Friday 13 April 2018

क्या देश धीरे-धीरे सुलग रहा है..?


पश्चिम बंगाल, राजस्थान और बिहार के कई हिस्सों में रामनवमी के दौरान हुई हिंसा की घटनाएँ थमी भी नहीं थी कि अनुसूचित जाति-जनजाति कानून में बदलाव के विरोध में आहूत ‘‘भारत बंद’’ हिंसक हो गया। करीब 12 लोगों की जान चली गई और बड़ी संख्या में लोग जख्मी हो गए। बंद समर्थकों ने यातायात पर भी अपना गुस्सा उतारा। कहीं ट्रेनें रोकी गईं तो कहीं बसों को आग के हवाले कर दिया गया। पुलिस चौकी जलाने के साथ पुलिसकर्मियों को भी निशाना बनाया गया। 
दलित आंदोलन की आग से पश्चिमी यूपी सबसे ज्यादा प्रभावित रहा। मेरठ, मुजफ्फरनगर, फिरोजाबाद, हापुड़, बिजनौर और बुलंदशहर सहित पश्चिमी यूपी के जिलों में जमकर तोड़फोड़ और हिंसा हुई। सबसे ज्यादा हालात मध्य प्रदेश, यूपी, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब में खराब दिखे। भिंड-मुरैना और ग्वालियर जिले में भी छह लोगों की मौत हो गई। यहां पुलिस को कर्फ्यू लगाना पड़ गया। हालात पर काबू करने के लिए पुलिस को कई जगह लाठीचार्ज करना पड़ा और आंसू गैस के गोले दागने पड़े। 

दरअसल अनुसूचित जाति-जनजाति कानून जोकि 11 सितम्बर 1989 में भारतीय संसद द्वारा पारित किया गया था, यह अधिनियम उस प्रत्येक व्यक्ति पर लागू होता है जो अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति का सदस्य नहीं हैं तथा वह व्यक्ति इस वर्ग के सदस्यों का उत्पीड़न करता है। अब सुप्रीम कोर्ट द्वारा उसमें संशोधन की बात की गयी थी।
एकाएक मामला कुछ यूँ उभर कर आया जब दलित समुदाय से ताल्लुक रखने वाले एक शख्स ने महाराष्ट्र के सरकारी अधिकारी सुभाष काशीनाथ महाजन के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई थी। शिकायत में महाजन पर शख्स ने अपने ऊपर कथित आपत्तिजनक टिप्पणी के मामले में अपने दो कर्मचारियों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई पर रोक लगाने का आरोप लगाया था। काशीनाथ महाजन ने एफआईआर खारिज कराने के लिए हाई कोर्ट का रुख किया था, लेकिन बॉम्बे उच्च न्यायालय ने इससे इन्कार कर दिया था। इसके बाद महाजन ने हाई कोर्ट के फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती दी थी। इस पर शीर्ष अदालत ने उन पर एफआईआर हटाने का आदेश देते हुए अनुसूचित जाति-जनजाति एक्ट के तहत तत्काल गिरफ्तारी पर रोक का आदेश दिया था। यही नहीं सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत को भी मंजूरी दे दी थी।
कोर्ट के इस फैसले के बाद से ही देश के दलितों में काफी क्रोध पनपने लगा था, जिसने एक हिंसक रूप ले लिया है। हालाँकि मोदी सरकार ने दलितों के हक में सोमवार ;2 अप्रैलद्ध को कोर्ट के सामने इस फैसले को लेकर पुर्नविचार याचिका दायर कर दी थी। लेकिन इसके बाद भी मोदी योगी मुर्दाबाद भाजपा आर.एस.एस. मुर्दाबाद जैसे नारों के साथ हिंसा का दौर देर शाम तक चलता रहा।
कथित ऊंची जातियों द्वारा दलितां को किसी प्रकार के शोषण से बचाने के लिए देश में 1995 में एसटी.एससी एक्ट लागू हुआ। मगर हालिया रिपोर्ट के अनुसार हर साल देश भर में लाखों दलित उत्पीड़न से जुड़े केस सामने आते हैं जिनमें से सैकड़ों फर्जी होते हैं। 
दलित संगठनों और कई राजनीतिक दलों के नेता केंद्र सरकार से इस मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने की मांग करने के साथ ही हिंसा का मूक समर्थन भी करते दिखे। जहाँ राजनेताओं को दलीय भावना से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता और समरसता की भावना को प्राथमिकता देनी चाहिए थी, वहां हिंसा, आगजनी को प्राथमिकता दी गयी। वोट की राजनीति के लिए  स्वार्थ की फूंक से हिंसा को रोज सुलगाया जा रहा है।
शायद इसी कारण ही एक बार फिर कलमकारों ने असली सवाल दबा दिए। क्योंकि जो चेहरे और तस्वीरें सामने आईं हैं जो संशय पैदा करती हैं कि क्या दलित आंदोलन में हिंसा भड़काने में कोई और भी शामिल था? पुलिस ने जब गोलियां नहीं चलाई तो ये मौतें कैसे हुईं? क्या आंदोलनकारी एक दूसरे को मार रहे थे? या कोई और आंदोलन को दूसरी तरफ ले जा रहा था। ये जरुर जांच का विषय है।
यद्यपि किसी भी कानून में सुप्रीम कोर्ट का यह पहला संशोधन नहीं है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने खाप पंचायतों द्वारा बने सामाजिक कानूनों को चुनौती दी थी। इससे पहले जुलाई 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने पति और ससुरालियों के उत्पीड़न से महिलाओं को बचाने वाली भारतीय दंड संहिता की मशहूर धारा 498-ए पर अहम निर्देश जारी किए थे। जिसमें सबसे अहम निर्देश यह था कि पुलिस ऐसी किसी भी शिकायत पर तुरंत गिरफ्तारी नहीं करेगी। महिला की शिकायत सही है या नहीं, पहले इसकी पड़ताल होगी। ऐसा ही कुछ हाल महिलाओं की सुरक्षा के लिए बने कानून की धारा 354 के सेक्शन ए.बी.सी.डी और रेप के खिलाफ बनी कानून की धारा का भी दुरुपयोग बहुतेरे मामलों में झूठा पाया गया। 
अब बीएसपी प्रमुख मायावती शीर्ष अदालत की ओर से किए गए बदलाव के बाद सरकार के रवैये की जमकर आलोचना कर रही हैं, लेकिन 2007 में जब वह उत्तर प्रदेश में सत्ता में थीं तो उस समय उन्होंने इस कानून के हो रहे दुरुपयोग पर राज्य के सभी पुलिस अधिकारियों को निर्देश दिए थे कि जाँच के बाद ही कारवाही हो ताकि किसी निर्दोष को सजा न मिले। किन्तु आज हिंसा को शब्दों और संवेदना की ओट में खड़ा कर जायज सा ठहराने की मांग सी हो रही है।
लेख-राजीव चौधरी

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