Saturday 31 March 2018

मुनाफे के बाजार में आयुर्वेदिक अंडे


जो अंडे अभी तक सिर्फ अंडे थे जिसे शाकाहार की श्रेणी में नहीं रखा जा रहा था अब वो अचानक से आयुर्वेदिक हो गये. अंडे के फायदे, नुकसान और उपयोग को लेकर भले ही सबके अपने-अपने दावे और तर्क हों, पर सरदार वल्लभ भाई पटेल कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुक्कुट अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र के अनुसार उनके अंडे को आयुर्वेदिक इसलिए कहा जा रहा है, क्योंकि इस प्रक्रिया में मुर्गियों को जो आहार दिया जाता है उसमें आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों का मिश्रण होता है. मतलब मुर्गियों को मुनक्खा, किशमिश बादाम और छुआरे आदि परोसे जा रहे तो उनसें पैदा होने वाले अंडे आयुर्वेदिक कहे जा रहे है.

असल में आयुर्वेदिक अण्डों की बिक्री शुरू भी हो चुकी है. तेलगु समाचार पत्र इनाडु में प्रकाशित खबर की माने तो आयुर्वेदिक अंडे की बिक्री तेलगु भाषी कई राज्यों के साथ बेंगलुरु में भी की जा रही है. सौभाग्य पोल्ट्री  द्वारा इसे आर्युवेदिक बताकर दक्षिण भारत में बेचा  जा रहा है. बात सिर्फ अंडे तक सीमित नहीं हैं समाचार पत्र का दावा है कि अंडे ही नहीं बल्कि आयुर्वेदिक मुर्गियों का मीट भी हैदराबाद में उपलब्ध है.
इसे कुछ दुसरे तरीके से भी समझा जा सकता हैं कि अभी तक मुर्गियों से ज्यादा से ज्यादा अंडे प्राप्त करने के लिए स्टेरॉयड्स, हार्मोन्स और एंटी-बायोटिक्स (प्रतिजैविक पदार्थ) का इंजेक्शन दिया जाता है. लेकिन इन मुर्गियों को दिया जाने वाला आहार पूरी तरह आयुर्वेदिक है, तो उनके अनुसार अंडे भी आयुर्वेदिक हो गये और उसका मांस भी.
बकरी भेंस भी घास-पात खेतों में खड़ी जड़ी बूटियां खाती है तो इस तरह उसका मांस भी आयुर्वेदिक हो जायेगा? क्या ऐसा हो सकता है कि कोई महिला शाकाहारी हैं. उसका खान-पान प्राकृतिक है और  बच्चें को आयुर्वेदिक बच्चा कहा जाये ? हो सकता है कल कहा जाये कि काजू, मखाने, पिस्ता खाने वाली और शरबत पीने वाली गाय का बीफ भी आयुर्वेदिक है? क्योंकि जब बाजार पर पूंजीवाद हावी हो जाएँ तो आगे ऐसी खबरें लोगों के लिए सुनना और पढना कोई नई बात नहीं रह जाएगी.
आर्युवेद के संदर्भ में बात जब होती है तो मन में अपने आप उसकी महानता का आध्यात्मिक और धार्मिक भाव पैदा हो जाता है. विश्व की सभी सांस्कृतियों में, अपने देश की संस्कृति न सिर्फ प्राचीन ही है बल्कि सर्वश्रेष्ठ और बेजोड़ भी है. हमारी सभ्यता संस्कृति और सभ्यता के मूल स्रोत और आधार हैं वेद, जो कि मानव जाति के पुस्तकालय में सबसे प्राचीन ग्रन्थ हैं और इन्हीं की एक शाखा को आयुर्वेद  भी कहा जाता है. आयुर्वेद के जनक के तौर पर जिन तीन आचार्यो की गणना मुख्यरूप से होती है उनमें महर्षि चरक, सुश्रुत के बाद महर्षि वाग्भट का नाम आता है. इस ग्रन्थ का निर्माण वेदों और ऋषियों के अभिमतों तथा अनुभव के आधार पर किया गया है. कहा जाता है इस ग्रन्थ के पठन-पाठन, मनन एवं प्रयोग करने से निश्चय ही दीर्घ जीवन आरोग्य धर्म, अर्थ, सुख तथा यश की प्राप्ति होती है.
आयुर्वेद का ज्ञान बहुत ही विशाल है. इसमें ही ऐसी प्रणाली का ज्ञान है, जो मानव को निरोगी रहते हुए स्वस्थ लम्बी आयु तक जीवित रहने की लिये मार्ग प्रशस्त कराता है, जबकि मांसाहारी भोजन में तमतत्त्व की अधिकता होने के कारण मानव मन में अनेक अभिलाषाऐं एवं अन्य तामसिक विचार जैसे लैंगिक विचार, लोभ, क्रोध आदि उत्पन्न होते हैं. शाकाहारी भोजन में सत्त्व तत्त्व अधिक मात्रा में होने के कारण वह आध्यात्मिक साधना के लिए पोषक होता है.
आयुर्वेद के आध्यात्मिक संदर्भ में यदि गहराई से झांके तो अंडे खाने से मन पूरी तरह से आध्यात्मिकता प्राप्त करने का विरोध करता है. क्योंकि आध्यात्मिकता के द्रष्टिकोण से आयुर्वेद  की अपने आप में एक पवित्रता है! आयुर्वेद  के अनुसार अंडे प्राकृतिक है खाद्य पदार्थ नहीं हैं. अंडे मुर्गियों के बच्चों की तरह हैंक्या किसी का बच्चा खाना आध्यात्म की द्रष्टि से पवित्र हो सकता है? आयुर्वेद में अपवित्र खाद्य पदार्थों की अनुमति नहीं है! और कोई मुर्गी स्वाभाविक रूप से अंडे नहीं देती है अंडा पाने के लिए मुर्गियों के कुछ हार्मोनों को उत्तेजित करने के लिए इंजेक्ट किया जाता है जो कि निस्संदेह अप्राकृतिक है.
भोजन के लिए बेचें जाने वाले अंडे आध्यात्मिकता को विकसित करने के बजाय मुनाफा कमाने के लिए आयुर्वेद  के नाम का सिर्फ घूंघट ओढ़ाया जा रहा हैं. आयुर्वेद के नाम पर संतुलित भोजन बताकर बेचने वाले वेदों उपवेदों का अपमान ही नहीं बल्कि पाप भी कर रहें है. मांस के समान, अंडे तामासिक खाद्य पदार्थ हैं आयुर्वेद अंडे खाने पर रोक लगाता है क्योंकि यह शारीरिक और भावनात्मक उग्रता को बढ़ाता है. आयुर्वेद में जब कहीं भी मांस को भोजन या दवा की श्रेणी में नहीं रखा है तो आयुर्वेद में अंडे कहाँ से आ गये?..विनय आर्य 


पाकिस्तान का हिंदू न घर का है न घाट का ?


शामियाना सजा, अतिथियों का जमावड़ा हुआ, फूलों की सजावट और इत्र की बौछारें हुई भी हुई. शामियाने  के प्रवेश द्वार पर लिखे गये शब्द दावते-ए-इस्लाम की भावना का सम्मान पता नहीं लोगों के मन में कितना था पर जमीन पर दरियाँ बिछी उसके ऊपर कुर्सियां लगी ठीक सामने मंच के इस छोर से उस छोर तक मुल्ला मौलवियों का जमावड़ा था जो खुशी से फूले नहीं समा रहे थे. दरअसल ये दावत थी इस्लाम को अपनाने की. जिसका आयोजन कर पाकिस्तान के सिंध प्रांत के मातली जिले में माशाअल्लाह शादी हाल नज्द मदरसा में 25 मार्च को 50 हिन्दू परिवारों के 500 लोगों का सामूहिक रूप से जबरन धर्म परिवर्तन करवा दिया गया.

मंच पर पीर मुख्तयार जान सरहदी, पीर सज्जाद जान सरहदी और पीर साकिब जान सरहदी ने कलमा पढ़ा जिसे सभी हिंदुओं को दोहराने को कहा गया. इन लोगों ने पर्दे में बैठी महिलाओं व बच्चों के भी नाम लेकर उन्हें इस्लाम कबूल करने को  कहा. सभी हिंदू दुखी मन और छलकती आँखों से कलमा दोहराते रहे. फिर वहां मौजूद लोगों ने उन्हें नए मुस्लिम बनने की मुबारकबाद दी.
जो लोग कलमा पढ़ रहे थे, उनके चेहरों पर खुशी नहीं थी. वे बच्चों और पर्दों में बैठी महिलाओं के साथ मजबूरी में इस्लाम कबूल कर रहे थे. इनमें से अधिकांश वे थे, जो भारत में शरण लेने आए तो थे. परंतु लम्बी अवधि का वीजा नहीं मिलने के कारण उन्हें पाकिस्तान लौटना पड़ा था.
राजस्थान की सीमा के उस पार धर्म परिवर्तन का यह पूरा सिलसिला ठीक उसी दौरान चल रहा था जब जिनेवा में यूएन मानवाधिकार परिषद के 37 वें सत्र में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को सिंध प्रांत में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर होने वाले अत्याचारों और जबरन धर्म परिवर्तन, हिन्दुओ की लड़कियों और महिलाओं के अपहरण पर चिंता जताई जा रही थी. इसका संचालन मुस्लिम कनेडियन कांग्रेस के फाउंडर व लेखक तारिक फतेह कर रहे थे.
बताया जा रहा है कि राजस्थान में पिछले तीन सालों में 1379 हिंदू विस्थापितों को पाकिस्तान लौटना पड़ा. ऐसे लोगों का पाकिस्तान में जबरन धर्म परिवर्तन हो रहा था. खबर है अभी भी राजस्थान में लम्बी अवधि के वीजा के लिए 15000 विस्थापित दिल्ली और संबंधित जिलों के एसपी ऑफिस के चक्कर लगा रहे हैं. हालाँकि राजस्थान में बड़े स्तर पर 2005 में नागरिकता दी गई थी, उसके बाद से 5000 विस्थापित नागरिकता के इंतजार में है.
ऐसा नहीं है कि हमारे देश में जगह कम है बल्कि यहाँ बहुत बड़ी संख्या में विस्थापित रहते आये है. इनमें लाखों की तादात में तिब्बती शरणार्थियों के अलावा लगभग 40 हजार रोहिंग्या मुसलमान, जिनके पास न वीजा है न पासपोर्ट और करोड़ो की संख्या में बंगलादेशी मुसलमान, अफगान हो या इराकी शरणार्थियों समेत भारत दुनिया का सबसे बढ़िया ठिकाना बनता जा रहा हैं. अर्थात अपने देश की अनूठी परम्पराओं का लुत्फ आज सम्पूर्ण विश्व उठा रहा है. परम्पराओं, परिपाटियों एवं एतिहासिक उदहारण की आड़ में हमारे राजनेता भी अपनी हर ख्वाहिश को न केवल पूरा कर रहे हैं बल्कि अपनी कुर्सी भी सुरक्षित रख रहे हैं.
लेकिन जब बात पाकिस्तान से आये हिन्दू शरणार्थियों की होती है तो कथित धार्मिक जगत से लेकर राजनितिक जगत में एक अजीब सी खामोशी छा जाती है. उउनके पास वैध वीजा और पासपोर्ट होते हुए भी रहने नहीं दिया जाता जबकि अभी पिछले दिनों जब भारत सरकार ने रोहिंग्या मुद्दे को उठाया तो उनके समर्थन में पूरा विपक्ष कूद पड़ा, कई धार्मिक संगठन सामने आये इन्हें मासूम, परिस्थिति का शिकार, मजलूम और न जाने कितने भावनात्मंक शब्दों से इनका शरणार्थी अभिषेक किया जा रहा था. परन्तु जब इसी महीने पाकिस्तान से अपना धर्म बचाकर भागे हिन्दू भारत में शरण मांग रहे थे तो सरकार से लेकर विपक्ष तक ने अपने कान और आँख बंद कर ली नतीजा उनके पाकिस्तान वापिस लौटते ही उनका धर्मांतरण कर दिया गया.
ये पाकिस्तान में कोई नया काम नहीं हुआ ये तो वहां हर रोज होता हैं पाकिस्तान बनने के बाद जब पहली बार जनगणना की गई थी तो उस समय पाकिस्तान की तीन करोड़ चालीस लाख आबादी में से करीब 20 प्रतिशत गैर-मुसलमान थे. मगर आज पाकिस्तान के 18 करोड़ नागरिकों में गैर-मुसलमानों की सूची में अहमदी समुदाय को शामिल कर लिए जाने के बावजूद वहां गैर-मुसलमानों की आबादी 2 से 3 फीसदी में बची है. 1947 में कराची और पेशावर में लगभग डेढ़ हजार यहूदी बसा करते थे. आज वहां कोई यहूदी दिखाई नहीं देता. विभाजन के समय कराची और लाहौर में दस हजार से अधिक पारसी मौजूद थे जबकि आज लाहौर में 20 से पच्चीस पारसी भी बा मुश्किल से नहीं बचे हैं. गोवा से कराची में आकर रहने वाले ईसाईयों की संख्या वहां कभी 20 हजार से अधिक थी. ईसाई मुश्किल से 10 हजार भी नहीं बचे. कभी लाहौर शहर पूरा सिखों का हुआ करता था आज मुश्किल से बचे 20 हजार पाकिस्तानी सिख भी भय और नफरत के साये में जी रहे है.
1971 के युद्ध के दौरान और बाद लगभग नब्बे हजार हिंदू राजस्थान के शिविरों में आ गए. ये लोग थरपारकर इलाके में थे जिस पर भारतीय सेना का कब्जा हो गया था. 1978 तक उन्हें शिविरों से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी. बाद में भुट्टो सरकार के साथ समझोता हुआ पाकिस्तान को  इलाका वापस दे दिया लेकिन पाकिस्तान ने लोगों को वापस लेने में कोई रुचि नहीं दिखाई. फिर 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद पाकिस्तान में जो प्रतिक्रिया हुई उसके परिणाम में अगले पांच साल के दौरान लगभग सत्रह हजार पाकिस्तानी हिंदू भारत चले आये. इस बार अधिकांश पलायन करने वालों का संबंध पंजाब से था. 1965 और 1971 में पाकिस्तान से आने वाले हिंदूओं को आख़िरकार दो हजार चार में भारतीय नागरिकता मिल गई लेकिन बाबरी मस्जिद की प्रतिक्रिया के बाद आने वाले पाकिस्तानी हिंदूओं को अब तक नागरिकता नहीं मिल सकी है.
पाकिस्तान के हिंदू सिंह सोढा का कहना है कि पाकिस्तान का हिंदू न घर का है न घाट का. वहां धर्म बदलने की मजबूरी, यहां रोजी-रोटी और न जाने कब खदेड़ दिए जाने का खतरा हर समय मंडराता है. भारत सरकार विस्थापित हिंदुओं के पुनर्वास के नियम बनाती तो है, लेकिन  जिला स्तरों पर उनकी पालना नहीं होती. इसलिए जो लौट रहे हैं, उनके पास धर्म बदलने के अलावा दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है. कई संगठन कलमा पढ़ने वालों को रहने के लिए घर, घरेलू सामान, दहेज का सामान, काम करने के लिए सिलाई मशीनें, नहरों से खेती करने के लिए साल भर पानी का प्रलोभन भी दे रहे हैं. थारपारकर व उमरकोट इलाकों में जबरन धर्म परिवर्तन के मामले ज्यादा आ रहे हैं. जब कोई रास्ता नहीं बचता तो लोगों के सामने दो ही रास्ते बचते है या तो धर्म बचा ले या जीवन! अधिकांश लोग जीवन ही बचाना मुनासिफ समझते है.बस यही इस देश के लिए शर्म की बात है..राजीव चौधरी 


VEER HANUMAN: A ROLE MODEL FOR CHILDREN & YOUTH


We have lots to learn from the towering personality of Veer Hanuman, a key figure of the Ramayana. He articulated a rare mix ofstrength, devotion, and perseverance.

Hanuman Jayanti is the birthday anniversary of Veer Hanuman, an eminent scholar of the Vedas and grammarian, a celibate who demonstrated immense self-control, the mighty, clever and wise, devotee and helpmate of Shri Rama.


The Ramayana, one of the greatest epics of humanity written by Sage Valmiki, is not just a story. It is a prominent educational medium to demonstrate the importance of values and ethics in life. A key personality of the Ramayana, Veer Hanuman was an ideal combination ofstrength, heroic initiative and assertive excellence. He exemplified unlimited selfless love and emotional devotion to Shri Ram. The characters depict what we usually aspire to be like.
The values that we would want our children to imbibe would be best taught when we lead-by-example and walk-the-talk …and there shall remain little or no need to command as in the Ramayana. We have lots to learn from the towering personality of Veer Hanuman who articulated a rare mix of valor, dedication, and perseverance.

Strength (Shakti)Devotion (Bhakti); Perseverance (Dridhataa)
Hanuman, a human being & an accomplished Yogi
Surrender (Samarpan); Right First Impression; Self-control; Compassion; Blessed with long-life (Chiranjeevee)
Devotion: …a devoted child follows the guidance of his parents …a devoted student completes his works as instructed by the teacher; AND that yardstick tells us that …a devotee (bhakta) of Hanuman or Rama has to filter down the character, deeds, sense of self-discipline, temperament, etc. into his day-to-day life as it has been rightly said: Charitra ki puja karo, chitra ki nahin.
Beauty; Creative and ingenuous personality; Remover of obstacles (Sankat Mochan)
Self-introspection (aatmanirikshan), Self-realisation

Justice to these characters would be done and seen to be done only when each and every one of us gear his life to lead-by-example and walk-the-talk. Truly, there shall remain little or no need to command as in the Ramayana.
Veer Hanuman was, is and will always be a role model for all …children, youth, and adults, across generations, cultures, and civilizations.
Acharya Bramdeo

Atlanta, GA, USA, 
Arya Sabha Mauritius | Greater Atlanta Vedic Temple  



Tuesday 27 March 2018

डारविन के विकासवाद की मूर्खता


भाई-बहन एक ही परिस्थिति में उत्पन्न होते हैं और बढ़ते हैं। पर बहन के मुंह पर दाढ़ी मूंछ का नाम भी नहीं होता। हाथी और हथिनी एक ही परिस्थिति में हैं पर हथिनी के मुंह में बड़े दांत नहीं होते। मोर-मयूरी, मुर्गा-मुर्गी दोनों एक ही परिस्थिति में होते हैं पर मयूरी और मुर्गी के वे सुंदर पैर और कलंगी नहीं होती जो मोर और मुर्गे के होती है। इसी कारण से स्त्री के दाढ़ी मूंछ, मयूरी के पूंछ, मुर्गी के कलंगी और हथिनी के दांत नहीं होते- सुश्रुत अ. 2।।
केश-लोम-दाढी-मूछ-नख-दांत-सिरा-धमनी-स्नायु और शुक्र ये पिता के अंश से पैदा होते हैंं। यह स्त्री-पुरुष में क्या अंतर है? डारविन के विकासवाद के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। स्तनधारियों में घोड़ों में स्तन क्यों नहीं होते कोई जवाब नहीं। भिन्न-भिन्न दो जातियों के मिश्रण से वंश चलने वाला सिद्दांत ठीक नहीं है। यह नमूना घोड़े और गधे से उत्पन्न खच्चर में, कलमीआम और पैबन्द बेर में बहुत अच्छी प्रकार से दिखलाई पड़ता है। घोड़े और गधे के मेल से सन्तति तो होती है अर्थात् खच्चर तो होता है, पर खच्चर का वंश नहीं चलता इसी से खचरी रोती है, मेरा वंश कहां गया। ‘‘खचरस्य सुतस्य सुतः खचरः सुतः खचरः खचरी जननी न पिता खचरः परिरोदिति हा खचरः, क्व गतः क्व गतः खचरः।।’’ इसी तरह पैबन्द बेर की गुठली से भी वृक्ष नहीं होता। इसी से समझना चाहिए ये सजातीय नहीं है। ‘‘समान प्रसवा जातिः’’ ‘सति मूली तद्विपाको जात्यायुर्भोगा!!’’ पूर्ण जन्म के कर्मा का फल जाति आयु और भोग द्वारा मिलता है।

प्रत्येक जाति की आयु भिन्न-भिन्न निर्धारित क्यों है? मनुष्य 100, बन्दर 21, गाय 18, बकरा 24, ऊंट व गधा 19, कबूतर शशक 8, कुत्ता 14, घोड़ा 31, कछुआ 150, सर्प 120 वर्ष की आयु के होते हैं तथा छोटे-छोटे कीड़ों में आयु का महान अन्तर है। ‘‘डारविन की थ्योरी की मूर्खता में बन्दरों और मनुष्य से वंश स्थापित नहीं हो सकता, न चल सकता है।’’ इसी से बया पक्षी ने डारविन बन्दर को अन्त में आड़े हाथों लिया है।

एक ही परिस्थिति में उत्पन्न होने वाले जोड़ां में से स्त्रियों के दाढी-मूंछ, मयूरी के लम्बी पूंछ, मुर्गी के सिर पर कलंगी और हथिनी के बड़े दांत क्यों नहीं होते? प्राणियों में दांतों की संख्या न्यूनाधिक क्यों? क्यों स्तनधारियों में घास खाने वाले गाय, भैंस के ऊपर के दांत नहीं होते हैं? और क्यों कुत्तों के दांत नहीं गिरते? घोड़ों के पैर में परों के चिन्ह क्यों? बच्चा पैदा होते समय घोड़ी की जीभ क्यों गिर जाती है? दूसरे जानवरों की जीभ क्यों नहीं गिरती? अस्थिहीन और अस्थि सहित दो प्रकार के प्राणी हैं। बिना हड्डी वाले मर कर मिट्टी में मिल जाते हैं, पर हड्डी वालों की हड्डियां मिट्टी से बरबाद नहीं होतीं। वे हजारों वर्ष हो जाने पर भी मिलती हैं। इन्हीं प्राचीन पस्तर मूर्तियों को फौसीलकहते हैं। अच्छे स्थानों की हड्डियां प्रायः कुत्ते, श्रृंगाल, भेड़िया, गीध उठा ले जाते हैं। 

डारबिन के भ्रम का कारण यही था कि उसने केवल आकृति साम्य पर ही भरोसा कर लिया था। वह वन मानुष (चिंपांजी) और गौरेल्ला को देखकर चिल्ला उठा कि ये एक प्रकार का मनुष्य ही है। समानता का कारण न दूरता है न निकटता, प्रत्युत वंश और परिस्थिति कारण है। सीदा चीनी और भारतवासी परिस्थिति ही रंगरूप में भिन्न है। पर एक ही वंश के होने के कारण एक दूसरे से हजारों कोसों की दूरी पर रहते हुए भी सब में समान प्रसव, समान भोग और समान आयु पायी जाती है। इस सबके पूर्वज एक ही वंशज हैं। पुराणों में उड़ने वाले सर्प लिखे हैं।, उनकी हड्डियां भी मिल गयी हैं। इसलिए पुराण और विकास दोनों की जम गई है। ‘‘परस्परम प्रशंसति अहौरुपमहां ध्वनिः’’ पर पुराणों में तो घोड़ों के उड़ने की बात भी लिखी है। पहाड़ों के उड़ने का भी वर्णन है। आहल्य खण्ड में महोबे के ऊदल सिंह का घोड़ा बेन्दुला भी उड़ता था। यहां तक कहा गया है कि सांप उड़कर मलयगिरि पर जाकर चन्दन में लिपट जाता है। उड़ने के समय जो कोई उसकी छाया में पड़ जाता है उसे पक्षाघात् हो जाता है। यह सत्य है? या नहीं। जबकि विकासवाद उड़ने वाले सर्पों के बाद, पक्षियों के बाद और बहुत से स्तनधारियों के बाद मनुष्य की उत्पत्ति मानता है। ऐसी दशा में आप ही प्रश्न होता है कि जब मनुष्य उड़ने वाले सर्पों के लाखों वर्ष बाद हुआ तो सर्पों को उड़ते हुए देखा किसने? जिनके आधार पर पुराण लिखे गये हैं। 

घोड़ी 12 महीने में, गाय 9 में, भैंस 10 में, वानर 4 में, मनुष्य 9 में, बच्चा पैदा करता है क्या कोई विकासवादी इस अव्यवस्थित क्रम का कारण बता सकता है? नहीं। मनुष्य के बाल 4 बार बचपन में सुनहरे, जवानी में काले, बुढ़ापे में सफेद और अन्त में पिंघल हो जाते हैं। बन्दर के एक बार भी नहीं बदलते? सब पशु तैर जाते हैं। बन्दर भी तैरने लगता है पर मनुष्य बिना सीखे तैर नहीं सकता। मनुष्य पशु श्रेणी का नहीं है। जिसके मेल से वंश चले वही जाति है, अन्य नहीं। चिंपांजी केवल 9 महीने के बालक की सी बुद्धि रखता है। किस वानर के सिर पर 4-4 फुट के लम्बे बाल होते हैं? किस वानर की दाढ़ी 1-1 गज  लम्बी होती है? ला मार्क नामी विद्वान चूहों की दुम काटकर बिना दुम के चूहे पैदा करना चाहता था, पीढ़ियों तक वह ऐसा करता रहा, पर बिना पूंछ के चूहे नहीं हुए। प्राकृति चुनाव से ही विकास हुआ है। उसी से हम पहचाने जाते हैं। कृत्रिम चुनाव नई जाति नहीं बनाता। खतना किये पुरुषों की औलाद खतना की हुई नहीं होती। सभी विद्वान डार्विन के सिद्धान्त के विरुद्ध हैं। इस संदिग्ध विषय पर विश्वास करना कितना भयंकर है? विकासवाद का यह सिद्धान्त कि संसार में सर्वत्र जीवन संग्राम जारी है, उसमें बलवानों की ही विजय होती है। नितान्त अनर्गल है। इसलिए विकासवाद की अनैतिक असंवैधानिक शिक्षा के अनुसार हमें अपना जीवन बनाना उचित नहीं है। इसी तरह ‘‘या औषधि पूर्वा जाता त्रियुंगपुरा त्वज्जता’’ वेद के इन दो मंत्रों से भी इस घृणित सिद्धान्त की पुष्टि की है, इससे वेद मंत्रों का अनर्थ कर क्रम विकास की तरफ खींच दिया। दोनों मंत्रों में कहीं विकासवाद नहीं है।

गत लड़ाई के समय क्रिश्चिन हैरल्ड में ये खबर छपी थी कि ब्रिटिश साइंस सोसाइटी का अधिवेशन वलवूरन आस्ट्रेलिया में हुआ था। जिसके सभापति प्रोफेसर विलियम वैटसन थे, उन्होंने अपने भाषण में कहा था कि ‘‘डारविन का विकासवाद बिल्कुल असत्य और विज्ञान के विरुद्ध है।’’ अमेरिका की रियासतों ने अपने यहां के स्कूलों में डारविन के सिद्धान्त की शिक्षा को कानून के विरुद्ध अवैज्ञानिक ठहराया है और विकासवाद की चर्चा को जुर्म करार दिया है। (वैदिक मैग्जीन अक्टूबर 1925) प्रोफेसर पैट्रिक गैडिस ने कहा कि विकासवाद में मनुष्य के विकास के प्रमाण संद्धिग्ध हैं और साईस में उसके लिए कोई स्थान नहीं है।..
वेदपाल वर्मा शास्त्रीविद्यावाचस्पतिप्रवक्ता,


Saturday 24 March 2018

पंजाब विश्वविद्यालय में दयानन्द चेयर की स्थिति


नवम्बर, 2017 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यू जी सी) ने विश्वविद्यालयों से दयानन्द चेयर स्थापित करने के लिए आवेदन मांगे थे। पूरे भारत से 750 विश्वविद्यालयों ने इसके लिए मांग की गयी थी। लेकिन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की ओर से हरियाणा की महर्षि दयानन्द यूनिवर्सिटी, जम्मू की जम्मू यूनिवर्सिटी व गुजरात की सौराष्ट्र यूनिवर्सिटी का ही इसके लिए चयन किया गया है।

परन्तु इसके बाद 27 फरवरी 2018 को चंडीगढ़ से प्रकाशित चण्डीगढ ट्रिब्यून अखबार के पेज 2 पर छपी खबर के अनुसार पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ में 1975 से प्रतिष्ठित् दयानन्द चेयरको संस्कृत विभाग में जोड़ने के बहाने खत्म करने की योजना बनाई जा रही है। जबकि यूनिवर्सिटी प्रशासन का कहना है कि वह इसे केवल विलय ही कर रहा है। जबकि विश्लेषक कह रहे हैं कि यह सरासर धोखा है-संस्कृत के साथ, वेद के साथ, आर्य समाज के साथ और भारतीय परम्परा के साथ क्योंकि यही धोखा पहले कालिदास चेयर के साथ हुआ था और युनिवर्सिटी ने कालिदास की वैचारिक हत्या की थी। कालिदास चेयर को संस्कृत में विलय कर दिया गया था। आज उसकी सत्ता खत्म और कोई कार्य भी नहीं हो रहा है। आज कालिदास केवल प्रश्नपत्रों में सवाल बनकर रह गया। हम यह धोखा महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के साथ नहीं होने देंगे।

गुरुविरजानन्द गुरुकुल महाविद्यालय, करतारपुर जालन्धर के प्राचार्य डॉ. उदयन आर्य ने इस मामले में सवाल उठाते हुए लिखा है कि एक तो दयानन्द चेयर को करीब 30 साल से कोई स्थाई अध्यक्ष नहीं मिला है। दूसरा इसमें टीचिंग स्टाफ भी पूरा नहीं है। इसे पूर्ण स्थान भी नहीं दिया गया है। इसे एक क्लास रूम में लावारिस सा छोड़ दिया गया है। लाइब्रेरी का लाभ भी छात्र नहीं उठा पा रहे हैं, जिससे छात्रों को भारी नुकसान हो रहा है। 
पंजाब विश्वविद्यालय में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के साथ ऐसा होगा ऐसी आशंका नहीं थी क्योंकि पंजाब से स्वामी दयानन्द का विशेष सम्बन्ध रहा है। उनके गुरु स्वामी विरजानन्द भी पंजाबी थे। लाहौर उनकी विशेष कर्मभूमि रही है। पूरी दुनिया को पंजाब ने पाणिनिजैसा व्याकरण विद्वान दिया। इसके बाद दूसरा पाणिनि स्वामी विरजानन्द भी पंजाब में ही पैदा हुए। उनके शिष्य स्वामी दयानन्द द्वारा अनेक ग्रन्थ इसी पंजाब में लिखे गये हैं। स्वामी जी शास्त्रों के कुशल व्याख्या की, स्वाधीनता के अग्रदूत, महिला व पिछड़ों के स्वाभिमान के रक्षक, भला उनके इस विराट् स्वरूप और साहित्य  तथा सिद्धांत का अध्ययन करने के लिए पंजाब से अच्छी भला क्या जगह हो सकती थी। इसलिए 1975 में पंजाब विश्वविद्यालय में दयानन्द चेयर की स्थापना की गई। दयानन्द चेयर में 70 से अधिक पी.एच-डी. हो चुके हैं। इस दीक्षान्त-समारोह में भी दयानन्द चेयर के चार छात्रों को पीएचडी की उपाधि प्राप्त हुई है। चेयर के माध्यम से इसमें प्रोफेसरों और छात्रों ने जो अनुसन्धान किया है, उसकी पूरे विश्व में प्रतिष्ठा है। 

उदयन आर्य का कहना है कि आज आर्थिक तंगी का हवाला देकर सिर्फ दयानन्द चेयर और संस्कृत की हत्या क्यों की जा रही है? जिस संस्कृत विभाग की स्थापना पीयू लाहौर के कुलपति ए.सी. वूल्नर ने की थी, उसी को आज ये काले अंग्रेज बर्बाद करने पर तुले हैं। क्या संस्कृति, वेद व भारतीय शास्त्रों के अध्ययन को तबाह करने की साजिश की जाँच नहीं होनी चाहिए? क्या आज विश्वविद्यालयों का उद्देश्य सिर्फ रुपये कमाना ही रह गया है। जबकि विश्वविद्यालयों का ध्येय अपनी ज्ञानसम्पदा की रक्षा करना होना चाहिए। सम्पूर्ण संस्कृत जगत् और आर्य समाज कालिदास चेयर को खत्म करने की के साथ दयानन्द चेयर को विलय करने के नाम पर वेद और संस्कृत की  हत्या करने वालों का विरोध करता है तथा इसकी रक्षा के लिए देशव्यापी आन्दोलन करने में संकोच नहीं करेगा। अतः सादर प्रार्थना है कि दयानन्द चेयर की स्वतन्त्रता बरकरार रखी जाए और इसे सही जगह दी जाए व अलग विभाग रखकर संस्कृत अध्ययन को भी सुरक्षित किया जाए तभी देश हित, संस्कृति हित, धर्म हित तथा पूर्ण संसार का हित होगा।
विनय आर्य