: स्वामी श्रद्धानन्द


स्वामी श्रद्धानन्द जी एक ऐसा नाम जिसे इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में लगभग मिटा दिया गया है। वह व्यक्तित्व जिनकी कहानी दान, त्याग, वीरता, स्वतंत्रता सेनानी और समाज सेवा के कार्यों से स्वर्ण अक्षरों से अंकित होनी चाहिए थी, उसे सिर्फ एक हिन्दू पुनरुत्थानवादी के रूप में चित्रित किया गया। पर जब हम इस महान आत्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी के जीवन परिचय से गुजरते है तब इन महान विभूति के बलिदान के जीवंत चित्र मन में एक-एक कर अगाध श्रद्धा से भर जाते हैं।

स्वामी श्रद्धानन्द जी का जीवन परिचय तब शुरू होता है जब आर्य समाज के संस्थापक और आधुनिक भारत के निर्माता महर्षि दयानन्द सरस्वती जी देश से अंधविश्वास, सामाजिक भेदभाव की कुरूतियों और अंग्रेजी सरकार पर निडर होकर हमला कर रहे थे। उसी दौरान 22 फरवरी, 1856 को तत्कालीन अविभाजित पंजाब के जालंधर जिले के गांव तलवन में पिता नानकचंद के घर मुंशीराम नामक एक बच्चें के जन्म की किलकारी गूंजी। बाद में  इसी किलकारी ने स्वामी श्रद्धानन्द बनकर समस्त धर्म और देशद्रोहियों की नींद उड़ाकर रख दी थी।
मुंशीराम की स्कूली शिक्षा वाराणसी में शुरू हुई और कानून की पढाई लाहौर में समाप्त हुई। उनके पिता पुलिस इंस्पेक्टर थे। बार-बार मिर्जापुर और बरेली स्थानांतरण के कारण उनकी प्रारंभिक शिक्षा बाधित हुई थी। बड़े हुए तो तत्कालीन हिंदू समाज में अंधविश्वास, पाखण्ड और अपने लोगों में उदासीनता देखकर जीवनशैली लगभग अनियंत्रित हो गयी थी। किन्तु क्षण अनुकूल था, राष्ट्र को एक विरासत देने के लिए काल ने मुंशीराम को स्वामी दयानंद सरस्वती से मिला दिया, स्वामी दयानन्द जी का प्रवचन सुना, उस दिव्य आत्मा के मुख से जब तत्कालीन हिंदू समाज को जगाने विषय में लम्बी चर्चा हुई तो मुंशीराम के जीवन में एकाएक महान परिवर्तन आ गया।
आर्य समाज के अनुयायी के रूप में  मुंशीराम ने महिलाओं की शिक्षा के लिए एक महत्त्वपूर्ण अभियान का नेतृत्व करना शुरू किया। आर्य समाज द्वारा संचालित अखबार सदधर्मप्रचारक में महिलाओं की शिक्षा के बारे में लेखों के माध्यम से गार्गी और अपाला जैसी वैदिक विदुषियों के उदाहरणों का हवाला देते हुए महिलाओं की शिक्षा के लिए अनुरोध किया। समाज में अंगड़ाई आनी शुरू हुई, असल में, जब उन्होंने अपनी ही बेटी को मिशनरी-संचालित स्कूल में पढ़ते हुए ईसाई धर्म के प्रभाव में आते हुए देखा तो भारतीय आदर्शों में निहित शिक्षा प्रदान करने का मन बनाया और अपने प्रयासों से जालंधर में पहला कन्या महाविद्यालय की स्थापना कर दी।
वित्तीय संकट, संघर्ष के थपेड़ों से जूझने के बाद, 1902 में हरिद्वार के पास ग्राम कांगड़ी में गुरुकुल की स्थापना कर दी ताकि खोई वैदिक संपदा के विचारों से नागरिकों में धर्म और राष्ट्रीय दृष्टिकोण पैदा किये जा सकें। यह भारत का सर्वप्रथम एक ऐसा गुरुकुल बना जिसमें जाति, पंथ, भेदभाव छुआछुत से दूर कर छात्रों को अलग-अलग कक्षाओं में एक साथ मिलकर पढने के लिए प्रेरित किया और व्यक्तिगत रूप से स्वामी श्रद्धानन्द जी एक पिता की तरह अपने छात्रों की आवश्यकताओं को पूरा करते रहे।
स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन और सक्रिय राजनीति में हिस्सा लेने के साथ स्वामी श्रद्धानन्द जी ने कथित अछूत माने जाने वाले समाज के मुद्दों को उठाते हुए 1919 में अमृतसर कांग्रेस अधिवेशन के स्वागता के रूप में अपने संबोधन में कहा था कि सामाजिक भेदभाव के कारण आज हमारे करोड़ों भाइयों के दिल टूटे हुए हैं, जातिवाद के कारण इन्हें काट कर फेंक दिया हैं, भारत माँ के ये लाखों बच्चे विदेशी सरकार के जहाज का लंगर बन सकते है, लेकिन हमारे भाई नहीं क्यों नही बन सकते? मैं आप सभी भाइयों और बहनों से यह अपील करता हूं कि इस राष्ट्रीय मंदिर में मातृभूमि के प्रेम के पानी के साथ अपने दिलों को शुद्ध करे, और वादा करें कि ये लाखों करोड़ों अब हमारे लिए अछूत नहीं रहेंगे, बल्कि भाई-बहन बनेंगे, अब उनके बेटे और बेटियाँ हमारे स्कूलों में पढ़ेंगे, उनके पुरुष और महिलाएँ हमारे समाजों में भाग लेंगे, आजादी की हमारी लड़ाई में वे हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होंगे और हम सभी अपने राष्ट्र की पूर्णता का एहसास करने के लिए हाथ मिलाएंगे।
अछूतों की मदद करने और कई मुद्दों पर गाँधी जी से असहमति होने के पश्चात स्वामी श्रद्धानंद ने कांग्रेस की उप-समिति से इस्तीफा दे दिया। हिंदू महासभा में शामिल होकर अछूत और दलित माने जाने वाली जातियों के कल्याण के लिए शुद्धि का कार्य शुरू किया। शुद्धि-आन्दोलन के द्वारा सोया हुआ भारत जागने लगा! कहते हैं जिस देश का नौजवान खड़ा हो जाता है वह देश दौड़ने लगता है! सच ही स्वामी जी ने हजारों देशभक्त नौजवानों को खड़ा कर दिया था। स्वामी श्रद्धानंद ने वर्ष 1919 में दिल्ली की जामा मस्जिद में भाषण दिया था। उन्होंने पहले वेद मंत्र पढ़े और एक प्रेरणादायक भाषण दिया। मस्जिद में वेद मंत्रों का उच्चारण करने वाले भाषण देने वाले स्वामी श्रद्धानंद एकमात्र व्यक्ति थे। दुनिया के इतिहास में यह एक असाधारण क्षण था।
स्वामी श्रद्धानंद जी ने बलात् हिन्दू से मुसलमान बने लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल कर आदि जगदगुरु शंकराचार्य के द्वारा शुरू की परंपरा को पुनर्जीवित किया और समाज में यह विश्वास पैदा किया कि जो किसी भी कारण अपने धर्म से पतित हुए हैं वे सभी वापस अपने हिन्दू धर्म में आ सकते हैं। फलस्वरूप देश में हिन्दू धर्म में वापसी के वातावरण बनने से लहर सी आ गयी! राजस्थान के मलकाना क्षेत्र के हजारों लोगों की घर वापसी उन्हें भारी पड़ी,  जब महान् सिद्धान्तों पर आधारित सांस्कृतिक धरातल पर उन्हें कोई पराजित नहीं कर सका तब 23  दिसंबर 1926 को एक धर्मांध मुस्लिम युवक अब्दुल रशीद द्वारा एक मजहबी हत्यारी परंपरा के शिकार हो गये। देश धर्म और समस्त समाज के लिए अपना घर, अपना परिवार का दान कर यहाँ तक की स्वयं को बलिदान करने वाली इन महान आत्मा को भुला दिया गया। करोड़ों भारतीयों के लिए, जिनके कल्याण के लिए उन्होंने जीवन भर दृढ़ता से काम किया, पूरा जीवन कर्मों और वैदिक धर्म कार्यों को करते हुए अंत में अपने धर्म के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली इस महान आत्मा महात्मा स्वामी श्रद्धानन्द जी को आर्य समाज का कोटि-कोटि नमन। लेख-राजीव चौधरी 

Friday 21 December 2018

नवीन दलितवाद एक आन्दोलन या एक बदला


डॉ भीमराव आंबेडकर जी ने कहा था कि शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो यानि समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए सामाजिक न्याय पाने के लिए सभी का शिक्षित होना जरुरी है उसके लिए संगठन की भी आवश्यकता हैं और संघर्ष की भी। किन्तु आज बाबा साहेब के इन वचनों को भुलाकर जातीय रूप से बदले की भावना का उदय हो रहा है। सामाजिक न्याय से शुरू हुआ आंबेडकर जी के आन्दोलन को जातीय संघर्ष बनाया जा रहा है मसलन आज का अति दलितवाद कुछ इसी संघर्ष की ओर जाता दिख रहा हैं।

कभी सामतंवादी संस्थाओं और व्यवस्था के नीचे रहने वाली जातियों ने 18, 19 वीं सदी में प्रतिकार करना शुरू किया था जिसके नतीजे से आशातीत अच्छे भी रहे, सामन्तवाद धराशाही हुआ। वह व्यवस्था राजनितिक शाशन की प्रणाली से तो खत्म हो गयी किन्तु अभी भी कुछ लोगों जेहन में सामाजिक न्याय या समानता के अवसर के स्थान पर बदले की भावना में बदल दी गयी। इसलिये आज कथित शूद्र और दलित जातियाँ कहती हैं कि उनकी लड़ाई ब्राह्मणवाद के विरुद्ध है। इसमें अर्थात ब्राह्मणों द्वारा जिन करोड़ों लोगों को नीच, हीन और गरीब बनाया गया, वह खुद को हीन घोषित करने वाले नियम और वाद से मुक्ति चाहते हैं।

बेशक बहुत अच्छा मुक्तिवाद है बिल्कुल जायज बात भी है, किन्तु इसका आधार क्या है यह कौन तय करेगा की वह मुक्ति के मार्ग क्या है? आज जो मुक्ति के मार्ग दलितवाद के बहाने अपनाये जा रहे है मुझे उसमें कहीं भी मुक्ति नहीं अपितु संघर्ष दिखाई दे रहा हैं। जैसे हाल ही मैंने देखा कि दलितवाद की आड़ में हनुमान को आंबेडकर के पैरों को पूजते हुए दिखाना, मनुस्मृति को जलाना, हिन्दुओं के देवी-देवताओं को अपशब्द लिखना, हर समय अपने अतीत को कोसना, कथित ऊँची जातियों पर आरोप जड़ना इस आन्दोलन का केंद्र बना दिया गया हैं। ऐसा करके शायद स्वयं के लिए सहानुभूति और अन्य के लिए द्वेष की भावना का समाज खड़ा किया जा रहा हैं।

इसका अर्थ कुछ ऐसा हो जैसा यह कहने की कोशिश की जा रही हो मध्यकाल में जिन साधनों संसाधनों शक्ति के केन्द्रों से हमारा शोषण किया गया अब हम उन पर कब्जा कर तुम्हारा शोषण करेंगे। कमाल देखिये इसके लिए दलित और मुस्लिम समीकरण तैयार किया जा रहा है कि सत्ताईस फीसदी तुम बीस फीसदी हम आओ मिलकर इन्हें मजा चखाएं, भीमा कोरेगांव के मंच से पिछले वर्ष बार यही सन्देश दिया जा रहा था। पर शोषण किसका किया जायेगा! न तो आज वह शोषक रहे न वो शोषण किये लोग, तो बदला किससे?

इसमें सबसे पहले यह सोचना होगा कि शोषण किसका किया गया शायद उनका जो आर्थिक आधार पर कमजोर थे, किन्तु आज कमाल देखिये आर्थिक आधार पर भी उन्नति करने बावजूद दलित दलितवाद से बाहर नहीं आ सका। वह आरक्षण, सामाजिक राजनितिक सहानुभूति पाने के लिए दलित ही बना रहना ज्यादा अच्छा समझता हैं। बसपा नेता मायावती को ही देख लीजिये जिसे दलितों और अति पिछड़ी जातियों का जबरदस्त समर्थन प्राप्त हुआ। परंतु यादव, कुर्मी और कई अन्य ओबीसी जातियों ने दलित नेतृत्व स्वीकार करने से इंकार कर दिया। क्योंकि राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना इस आंदोलन का लक्ष्य बन गया था और फुले, आंबेडकर और पेरियार के मिशन को भुला दिया गया। केवल सत्ता पाना बसपा का लक्ष्य बन गया। बसपा के सत्ता में आने के बाद जातिवादी और प्रतिक्रियावादी सामाजिक शक्तियों से हाथ मिलाना शुरू कर दिया और आज फुले, आंबेडकर और पेरियार केवल चुनाव जीतने के साधन बनकर रह गए हैं।

उंच-नीच या जातिवाद को कोसने से पहले लोगों समझना चाहिए कि क्या झगड़ा सिर्फ स्वर्ण और दलित के बीच है? नहीं! हर एक जाति समुदाय के अपने नियम-उपनियम है जिसे समझने देखिये एक कहार, कोरी को अपने से नीचा समझता है, एक कोरी हरिजन को नीचा कह रहा हैं, हरिजन पासी को पास नहीं बैठने देता और पासी भंगी को अछूत मानता है, एक हरिजन किसी भी कीमत पर अपनी बेटी भंगी के घर नहीं ब्याह सकता, और एक कोरी कहार के। इसके बाद सभी दलित जातियां कह रही हैं कि हमारे साथ स्वर्ण भेदभाव कर रहे है? और इसके लिए मनुस्मृति को कोसा जा रहा हैं। स्वयं इससे बाहर निकालने के बजाय उनमें सवर्णों ख़िलाफ एक दलितवाद को जन्म दिया जो मात्र जातियों का बदलाव चाहता है, उसे तोड़ना नहीं चाहता।

बात करें मनुस्मृति की जिसमें मनुष्यों को कर्म के आधार पर समाज में रखा गया, चार वर्ण बनाए गये, क्या वह नियम आज संविधान के अनुसार नहीं चल रहे क्या है ग्रुप ए से लेकर ग्रुप डी तक क्या यह भेदभाव नहीं है? क्या इस आधार पर भी आज समाज का बंटवारा नहीं किया जा रहा है यदि हाँ मनुस्मृति को फूंकना बंद कर देना चाहिए। यदि नहीं तो फिर संविधान से लगाव क्यों? अब कुछ लोग कहते है कि मनु महाराज ने शुद्र को पैरों से संबोधन किया किन्तु उसी मनु महाराज ने प्रथम प्रणाम भी तो चरणों को लिखा उसे भी समझिये?

असल में सभी को असली सच समझना होगा कि सामाजिक परिवर्तन, समानता, भाईचारा और जातीय बंधन तथा जाति तोड़ो आंदोलन सिर्फ अवसरवादी राजनीति के केंद्र बन चुके हैं। जाति बंधन सब तोडना चाहते है सामाजिक न्याय की बात भी होती रहेगी, आरक्षण के सहारे वे प्रशासन के गलियारे तक पहुँचे, दलितों के बड़े अधिकारी, नेता, मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति भी बने। किन्तु आज यह भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि हम पूँजीवाद के साथ रहे या समाजवाद के साथ। इस कारण बस दलितवाद के नाम पर अतीत को गाली देकर एक बदले की भावना का निर्माण किया जा रहा है। दलितों के नेताओं को मंच माला और माइक की लत लग चुकी है इन संगठनों के नेता कभी भी दलितों के असली मुद्दे के बात नहीं करेंगे, केवल दलितवाद के प्रचार के सहारे जातीय संघर्ष खड़ा किया जा रहा है। जिसे एक आम दलित अपना आन्दोलन समझ रहा है।...लेख राजीव चौधरी 

आत्महत्या की ओर क्यों बढ़ रहे हैं बच्चें


वैसे तो 6 दिसम्बर की सुबह अखबार में किसी से चर्चा या बहस करने को बाबरी ढांचा, अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले से लेकर माल्या के प्रत्यापण और सीबीआई विवाद जैसी कई खबर मौजूद थी। किन्तु इसी बीच एक छोटी सी खबर थी कि शिक्षक की डांट से आहत होकर दिल्ली के इंद्रपुरी इलाके में कक्षा 7 की एक छात्रा ने कथित तौर पर आत्महत्या कर ली। एक पल को तो यह सामान्य खबर लगी लेकिन दूसरे पल अचानक मन में प्रश्न उठा कि सिर्फ इस वजह से आत्महत्या कि शिक्षक ने डांट दिया था? इसके बाद जेहन में एक पुरानी और दुखद स्मृति जिन्दा हो गयी जब कई साल पहले मेरे में गाँव में पड़ोस के एक लडकें ने दसवीं क्लास में फैल हो जाने पर इस कारण आत्महत्या कर ली थी कारण उसके पिता ने उसे डांट दिया था।

ऐसा ही कुछ पिछले साल मध्यप्रदेश के अनूपपुर जिले में हुआ था जहां प्रिंसिपल की डांट-फटकार से आहत 10वीं की एक छात्रा ने खुदकुशी कर ली थी। इसके बाद का एक मामला और मुझे याद आया कुछ समय पहले दिल्ली कैंट स्थित आर्मी स्कूल में एक दसवीं की छात्रा स्कूल में कंप्यूटर की शिक्षिका के डांटने पर घर आकर जहर खा लिया था। दरअसल अब ये खबर इतनी आम चुकी है कि दिल्ली समेत देश के बड़े महानगरों से हर दूसरे-तीसरे दिन ऐसी खबरें अखबारों के कोनों में छपी होती है और भागती दौडती जिन्दगी में लोग इन पर ध्यान भी नहीं देते।

इन खबरों के जाल को तोड़ते हुए मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ गये जब गलती पर तो अध्यापक पीटते ही थे, कई बार तो बिना गलती के डांट खानी पड़ती थी। लेकिन कभी ऐसा ख्याल मन में नहीं आया किन्तु आज छात्रों को जरा सा डांटने पर कितनी आसानी से ऐसे कदम उठा लेते हैं। हालांकि विगत कुछ वर्षों में स्कूलों में बच्चों की पिटाई पर पूरी तरह बैन लगा दिया गया, फिर भी ऐसे मामले रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं। ऐसा लग रहा कि पढने, खेलने कुछ कर दिखाने की चाह से ज्यादा आज बच्चो में अपने आप को मिटा देने की राह ज्यादा भा रही है।

इसमें सबसे पहले समस्या को खोजना होगा इसके बाद समाधान पर ही चर्चा हो सकती हैं। यदि समस्या की बात स्कूल से करें तो बेशक आज स्कूलों में शारीरिक दंड पर पूरी तरह बैन लगा दिया, किन्तु जो बदले में मानसिक दंड देने की शुरुआत की वह ज्यादा खतरनाक हैं। इसमें छात्रों को बार-बार स्कूल से निकाले जाने की धमकी देना, उनके अभिभावकों को बुलाकर या क्लासरूम में सभी छात्रों के सामने अपमानित करना आदि हैं। इसे भावनात्मक रूप से मजबूत छात्र तो बर्दास्त कर जाते किन्तु जो छात्र भावनात्मक रूप से कमजोर होते है वह इसे बर्दास्त नहीं कर पाते। हालाँकि विद्यालय ऐसे मुद्दों को सामान्य बनाने में अहम भूमिका निभा सकते हैं जो पिछले कुछ सालों में नये अनुशाशन के लिहाज से वर्जित से हो गए हैं।

दूसरा एक तो आज स्कूल चाहरदीवारी वाली जगह बन गए हैं, जहां बच्चे केवल किताबी शिक्षा ग्रहण करते हैं दूसरा घर वहां भी वह दीवारों के अन्दर तक सिमट गये हैं। कॉलोनी भले कितनी पॉश हो, भले ही उन्हें आधुनिक सुविधाएं दी जा रही हैं, याद रखें बच्चें अकेले है। उनके पास संयुक्त परिवार नहीं है कि माँ ने डांट दिया तो दादी, ताई या बुआ ने स्नेह दे दिया। आज इस कमी के कारण उनके अंदर असुरक्षा की भावना पैदा हो रही है। बच्चों के साथ खेलें, उन्हें समय दे, भावनात्मक रूप से मजबूत करें, उनके अन्दर नकारात्मकता को जन्म न लेने दे। स्कूलों को समझना होगा उन्हें बच्चें को सिर्फ कागजी शिक्षा का ठेका नहीं दिया बल्कि उन्हें सामाजिक शिक्षा और भावनात्मक स्तर पर मजबूत बनाने की जिम्मेदारी भी हैं। इसमें सबसे बड़ी बात यह सोचनी होगी कि वह छात्र-छात्रा के अतिरिक्त अभी कोमल मन के बच्चें भी हैं वह इस उम्र में शरारत नहीं करेंगे तो फिर कब करेंगे? इसमें बेहतर समाधान तो यह है कि बच्चों के लिए स्कूलों में हलकी-फुलकी शरारत करने का भी समय अवधि होनी चाहिए ताकि वो भविष्य में जरा-जरा सी बात पर आहत न हो।
आज अभिभावकों द्वारा भारी भरकम रकम चुकाने के बाद भी छात्रों की आत्महत्या के अधिकांश मामले आधुनिक महंगे स्कूलों, कोचिंग संस्थानों से आ रहे है। मैं पिछले दिनों राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों को देखा तो अकेले कोटा में छात्र-छात्राओं द्वारा 2014 में 100 आत्महत्या के मामले दर्ज किए गए जिनमें से 45 कोचिंग छात्र थे तो वहीं 2015 में 20 छात्रों के खुदकुशी के मामले सामने आए थे।  
दरअसल शिक्षण संस्थाओं की तो प्रकृति है कि वह छात्रों का केवल क्लासरूम तक ही ध्यान रखती है। इसके बाहर की जि‍म्मेदारी छात्रों की खुद की होती है कि वह बाहर की संस्कृति से तालमेल कैसे बैठा पाते हैं। ऐसे में कुछ तो कई प्रेम संबंधों में सुकून ढूंढने लगते हैं। कुछ अकेलेपन का शिकार हो जाते है। यदि आप बच्चों को अच्छे नंबरों, करियर, नौकरी, उनकी आदतों, आदि के लिए लगातार डांटते फटकारते रहते हैं, तो वे खुद की दुनिया को सीमित समझने लगते हैं और जब उनका मानसिक दर्द असहनीय हो जाता है तब वो यह कदम उठाते हैं।
तीसरा सब जानते है छात्रों को पढने खेलने आगे बढ़ने के लिए साधनों, संसाधनों के साथ जरूरत के हिसाब से उम्र के एक पड़ाव तक आर्थिक सहायता की भी जरूरत होती हैं। कई बार यह सब चीजें तो उन्हें मिल जाती हैं किन्तु किसी भी तनाव या दबाव के दौर में वह नैतिक, मानसिक समर्थन नहीं मिल पाता जो पहले संयुक्त परिवारों में मिलता था। आप बच्चों को 20 वर्ष की आयु तक परिपक्व मत समझिये क्योंकि इस अवस्था तक वह अपनी सभी परेशानियों का हल अकेला नहीं खोज सकता उसके साथी बनिए उसके सहयोगी बनकर उसे परेशानियों का सामना करने की हिम्मत और प्रेरणा दीजिये।
अब हो क्या रहा है कि ज्यादातर जगह माता-पिता दोनों कामकाजी होते हैं. बच्चों को महंगे स्कूलों में डालकर अपनी पूर्ण जिम्मेदारी समझ लेते है, लाड-प्यार के नाम पर उसे महंगे खिलोने थमा देते है। इससे एक पल को बच्चा खुश तो हो जाता हैं लेकिन उसके अन्दर कहीं न कहीं अकेलेपन में अवसाद घर करने लगता हैं। ऊपर से माता-पिता का हर रोज ये कहकर दबाव बनाया जाना कि हम उसके ऊपर किस तरह धन खर्च कर रहे हैं यदि अच्छे अंक नहीं आये सोसायटी में उनकी इज्जत कम हो जाएगी।
आज अभिभावकों को समझना होगा कि लाड-प्यार, पालन-पोषण की परिभाषा बड़े स्कूल में दाखिला, महंगे खिलोने, ढेर सारे कपड़ों तक सिमित नहीं हैं। आप उन्हें पढ़ा रहे तो हर समय उन पर इसका अहसान मत दिखाइए ये बच्चें है आपके घोड़े नहीं कि आप इन पर दांव लगा रहे है कि अगर ये चूक गये तो आपका दांव बेकार हो जायेगा। उन पर अहसान जताने के बजाय उन्हें जिंदगी की अहमियत का अहसास दिलाएं। उन्हें समझाएं जिंदगी जीना एक ख़ूबसूरत चीज है और जिंदगी की आंखों में आंखें डालकर देखना असली बहादुरी है. हार-जीत जीवन का नियम हैं, हम विजेता बनकर जन्म नहीं लेते खिलाडी बनकर जन्म लेते हैं। जब हम जीवन के हर एक मैदान पर अच्छा खेलते है तभी विजेता बनते है। शायद तभी वह समस्याओं का सामना करेंगे वरना उनके पास सिर्फ घुटन, अकेलापन, चिडचिडापन मानसिक अवसाद के साथ आत्महत्या जैसी चीजें होंगी।...लेखक-राजीव चौधरी