Thursday 22 February 2018

हमें बोध कब होगा ?


सारी दुनिया से न तो महर्षि का परिचय हुआ, ना ही महर्षि के उद्देश्यों को वे समझ सके इसलिए ऐसे अपरिचित व्यक्तियों के संबंध में तो सोचना भी क्या ?
मैं उन महानुभावों के संबंध में सोच रहा हू जो महर्षि का अपने को अनुयायी कहते हैं। गुरुवर दयानन्द के नाम की जय बोलते हैं ऋषि बलिदान दिवस, जन्मोत्सव और बोधरात्रि धूमधाम से मनाते हैं। 

महर्षि के कार्यों से, उनके उद्देश्यों से आत्मिक संबंध रखने वाले देश-विदेश में बड़ी संख्या में सदस्य हैं। इतनी बड़ी संख्या व विस्तार होने के पश्चात् भी ऋषि की भावना को, उनके कार्यों को वह गति नहीं मिल रही, वह अधूरे सपने पूरे नहीं हो पा रहे जो अब तक हो जाना चाहिए था। 
किसी भी कार्य की सफलता में तन-मन-धन आधार होता है। कहीं तन का, कहीं मन का, कहीं धन का महत्त्व कार्य के स्वरूप के अनुसार निश्चित होता है। किन्तु तन और धन के अतिरिक्त मन सबसे महत्वपूर्ण है, यदि मन नहीं है तो कोई संकल्प नहीं हो सकता, कोई संकल्प नहीं तो किसी कार्य में पूर्ण समर्पण नहीं हो सकता और बिना समर्पित भाव से किया कोई भी प्रयास मात्र औपचारिकता तक सीमित रह जाता है, जिसका ऊपरी रूप कुछ होता है और आन्तरिक कुछ और। 
आर्य समाज की स्थापना उन उद्देश्यों को लेकर की गई थी जिनका अभाव समाज को दुःख, सन्ताप, अशान्ति, भय के दावानल में ले जा रहा था। असत्य को सत्य से अधिक महत्त्वपूर्ण बताया जा रहा था। धार्मिक मान्यतायें अन्धविश्वास, कुरीतियों के नीचे दब रही थीं मानवता पर कुछ तथाकथित वर्ग ने अपने अधिकारों का दायरा बढ़ाते हुए दूसरे वर्ग को उपेक्षित, न केवल उपेक्षित अपितु प्रताड़ित, अपमानित कर विधर्मी होने पर मजबूर कर रहे थे। ऐसे समय में आर्य समाज की स्थापना हुई। 
महर्षि को हुआ बोध उसकी प्रसन्नता के ढ़ोल बजा बजाकर अपने को गौरवान्वित कर रहे हैं और दूसरों को बोध करवाने में लगे हैं। किन्तु विडम्बना है  हमें  अपने  बोध की चिन्ता नहीं।
मानव समाज का बहुत बड़ा भाग चित्रों, प्रतिमाओं की पूजा से, इमारतों, नदियों से जीवन की पवित्रता व सफलता मान रहा है। दर्शन लप्त है प्रदर्शन ही जीवन का उद्देश्य बनकर सिमिट गया है। इसकी निन्दा, कटाक्ष  हम करने में चूकते नहीं हैं। किन्तु हम कहॉं खड़े हैं ?
दयानन्द की जय, आर्य समाज के 10 नियमों की श्रेष्ठता का, तर्क के दौरान उदाहरण, संसार के सर्वोत्तम ईश्वरीय ज्ञान की दुहाई बस! क्या महर्षि के कार्यों को इतना कुछ आगे बढ़ायेगा?
महर्षि को बोध हुआ जिससे जीवन परोपकारी, ईश्वर के प्रति अटूट विश्वासी, ज्ञानमय, निर्भीक, त्यागी, तपस्वी, सत्याचरण से पूर्ण, सर्वहिताय, राष्ट्र समर्पण की भावना से पूर्ण था। 
हम किसका अनुसरण कर रहे हैं ऋषि का या किसी अन्य दलगत निकृष्ट विचारधारा का ? आलस्य, प्रमाद, स्वार्थ से लिप्त व्यक्ति महर्षि का अनुयायी कदापि नहीं हो सकता। ऐसे व्यक्तियों ने ही महर्षि को, आर्य समाज को बदनाम किया, विघटित किया है। 
महर्षि ने हमें एक ऐसा मार्ग दिखा दिया जो वर्षों से अन्धकार में छिपा दिया गया था। अपनी समर्थ्य, योग्यता और पूर्ण समर्पण से महर्षि ने उस पर स्वयं चलना प्रारम्भ किया, सफर लम्बा था, पूरा सफर तो नहीं कर पाये किन्तु जितना किया वह संसार के लिए आश्चर्य बन गया। शेष कार्य हमें पूरा करना था। हम उसके उत्तराधिकारी हैं, वारिस हैं हम पर ही उसके कार्य को पूर्ण करने की सारी जवाबदारी है। क्या हममें ऋषि के जीवन का वह समर्पण, लगन, सत्यनिष्ठा का भाव विद्यमान है ? यदि नहीं तो औपचारिकता का जीवन कागज के फूल के जैसा है जो दिखता तो सुन्दर है परन्तु न खुशबू, न कोई लाभ। इसीलिए यदि अभी तक अपनी मंजिल से बहुत दूर हैं, अब क्योंकि हमें अभी तक कर्त्तव्य बोध नहीं हो पाया, फिर हमें बोध कब होगा ?
भविष्य में ऋषि बोधोत्सव मनाते समय अपने बोध के प्रति भी सजग रहें, तभी ऋषि बोधोत्सव मनाना सार्थक होगा।
लेख- प्रकाश आर्य मंत्री सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा 


क्यों शरियत के खिलाफ हुई खातून


गुजरता दिसम्बर 2017 ईरान की राजधानी तेहरान में एक 19 महीने के बच्चे की माँ 30 वर्षीय ‘‘विदा मुव्हैद’’ राजधानी तेहरान की व्यस्त सड़क के ऊपर खड़ी हुई थी और हिजाब को लहरा रही थी। जिसे ईरान में सभी महिलाओं को कानून द्वारा पहनना आवश्यक है। उसके खुले बाल जैसे उसके कपड़ों से खेल रहे थे। फिर उसने एक सफेद स्कार्फ को एक छड़ी के साथ बांध दिया और व्यस्त रास्ते पर घूमते हुए, चुपचाप उसे झंडे की तरह लहराया। वह एक घंटे तक इसे अकेले लहराते रही। इसके बाद उसे इस अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन अनिवार्य हिजाब से लड़ रही ईरानी महिलाओं के बीच विदा मुव्हैद, का स्वागत एक नायिका के रूप में किया गया। विदा मुव्हैद की गिरफ्तारी दुनिया भर में खबर बनी। जिसके बाद एक और ईरानी कार्यकर्ता, नरग्स होसेनी को 30 जनवरी और फरवरी माह में एक साथ 29 महिलाओं को इस अपराध में गिरफ्तार किया गया। इस्लामिक गणराज्य ईरान में इस्लामिक ड्रेस कोड को देखने में विफल महिलाओं को दो महीने तक जेल भेजा जा सकता है या करीब 100 डॉलर का जुर्माना लगाया जा सकता है।

इस आन्दोलन से प्रशासन और प्रदर्शनकारियों के बीच हिंसा भी हुई। जो बाद में ऑनलाइन आंदोलन मेरी छुपी हुई आजादी की शुरुआत बन गयी, जिसमें सार्वजनिक स्थानों पर बिना किसी सिर वाले लोगों के चित्रों को पोस्ट करने के लिए ईरान में महिलाओं को आमंत्रित करने वाला एक ऑनलाइन आंदोलन बना। दरअसल परम्पराओं की बेड़ियों को तोड़ने को बेताब प्रदर्शनकारी, मौलवियों को सत्ता से बेदखल सिर्फ इसलिए भी करना चाहते हैं कि उनकी दैनिक जीवन शैली से कट्टर इस्लामिक फरमान राजनितिक तौर पर खत्म हो।

शरियत कानून के अनुसार, यौवन की उम्र से ऊपर की सभी महिलाओं को सिर ढ़का होना चाहिए। यह मुद्दा व्यापक रूप से प्रतिध्वनित है और ईरान के राजनीतिक इलाके में चर्चा पैदा कर रहा है कि कैसे जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा प्रतिबंध के बारे में नाखुश है, न कि केवल हिजाब के बारे में, बल्कि महिलाओं की समानता के बारे में भी नाखुश है।

आज का इस्लामिक गणतन्त्र ईरान जो कभी आर्यों के पर्शिया एवं फारस के नाम से भी जाना जाता था। ईरान के पैगंबर जरतुश्त के सुधारों से पहले ईरानियों का जो धर्म था वह वैदिक था बाद में जरतुश्त ने ईरानी धर्म को जो नया रूप पारसी नाम से दिया इसके हर पहलू से यह स्पष्ट है कि वह वैदिक धर्म के परिवार का हिस्सा है। आर्यों के मूल धर्मग्रंथ वेद और जरतुश्त की पुस्तक अवेस्ता दोनों एक ही घोषणा करती है कि ईश्वर निराकार है।

ईरान के इन प्रदर्शनों में कुछ लोगों के हाथ में पोस्टरों पर लिखा था कि हम आर्यन है शायद इस्लामी कट्टरता से ऊबे हुए लोग अपने मूल धर्म की मांग भी कर रहे हैं। कहा जाता है आज से तीन हजार वर्ष पूर्व ईरानी अपने को आर्य कहते थे। अवेस्ता में भी उन्हें आर्य कहकर पुकारा गया है। प्रसिद्ध ईरानी सम्राट् दारा (521-485 ई.पू.) ने अपनी समाधि पर जो शिलालेख अंकित करवाया है उसमें अपने को आर्यों में आर्य लिखा है। छठी शताब्दी के ईरान के सासानी सम्राट भी अपने को आर्य कहते थे। ईरानी देश को आर्याना या आईयाना कहते थे, जिसका अर्थ है आर्यों का निवास स्थान प्रचलित ईरान शब्द इसी आर्याना का अपभ्रंश है।

इससे साफ हैं कि आर्यों के बाद इस्लाम के आगमन से पहले ईरानी पारसी रहे थे। छठी शताब्दी के बाद यहाँ इस्लाम आया और ईरान की जनता पर इस्लाम की परम्पराओं का बोझ डाल दिया गया। शासन की सभी धार्मिक और राजनीतिक शक्तियां अन्य इस्लामिक राष्ट्रों की तरह मौलवियों के इशारों पर चल पड़ी। इसके बाद 70 के दशक के अंत में इस्लामी धर्मगुरु अयातुल्ला खामनेई के नेतृत्व हुआ, जिसे ईरानी क्रांति भी कहा जाता है। इस क्रांति से धार्मिक इमाम अयातुल्ला खामनेई को सत्ता मिली लेकिन वर्षो से घुटन भरी संस्कृति में जकड़े ईरानी समुदाय को क्या मिला? बस महिलाओं को बुर्का-हिजाब और पुरुषों को दाढ़ी, टोपी या इसे दूसरे शब्दों में कहे तो इस्लामिक कानून शरियत।

इसी वजह से हाल के प्रदर्शनों से घबराई ईरानी सरकार ने वहां अंग्रेजी भाषा को प्रतिबंधित किया गया क्योंकि ईरानी सरकार को यह भी डर है कि सड़कों पर धार्मिक आजादी मांग रहे लोगों के बीच पश्चिमी भाषा के साथ मेलजोल उनकी संस्कृति के प्रति विरोध का भाव पैदा कर रही है उनका मानना है कि अमेरिकी संस्कृति का भाषाई में प्रवेश ईरान में हो रहा है और अयातोला खोमैनी की नजर में यह खतरा है। 

ईरान इस्लामी गणराज्य है, जिसने हिजाब को एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनाया है। क्या इस्लाम से जुड़े लोग महिलाओं के बाल और शरीर से इतने पागल हो जाते हैं कि उन्होंने महिलाओं के कपड़ों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाने के लिए लाखों डॉलर खर्च किए हैं? यदि अपनी सोच दुरुस्त कर लेते तो शायद इतने खर्चीले कानून बनाने की जरूरत न होती। दूसरा महत्त्वपूर्ण सवाल यह भी है कि क्या ईरानी समाज अनिवार्य हिजाब से दूर रहने के लिए तैयार है या ऐसा करने से क्या महिलाओं को सड़क के उत्पीड़न और हिंसा में वृ( होगी? शायद महिलाओं को यह तय करने के लिए खुद तैयार करें कि क्या पहनना है और स्वयं को सुरक्षा के लिए खुद को कैसे ढ़का जाए। सवालों की गठरियों से ईरान के सुधारकों और सत्ता के केन्द्रों के बीच शुरुआती धर्मिक विभाजन शुरू हो गया है। ईरानी लेखक होसेन वाहदानी ने कहा है युवाओं को तानाशाही से इस जमीन की मुक्ति की चाबी रखने का यह प्रयास कितना गौरवशाली और सार्थक होगा अब इसका फैसला युवा ही करेंगे। आखिर कब तक 1400 सौ वर्ष पहले बने कानूनों से आज के आधुनिक युवा और महिलाएं हांके जायेंगे?
-राजीव चौधरी


आर्य शब्द पर वाद विवाद क्यों ? यह अपवाद है।


आर्य जातिवाचक शब्द नहीं है, अपितु गुणवाचक शब्द है

3म इन्द्रं बर्धन्तो अप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम-।
अपध्नन्तो अराव्णः-।।। ऋग्वेद
ऋग्वेद में ईश्वर ऋषियें द्वारा आदेश देते है कि सम्पूर्ण्रा मानव जाति को आर्य अर्थात श्रेष्ट बनावो। पहले स्वंय आर्य बनो, तभी संसार को आर्य बना सकते हो।

आर्य समाज के संस्थापक युग पुरूष महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने आठारवीं शताब्दि में पुनः वेदों की ओर लौटाया, उन्होने कहा कि सृष्टि प्रारम्भ से महाभारत काल तक सम्पूर्ण मानव समाज एक निराकार ईश्वर की पूजा करता था और वैदिक धर्म के संस्कार संस्कृति व सभ्यता को अपनाता था।
महाभारत काल के वाद आर्य धर्म, आर्य संस्कृति, व आर्य सभ्यता, अवैदिक मार्ग पर भारतवासियों के चलने से आर्य शब्द अपवाद बनता गया। महर्षि दयानन्द जी ने एक सत्य समाज में रखा, उन्होने महाभारत काला के बाद विदेशियों के गुलाम व सामन्तशाहियों की शोषण वृति व अवैदिक मार्गको भारत का काल इतिहास बताया था। उन्होने अनादि काल से महाभारत काल तक का इतिहास समाज के सामने रखा, और अन्धकार युग से प्रकाशयुग की तरफ मानव समाज को लौटाया। आइये कुछ विचार करते है।


सृष्टि प्रारम्भ से महाभारत काल तक आर्यों का सांकेतिक इतिहास 
सृष्टि प्रारम्भ मे वेद रचित ऋषियों के पश्चात सबसे पहले आर्य राजा श्रीमान मनु जी हुए। मनु के सात पुत्र थे, जिनकी एक शाखा में आर्य भगीरथ, अंशुमान, दलीप और रघु आदि हुए, और दूसरी शाखा में सत्यवादी आर्य हरीशचन्द्र आदि हुए थे। वेवस्वतः आर्य राजा मनु के पश्चात तत्कालीन आर्य सूर्यवंश की 39 पीढिया बीत जाने के बाद आर्य मर्यादा पुरूष श्री राम आयोध्या में जन्म लेते है। मर्यादा पुरूषोत्तम आर्य श्रीराम के काल में तीन संस्कृति, का आगमन स्पष्ट देखा जा सकता है, एक आर्य संस्कृति द्वतीय वानर संस्कृति तृतीय राक्षस संस्कृति का आगमन शुरू हो गया था। प्रारम्भ में केवल एक ही वंश था, बाद में कालचक्र से विभिन्न संस्कृति फैलती गयी। विशेष बात यह है कि तीनो ही वैदिक संस्कृति को मानते थे। तीनो में ही वेदो के अध्यन की परम्परा थी। 39 पीड़ियों तक एक ही वंश का संसार में राज्य था।


श्रीराम के युग में स्पष्ट देखने में आता है कि तीन विचार धाराओं में जन्म ले लिया था। और तीनो संस्कृति के तीन केन्द्र बन गये थे। आर्य संस्कृति का केन्द्र अयोध्या था, वानर संस्कृति का केन्द्र किष्ककंधा था, और राक्षस संस्कृति का केन्द्र श्रीलंका में था। वानरो की पूछ होने की कल्पना हैं जब्कि बानर अयोध्या वासियों की तरह वैदिक संस्कारो पर चलते थे। वानर शब्द का अर्थ पूंछ वाले वानर नहीं है अपितु वनो में रहने के कारण वानर नाम पडा था। वैसे राक्षस भी मनुष्यों की तरह थे। आर्य समाज, तपस्या और वैदिक विद्या के अनुसार वर्णो और आश्रमों की मर्यादा का पालन करते थें और राक्षस लोग तो निश्चत रूप से खावो, पियो मौज उडावो, भोग वादि व स्वेच्छाचारी, संस्कृति व संस्कारो के प्रतीक थे। वानर संस्कृति दोनो के बीच की रही थी, किन्तु वानर संस्कृति का रूझान आर्य संस्कृति के तरफ था। और आर्य संस्कृति की उपेक्षा के कारण शन्नै शन्नै अनैतिकता की खाई मे गिरते गये, और आर्य नैतिकता के उच्च आदर्शों तक नहीं पहुंच पाये। आर्य संस्कृति व वानर संस्कृति यज्ञ प्रधान थी और राक्षस संस्कृति हिन्सा परायण थी। किन्तु तीनो समुदाय वेदो ंको ही धर्म मानते थे, और वैदिक संस्कारो पर चलते थे।


आर्यव्रत (भारत) में अन्धेर युग का प्रारम्भ
श्री आर्य मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के पश्चात तीनो संस्कृति में केवल दो विचार धारायें आर्यव्रत में चलने लगी थी, आर्य और अनार्य, अर्थात देवता और राक्षस समुदाय का आपस में संर्घश प्रारम्भ हुआ, और दोनो ही समुदाय अपने को बचाने के लिये आपस मे युद्ध करने लगे। शन्नै शन्नै काल चक्र घूमता गया, और देव संस्कृति घटने लगी और राक्षस संस्कृति बढने लगी। महाभारत काल के एक हजार वर्ष पूर्व से आर्य संस्कृति में गिरावट आने लगी और राक्षस विचार धाराये पनपने लगी। और महाभारत काल के प्श्चात से आज विश्व में राक्षस प्रवर्ती चरम सीमा पर पहुंच गयी हैं आप स्वंय विचार कीजियेगा। आइए अब हम आर्य शब्द के अपवाद पर विचार करते है।

उत्तराखण्ड में आर्य शब्द पर जातिवाद का अपवाद
देवभूमि उत्तराखण्ड में जातीवाद चरम सीमा पर हैं। और आर्य शब्द को अनुसूचित जाति का समझा जा रहा है। और जो भी नाम के आगे आर्य लगाता है, उसको छोटी जाति का समझा जा रहा है। क्योंकि देवभूमि उत्तराखण्ड पर भी राक्षस प्रवर्ती की विचार धारये होने के कारण। वेदों के ज्ञान के अभाव में, वैदिक संस्कारो के अभाव में, जातिवाद, छुआ-छूत, ऊच-नीच चरम सीमा पर अग्रसर हो रखा हैं फल स्वरूप् स्वंय को ऊंची जाति बतलाने वाले अधिकांश अपने मूल को ही नहीं जानते है, और अपने नाम के आगे काल्पनिक जाति शब्द लागा कर, अपने को ऊचा बताते है और आर्य शब्द व आर्य समाज संगठन को नीचा मानते है।
मै उत्तराखण्ड की ऊंची जाति वालो से आग्र करूंगा कि अपनी पन्द्रह बीस पीडियों की उत्पत्ति का इतिहास तो जानिये। आप पायेंगे कि जाति के आगे उपजाति मनुष्यों द्वारा बनाया गया है। बस यही नाम के पीछे कथित जाति वाचक शब्द सब अहंकार व समाज को बांटने की प्रक्रिया है। और अपने अपने को ऊंचा मानना, दूसरे गरीब को नीचा माना ही ईश्वर की दृष्टि में महापाप है।
धन्य हो महर्षि दयानन्द जी आपने सबको जगा दिया, आपने थोथी जातिवाद धर्मवाद, समाजवाद व राजनीतवाद को सम्पूर्ण भारत में एक तरफ से नकार दिया था और आर्य समाज वैचारिक क्रान्ती का संगठन खोलकर सदैव के लिये, ज्ञान का प्रकाश पुंज जला दिया। आर्य शब्द जाति वाचक नहीं है अपितु श्रेष्ट गुणवाचक हैं।


भारत के इतिहास में आर्य जाति बाहर से आई एक सफेद झूठ है
पराधीन भारत में अंगेजो ने सर्व प्रथम यह समझा आर्य संगठन, सच्चा ईश्वर भक्त व धार्मिक संगठन व समाजवादी है। इसका प्रभाव भारत पर कम करना चहिए और आर्य समाजी बदल गये तो हमारी पश्चिमी संस्कृति भारत में फल फूल सकी है। इसलिये लार्ड मैकाले ने शिक्षा के कोषो मे यह गलत लिखवा दिया कि आर्य बाहर से आये थे और भारत पर काबिज हो गये। यह सफेद झूठ था। और भारत आजादी के बाद भी उस इतिहास के पन्नो को नही मिटा सका है।


आर्य अनार्य की परिभाषा
जो सच्चा ईश्वर भक्त अर्थात, निराकार, सर्वशाक्तिमान, सचिदानन्द स्वरूप ईश्वर के मानने वाला हो जो ईश्वरीय वाणी वेदों को मानने वाला हो, जो पंच महायज्ञ का अनुगामी हो जो सदैव सत्य की रक्षा करने मे तत्पर रहता हे, जे प्रत्येक धार्मिक, सामाजिक, राजनैति अन्धविश्वासों को नही मानता हो जो सदैव दूसरो के कष्टो को दूर करने में अग्रणी रहता हो जो पूर्वजो के सत्य मार्ग पर जीवन बिताता हो, वह आर्य है। और जो उक्त सभी तथ्यों को नहीं मानता हो वह अर्नाय है। यही सन्देश वेदो मे, आर्य ग्रन्थो में दिया गया है।

मानव समाज की सुखशान्ति का मार्ग केवल वैदिक मान्यताओ पर ही चलना है।
यह एक सच्चाई है, कि छ हजार वर्षों से हमने वैदिक धर्म की उपेक्षा करके, अपने अपने स्वार्थो को पूरा करने के लिये, अनेक मत मतान्तरो को बना कर अनैतिक चरम सीमा पार कर दी हैं और संसार मे अशान्ति, शत्रुता, अन्धविश्वास फैलाने में हम भारतीयों ने कोई कसर नहीं छोडी है। समाज मे अशान्ति का कारण व शीत युद्ध का शन्ने शन्ने  आगमन का कारण ही भविष्य में मानव सृष्टि के विनाश का कारण बनेगा। यदि हम अपने को ईश्वर भक्त कहते है तो हमे ईश्वरीय नियम, सृष्टि क्रमानुसार, वैज्ञानिक आधार पर धार्मिक, सामाजिक व स्वच्छ राजनीति को अपनाना ही होगा। और भारत में नाम के पीछे जातिवाचक शब्द को हटाना होगा। और प्रत्येक धार्मिक संगठन, विशेष करने आर्य समाज को इस जातिवाद के भयंकर कैंसर से मुक्ति अपने नाम के आगे उपजाति शब्द हटा कर एक नई पहल शुरू कर सकता है। आर्य संगठन को अब करवट लेनी ही पडेगी, क्योंकि समाज में तमाम बुराइयों को समाप्त करने में आर्यों को आगे आना ही होगा तथा अन्य समाज सुधार संगठन भी आगे आयें।


 पं. उम्मेदसिंह विशारद
        वैदिक प्रचारक