Monday 29 January 2018

सत्य के पुजारी दयानंद

ॠषि दयानंद सरस्वती जी अपने गुरु स्वामी विरजानन्द सरस्वती जी से दीक्षित हो कर, गुरु को वेद विद्या के प्रचार का आश्वासन दिया और प्रचार के क्षेत्र में प्रवेश से पूर्व सुनियोजित ढंग से रणनीति निश्चित की, अनेकों मत मतान्तरों के धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया। आर्ष ग्रन्थों का स्वाध्याय तो गुरु चरणों में बैठ कर ही कर लिया था। अब सभी ग्रन्थों का सार-निचोड़ लगाना सरल था। वेद और ॠषिओं ने आदि काल में मनुष्यों को सत्यं वद धर्मं चर का उपदेश किया है। इसका अर्थ है कि सत्य बोलो, धर्म पर चलो। इससे संकेत मिलता है कि सत्य बोलना व सत्य का आचरण करना धर्म कहलाता है।

अब सत्य व असत्य के स्वरुप पर ऋषि विचार करते हैं कि सत्य किसी पदार्थ के यथार्थ व वास्तविक स्वरूप को कहते हैं । अन्त में सभी ग्रन्थों के सार के अनुसार महर्षि दयानन्द सरस्वती जी धर्म का सार संक्षेप व सरल भाषा में करते हैं कि -जो पक्षपात रहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है उसी का नाम धर्म हैं |” उपनिषदकार भी सत्य की परिभाषा करते हुए लिखते हैं—- सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं और असत्य से बढ़कर कोई पाप नहीं | सत्य से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं, इसलिए सत्य का ही व्यवहार करना चाहिए | धर्म उन सत्य कर्तव्य कर्मों का नाम है, जिनका पालन करके व्यक्ति इस संसार में सब प्रकार की भौतिक उन्नति कर सकता है तथा मोक्ष पा सकता है |

हमारे धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है कि :- धर्म को जानने वाला दुर्लभ होता है, उसे श्रेष्ठ तरीके से बताने वाला उससे भी दुर्लभ, श्रद्धा से सुनने वाला उससे दुर्लभ, और धर्म का आचरण करने वाला सुबुद्धिमान सबसे दुर्लभ है। इन दुर्लभ सुबुद्धिमानों की शृंखला में ॠषि दयानंद सरस्वती जी को विभूषित किया जा सकता है। सत्य के प्रति पूर्णतः समर्पित व्यक्ति दयानंद सरस्वती जी ने सत्य से बढ़कर कोई धर्म स्वीकार नहीं किया। सत्य और दयानंद एक दूसरे में इतना घुल मिल गए कि कोई भी प्रलोभन सत्य पथ के पथिक को डिगा नहीं सका। ॠषि जी को अनेकों प्रलोभन दिए | उन्हें मठाधीश बनाने के प्रलोभन भी दिए गये परन्तु सत्य के प्रति निष्ठा व श्रद्धा ने इतना कहने का साहस व बल दिया कि मेरी उँगलियों को चाहे बत्ती बना कर जला दिया जाए फिर भी मैं सत्य के साथ समझौता नहीं करूंगा |” सच्चे अर्थों में ऋषि जी प्रकाश स्तम्भ थे, प्रकाश स्तम्भ वह होता है जो मार्ग दर्शक होता है, सदमार्ग जानता है, उस पर चलता है और अन्य को चलने की प्रेरणा देता है। ऋषि जीवन पर्यंत सत्य विद्या के अनुकूल जीवन जीने के साथ सारी मानव जाति को सत्य मार्ग के लिए प्रेरणा स्रोत बन गए।

अपनी अमर कृति सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका में ॠषि दयानंद सरस्वती जी लिखते हैं कि उनका इस ग्रंथ बनाने का प्रयोजन सत्य अर्थ का प्रकाश करना है। अर्थात् जो सत्य है उस को सत्य और जो मिथ्या है उस को मिथ्या प्रतिपादित करना है, जो जैसा है, उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है, वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त रहता है, इसलिए सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता। सत्योपदेश ही मनुष्य जाति की उन्नति का कारण होता है। आर्य समाज के नियम बनाए कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। सभी काम धर्मानुसार अर्थात सत्य असत्य को विचार कर करने चाहिए।

सत्यमेव जयति नानृतं, सत्येन पन्था विततो देवयानी:।अर्थात् सर्वदा सत्य की विजय और असत्य की पराजय होती है और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है।
जिस प्रकार एक पृथ्वी है, एक सूर्य है, एक ही मानव जाति है ठीक इसी प्रकार मानवीय धर्म भी एक ही है जिस का आधार सत्य है, इसके अतिरिक्त बाकी तो सब भ्रम ही है न कि सत्य या धर्म | सत्य हमारे जीवन को सरल बनाता है। सत्य से हमें सुरक्षा का भाव मिलता है। सत्यवादी कभी ऊबता या दुखी नहीं होता। सत्यवादी के जीवन में सम्पूर्ण समरसता होती है।

संसार में आज बहुत बडी समस्या चल रही है, कि सत्य क्या है और असत्य क्या ? क्या उचित है क्या अनुचित है ?क्या ग्रहण करने योग्य है ?क्या छोड़ने योग्य है? क्या क्या पढ़ने और पढाने योग्य है ? क्या हितकर है? और क्या अहितकर है? ऐसे ही हजारों शंकाओं से सामान्य जन ही नहीं अपितु बुद्धिजीवी का बहुत बड़ा वर्ग भी भ्रम जाल में फंसा हुआ है। करोड़ों व्यक्ति सत्य को न पहचान पाने के कारण अंधविश्वासों और पाखंडों में फँसकर अपना जीवन, धन तथा शक्ति नष्ट कर रहे हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के लिखे सत्यार्थ प्रकाश के तीसरे समुल्लास में सत्य और असत्य को ठीक प्रकार से जानने के लिए पाँच प्रकार से परीक्षा करनी चाहिए।-

पहली जो जो ईश्वर के गुण-कर्म-स्वाभाव और वेदों के अनुकूल हो, वह वह सत्य और उससे विरूद्ध असत्य है। वेद ही सब सत्य विद्या की पुस्तक है। इस सृष्टि का कर्ता ईश्वर है और सृष्टि के उपयोग का विधि निषेधमय ज्ञान वेद है। वेद सर्वज्ञ ईश्वर के द्वारा प्रदत्त होने से निर्भांन्त एवं संशय रहित है, इसी वेद ज्ञान के अनुसार आर्यों ने सिद्धांत निर्धारित किए और जीवनयापन किया।
दूसरी जो-जो सृष्टि क्रम के अनुकूल है, वह वह सत्य और जो जो विरूद्ध है, वह सब असत्य है। सृष्टि की रचना और उसका संचालन ईश्वरीय व्यवस्था और प्राकृतिक नियमों के अधीन है। ये सभी नियम त्रिकालाबाधित है। प्रत्येक पदार्थ के गुण-कर्म-स्वाभाव सदा एक से रहते हैं। अभाव से भाव की उत्पत्ति अथवा असत् का सदभाव, कारण के बिना कार्य, स्वाभाविक गुणों का परित्याग, जड़ से चैतन्य की उत्पत्ति अथवा चेतन का जड़ रूप होना, ईश्वर का जीवों की भांति शरीर धारण करना आदि सब सृष्टि क्रम के विरुद्ध होने से असत्य है।

तीसरी आप्त अर्थात जो यथार्थ वक्ता, धार्मिक, सबके सुख के लिए प्रयत्नशील रहता है। ऐसा व्यक्ति छल कपट और स्वार्थ आदि दोषों से रहित होता है और धार्मिक और विद्वान होता है और सदा सत्य का ही उपदेश करने वाला होता है। सब पर कृपादृष्टि रखते हुए सब के सुख के लिए अविद्या अज्ञान को दूर करना ही अपना कर्तव्य समझता है। ऐसे वेदानुकूल विद्या का ही उपदेश करने वाले आप्त के कथन अनुकरणीय होते हैं। इस लिए कहा जाता है कि सत्यज्ञानी, सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारी और जो पक्षपात रहित विद्वान जिसकी कथनी और करनी एक जैसी हो, उसकी बात सब को मन्तव्य होती है।

चौथी मनुष्य का आत्मा सत्य-असत्य को जानने वाला है तथापि अपने हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों के कारण सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है। महर्षि दयानंद सरस्वती जी के अनुसार मनुष्य का आत्मा सत्य-असत्य को जानने वाला है, अर्थात् आत्मा में सत्य और असत्य का विवेक करने की शक्ति है। अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या के अनुकूल अर्थात जैसा अपने आत्मा को सुख प्रिय और दु:ख अप्रिय है,ऐसी ही भावना सम्पूर्ण प्राणी मात्र में रखनी चाहिए। अर्थात् जिस आचरण को, व्यवहार को हम अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के साथ कभी भी नहीं करना चाहिए| धर्म और सत्य का सार-निचोड़ यही है, इसे ही सुनना और सुनकर इस पर ही आचरण करना मानव जाति का प्रथम कर्तव्य है |

पाँचवी आठों प्रमाण अर्थात प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापति, सम्भव और अभाव से प्रतिपादित होना चाहिए|
दयानंद सरस्वती जी की शिक्षा व्यक्ति को एक परिपूर्ण मानव बना सकती है। व्यक्ति जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति के भेदों से ऊपर उठकर मनुष्य मात्र की एकता के लिए सदा ही प्रयास शील बन जाते हैं। जीवन और जगत के प्रति हमारी सोच अधिकाधिक वैज्ञानिक होती चली जाती है। हम इसी बात को सत्य मानेंगे जो युक्ति, तर्क और विवेक की कसौटी पर खरी उतरती है। इसे ही ॠषि दयानंद सरस्वती जी ने सृष्टि क्रम से अविरूद्ध होना कहा है। मिथ्या चमत्कारों और ऐसे चमत्कार दिखाने वाले ढोंगी बाबाओं के चक्कर में दयानंद जी के अनुयायी कभी नहीं आते। वैदिक सतग्रंथो के अध्ययन में व्यक्ति की रूचि बढ़ेती है, फलतः बौद्धिक क्षितिज विस्तृत होता है और विश्व बंधुता बढ़ती है। महर्षि ने वेदों के सनातन चिन्तन को आधार बनाकर नियम बना दिया कि वेद सब सत्य विद्या की पुस्तक है, सत्य को जीवन का आधार बना कर जीवन जीने की जो शैली निर्मित की उस पर स्वयं चले और सामान्य जनों को उस पर चलने के लिए प्रेरित किया। उनका तेजस्वी और आचरणीय व्यक्तित्व आम आदमी में स्फूर्ति भरने वाला था। सत्य के तेज़ से ॠषि दयानंद के व्यक्तित्व से प्रभावित स्वामी श्रद्धानंद जी लिखते हैं कि ह्रदय स्वामी जी की ओर आकर्षित होता जाता था, जैसे कि भटका हुआ जहाज़ प्रकाश पा कर तीव्रता से उधर बढ़ जाता है।

ॠषि दयानंद सरस्वती जी एक ऐसा सत्य का पूजारी, धर्म धुरंधर जिसने सभी पाखंडों का खंडन कर आर्यों को सत्य की राह दिखाई। एक ऐसा सत्य का पुजारी जो अपनी हर बात को डंके की चोट पर कहता था। एक ऐसा व्यक्ति जिसने कभी भी सत्य से समझोता नहीं किया, एक ऐसा महान व्यक्ति जिस ने लाखों की संपत्ति को ठोकर मार दी पर सत्य के मार्ग से विचलित नहीं हुआ। महर्षि दयानन्द सरस्वती जी एक ऐसे ब्रह्मास्त्र थे जिन्हें कोई भी पंडित, पादरी, मौलवी, औघड़, ओझा, तांत्रिक हरा नहीं पाया और न ही उन पर अपना कोई मंत्र तंत्र या किसी भी प्रकार का प्रभाव छोड़ पाया।
जन सामान्य को ऋषि का संदेश बड़े ही सरल शब्दों में यह है कि व्यक्ति को सदा सच बोलने का साहस रखना चाहिए। परिणाम भुगतने की शक्ति परमात्मा देंगे। आइए संकल्प लें कि आज से ही नहीं अपितु अभी से हम केवल ऋषि दयानंद जी के सच्चाई के ही मार्ग पर चलेंगे।
ईश्वर हम सब को श्रेष्ठ बुद्धि दे कि सदा सत्य मार्ग पर चलें।
राज कुकरेजा-करनाल



तो फिर इस देश में धर्मनिरपेक्ष क्या हैं?

विश्व की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देश इंडोनेशिया की जलसेना का ध्येय वाक्य हैं जलेष्वेव जयामहे संस्कृत भाषा में हैं लेकिन ये कभी वहां साम्प्रदायिक नहीं हुआ. पर विश्व में तीसरे नम्बर पर बोली जाने वाली भाषा हिंदी और संस्कृत में गाये जाने वाली स्कूल की प्रार्थना हिंदुस्तान में साम्प्रदायिक हो गयी. जब 10 जनवरी को विश्वभर में विश्व हिंदी दिवस की शुभकामनाये प्रेषित की जा रही थी तब माननीय उच्च न्यायालय केंद्र सरकार से सवाल पूछ रहा था कि विद्यालयों में हिंदी और संस्कृत भाषा में गाई जाने वाली प्रार्थना कहीं साम्प्रदायिक तो नही?

हालाँकि लोगों को उस समय ही समझ जाना चाहिए था जब बच्चों की किताब में से गणेश सांप्रदायिक हुआ और उसकी जगह से गधे धर्मनिरपेक्ष ने ले ली थी. लेकिन इसके बाद भारत माता की जय साम्प्रदायिक हुआ, फिर राष्ट्रगीत वंदेमातरम् और राष्ट्रगान भी साम्प्रदायिक हुआ. अब देश के एक हजार से ज्यादा केंद्रीय विद्यालयों में बच्चों द्वारा सुबह की सभा में गाई जाने वाली प्रार्थना भी साम्प्रदायिक हो गयी? हो सकता हैं कुछ दिन बाद देश का नाम भी साम्प्रदायिक हो जाये और इसे भी बदलने के लिए नये नाम किसी विदेशी शब्दकोष से ढूंडकर सुझाये जाने लगे. इस हिसाब तो अब तय हो जाना चाहिए कि आखिर इस देश में धर्मनिरपेक्ष क्या हैं?

देश की सबसे बड़ी न्यायिक संस्था द्वारा पूछा गया सवाल किस और इशारा कर रहा है समझ जाईये सुप्रीम कोर्ट पूछ रही है कि क्या विद्यालयों में सुबह गाये जाने वाली प्रार्थना क्या किसी धर्म विशेष का प्रचार है? लगभग पचास सालों से गाई जा रही प्रार्थना सांप्रदायिक सद्भाव और सौहार्द का प्रतीक थी और अब अचानक धर्म विशेष का प्रचार करने वाली बन गई. इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीर संवैधानिक मुद्दा मानते हुए कहा है कि इस पर विचार जरूरी है. कोर्ट ने इस सिलसिले में केंद्र सरकार और केंद्रीय विश्वविद्यालयों नोटिस जारी कर जवाब मांगा है.

यदि केन्द्रीय विद्यालयों के मानव कल्याण के गीत साम्प्रदायिक हैं तो कश्मीर की मस्जिदों मदरसों में जब ये गीत गाए जाते हैं कि खुदा के दीन के लिए, ये सरफरोश चल पड़े, ये दुश्मनों की गर्दनें उड़ाने आज चल पड़े किसी में इतना दम कहां कि इनके आगे डट सके तो इन्हें क्या कहेंगे? कमाल हैं ना पुरे देश में एक साथ एक ऊँचे स्वर में दिन में पांच बार गूंजने वाली अरबी भाषा में अजान धर्मनिरपेक्ष हैं और स्कूलों में सत्य और मानवता की राह सिखाने वाले हिंदी और संस्कृत के कुछ वाक्य साम्प्रदायिक? इन प्रार्थनाओं में कौनसे धर्म का या किस धर्म के भगवान का नाम आ रहा है ? क्या सभी के कल्याण की प्रार्थना ऐसे शब्दों में जिसमें किसी धर्म या भगवान का नाम नहीं है, नही की जा सकती?

ऐसा क्यों हैं थानों में तहरीर से लेकर तहसील में बेनावे रजिस्ट्री के सारे काम उर्दू में होते है वो सब धर्मनिरपेक्षता है और भारतीय भाषा में बोले जाना वाला अभिवादन शब्द नमस्ते साम्प्रदायिक? माननीय उच्च न्यायालय में ही जिरह, बहस, वहां के अधिकांश कार्य उर्दू भाषा में होते आ रहे हैं क्या सर्वोच्च अदालत ने कभी इस पर सवाल क्यों नहीं पूछा? हो सकता हैं कल हिंदी सिनेमा से भी पूछ लिया जाये आप हिंदी में फिल्में बनाते है क्या यह किसी धर्म विशेष का प्रचार तो नहीं हैं? या फिर हिंदी सिनेमा के गानों पर भी सवाल खड़े होने लगे?

दूसरी बात यदि स्कूल में प्रार्थना में बोले जाने वाला संस्कृत का श्लोक साम्प्रदायिक हैं तो माननीय उच्च न्यायालय जी उच्चतम न्यायालय के चिन्ह नीचे से यतो धर्मस्ततो जयः का वाक्य हटाकर कलमा लिखवा दीजिये? भारत सरकार के राष्ट्रीय चिन्ह से सत्यमेव जयते, दूरदर्शन से सत्यं शिवम् सुन्दरम,  आल इंडिया रेडियो से सर्वजन हिताय सर्वजनसुखाय‌, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी से हव्याभिर्भगः सवितुर्वरेण्यं और भारतीय प्रशासनिक सेवा अकादमी से योगः कर्मसु कौशलं शब्द भी इस हिसाब से साम्प्रदायिक हैं? दरअसल ये 21 वीं सदी का भारत है जिसे यहाँ कुछ काम नहीं होता वो यहाँ कि सांस्कृतिक विरासतों, धरोहरो, से छेड़छाड़ करने लगता हैं बाकि बचा काम मीडिया में बैठे कथित बुद्धिजीवी पूरा कर देते है.
दया कर दान विद्या का हमें परमात्मा देना
दया करना हमारी आत्मा में शुद्धता देना
हमारे ध्यान में आओ प्रभु आंखों में बस जाओ
अंधेरे दिल में आकर के प्रभु ज्योति जगा देना

या फिर असतो मा सदगमय॥ तमसो मा ज्योतिर्गमय॥ मृत्योर्मामृतम् गमय ॥ अर्थात हमको असत्य से सत्य की ओर ले चलो. अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो. मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो. इसमें कौनसा ऐसा शब्द है जो किसी धर्म या पंथ की भावना पर हमला कर रहा हैं? क्या अब संस्कृत और हिंदी के श्लोको और वैदिक प्रार्थना पर अदालत की कुंडिया खटका करेगी? किसी भी देश की संस्कृति उसका धर्म उसी की भाषा में ही समझा जा सकता हैं हिंदी और संस्कृत तो हमारे देश के मूल स्वभाव में हैं क्या अब देश के मूल स्वभाव को बताने के लिए न्यायालय की जरूरत पड़ेगी. यदि प्रार्थना के यही शब्द उर्दू या अरबी में लिख दिए जाये तो क्या इसमें धर्मनिरपेक्षता आ जाएगी?
किसी ने इस याचिका पर सही लिखा कि इस प्रार्थना के एक-एक शब्द पर गौर करें तो भी कहीं यह संकेत नहीं मिलता कि यह किसी धर्म विशेष का प्रचार कर रही है. इस प्रार्थना में मेलजोल, सद्भाकव, वतनपरस्ती, ईमान, प्रेम, आत्मिक शुद्धता की कामना की गई है. यदि हम अपने बच्चों को यह नहीं सिखाएंगे तो क्या आईएसआईएस और कश्मीरी पत्थरबाजों की भाषा सिखाएंगे. या फिर हम जेएनयू की तरह पाकिस्तान के समर्थन में और भारत के विरुद्ध नारेबाजी केन्द्रीय विद्यालयों या अन्य विद्यालयों में भी सिखाना चाहेंगे. यदि हमारी सोच भारतीय प्रतीकों, चिन्हों आत्मबल पैदा करते गीतों का सिर्फ विरोध करने की है तो हमें डूब मरना चाहिए...राजीव चौधरी 



वेद और कुरान एक है?

हर वर्ष की तरह इस बार भी विश्व पुस्तक मेले में जाने का सोभाग्य प्राप्त हुआ. इस बार मुझे ख़ुशी इस बात की हुई कि बड़ी संख्या में युवा साहित्य में रूचि लेते दिखे. जिनमें बड़ी संख्या में लड़कियां थी जो हिंदी साहित्य और अपने वैदिक धर्म से जुडी पुस्तके खरीदती नजर आई. खैर मैं हॉल नम्बर 12 ए में जब गया तो बाई और थोडा सा चलते ही सामने के एक स्टाल पर लिखा नजर आया वेद और कुरान एक है. मैंने स्टाल के बाहर खड़े युवक से जिज्ञासा वश पूछ लिया, श्रीमान जी वेद और कुरान एक कैसे हैं? युवक ने कुरान हाथ में लेकर कहा कुरान सिर्फ दस रूपये मेंमैंने फिर उत्सुकता वश पूछ लिया आप ने लिखा है कि वेद और कुरान एक है, लेकिन वेद ग्रन्थ तो स्रष्टि के आरम्भ में ईश्वर का दिया ज्ञान हैं, जो सिर्फ मनुष्य के कल्याण के बारे में बताता है जिसमें कोई इतिहास नहीं है, भूगोल नहीं न कोई रूहानी कथा वेद वही बात कहता जो विज्ञान अब कह रहा है, दूसरी बात वेद कहता है कि मनुष्य बनो, जबकि आपकी पुस्तक सिर्फ 1450 वर्ष पहली हैं, जो मनुष्य नहीं बल्कि मुसलमान बनने बनाने की प्रेरणा देती है तो दोनों एक कैसे?

युवक ने कहा आप इस्लाम और कुरान को जानना चाहते हैं, तो आप इसे पढ़िए. इस्लाम एक बेहद शांतिपूर्ण धर्म है, आप इसे पढेंगे तो सब जान जाएँगे
श्रीमान जी, वैसे तो आईएसआईएस, तालिबान, बोको-हरम, लश्कर जैसे संगठन के कारनामे, बाजारों में बिकती यजीदी समुदाय की मासूम बच्चियों और अफगानिस्तान, सीरिया यमन के हाल देखकर काफी समझ चूका हूँ आप कहते है तो कुरान ले लेता हूँ 
युवक बोला, आप उन सबको छोडिए, वे लोग इस्लाम और कुरान को नहीं समझते!
मैंने पूछा, ओह!! इसका मतलब यानी उन्होंने ये कुरान नहीं पढ़ी?? या कोई गलती से कोई दूसरी कुरआन पढ़ ली है?
नहीं जनाब, उन लोगों ने कुरान तो यही पढ़ी है. पर उन्होंने इसका गलत तर्जुमा (अर्थ) निकाल लिया है. भाईजान जो कम पढ़े लिखे लोग होते हैं वो इस्लाम की राह से भटक जाते हैं वरना इस्लाम तो अमन सिखाता है..
जी, हो सकता है. पर मैंने तो सुना है कि वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर का मुख्य हमलावर मोहम्मद अत्ता एयरोनाटिक्स इंजीनियर था, ओसामा बिन लादेन ने भी सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की थी, अबू बक्र अल बगदादी पीएचडी है, पाकिस्तान के हाफिज सईद के पास दो-दो मास्टर्स डिग्रियां हैं और भी कई आतंकी समूह के मुखिया बेहद पढ़े लिखे और बड़े डिग्रीधारी है?
अरे जनाब वो पागल हैं भारत में तो ऐसा नहीं है.? युवक ने पूछा!
मैंने कहा, मैं आपसे थोडा सा सहमत हूँ पर पूरी तरह नहीं! क्योंकि अपने ही देश में मुम्बई हमलों का आरोपी याकूब मेमन पैशे से चार्टर्ड अकाउंटेट था, संसद हमले का आरोपी अफजल गुरु वारदात के समय एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहा था, आतंकी संगठन आईएसआइएस का झंडा और लोगो बनाने वाले अपने ही देश का मोहम्मद नासिर भी शायद कम पढ़ा लिखा नहीं होगा? इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन, में मार्केटिंग मैनेजर मोहम्मद सिराजुद्दीन इस्लामिक स्टेट के लिए सदस्य बनाने का काम करता था. इसके बाद पिछले वर्ष ही लखनऊ मुठभेड़ में मारा गया आतंकी सेफुल्लाह भी कोई कम पढ़ा लिखा नहीं था?
आपसे वही तो कह रहा हूँ कि इन लोगों ने इस्लाम को ठीक से समझा नहीं है. आप कुरान सही ढंग से पढ़िए, हदीसों को समझिए. आप समय दें तो मौलाना जी से आपकी मुलाकात करवा दूँ?
बात ठीक है श्रीमान जी पर मेरे जैसे नए लोगों की इस्लाम को समझाने के बजाय आप कुरान का सही तर्जुमा करने के लिए अपने मौलाना जी को सीरिया, यमन, लीबिया, अफगानिस्तान भेज दीजिये. जो कुरान का गलत इस्तेमाल कर रहे हैं, आप जाकर असली कुरान और सही इस्लाम का प्रचार करके, उन भटके हुए लोगों को क्यों नहीं सुधारते??  ताकि आपके शांतिपूर्ण धर्म की बदनामी ना हो? श्रीमान जी यमन और सीरिया भी दूर है क्यों न उन लोगों को सही तर्जुमा समझाया जाये जो पैगम्बर पर एक फेसबुक पोस्ट को लेकर बंगाल में बसीरहाट को जला डालते है, कमलेश तिवारी के एक बयान के बाद मालदा की सड़कों पर हिंसा करने करीब 2 लाख उतर आते है. रोहिंग्या मुद्दे पर बंगाल में खड़े होकर कहते है कि उनकी हमारी कुरान एक है, या फिर उन्हें ही समझा दीजिये जो तीन तलाक और हलाला पर सरकार को घेरकर बैठे है?
अच्छा चलो वो भी दूर है कश्मीर में आईएस के झंडे लहराते युवाओं को ही समझा दीजिये, शांति का ये पाठ दक्षिण कश्मीर की मस्जिद में मुफ्ती शब्बीर अहमद कासमी को भी समझा दीजिये जो अपनी तकरीरों से पिछले दिनों आतंकी संगठन से जुड़ने की अपील कर रहे थे, यही नहीं खुद को सूफी विचारधारा का कहने वाले मौलवी सरजन बरकती ने भी हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी का गुणगान किया था और लोगों को समर्थन के लिए उकसाया भी था. चलो वो भी दूर है उमर खालिद जैसे युवाओं को ही समझा दीजिये जो खुलेआम कह रहे होते है भारत की बर्बादी तक जंग चलेगी? भारत तेरे टुकडें होंगे इन्साल्लाह-इन्साल्लाह

युवक ने कहा जनाब इन सब बातों के लिए मेरे पास टाइम नहीं है आप फिर किसी दिन आना अभी कुरान लेनी हो लीजिये वरना रहने दीजिये..अब मैं क्या कहता! बस यही कहा आपके अनुसार कुरान और वेद ही हैं तो मेरे पास वेद है वही मुझे मनुष्यता के श्रेष्ठ मार्ग का रास्ता दिखाते रहते है. नमस्ते ..राजीव चौधरी 

भगवती साईं जागरण या मनोरंजन की दुकान

बसंत पंचमी का पावन पर्व था। पटना के मशहूर बी.एन. कालेज में एक तरफ जहां कुछ छात्र मां सरस्वती की पूजा करने में व्यस्त थे तो वहीं दूसरी तरफ कालेज हास्टल के कुछ छात्र रात भर अश्लील गानों पर डांस करते रहे। सरस्वती पूजा के नाम पर पूरी रात अश्लील गानों पर नंगा नाच हुआ अर्धनग्न युवतियां छात्रों के बीच स्टेज पर ठुमकती रही और कुछ छात्र अपने हाथ में ली हुई बंदूक से फायरिंग करते रहे। आपको बता दूँ कालेज  में हर साल इस तरह के आयोजन होते हैं जहां सरस्वती पूजा के नाम पर अपने मनोरंजन का साधन ढूंढ़ते हुए बार-बालाओं का नाच करवाया जाता है।

हिन्दी के महान कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी की सरस्वती वंदना पर एक प्रसिद्ध कविता है-‘‘वर दे वीणावादिनी! वर दे। प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव, भारत में भर दे। वर दे वीणावादिनी! वर दे।’’ सरस्वती वंदना के इस गीत की जगह यहाँ भोजपुरी, हिन्दी भाषा में अश्लील गीतों का बोलबाला रहा। हालाँकि धर्म के नाम पर मनोरंजन का यह पहला वाक्या नहीं है। हमारे देश में आज कल यह काम धड़ल्ले से जारी है। एक बड़ा वर्ग इसे धर्म का हिस्सा बताकर मन्त्रमुग्ध है उनकी माने से जागरण से ही धर्म रक्षा हो रही है। बाहर सांस्कृतिक कार्यक्रम लिखा जाता है अन्दर कुछ अलग ही संस्कृति चलती है।

चलो कुछ देर शेष भारत की बात छोड़ दी जाये और अकेली राजधानी दिल्ली की बात करें तो फ्लाई ओवर, के नीचे, चैराहों के इर्द-गिर्द लटके बोर्ड जिन पर लिखा होता है ‘‘सोलहवां माँ भगवती जागरण’’ मशहूर गायक फलाना, तो कहीं 21वां साईं जागरण, जिसमें स्थानीय नेताओं की फोटो भी चिपकी होती है। कहीं-कहीं तो सौवां विशाल भगवती जागरण लिखा भी दिखता है। मतलब अब जागरण के साथ विशाल शब्द लिखा जाने लगा। कभी कोई यह समझे कि छोटा-मोटा जागरण हो!

जागरण की इस मनोरंजन भरी रात पर शोध करें तो इसमें आपको धर्म, ईश्वर भक्ति के अतिरिक्त इसमें बाकी सब कुछ दिखाई देगा। रात्रि जागरण अमूमन स्कूलों, गलियों या मेन रास्तों के आस-पास होता हैं, एक बड़ी, साथ में कुछ छोटी मूर्तियाँ होती हैं। इसके बाद बड़े-बड़े स्पीकर और श्रृंगार से सजे-धजे गायक, गायिका आते हैं पूरी रात गीत-संगीत चलता है। तेज आवाज पर लोग नाचते हैं। जिस देवी-देवता के नाम से जागरण होता है शायद वह इन थिरकते गीतों से खुश हो जाता होगा? सुबह को, लाइट, टेंट, वाले से लेकर गायक आदि अपना-अपना मेहनताना लेकर चले जाते है। 

हालाँकि अब जागरण का छोटा रूप भी चल रहा है जिसे माता की चैकीकहा जाता है। जागरण पूरी रात का होता है, चैकी यह दो घंटे की तारा रानी की कथा के साथ संपन्न हो जाती है। ये आप छह से नौ, नौ से बारह या बारह से तीन के टाइम में करा सकते हैं। बिल्कुल मूवी के शो की तरह। कनाडा से चलने वाली साइट देवी मंदिर डॉट कॉम पर जाइये दुर्गा सप्तशती में लिखा है कि अगर लोग साल में एक बार माता की चैकी लगायें तो उन्हें धन मिलेगा, काबिल बच्चे होंगे और बाधाएं दूर हो जाएंगी। यह बिल्कुल गृह क्लेस, सौतन, दुश्मन से छुटकारा, खोया प्यार, मनचाहा प्यार, पांच मिनट में जमीन विवाद सुलझाने वाले बंगाली बाबाओं की ही बड़ी फर्म है। जो अनपढ़ है उनके लिए रूहानी, बंगाली बाबा हैं और जो पढ़े लिखे है उनके लिए ये अंधविश्वास से भरी ये साईटे हैं।

जागरण मण्डली भी कई तरह की होती हंै किसी के पास सिर्फ गायक होते हैं, किसी के पास अच्छा तेज आवाज वाला डीजे साउंड सिस्टम, तो किसी के पास सारा जुगाड़ एक जगह ही मिल जाता है, वह बस पूछ लेते हं नाचने वाले लड़के चाहिए या लड़कियां? किसके नाम से कराना है मसलन भगवती, साईं, सरस्वती या दुर्गा? यदि कोई साईं जागरण कराता है तो इसके बाद शिरडी वाले साईं बाबा की जयकार गूंजती रहेगी महाभिषेक के साथ ही फूल बंगला, छप्पन सत्तावन भोग सजाकर, जमकर जयकारे लगाए जाते हैं। अगले दिन अखबार के किसी छोटे से कोने में खबर होती है कि फला जगह जयघोषों की गूंज और भक्ति से सराबोर भक्तों के नृत्य से समूचा वातावरण साईंमय नजर आया। भजन-संगीत और देर शाम से रंगीन रोशनी में नहाए पंडाल में भक्त जमकर झूमे। फला जगह से पधारे गायक ने भक्तिगीतों से श्रद्धालुओं को सराबोर कर दिया।

अब शायद कुछ लोग मेरे विचारों से सहमत न हों, मुझसे रुष्ट हो जाएं, भला-बुरा कहें। हो सकता है कि वे ही सही हों। पर मैं तो अपने मन की ही कह सकता हूँ। जो देखता आया हूँ, जो देख रहा हूँ, वही कह सकता हूँ। जैसे-जैसे देश में धर्म के नाम पर अनुष्ठानों में बढ़ोतरी होती जा रही है वैसै-वैसे देश में धर्म की स्थिति कमजोर होती जा रही है। हालांकि भारत के अनेक कथित धर्म गुरु, सोशल मीडिया पर धर्म रक्षक, बड़ी ही बुलंद और ऊंची आवाज में इस बात को नकारने की कोशिश करते हैं और ऐसा करते हुए उनके चेहरे पर आई चमक और आत्मविश्वास से ऐसा लगता है कि बिना कुछ किए-धरे उनके सिंहनाद से हिन्दू धर्म पूरे ब्रह्मांड की धुरी बन जायेगा।

मुझे तो ऐसा लगता है कि ऐसे तेवर अपनी जिम्मेदारियों से भागने का सबसे आसान तरीका है। संकट को स्वीकार ही न करो। जब संकट है ही नहीं तो उससे निपटने के लिए कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं। जागरण के नाम पर अश्लील गीत गाओ, अनुष्ठान करो, हलवा-पूड़ी खाओ। अगर कोई इसका कारण जानना चाहे तो उसे आर्य समाजी, नास्तिक, फलाना ढिमका कहकर हडकाओं यह शब्द संवाद की रीत इनके शिष्य पूरे मनोयोग से पालन करते हैं। अब सवाल यह है यदि लोग भगवान को खुश करने के लिए यह सब करते है तो क्या भगवान भी दुखी रहते हैंयदि नहीं तो अपने स्वयं के मनोरंजन को धार्मिक मंच देकर अश्लील गानों पर थिरकना कहाँ तक उचित है


इसका जिम्मेदार कौन?

अंधविश्वास के चलते मुंबई के विरार में एक 11 साल की बच्ची की जान चली गयी। मासूम सानिया को कब्ज की शिकायत थी। डॉक्टर से इलाज न करवाकर सानिया की मां ने सानिया के साथ काला जादू किया। इस दौरान उसने सानिया के सीने पर चढ़कर डांस किया। काला जादू करने से पहले सानिया की चीख को बाहर जाने से रोकने के लिए उसके मुंह में कपड़े ठूंसे गए थे। दर्द तड़फती इस मासूम बच्ची के उसकी चाची ने उस वक्त उसके पैर पकड़े हुए थे। अंत में बच्ची ने दम तोड़ दिया। बेशक लोगों के ये जनाजा छोटा था लेकिन सानिया के सवालों ने इसे भारी जरूर बना दिया। यह मात्र संयोग नहीं है कि जिस समय तमाम टीवी चैनलों पर भूत-प्रेत और मृतात्माओं से संबंधित सीरियलों की बाढ़ आई हो उसी समय एक ऐसी हत्या का हो जाना भला किसी को चकित क्यों करेगा?
हम दुनिया के सामने अपनी वैज्ञानिक उपलब्धियों पर भले ही कितना ही इतरा लें, लेकिन इस हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं कि देश के एक बड़े तबके के जीवन में अंध विश्वास घुल- मिल सा गया है। आज भी झाड़-फूंक, गंड़ा-ताबीज, ड़ायन-ओझा, पशु या नरबलि जैसी कुप्रथाओं से निपटना एक बड़ी चुनौती भरा काम है। आजकल धर्म के आधार पर ऐसी-ऐसी बाते की जाने लगी हैं, जिनका कोई वैज्ञानिक या तार्किक आधार नहीं है।

भगवान की आज्ञा का अंदाज लगाकर अंधविश्वास शुरू करने वाले तमाम लोग पता नहीं इस खबर से कितने सहमे होंगे? लेकिन हर रोज किसी न किसी घर गाँव या शहर इस तरह की खबरें आना आम सी बात हो गयी हैं। पढ़े लिखे लोग चाहे वे वैज्ञानिक हां या डॉक्टर, अंधविश्वास के शिकार हो जाते हैं। दूसरी ओर वैज्ञानिक बातों के संस्कार आज की शिक्षा में अथवा समाज में नजर नहीं आते और वैज्ञानिक विपरीत व्यवहार करते हैं। इससे अगर बचना है, तो एक व्यूह निर्माण जरूर करना होगा। अंधविश्वास के विरु( जनजागरण का कार्य निःसंकोच निडरता से और प्रभावी ढ़ंग से होना चाहिए। यह जागृति विज्ञान का प्रसार ही नहीं बल्कि मनुष्यता पर एक उपकार भी होगा।

दरअसल धर्म के अन्दर मूर्खता की मिलावट बड़ी सावधानी से की गयी है, इस कारण जब कोई अंधविश्वास के खिलाफ बात करता है तो उसे आसानी से धर्म विरोधी तक कह दिया जाता है। जबकि अंधविश्वासी व्यवहार खुलेआम शोषण को बढ़ावा देता है। हाल ही में कई बाबाओं का पकड़ा जाना, धर्म की आड़ में उनके शोषण के अड्डों का खुलासा होना कोई लुका छिपी की बात नहीं रही। पर सवाल अब भी वहीं खड़ा है कि इन सब तमाम पाखण्ड और अंधविश्वासों के लिए क्या केवल गरीब, अशिक्षित ही दोषी है या पढ़े लिखे देश के जाने-माने गणमान्य चेहरे भी? क्योंकि साल 2015 की बात है देश की वर्तमान लोकसभा अध्यक्ष इंदौर की सांसद श्रीमती सुमित्रा महाजन भी अंधविश्वास के इस कुण्ड में आहुति देते नजर आई थीं। जब मध्यप्रदेश के निमाड़ व मालवा अंचल में मानसूनी बारिश न होने से वहां के निवासी इंद्र देवता को मनाने की जुगत में जुटे थे तब पंढ़रीनाथ स्थित इंद्रेश्वर मंदिर में पहुंच कर रूद्राभिषेक करने लगी। यहां तक भी ठीक था लेकिन उन्होंने अंधविश्वास की सारी हदे लांघते हुए माला भी जपना शुरू कर दी थी। पांच दिन बाद बारिश हुई लोगों ने माला का जपना, बारिश का आना एक जगह जोड़कर इस अंधविश्वास को आस्था का जामा पहना दिया।

हालांकि एक जिम्मेदार महिला होने के नाते उन पर यह सवाल खड़ा होना लाजिमी है कि आखिर इस तरह के ढ़कोसले से ही यदि तमाम काम हो सकते थे तो फिर देश के आम गरीब के टैक्स की राशि को व्यर्थ में ही मौसम से जुड़े वैज्ञानिक अनुसंधानों में क्यों गंवाया जा रहा है? इसके कुछ दिन बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री सि(रमैया ने अपनी आधिकारिक गाड़ी को इस अंधविश्वास की वजह से बदल दिया था कि उनकी गाड़ी पर कोंवा बैठ गया था।

कुछ इसी तरह का कृत्य कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री रहे बीएस येदियुरप्पा ने एक बार अपनी सरकार बचाने के लिए न केवल मंदिरों में पूजा-अर्चना कि थी बल्कि दुष्ट आत्माओं से रक्षा के लिए एक पुजारी से प्राप्त ताबीज को भी ग्रहण किया था। कमाल देखिये एक राजनितिक पार्टी काला जादू कर रही थी और दूसरी उससे डर रही थी यह भारत में ही संभव है। अधंविष्वास से ओतप्रोत इस तरह के कारनामों की भारत में कमी नही है। इस तरह का यह पहला मामला भी नही है। अक्सर हमें राजनेताओं द्वारा वास्तु और ज्योतिष के हिसाब से घरों व कार्यालयों का चुनाव या उसमें फेरबदल कराने की कोशिशें भी देखने-सुनने को मिलती रही हैं।

नेता हो या खिलाड़ी या फिर जाने माने अभिनेता देश को दिशा देने वाले कर्णधारों को लेकर अंधविश्वास की ये खबरे हमें पढने-सुनने व देखने को मिलती रहती हैं। हमारे ये नीति निर्धारक ज्योतिषियों, तांत्रिकों , वास्तुविदों की सलाह पर अच्छा मुहूर्त देख कर पर्चा दाखिल करने, सरकारी आवास का नम्बर चुनने और खिड़की दरवाजे की दिशा बदलने, झाड़-फूंक वाले ताबीज पहनने से भी गुरेज नहीं करते हैं। जब नियम नीतियों, कानूनों को अमलीजामा पहनाने वाले लोग ही स्थितियों को तर्कों की कसौटी पर परखने के बजाय एक अंधी दौड़ में शामिल हो जाएं तो आम लोगों में तर्कसंगत सोच के विकास की उम्मीद भला कितनी की जा सकती है? वैज्ञानिक के अवैज्ञानिक व्यवहार को सुधारने के लिए जागरुकता अनिवार्य हो गई है। लेकिन कटु सत्य यह है कि जनजागरण के प्रमुख स्थानों पर ही अंधविश्वास का डेरा है। उससे तो यही प्रतीत हो रहा है कि कोई न कोई इसे पाल-पोस कर समाज में जिन्दा रखने का पक्षधर है। यदि ऐसा है तो फिर किसी मासूम सानिया की मौत पर सवाल कौन खड़े करेगा या कौन इस तरह की मौत का जिम्मेदार होगा?

लेख-राजीव चौधरी