Sunday 29 April 2018

युवा मनीषी-पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी

पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी एक युवक दार्शनिक विद्वान् थे जिन्होंने चौबीस वर्ष (24) की अल्पायु में ही संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, अंग्रेजी, वैदिक साहित्य, अष्टाध्यायी, भाषा विज्ञान, पदार्थ विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, नक्षत्र विज्ञान, शरीर विद्या, आयुर्वेद, दर्शन शास्त्र, इतिहास, गणित आदि का जो समयक ज्ञान प्राप्त कर लिया था , उसे देख कर बड़े-बड़े विद्वान चकित रह जाते थे।उनके ज्ञान का अनुमान लगाना पर्वत को तोलना था।
गुरुदत्त जी का एक वर्ष(सन् 1888) का कार्य और उपलब्धियां :

– स्वर विज्ञान का अध्ययन
– वेद मन्त्रों के शुद्ध तथा सस्वर पाठ की विधि का प्रचलन
– दिग्गज साधुओं को आर्यसमाजी बनाया
– कई व्याख्यान किये तथा कई लेख और ग्रन्थ लिखे
– पाश्चात्य लेखकों के द्वारा आर्यधर्म पर किये गये पक्षपातपूर्ण आक्षेपों के उत्तर दिए
– शिक्षित वर्ग इस विद्यावारिधि के पास शंका समाधान के लिए आता रहा


पंडित जी गूढ़ से गूढ़ प्रश्न का उत्तर सरलता से देते थे। दार्शनिक गुत्थी उनके समक्ष गुत्थी ही न रहती।
इस नवयुवक के एक वर्ष के कार्य एवं उपलब्धियाँ महापुरुषों में उच्च स्थान दिलवाने के लिए पर्याप्त हैं।

सन्दर्भ : डॉ राम प्रकाश जी की पुस्तक -”पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी ”

● वेद और योग का दीवाना – पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी ●
- स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

किसी एक धुन के सिवा मनुष्य कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। धुन भी इतनी कि दुनिया उसे पागल कहे। पं. गुरुदत्त के अन्दर पागलपन तक पहुँची हुई धुन विद्यमान थी। उसे योग और वेद की धुन थी। जब गुरुदत्तजी स्कूल की आठवीं जमात में पढ़ते थे, तभी से उन्हें शौक था कि जिसके बारे में योगी होने की चर्चा सुनी, उसके पास जा पहुँचे। प्राणायाम का अभ्यास आपने बचपन से ही आरम्भ कर दिया था। इसी उम्र में एक बार बालक को एक नासारन्ध्र को बन्द करके साँस उतारते-चढ़ाते देखकर माता बहुत नाराज़ हुई थी। उसे स्वभावसिद्ध मातृस्नेह ने बतला दिया कि अगर लड़का इसी रास्ते पर चलता गया तो फ़क़ीर बनकर रहेगा।
अजमेर में योगी [महर्षि दयानन्द] की मृत्यु को देखकर योग सीखने की इच्छा और भी अधिक भड़क उठी। लाहौर पहुँचकर पण्डितजी ने योगदर्शन का स्वाध्याय आरम्भ कर दिया। आप अपने जीवन घटनाओं को लेखबद्ध करने और निरन्तर उन्नति करने के लिए डायरी लिखा करते थे। उस डायरी के बहुत-से भाग कई सज्जनों के पास विद्यमान थे। उनके पृष्ठों से चलता है पता चलता है कि ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, पण्डितजी की योगसाधना की इच्छा प्रबल होती गई। आप प्रतिदिन थोड़ा-बहुत प्राणायाम करने लगे। आपकी योग की धुन इतनी प्रबल हो गई कि कुछ समय तक गवर्नमैण्ट कॉलेज में साइन्स के सीनियर प्रोफेसर रहकर आपने वह नौकरी छोड़ दी। आपके मित्रों ने बहुत आग्रह किया कि आप नौकरी न छोड़िए। केवल दो घण्टे पढ़ाना पड़ता है, उससे कोई हानि नहीं। आपने उत्तर दिया कि प्रात:काल के समय में योगाभ्यास करना चाहता हूँ, उस समय को मैं कॉलेज के अर्पण नहीं कर सकता। यह पहला ही अवसर था कि पंजाब का एक हिन्दुस्तानी ग्रेजुएट गवर्नमेंट कॉलेज में साइन्स का प्रोफेसर हुआ था। कॉलेज के अधिकारियों और हितैषियों ने बहुत समझाया, परन्तु योग के दीवाने ने एक न सुनी, एक न मानी।
पं. गुरुदत्तजी को दूसरी धुन थी वेदों का अर्थ समझने की। वेदों पर आपको असीम श्रद्धा थी। वेदभाष्य का आप निरन्तर अनुशीलन करते थे। जब अर्थ समझने में कठिनता प्रतीत होने लगी तब अष्टाध्यायी और निरुक्त का अध्ययन आरम्भ हुआ। धीरे-धीरे अष्टाध्यायी का स्वाध्याय पण्डितजी के लिए सबसे प्रथम कर्तव्य बन गया, क्योंकि आप उसे वेद तक पहुँचने का द्वार समझते थे। आपका शौक उस नौजवान-समूह में भी प्रतिबिम्बित होने लगा, जो आपके पास रहा करता था। सुनते हैं कि मा. दुर्गादासजी, ला. जीवनदासजी, मा. आत्मारामजी पं. रामभजदत्तजी और लाला मुन्शीरामजी की बगल में उन दिनों अष्टाध्यायी दिखाई देती थी।
अष्टाध्यायी, निरुक्त और वेद का स्वाध्याय निरन्तर चल रहा। यदि उसमें नाग़ा हो जाती तो पण्डितजी को अत्यन्त दु:ख होता। वह दु:ख डायरी के पृष्ठों में प्रतिबिम्बित है। आपकी प्रखर बुद्धि के सामने दुरूह-से-दुरूह विषय सरल हो जाते थे, और बड़े-बड़े पण्डितों को आश्चर्यित कर देते थे। श्री स्वामी अच्युतानन्दजी अद्वैतवादी संन्यासी थे। पं. गुरुदत्तजी आपके पास उपनिषदें पढ़ने आ जाया करते थे। विद्यार्थी की प्रखर बुद्धि का स्वामीजी पर यह प्रभाव पड़ा कि शीघ्र ही शिष्य के अनुयायी हो गये । स्वामीजी पं. गुरुदत्तजी को पढ़ाते-पढ़ाते स्वयं द्वैतवादी बन गये और आर्यसमाज के समर्थकों में शामिल हो गये।देहरादून के स्वामी महानन्दजी प्रसिद्ध दार्शनिक थे। आपको भी पं. गुरुदत्तजी के अध्यापक बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सच्छिष्य के प्रभाव से आप भी आर्यसमाजी बन गये।
[स्रोत : विषवृक्ष, पृ. 38-40]

निरभिमानी पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी
——————–
27 नवंबर 1887 में आर्यसमाज लाहौर का दशम वार्षिकोत्सव मनाया जा रहा था। पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी के दो अद्भुत प्रभावशाली भाषण वहाँ हुआ।

लाला जीवनदास उस भाषण से इतना प्रभावित हुए की सभास्थल पर ही अनायास उनके मुख्य से निकल पड़ा , ” गुरुदत्त जी ! आज तो आपने ऋषि दयानन्द से भी अधिक योग्यता प्रदर्शित की है। ”
परन्तु निरभिमानी ऋषिभक्त विद्यार्थी ने झटपट उत्तर दिया -”यह सर्वथा असत्य है। पाश्चात्य विज्ञान जहाँ समाप्त होता है , वैदिक विज्ञान वहाँ से प्रारम्भ होता है और ऋषि के मुकाबले मैं तो सौंवां भाग भी विज्ञान नहीं जानता। ”
महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने भी यह भाषण सुना था। वे लिखते है – “मुझे सुधि न रही कि मैं पृथ्वी पर हूँ। ”

पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी का संस्कृत से अद्वितीय लगाव [युवाओ के प्रेरणास्रोत]
——————————
एक दिन गुरुदत्त अपने सहपाठी तथा चेतनानंद के घर गया। वहाँ मनुस्मृति रखी थी। उसे पाँव से ठुकराकर बोला ,”चेतनानंद ! किस गली-सड़ी एवं मातृभाषा में लिखी पुस्तक पढ़ते हो? ”

ईश्वर की लीला देखिए। थोड़े ही दिनों पश्चात स्वयं गुरुदत्त पर संस्कृत का जादू हो गया। उसके ह्रदय में संस्कृत पढ़ने की लालसा पैदा हो गई। श्रेय गया स्कूल में इतिहास पढ़ाने वाले उस अध्यापक को जो इतिहास पढ़ाते समय अनेक अंग्रेजी शब्दों का मूल संस्कृत में बताया करता था।
उसके पश्चात संस्कृत की ऐसी लगन लगी कि संस्कृताध्यापक भी उनकी शंकाओं का समाधान नहीं कर पाते थे और एक दिन तो गुरुदत्त को झिड़क कर कक्षा से बाहर ही निकाल दिया।
अब जल की धारा अपना मार्ग स्वयं बनाने निकल पड़ी।
सर्वप्रथम डॉo बेलनटाइन कृत “Easy Lessons in Sanskrit Grammar ” पढ़ा।
संयोगवश तभी दयानन्द सरस्वती की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका हाथ लग गई। उसका संस्कृत भाग शब्दकोष की सहायता से पढ़ लिया। फिर क्या था ! संस्कृत पढ़ने की रूचि बढ़ती चली गई ।
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका का पारायण कर आर्यसमाज मुलतान के अधिकारियों से जा कहा – “मेरी अष्टाध्यायी तथा वेदभाष्य पढ़ने का प्रबंध कर दो अन्यथा मैं जनता में प्रसिद्ध कर दूंगा कि तुम्हारे एक भी व्यक्ति में संस्कृत पढ़ाने की योग्यता नहीं है। तुम केवल संस्कृत का ढोल पीटते हो। “  विचित्र बालक है। किस चपलता से संस्कृत अध्ययन का प्रबंध करवा रहा है ?
आर्यसमाजियों में भी खूब उत्साह था। तत्काल पंडित अक्षयानंद को मुलतान बुलाया गया।
भक्त रैमलदास और गुरुदत्त आदि ने संस्कृत पढ़नी आरम्भ कर दी।
गुरुदत्त को अष्टाध्यायी पढ़ने की इतनी रूचि थी कि एक बार पूर्णचन्द्र स्टेशन मास्टर बहावलपुर के निमंत्रण पर पंडित अक्षयानंद वहां चले गए तो वह किराया खर्च कर पढ़ने के लिए बहावलपुर ही पहुँच गया परन्तु इतिहास की फिर पुनरावृत्ति हुई। पंडित अक्षयानंद भी उसे पढ़ाने में असमर्थ सिद्ध हुए।
गुरुदत्त कोई साधारण विद्यार्थी तो था नहीं। उसकी संतुष्टि न हो सकी। डेढ़ माह में डेढ़ अध्याय अष्टाध्यायी का पढ़ने के पश्चात अक्षयानंद से पढ़ना छोड़ दिया।
शेष अष्टाध्यायी सभवतः ऋषि दयानन्द के वेदांगप्रकाश की सहायता से स्वयं पढ़ी। सम्पूर्ण अष्टाध्यायी नौ मास में पढ़ लिया। कॉलेज में प्रविष्ट होने से पूर्व अष्टाध्यायी पर उनका अच्छा अधिकार था।
–सन्दर्भ : डॉ रामप्रकाश जी की पुस्तक -”पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी ”
अद्भुत प्रतिभा के धनी पं. गुरुदत्त विद्यार्थी,गुरु को भी बना लिया था शिष्य-
वैदिक संस्कृति की रक्षा के लिए पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने आर्यसमाज में विद्वानों की जरूरत समझी।अतः गुरुदत्त विद्यार्थी जी ने स्वामी अच्युतानन्द को (जो नवीन वेदांती थे) आर्यसमाजी (आर्य सन्यासी) बनाने के लिए ठान लिया। इसके लिए गुरुदत्त जी उनके शिष्य बनकर उनके पास जाया करते थे।फिर क्या हुआ–समय बदला गुरु शिष्य बन गया और शिष्य गुरु।
स्वामी अच्युतानन्द कहा करते थे,“पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी का सच्चा प्रेम,अथाह योग्यता और अपूर्ण गुण हमें आर्यसमाज में खींच लाया।”

जिस हठीले अच्युतानन्द ने ऋषि दयानन्द से शास्त्रार्थ समर में पराजित होकर भी पराजय नहीं मानी थी,आज वही उसके शिष्य के चरणों में अपने अस्त्र-शास्त्र फेंक चुका है।आज वह उसी ऋषि का भक्त है-उसी के प्रति उसे श्रद्धा हो गयी है।
श्रद्धा भी इतनी कि जब कई वर्ष पीछे पण्डित चमूपति ने उनसे पूछा, “स्वामी जी नवीन वेदान्त विषय पर आपका शास्त्रार्थ महर्षि दयानन्द से हुआ था,इसका कोई वृत्तान्त सुनाइए।”
तो गर्व से बोले-“मैं मण्डली सहित मण्डप में पहुँचा।”
चमूपति जी पूछ बैठे – “और … और मेरा ऋषि?”

बस,एकदम बाँध टूट गया,स्वामी जी की आँखों से आँसू छलक आये।ह्रदय की श्रद्धा आँखों का पानी बनकर बह निकली,गला रूँध गया और भर्राई हुई आवाज में बोले-“ऋषि ! ऋषि ! ! वह ऋषि (दयानंद) तो केवल अपने प्रभु के साथ पधारे थे।” इतना कहते ही बिलख -बिलखकर रोने लगे।ऋषि के प्रति उनमें इतनी श्रद्धा पैदा कर दी थी गुरुदत्त ने।

स्रोत-
पुस्तक-“पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी”
लेखक-डॉ राम प्रकाश

पण्डित गुरुदत्त को योग में काफी रूचि थी। किसी योगी महात्मा के मुलतान आने का पता चला तो अपने चाचा के साथ महात्मा जी की सेवा में पहुँच गये और निम्नलिखित वार्तालाप हुआ उनसे —-
गुरुदत्त – महाराज ! योग सीखने का सर्वोत्तम विधि कौनसी है ? जो महर्षि पतंजलि ने अपनें योग सूत्रों में वर्णन की है , वह या और कोई ?
साधु – पतंजलि की विधि ही ठीक है , अन्य विधियाँ कपोल-कल्पित हैं।
गुरुदत्त – क्या आप स्वामी दयानन्द के विषय में कुछ जानते हैं ?
साधु – हाँ , हम जंगलों में इकट्ठे रहे हैं। एक बार हम एक स्थान पर भागवत पुराण बांचने वाले एक पण्डित के पास कथा सुनने जाते रहे। स्वामी दयानंद जी पुराणों की बातें सुनकर दुखी हो जाया करते थे।
गुरुदत्त –क्या वेद समस्त विद्याओं का भण्डार है ?
साधु – हाँ
गुरुदत्त -क्या सैन्य संचालन और व्यूह रचना के नियम भी वेदों में हैं।
साधु – हाँ , हैं। ये सिद्धांत मैं स्वयं भी जानता हूँ यदि कोई छह मनुष्य मेरे साथ वन में चले तो मैं उन्हें महाभारत तथा रामायण के समय की शैली पर शिक्षा दे सकता हूँ।
गुरुदत्त ने महात्मा जी से बुद्धि तीव्र बनाने का ढंग पूछा। इस पर साधु ने उसे एक नुस्खा लिखा दिया जिसमें बहुत सी औषधियाँ वे ही थी जो संस्कार्विधि में लिखी थी।
—— डॉ राम प्रकाश द्वारा लिखी पुस्तक -”पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी”
ईंट-पत्थर किसी का स्मारक नहीं बन सकते
पंडित गुरूदत्त विद्यार्थी अपने व्याख्यानों में कहा करते थे कि-

“ईंट-पत्थर पर किसी ऋषि का नाम खुदवा देने से ऋषि का स्मारक नहीं बन सकता। प्रत्युत यदि ऋषि का स्मारक स्थापित करना चाहते हो तो उन सिद्धांतों का प्रचार करके दिखाओ  जिन सिद्धांतों का प्रहार वे ऋषि करते रहे हैं। स्वामी दयानन्द का स्मारक यही है कि वेद के सिद्धांतों का समाज में प्रचार प्रसार हो जाये। ”
सन्दर्भ- पंडित लेखराम आर्यपथिक संगृहीत महर्षि दयानन्द का जीवन चरित्र। पृष्ठ 891,संस्करण 2046


(नोट- इस लेख के लेखन में आर्य विद्वान् श्री भावेश मेरजा एवं भ्राता अनिल विभ्रांत आर्य का मुझे सहयोग प्राप्त हुआ हैं। उनका सहर्ष धन्यवाद- डॉ विवेक आर्य 

डॉ बाबासाहब अंबेडकर के दलित आन्दोलन में बाह्मणो का योगदान

 लेखक-डॉ. पी. जी. ज्योतिकर अनुवाद : जयंतिभाई पटेल

कुछ समय से दलित समाज में क्रांतिकारी नेता के विषय में एक मापदण्ड देखा जाता है. अनुभव किया जा रहा है, दलित समाज की सभाओं में जो ब्राह्मणों को वीभत्स गालियाँ, हिन्दू देवी-देवताओं का मज़ाक एवं महात्मा गाँधी जी का मजाक अपने भाषणों में जो करता है, वह वक्ता-नेता महान् क्रांतिकारी, उद्दामवादी प्रगतिशील माना जाए !! सभाओं में तालियाँ, और यह सब हो रहा है पू. बोधिसत्व डॉ. बाबासाहब अंबेडकर जी के नाम पर..कुछ हमारे मित्र जन तो दलितस्तान भी बाबासाहब जैसे देशभक्त के खाते में जमा कराने का अपराधजन्य कुकृत्य भी कर रहे हैं। आइए आज हम बाबासाहब के जीवन की कुछ हकीकतें जानें और गंभीरता से उसके बारे में सोचें।
1. वर्षा से भीगे हुए छोटे से भीम को अपना रूढ़िचुस्त ब्राह्मणत्व भूल कर अपने घर ले जाकर ब्राह्मण पत्नी द्वारा गरम पानी से अपने पुत्र के साथ स्नान कराने वाले शिक्षक पेंडशे गुरुजी का अपने 50वें जन्मदिन पर बोधिसत्व डॉ. बाबा साहब स्मरण करते हुए कहते हैं- ‘स्कूल जीवन का यह मेरा पहला सुख था।’
2. बालक भीम का लंबा -कर्कश टाइटल अंबेडकर उनके ब्राह्मण शिक्षक कृष्णजी केशव अंबेडकर को अच्छा नहीं लगता था। अतः उन्होंने अपना टाइटल अंबडेकर को प्रदान किया।आज यह अंबडेकर टाइटल गुरु-शिष्य के प्रेम की अद्भुत मिसाल। है एवं करोड़ों किंकरों के लिए प्रेरणारूप है।

3. लश्करी केम्प स्कूल सतारा (साल्वेशन आर्मी स्कूल) में जातिभेद अल्प मात्रा में था। वहाँ पर कृष्ण जी केशव अंबेडकर (1855-1934) शिक्षक थे। (पिता केशव अंबेडकर स्थानीय शिवालय के पुजारी थे) वह अपने सारे शिष्यों के प्रति समान भाव रखते थे। माध्याह्न में छुट्टी के समय भीम भोजन करने घर पर जाता था एवं स्कूल में देर से आया करता था किन्तु गुरुजी को वह पसंद नहीं था। अतः गुरुजी हमेशा अपने टिफिन में खाना ज्यादा लाते थे और भीम को बड़े प्रेम से खिलाते । डॉ. भीमराव जी ने गुरुजी के वह खाने का स्वाद जीवन पर्यन्त याद रखा था।
अपने जन्मदिन-हीरक महोत्सव के समय नरे पार्क (मुंबई) में विशाल जन समूह के समक्ष इस प्रसंग का गौरव के साथ जिक्र करते हुए कहा था-‘स्कूल जीवन की मेरी यह द्वितीय मधुर स्मृति है।’

4. सन् 1930 को गोलमेज परिषद के लिए कार्य के लिए अभिनंदन देते हुए गरूजी के पत्र को बड़े प्रेम से संभाल के रखा है, यह कहना भी वह कभी भूलते नहीं थे। गुरुजी जब शिष्य को मिलने राजगृह (दादर) आए तब डॉ. भीमराव ने 1934 के दिन गुरुजी को दण्डवत् करते हुए श्रीफल, धोती, चादर की दक्षिणा अर्पण की थी । दिनांक 22.12.1934 के दिन गुरुजी के देहांत होने पर डॉ. भीमराव को अपार दुःख हुआ था ।
5. ब्राह्मण नारायण मल्हावराय जोषी (1879-1955) भारतीय मजदूर क्रांति के जनक (मराठी साहित्यकार वा. जोषी के अग्रज) 1902 -1906 मुंबई के एल्फिस्टन हाईस्कूल में डॉ. भीमराव के वर्ग शिक्षक थे। जिन्होंने विद्यार्थी भीम को पिछली बेंच से उठाकर प्रथम बेंच में बिठाया और ब्लैकबोर्ड पर लिखने के लिए कहा ।
6. मैट्रिक के बाद अभ्यास के लिए वडोदरा महाराजा श्रीमंत सयाजीराव की शिष्यवृत्ति लेने के लिए महाराजा से मुंबई में मुलाकात कराने वाले यान्दे भी ब्राह्मण ही थे। गोरगाँव में उनका प्रसिद्ध निर्णयसागर प्रेस था जिसमें महाराजा के राज्य का संपूर्ण साहित्य छपा था। अतः वह महाराजा के घनिष्ठों में से एक थे। दादा केलुस्कर (भंडारी जाति) उनके साथ गए थे, पहचान यान्द जी की थी।
7. दिनांक 4. 6. 1913 के दिन वडोदरा राज्य एवं भीमराव अंबेडकर के बीच स्टाम्प पेपर पर विदेश में उच्च पढ़ाई हेतु शिष्यवृत्ति-आर्थिक सहायता विषयक दस्तावेज लिखा गया। दस्तावेज के लेखक तथा दस्तावेज में अंबेडकर के पक्ष में साक्षी देकर हस्ताक्षर करने वाले त्रिभोवन जे. व्यास एवं ए. जी. जोशी नाम के ब्राह्मण थे।
8. बहिष्कृत हितकारिणी सभा (1942) के अध्यक्ष चिमनलाल सेतलवाड ब्राह्मण थे । साथ में अन्य और सवर्ण हिन्दू साथी तो थे ही….
9. महाड सत्याग्रह (कोलाबा जिला बहिष्कृत परिषद 19-20 मार्च 1927) | में कार्यक्रम के अंत में डॉ. अंबेडकर की अगवानी में एक विशाल रैली निकालकर चवदार तालाब में प्रवेश करके पानी पीने का प्रस्ताव रखने वाले अनंतराव विनायक चित्रे (1894-1959) भी कायस्थ ब्राह्मण थे जिन्होंने बाद में डॉ. अंबेडकर को सामयिक जनता साप्ताहिक में एडिटर के रूप में वर्षों तक सेवा दी थी। सन् 1928 में इन्दौर में दलित छात्रावास भी चलाते थे।
10. वैदिकविधि से दलितों को यज्ञापवीत, सामूहिक भोजन का आयोजन इत्यादि कार्यक्रमों के हेतु स्थापित समाज समता संघ के महत्व के अग्रणी लोकमान्य तिलक के सुपुत्र श्रीधरपंत ब्राह्मण थे, तिलक जिन्होंने ब्राह्मणों की नगरी पूणा में गायकवाड सवर्णों के विरोध के बीच भी दलित-सवर्णों का समूह भोजन करवाया थे। श्रीधर पंत ने जब आत्महत्या की उसके एक दिन पूर्व अपने स्वजन मानते हुए डॉ. अंबेडकर को पत्र लिखकर आत्महत्या की जानकारी दी थी।
11. समाज समता संघ के मुखपत्र समता के एडिटर देवराम विष्णु नायक गोवर्धन ब्राहमण थे, जो पीछे से जनता साप्ताहिक के एडिटर भी रहे एवं बाबासाहब के अंतरंग साथी रहे।
12. महाड़ सत्याग्रह केस (20 मार्च 1927) दीवानी केस 405/1927 में शंकराचार्य डॉ. कृर्तकोटि डॉ. अंबेडकर के पक्ष में साक्षी रहे थे । उनकी साक्षी लेने वाले कोर्ट कमिशन भाई साहब महेता भी ब्राह्मण थे । डॉ. अंबेडकर के पक्ष में वह फैसला आया था। और 405-1927 केस का फैसला देने वाले न्यायमूर्ति वि. वि. पण्डित भी ब्राह्मण ही थे। दस साल बाद 17. 3. 1937 के दिन हाइकोर्ट ने डॉ. अंबेडकर के पक्ष में फैसला सुनाया था।
13. उसी काल में (9, 10-12-1927) वृहद महाराष्ट्र परिषद वेदशास्त्र पारंगत नारायण शास्त्री मराठे की अध्यक्षता में अकोला में मिली जिसमें सैंकड़ों वेद पारंगत ब्राह्मण उपस्थित थे। इस ब्राह्मण परिषद ने यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित करके सामाजिक समता की हिमायत की थी। अधिक प्रस्ताव 13 पारित कर घोषणा की गई कि ‘अस्पृश्यता, शास्त्र आघारित नहीं है।’ मानव मात्र को वेद अध्ययन का अधिकार है। स्कूल, धर्मशाला, कूपों, तालाव, मंदिर तमाम जगहों पर प्रवेश करना सबका समान रूप से अधिकार है। किसी को भी अस्पृश्यता को मान्यता नहीं देनी चाहिए। उक्त परिषद के प्रमुख संचालकों में से पांडुरंग भास्कर शास्त्री पालेच (ब्राह्मण) थे। डॉ. आंबेडकर को जो अपेक्षित था वह इस ब्राह्मण परिषद ने प्रस्ताव द्वारा प्रोत्साहित किया।
14. कमलकांत वासुदेव चित्रे (1894-1957) समाज समता संघ के बुनियादी कार्यकर्ता, सिद्धार्थ कॉलेज के संस्थापना एवं विकास के राहबर, पीपल्स एज्युकेशन सोसायटी के गवर्निंग बोर्ड के सदस्य, डॉ. बाबा साहब के पुनर्विवाह के समय (दिल्ली) विवाह रजिस्ट्रेशन के समक्ष वधु की ओर से) डॉ. शारदा कबीर के ‘पक्ष की ओर से दो दस्तख्त करने वाले डॉ. शारदा के भाई वसंत कबीर एवं कमलकांत चित्रे ब्राह्मण थे।
15. 1945 में डॉ. अंबेडकर को सर्वप्रथम सम्मान पत्र से सम्मानित करने वाले सोलापुर म्युनिसिपल के प्रमुख डॉ. वि. वि. मूले ब्राह्मण थे। सम्मान पत्र के प्रति उत्तर में डॉ. आंबेडकर ने कहा-आज से बीस साल पूर्व डॉ. वि. वि. मूले के सहयोग के। कारण ही मैं समाज सेवा क्षेत्र में आया हूं।
16. स्वतंत्र भारत के प्रथम मंत्री मण्डल में डॉ. अंबेडकर के नाम का सूचन-आग्रह करने वाले चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य भी ब्राहमण ही थे।

17. डॉ.अंबेडकर ने 1954 में भारतीय बौद्ध महासभा नामक संस्था की। रजिस्ट्री करवाई। इस संस्था के ट्रस्टी में बालकृष्णराव कबीर ( डॉ.अंबेडकर के साले)
को लिया गया, जो सारस्वत ब्राह्मण थे। भारतीय बौद्ध महासभा का प्रथम नाम भारतीय बौद्ध जनसंघ (1951) था। फिर भारतीय बौद्ध जन समिति (1953) में और अंत में भारतीय बौद्ध महासभा नाम रखा गया।

18. 14 अक्टूबर 1954 की अशोक विजया दशमी के दिन नागपुर में डॉ. अंबेडकर द्वारा बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने एडवोकेट अनंत रामचन्द्र कुलकर्णी (मंत्री बौद्ध समिति) और नागपुर के सेशन जज न्यायमूर्ति भवानीशंकर नियोगी भी ब्राह्मण ही थे। कुलकर्णी 1940 से नागपुर में बौद्ध धर्म का प्रचार करते थे जबकि मध्य प्रदेश सरकार द्वारा नियोगी कमीशन की रिपोर्ट के इस बौद्ध कर्ता ने ईसाइयत में धर्मान्तरण के विरोध की पेशकश की थी।
इस तरह समाज सेवा की प्रवृति एवं संघर्ष में भी ब्राह्मण समाज डॉ. अंबेडकर के पास में रहा था। उनको हम डॉ. आंबेडकर और ब्राह्मणों के बीच ऋणानुबंधी संबंध कहें कि संजोग …..परन्तु सत्य तो यही है।
गौरव घोष, नवम्बर 2006 से साभार।
ये तथ्य डा. पी.जी. ज्योतिकर द्वारा लिखे ‘डा. बाबासाहेब अंबेडकर के दलित आंदोलन में ब्राह्मणों का योगदान’ नामक लेख, अनुवाद: जयंतिभाई पटेल, में उपलब्ध हैं। हिंदी मे अनुवादित यह लेख डा. के. वी. पालीवाल रचित पुस्तक ‘मनुस्मृति और डा. अंबेडकर’ के परिशिष्ट में छपा है।

प्रस्तुतकर्ता -अरुण लवानिया

सबका आदि मूल - परमेश्वर


इस सृष्टि में जो भी ज्ञेय पदार्थ व उसके जानने का साधन ज्ञान है, उसकी उत्पत्ति कैसे हुई, यह प्रश्न सृष्टि के आदि काल से ही मानव मस्तिष्क में उत्पन्न होता रहा है। संसार के सभी ईश्वरवादी संप्रदाय निश्चित रूप से यह मानते हैं कि इन दोनों का आदिमूल परमात्मा है। वेद, प्रचलित पुराण, कुरान, बाईबल आदि सभी ग्रंथ इस बात पर एकमत हैं, भले ही ईश्वर केे स्वरूप के विषय में मतभिन्नता है। इसी एक सत्य को प्रतिपादित करते हुए आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद जी सरस्वती ने प्रथम नियम में लिखा-                                                                                                         ‘‘सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।’’ 


महर्षि का यह वाक्य अत्यंत सारगर्भित एवं स्पष्ट है पुनरपि बड़े दुर्भाग्य का विषय है कि बड़े-बड़े सुपठित आर्यजन यहाँ तक कि व्याकरणादि शास्त्रों के निष्णात विद्वान् भी इस वाक्य का अर्थ समझने में भ्रान्त होते देखे जाते हैं। एक ऐसे ही निष्णात विद्वान् ने अपने द्वारा सम्पादित मासिक पत्र के संपादकीय में इसे ...‘‘सत्य, विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं...’’ लिखकर विद्या तथा पदार्थ विद्या, ये दो प्रकार की विद्याएं बताई हैं। तथा इन दोनों को सभी सत्य ज्ञान का साधन बताया है। इन बंधु की समझ में यह साधारण बात नहीं आयी कि पदार्थसे पूर्व जोसर्वनाम किस संज्ञा से संबंधित है? ये सत्य को जानने का साधन इन विद्याओं को बता रहे हैं, तब जोसर्वनाम सत्य के साथ प्रयुक्त होगा। तब वाक्य इस प्रकार होगा.. सब सत्य जो विद्या और पदार्थविद्या से जाने जाते हैं,....’’ महर्षि ने सत्यविद्याजो समस्त पद के रूप में प्रयुक्त किया है, उसका यहां कोई अर्थ ही नहीं रहेगा जबकि सत्यविद्यापदों के मध्य जोआने पर महर्षि के वाक्य का स्वरूप ही बदल जायेगा। क्या किसी को भी यह अधिकार है कि वह महर्षि  के वाक्य को ही बदलने की मनमानी करे। महर्षि के वाक्य का अर्थ न जान सके, तो वाक्य ही बदल दिया। 

उधर कोई महानुभाव यहाँ सत्यविद्या को एक पद तथा पदार्थविद्या को अन्य एक पद मानकर सत्यविद्या व पदार्थविद्या इन दो प्रकार की विद्याओं का मूल परमेश्वर को मानते हैं। इन महानुभावों में भी वाक्य को समझने की योग्यता नहीं हैं। इन्हें जोसर्वनाम दिखाई ही नहीं देता। इस प्रकार की मिथ्या व्याख्या भी मैंने एक आर्य पत्रिका में देखी है। मैं ऐसे विद्वान् लेखकों की अज्ञानता को दूर करते हुए भी उनके सम्मान की रक्षा हेतु उनका नामोल्लेख करना उचित नहीं समझता। 

एक बार ऋषि उद्यान, अजमेर में एक वृद्धा माता, जो सेवानिवृत्त प्राचार्या थीं, तथा अनेक विद्वानों के सत्संग का लाभ उठाती रही थीं, ने भी ऐसी ही शंका प्रस्तुत की थी।

इन भ्रान्त धारणाओं की चर्चा के उपरांत हम महर्षि के वाक्य को यथावत् विचारने का प्रयास करते हैं- 

‘‘सब सत्यविद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।’’ यहां स्पष्ट ही सत्यपद विद्याके साथ विशेषण के रूप में जुड़ा हुआ है। और पदार्थविद्या पद से पृथक् पद है। जोसर्वनाम पदार्थसंज्ञा के साथ संगत है। इस द्वितीय विद्यापद के साथ सत्य विशेषण नहीं है परंतु यहां लुप्त रूप में इसके साथ जुड़ा अवश्य है अर्थात् यह विद्यापद पूर्व में आये सत्यविद्याके लिए ही प्रयुक्त है। यहाँ संपूर्ण वाक्य का अर्थ है कि संपूर्ण सत्यविद्या एवं जो पदार्थ उस सत्यविद्या से जाने जाते हैं, का आदिमूल परमेश्वर है। यहाँ सत्यविद्यापद वेद की ओर संकेत कर रहा है, जैसा कि आर्य समाज के तृतीय नियम में वर्णित है। इसके साथ ही पदार्थपद इस संपूर्ण सृष्टि के पदार्थों अर्थात् ईश्वर, जीव व प्रकृति तथा प्रकृति के विकार रूप में उत्पन्न सभी जड़ पदार्थों की ओर संकेत कर रहा है। ये सभी पदार्थ जिस वेदविद्या से जाने जाते हैं, वही सत्यविद्या है। इस प्रकार इस सृष्टि के सभी जड़ व चेतन पदार्थ तथा उनको जानने का साधन सत्यविद्या दोनों की उत्पत्ति का मूल निमित्त कारण परमात्मा है। यहाँ कोई यह शंका करे कि पदार्थपद के पश्चात् आये विद्याके साथ सत्यपद क्यों नहीं? इसके उत्तर में मैं कहना चाहूंगा कि यह कोई दोश नहीं है। ऋषि अपनी बात सूत्र रूप में ही कहते हैं। अनावश्यक विस्तार देना उनका स्वभाव नहीं होता। सभी आर्ष ग्रंथ इसी शैली के प्रतिपादक हैं। वैसे भी यदि मैं कहूँ, ‘‘कि यह काला घोड़ा और जो व्यक्ति घोड़े पर बैठा है, का निवास वह गांव है,’’ तब क्या यहां यह अर्थ नहीं निकल सकता कि वह काला घोड़ा तथा जो व्यक्ति उस काले घोड़े पर बैठा है, उस गांव के रहने वाले हैं। अवश्य ही यहाँ यही अर्थ है। इसी प्रकार की शैली में आर्य समाज का प्रथम नियम लिखा गया है। 

अब यहां कोई यह प्रश्न कर सकता है कि महर्षि पतंजलि ने योगसूत्रों में पदार्थ के स्वरूप के यथार्थ ज्ञान को ही विद्या कहा है,जैसे सत्य को सत्य, आत्मा को आत्मा तथा सुख को सुख आदि मानना व जानना ही विद्या कहाती है। तब विद्याके लिए सत्यविशेषण का प्रयोग क्यों? क्या विद्या कभी असत्य भी हो सकती है? इस विषय में मेरा मानना है कि महर्षि दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में सत्का अर्थ नित्य किया है। इस कारण यहाँ सत्यपद को नित्य का पर्यायवाची मानना चाहिए। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सभी प्रकार का नित्य ज्ञान और उस नित्य ज्ञान से जो पदार्थ जाने जाते हैं अथवा जाने जा सकते हैं, उन दोनों ही का आदि मूल परमात्मा है। यह नित्य ज्ञान वेद है और वेद से जानी जाने वाली संपूर्ण सृष्टि, इन दोनों का कर्ता परमात्मा है। यहां अनित्य विद्या का कर्ता परमात्मा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि वेद में अनित्य इतिहास आदि विद्यायें नहीं है, भले ही वे विद्याएं यथार्थ हों। 

किसी राजा, रानी, ऋषि, मुनि का इतिहास, पर्वत, देश, आदि के नाम अनित्य इतिहास के भाग हैं, इनका वर्णन वेदों में नहीं हो सकता। इस कारण आर्य समाज के प्रथम नियम में महर्षि वेद व सृष्टि दोनों का कर्ता परमेश्वर को मानते हैं, इसे इसी संदर्भ में ग्रहण करना चाहिए न कि नाना भ्रांतियों में फंसकर अपना समय व्यर्थ करना चाहिए। 

आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक, वैदिक वैज्ञानिक

Friday 27 April 2018

आमरण अनशन कभी एक हथियार था अब मजाक बन गया


रेप के मामलों में सख्त कानून की मांग को लेकर अनशन पर बैठीं दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने पास्को एक्ट में हुए बदलाव के बाद जूस पीकर अपना अनशन खत्म किया भूख हड़ताल पर बैठी स्वाति मालीवाल की मांग थी कि रेप के आरोपी को 6 माह के अन्दर फांसी हो जानी चाहिए. अब पता नहीं उनका आमरण अनशन आम जनता के कितना भीतर तक असर करेगा पर ये सच है कि अन्ना के अनशन में भी कुछ लोगों ने अपने राजनीतिक करियर की नींव रखने का कार्य किया था.

देखा जाये अनशन, धरने और पद यात्रा किसी भी लोकतंत्र का एक हिस्सा होता है. सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों तक जब अपनी बात न पहुंचे तो इन सब तरीकों को ही माध्यम माना जाता रहा है. मेरे विचार से राजनीति का अनशन से संबंध उतना ही पुराना है, जितना योगियों का ईश्वर प्राप्ति के लिए अन्न-जल का त्याग करना. यदि किसी के मन में मैल नहीं है और उसका उद्देश्य सार्थक है तो अनशन से बढ़कर कोई हथियार नहीं होता. महात्मा गाँधी से लेकर अन्ना हजारे तक,  अनशन और धरने का हमारा एक लम्बा कालखंड रहा है.

साल 1929 में लाहौर जेल के भीतर एक ऐसी भूख हड़ताल शुरू हुई थी जिसकी गूंज आज भी सुनाई देती है. उस समय क्रन्तिकारी जतिन दास ने भारत के राजनीतिक कैदियों के साथ भी यूरोपीय कैदियों की तरह व्यवहार करने की मांग को लेकर भूख हड़ताल शुरू की. दास की हड़ताल तोड़ने के लिए ब्रिटिश जेल प्रशासन ने काफी कोशिशें कीं.  मुंह और नाक के रास्ते जबरदस्ती खाना डालने की कोशिश भी की गई लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. अंत में अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा था. लेकिन जतिन दास को स्वयं की राजनितिक लालसा नहीं थी उनका उद्देश्य सिर्फ सभी भारतीय कैदियों को सामान व्यवहार दिलाना था.

किन्तु वर्तमान समय में अनशन हो या धरने प्रदर्शन सिवाय वोटों के लालच, स्वयं के राजनितिक हित पर आन टिके है इनमे समाज और देश का हित विरले ही नजर आता है. हाल में कांग्रेस की तरफ से ऐलान किया गया था कि दलितों पर हो रहे अत्याचार के ख़िलाफ आवाज उठाने के लिए राहुल गांधी राजघाट पर एक दिन का उपवास करेंगे. लेकिन जिस दिन उपवास का वक्त आया, राहुल के भूखे रहने से कहीं ज्यादा सुर्खियां कांग्रेसी नेताओं के छोले-भटूरे बटोर ले उड़े. इसके बाद बारी थी भाजपा की. ऐलान किया गया कि 12 अप्रैल को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के सभी सांसद एक दिन का उपवास रखेंगे. यानि के एक अनशन के विरोध में दूसरा अनशन.

मेरी दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष के प्रति पूरी सहानुभूति है. पर एक समय था जब लोगों ने दिल्ली गैंग रेप से सबसे क्रूर हत्यारे की रिहाई पर बहाए जा रहे उनके आंसू घड़ियाली और राजनीति से प्रेरित बताये थे. क्योंकि निर्भया के रेप के बाद पूरे तीन साल का समय था, तब किसी ने कुछ नहीं किया. न नेताओं ने, न संसद ने और न महिला आयोग ने. हत्यारे की रिहाई हुई उस समय दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल 19 दिसंबर को रात में सुप्रीम कोर्ट गईं. जबकि दिल्ली हाईकोर्ट का फैसला 18 दिसंबर की दोपहर को आ गया था. तब सवाल उठा है कि स्वाति 24 घंटे से ज्यादा समय तक क्या कर रहीं थीं, जो दूसरे दिन रात में सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं? इसके बाद निर्भया के साथ सबसे ज्यादा बर्बरता करने वाले उस अपराधी को आम आदमी पार्टी की ओर से दस हजार रूपये और सिलाई मशीन भेंट की थी. कुछ ऐसे सवाल है जो इस अनशन पर सहानुभूति के साथ सवाल भी खड़े कर रहें है.

अतीत में देखें तो गांधी जी अहिंसा और सत्याग्रह के तहत कई बार भूख हड़ताल किया करते थे. उन्होंने अपने जीवनकाल में करीब 15 उपवास किए, जिनमें से तीन बार इनकी अवधि 21 दिन रही. इन तीनों उपवासों में गाँधी जी का कोई व्यक्तिगत या राजनितिक लाभ नहीं था केवल समाज हित के लिए किये गये प्रयास थे. लेकिन आज भूख हड़ताल और धरने प्रदर्शन सियासी लाभ के लिए किये जा रहे है. इनमें समाज और देश से कोई सरोकार नहीं है बल्कि यूँ कहिये कि खुद के सियासी लाभ के लिए इस जनता के सबसे मजबूत हथियार की गरिमा को धूमिल किया जा रहा है.

लोकतंत्र में जब कोई व्यक्ति व्यवस्था से हताश निराश हो जाता है, तो उसके पास बहुत सीमित विकल्प होते हैं. वह अपनी मांगों को लेकर धरना, भूख हड़ताल या सत्याग्रह करता है. एक समय प्रमुख आर्य समाजी और पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कहा था कि अनीतियों के खिलाफ जागृत करने के लिए सदन में तर्क संगत विरोध और जन जागरण का सहारा लेना चाहिए वे धरना, अनशन या जेल भरो सत्याग्रह के खिलाफ थे. ऐसे सोच वाले वे शायद अकेले हैं और क्योंकि आजकल पकड़े गए लोग सायंकाल तक छोड़ दिए जाते हैं. अनशन के साथ छुपकर खाना खाने की फोटो वायरल होती है.

शायद इसी वजह से आज की तारीख में जब भी आम लोगों की बातचीत में अनशन या धरना प्रदर्शन शब्द का जिक्र आता है तो लोगों का पहला सवाल ये होता है कि ये कौनसी पार्टी बनाएगा या आने वाले समय में कहाँ से चुनाव लड़ेगा. कोई ये नहीं सोचता कि जो व्यक्ति अनशन कर रहा है उसकी तकलीफ क्या है. ज्यादातर लोगों के लिए धरना प्रदर्शन और अनशन का मतलब राजनितिक ड्रामा, नारेबाजी और अफरातफरी का माहौल होता है. लेकिन इस सबके लिए जिम्मेदार कौन हैं.?
राजीव चौधरी 

पाकिस्तान के भूगोल में एक ओर लकीर की आहट


पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान की राजधानी इस्लामबाद ने कई विरोध और धरना प्रदर्शन देखे है लेकिन इस बार का पश्तून आन्दोलन बिलकुल अलग है जिसमें न कोई हिंसा है न पथराव सिर्फ कुछ मांग है और आन्दोलन में लगते नारों ये जो दहशतगर्दी है इसके पीछे वर्दी है ने पाकिस्तानी फौज और सरकार की साँस उखाड़ दी है. मंजूर पश्तीन की अगुवाई में पश्तून तहाफुज मूवमेंट (पीटीएम) मात्र 22 लोगों द्वारा उठाई गयी आवाज अब लाखों लोगों का आन्दोलन बन चुकी है. ये पश्तून समुदाय के लोगों का गुस्सा हैं,  उनको दशकों से प्रताड़ित किया जाना, संदिग्ध नीतियों के तहत हाशिये पर रखने और अफगानिस्तान में रणनैतिक पैठस्थापित करने की पाकिस्तान की मंशा के विरुद्ध आक्रोश की अभिव्यक्ति हैं यह घटना केवल खबर नही है बल्कि आने वाले समय में यह पाकिस्तान के भूगोल में एक ओर लकीर दिखाई दे रही है.

जैसे-जैसे मंजूर पश्तीन की आवाज लगातार मजबूत होती जा रही है वैसे-वैसे पाकिस्तान में बैचेनी पैदा हो रही है. हाल ही में पीटीएम से जुड़े कुछ लेखों को कई वेबसाइटों ने हटा लिया गया. 14 अप्रैल को अंग्रेजी के एक बड़े अखबार द न्यूज में वहां के स्तंभकार बाबर सत्तार ने एक लेख लिखा था लेकिन वह प्रकाशित नहीं किया गया. पश्तून आन्दोलन की खबर दिखाने पर जियो न्यूज को भी ऑफ एयर कर दिया गया था. बताया जा रहा है कि इस आन्दोलन की आग उस समय ज्यादा भड़क उठी जब कराची में 13 जनवरी 2018 को नाकीबुल्लाह महसूद नामक पश्तून युवक की बिना किसी न्यायिक कार्यवाही के हत्या कर दी गयी थी. नाकीबुल्लाह, दक्षिणी वजीरिस्तान के मकीन नामक फाटा क्षेत्र का निवासी था 23-वर्षीय नाकीबुल्लाह कपडे की दुकान चलाता था और मॉडल बनने का सपना रखता था. 3 जनवरी 2018 को उसे कुछ लोगों ने पकड़ा और दस दिन बाद एक फर्जी मुठभेड़ में उसकी हत्या कर दी.

यही नहीं पिछले दिनों एक पश्तून लीडर उमर खटक ने कुछ खुलासे किये थे जिनमें कहा गया था कि पाकिस्तान की सरकार आतंकी कैम्पों की फंडिंग के लिए पश्तून लड़कियों का यौन दासी के तौर पर इस्तेमाल कर रही है. उमर ने दावा किया था कि पाक फौज ने सैकड़ों पश्तून लड़कियों को किडनैप कर लाहौर में जिस्मफरोशी के काम में झोंक दिया है. उमर ने पाक फौज की पोल खोलते हुए ये भी बताया कि स्वात और वजीरिस्तान में अनगिनत घरों पर बुलडोजर चलवा दिया है और बाजारों को लूट लिया है. पाक सैनिक आए दिन पश्तून लड़कियों से रेप करते हैं. (यूनाइटेड नेशंस हाई कमिश्नर फॉर रिफ्यूजीज) के रिकॉर्ड्स के मुताबिक पाकिस्तान आर्मी के अत्याचारों से तंग आकर करीब 5 लाख लोग ये कहकर अफगानिस्तान पलायन कर गए कि पाकिस्तान कोई देश नहीं है, यह पश्चिमी साम्राज्यवादियों का एक प्रोजेक्ट है. यहाँ स्थानीय जातियों की पहचान खत्म की जा रही है. पाकिस्तानी फौज स्थानीय लोगों को उनके इलाके से बेदखल कर आतंकी कैम्प स्थापित करना चाहती है. पाकिस्तान हमें आए दिन परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी देता है. पश्तून के लोग पाकिस्तान से अलग रियासत भी चाहते हैं.

जानकर लोग बताते है कि आतंकवाद को मिटाने के नाम पर पाकिस्तानी सेना ने पिछले कुछ वर्षों में उत्तरी-दक्षिणी वजीरिस्तान समेत अन्य क्षेत्रों में काफी अभियान छेड़े है. इन अभियानों में 20 लाख लोग विस्थापित हुए है एक किस्म से कहे तो पाकिस्तानी सेना अपने ही लोगों के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया है. बारूदी सुरंग लगाने, कर्फ्यू लगाने से लेकर सम्पूर्ण फाटा क्षेत्र में अतिरिक्त सुरक्षा पोस्ट लगाने जैसे गैर-वाजिब कदम उठाये गए है. पाक सेना द्वारा पश्तूनों का इस्तेमाल महज अपनी भू-रणनैतिक मंशाओं को पूरा करने के लिए चारे के स्वरुप कर रही है. उन्हें उनकी जमीनों से विस्थापित किया गया और हर स्तर पर उनका दमन और निरादर किया गया है.

देखा जाये तो ये विद्रोह तो काफी पुराना था लेकिन आज युवा पश्तून पाकिस्तान के शहरी केन्द्रों में पढाई करते है, विशेषकर कराची और लाहौर में और उन्होंने व्यक्तिगत रूप से पक्षपात का अनुभव किया है. इससे एक प्रकार की राजनैतिक चेतना का प्रवाह हुआ है जो पिछले वर्षों में पश्तूनों के साथ हुए अन्याय के विरुद्ध राजनैतिक मंशा पर सवाल उठाये. अपहरण, मुकदमे, हत्याएं और सैन्य बालों द्वारा ही यातना के विरोध में यह सब लोग एकजुट हुए. मंजूर पश्तीन कहते हैं कि आदिवासी लोगों को चरमपंथियों जैसा समझा जाता रहा है. आज फाटा से 8 हजार लोग सेना द्वारा गायब किये गये है. महिलाओं बच्चों और बूढों पर भी सेना कोई रहम नहीं करती. हम लोग पाक हकुमत से रोजगार, अस्पताल, स्कूल या रुपया पैसा नहीं मांग रहे है बस अपने जीवन की भीख मांग रहे है. हमारी जिन्दगी पाक फौज के जूतों के नीचे दबी है. लेकिन जो भी पाक फौज पर सवाल उठाता है वो मार दिया जाता है. वो कहते है कि पिछले दिनों मौलवी मेराजुदीन ने पाक फौज पर सवाल उठाया था लेकिन इसके तीन दिन बाद उनकी हत्या हो जाती है. आतंकवाद की जंग में हमारा इस्तेमाल टिशु पेपर की तरह किया जा रहा है. कभी हमला हमसे करवाते है तो कभी हमलावर बताकर हमारे ऊपर ही बमबारी कर दी जाती है.

वैसे इतिहास गवाह है कि पश्तूनी क्षेत्र के लोगों को जबरन नियंत्रण में रखना कभी संभव नहीं रहा. पाकिस्तान के पश्तून समूहों पर कोई भी पूरी तरह अंकुश नहीं लगा पाया. ना सिर्फ पाकिस्तान और अफगानिस्तान बल्कि ब्रिटिश और अमरीकियों ने भी जब ऐसी कोशिशें की तो उन्हें उल्टा नुकसान उठाना पड़ा. फिलहाल तो पीटीएम पाकिस्तान के अलग-अलग शहरों में रैलियां कर रहा है, लोगों को अपने समर्थन में जुटा रहा है और अपनी मांगों को पुरजोर तरीके से रख रहा है. अब यह देखना बाकी है कि यह आंदोलन पाकिस्तान की राजनीति को किस तरह प्रभावित करता है. पश्तूनी समुदाय के मन में खिंची ये लकीर नक्शे पर उभरती है या फिर अमानवीय तरीकों से दबा दी जाती है.

लेखक राजीव चौधरी